मंगलवार, 30 मार्च 2010

सोनचिरैया

सोनचिरैया
पंख फडफडा रही है

जब से मैंने होश सम्हाला
जब से समझने लगा
देश, जनता और विकास के अर्थ
जब से पहचानने लगा    
दुश्मन और   दोस्त के बीच का फर्क
जब से जाना अपने और
देश के बीच का रिश्ता

तब से देख रहा हूँ लगातार
पंख फडफडा रही है सोनचिरैया

क्या वह उड़ान भरना चाहती है
उन्मुक्त, अनंत आकाश में
या नापना चाहती है
पृथ्वी और तारों के बीच की दूरी
या सूर्य की ऊष्मा
महसूसना चाहती है नजदीक से

या वह बताना चाहती है
कि हैं उसके पास
ऊँची उड़ान के सपने
या वह अपना संकल्प तोल रही है
पंखों पर उठने के पहले

या उसे अपने लिए
घोंसला बनाना है
एक दरख्त तलाशना है
ऊँचा और सुरक्षित
ताकि वह रच सके अपना भविष्य
आगे बढ़ा सके
अपने होने का मतलब

या वह आज़ादी के मायने 
बताना चाहती है
अपने परों पर उठकर

या परों को झाड़ रही है सिर्फ 
ताकि उन पर धूल न जमे
या यूँ ही बस पंख फडफड़ाने  के लिए
फडफडा रही है पंख
सोनचिरैया

नहीं उसकी आवाज में वो
चुलबुलापन नहीं है
जो मैंने महसूस किया था
 बहेलियों के चंगुल से
उसकी मुक्ति के बाद

वह उड़ चली थी
असीम गगन की ओर
उसे गम नहीं था
कि उसके सैकड़ों  बच्चे
बलि चढ़ गए थे
निर्मम शिकारियों के हाथ

उसका चहचहाना
नहीं रुका था तब भी
जब वह छूट गयी थी
घने जंगल में अकेली
उड़ चली थी राह बनाती
रौशनी के आकाश की ओर

शायद  वह भूल गयी है उड़ना
या कमजोर हो गए हैं उसके पंख
सपनों का वजन उठाने में असमर्थ
अपनी ही फडफडाहट  से घायल
अपंग, कातर, अभिशप्त

उसकी चोंच में फँसी
हुई है एक गहरी चीख
यह फडफडाहट
मुक्ति के लिए चीत्कार है
उड़ान का पूर्वाभ्यास नहीं

हम सबको मदद के लिए
बुला रही है सोनचिरैया
पंख फडफडा रही है
सोनचिरैया

सोमवार, 29 मार्च 2010

मैं राम की बहुरिया

कबिरा खड़ा बाजार में लिए लुकाठा हाथ,
जो घर फूंके आपना चले हमारे साथ.
कितने लोग हैं जो अपना घर  फूंकने के लिए तैयार हैं. कबीर उन्हें आवाज दे रहा है. जिसमें साहस हो, जिसमें कुछ कर गुजरने की  हिम्मत हो, जिसमें  खुद को मिटा देने का  जज्बा हो, सिर्फ वे ही कबीर के साथ चल सकते हैं.  जो कबीर होने का इरादा रखते हों, केवल वही कबीर की आवाज सुन सकते हैं. कबीर को दुहराना  बहुत आसान है पर कबीर होना बहुत ही मुश्किल. कबीर बहुत आकर्षित करते हैं क्योंकि वे कभी लकीर नहीं पीटते, वे  हमेशा लीक से हटकर चलते हैं. बने-बनाये रास्ते पर तो कोई भी चल सकता है. जिस रास्ते पर पत्थर लगे हों, जिस पर लोग आते-जाते दिख रहे हों, उस पर तो कोई भी चल सकता है. कबीर को ऐसे रास्ते पसंद नहीं क्योंकि उन पर जितने गाँव  पड़ते हैं, जितने कसबे पड़ते हैं, सब के सब पहचाने हुए हैं, उन पर कोई रोमांच नहीं है, कोई मुठभेड़ नहीं है. कबीर को तो मुठभेड़ें पसंद हैं, इसलिए वे अँधेरे से होकर निकलना चाहते हैं, इसलिए वे घने जंगलों से होकर रोशनी तक जाना चाहते हैं.
आप पूछेंगे कबीर को जाना कहाँ है? वे आखिर इतना खतरा क्यों उठाना चाहते हैं? वे मरने को क्यों आमादा हैं. अँधेरे में, जंगल में खतरे हैं, वहां घात लगाये हमलावर  बैठे हैं. कबीर की मंशा क्या है? हाँ, वे मरकर देखना चाहते हैं कि मरना कैसा होता है, मरने के बाद क्या होता है, मरने का मजा क्या है. उनका मानना है कि जो मर सकता है, वही जीने का सच्चा अधिकारी है, जो हर दम मरने को तैयार  है, वही हर क्षण जी सकता है. जो मरने से डरता है, वह जी ही नहीं सकता, वह डरता ही रहेगा. जो हमेशा भय में है, वह जीवन को कैसे प्राप्त कर सकता है. इसे ही कबीर प्रेम का नाम देते हैं. प्रेम करने वाला सर्वोच्च बलिदान के लिए निरंतर तैयार रहता है. प्रिय के लिए वह सबसे प्यारी चीज तोहफा के तौर  पर दे सकता है. किसी भी आदमी के लिए उसका प्राण सबसे प्यारा होता है. जो प्राण निछावर करने को तैयार हो वही प्रेम कर सकता है.
जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहि
प्रेम गली  अति सांकरी जा में दो न समाहि
प्रेम कि गली बहुत तंग होती है. उसमें दो आते ही नहीं. कबीर ने बहुत प्रयोग करके देख लिया. बड़ी कोशिश की कि प्रिय को साथ लेकर चलें. सुहाना सफ़र है. चारों ओर बाग-बगीचे हैं. तरह-तरह के फूल खिले हैं. कल-कल करती नदियाँ बह रहीं हैं. तरह-तरह के रंग-विरंगे पक्षी चहक रहे हैं. शीतल मंद समीर चल रही है. कौन नहीं चाहेगा कि ऐसे मादक मौसम में प्रिय भी साथ हो. पर बड़ी मुश्किल है. मोह, लोभ, एश्वर्य कि खड़ी चट्टानों  के बीच से जो रास्ता जाता है, उस पर दो के जाने की जगह ही नहीं है. गिरने का खतरा है. इसलिए या तो एक को मिटना पड़ेगा या उसे दूसरे में समाना पड़ेगा. कठिन विकल्प है पर कोई और रास्ता ही नहीं है. कौन मिटे? कबीर  प्रियतम को मिटाने की जगह खुद को मिटा देना पसंद करते हैं. और मिटते ही वे उस पार पहुँच जाते हैं, प्रेम की नगरी में दाखिल हो जाते हैं.
कबीर प्रेम रस चख कर प्रसन्न हैं. वे इस राह पर चलने वालों को हिदायत देते हैं. यह प्रेम का घर है, कोई खाला का घर  नहीं कि जब चाहो आओ और निकल जाओ. इस घर में दाखिला तभी मिलेगा जब शीश उतार कर जमीन पर रख दोगे. उन्होंने ऐसा करके देख लिया है. उनके प्रिय राम हैं. वे राम की बहुरिया हैं. राम उनके दिल में बस गया है, अब निकालें तो कैसे. वे खुद ही निकल जाते हैं,  राम को रहने देते  हैं, अपने को मिटा देते हैं. अब तो काम हो गया, राम ही रह गया. पिया है और पिया-पिया की आवाज. यह बात कहने में सीधी लगती है पर इतनी सीधी है नहीं. एक परमात्म से अलग होकर  आतम मैं-मैं चिल्लाने लगा है. उसे सुंदर शरीर  क्या मिल गया, भारी घमंड हो गया है. धन, यश ने इस अभिमान को और बढ़ा दिया है. वह वियुक्त होकर दर्द से छटपटाने की जगह ख़ुशी से सराबोर है, सोचता है, यह सब अनिश्चितकाल तक उसके पास रहेगा. यही मन का अंधकार उसे अपने परम पीव से अलग किये रहता है. कबीर ने इस नाटक को समझ लिया है. उन्होंने जान लिया है कि जो ख़त्म हो जाने वाला है, वह मेरा कैसे हो सकता है, जो नहीं रहने वाला है, वह मेरा कैसे हो सकता है. मेरा तो वही है जो कभी ख़त्म नहीं होता. वही है परम पिया. तभी तो वे गा उठते हैं--दुलहिन गावहु मंगलाचार, मोरे घर आये राजा राम भरतार. और जब घर में भरतार हो तो बहू कि अपनी चलती कहाँ है. उसे अपनी चलानी भी नहीं है, उसने तो अपने पति की बांहों में खुद को डालकर छोड़ दिया है, वह जैसा चाहे करे. यही प्रेम है, सर्वस्व समर्पण ही प्रेम है.
ऐसे प्रेम का ग्राहक है कोई? ऐसा मतवाला है कोई, ऐसा पागल है कोई. सब कुछ लुटाने की हिम्मत वाला है कोई? है तो आये न, कबीर को तलाश है उसकी. उनका अपना कमाल तो नाकारा निकल गया, राम नाम को छोड़कर घर ले आया मॉल. बूडा  वंश कबीर का, उपजा पूत कमाल.पर और जो भी  अपनी बुराइयाँ जला सकता हो, अपना अभिमान फूँक सकता हो, अपना सर कटा सकता हो, उसे कबीर अपने साथ ले जाने को तैयार हैं.

 

रविवार, 28 मार्च 2010

चंद्रशेखर के सुभाष

भास्कर दैनिक समाचारपत्र के जयपुर संस्करण से जुड़े  युवा और तेज-तर्रार कार्टूनिस्ट चंद्रशेखर हाडा ने  मेरा कैरिकेचर बहुत प्यार से बनाया. उनके मन को जो भा जाय, वह उनकी लकीरों और उनके रंगों से बच नहीं पाता है. मेरी उनसे पहले कभी मुलाकात नहीं है पर उन्होंने कहीं मेरी छोटी-सी तस्वीर देखी थी, उसी सूत्र के सहारे वे मुझ  तक पहुँच गए. मैं कहूँगा कि वे मेरे ह्रदय के बहुत नजदीक तक पहुँचने में कामयाब रहे. कलाकार किसी का चेहरा तभी ठीक से देख पाता है, जब वह उसके दिल को पहचान सके. उनकी नजर से मैं अपने को देखकर अभिभूत-सा  अनुभव कर रहा हूँ.आप भी मिलें चंद्रशेखर के सुभाष से.

शनिवार, 27 मार्च 2010

संतन को सीकरी सूं ही काम

पहली नजर में उपर का  शीर्षक   ज़रूर पाठकों को अटपटा  लगेगा पर  सच्चाई से मुंह मोड़ना रचनाकार का काम नहीं हैरहे होंगे कभी संत कवि कुम्भन दास। जाने किस भावावेश   में कह  गए, संत को कहाँ सीकरी सूं कामजबकि इतिहास गवाह है कि हमने हमेशा सत्ता के गलियारों के आश्रय में जीवन बिताया है, सत्तानायकों का स्तुतिगान किया है, उनकी कथित वीरता का बखान किया है, उनकी मनोत्तेजना बढ़ाने के लिए नायिका के स्वरूप का नख-शिख  वर्णन किया है। वह भी बड़ी ही बेशर्मी से. रीतिकाल हमारी कविता और साहित्य में कलात्मक नजरिये से शायद इसी लिए स्वर्ण काल माना जाता है
कितने मजे थे कि हम राजा-महाराजाओं  की प्रशंसा में एक पद या दोहा लिखकर  गा दें तो भरपूर  इनाम-इकराम मिलता  था, अशर्फियाँ बरसतीं थीं। अगर   आका ज्यादा  मेहरबान हो गए तो रंक से उठकर जमींदार बन जाना बड़ी बात नहीं थीअब भी कमोबेश वही हालत है. युग तो बदला लेकिन प्रवृति नहीं बदली। राजा-महाराजाओं के स्थान पर हमारे कवियों के आराध्य प्रच्छन्न लोकतंत्र के तथाकथित राजा हो गए है। कोई कवि किसी का  चालीसा लिख रहा  है तो कोई किसी की रामायण। इसके पुरस्कार   के रूप में उन्हें सत्ता के गलियारे में जगह भी मिल जाती है
संत कबीर  ने किसी सत्तानायक या मठाधीशों की स्तुति नहीं कीअतः वे मात्र दलितों मार्क्सवादियों तक ही सीमित रह गए। तुलसीदास ने अपने आराध्य  के लिए दास्य भाव से ओतप्रोत ग्रन्थ लिखाइसका सुपरिणाम यह हुआ कि  आज भी रामचरितमानस का जन-जन में प्रसार-प्रचार है। वह मंदिरों मठों की शोभा  बनी हुई हैअब जिस कविता से तो समाज का सम्मान मिले और ही इनाम-इकराम मिले तो क्या फायदा ऐसी कविता से।
इस सच्चाई को कुछ कवियों ने पहचान लिया और वह जुट गए अपने आराध्यों की चरण वंदना करने में. जिन्होंने कबीर  को अपनाआदर्श माना, वे आज भी सत्ता के गलियारों से काफी दूर है तो उन्हें किसी अकादमी का अध्यक्ष  बनाया   गया और ही किसी संस्थान का उपाध्यक्ष. तो ऐसे लोगों को यश भारती मिला और ही कोई अन्य राजकीय सम्मानअब आप ही बताइए कि  साहित्य अब जनता के लिए कहाँ लिखा जा रहा है। अगर  लिख भी लें तो जनता क्या देगी। हमें  भी विलासिता के सभी साधन भोगने का अधिकार है या नहीं, अपने लिए जमीं -जायदाद बंबानी है या नहीं, बच्चों के लिए अच्छा ख़ासा बैंक बैलेंस छोड़ना है या नहीं
बेशर्मी के इस गुर में  हम राजनीतिकों से भी आगे है। राजनेताओं  में थोड़ी सी शर्म  और हया बाकी हैयही कारन है कि  सत्ता परिवर्तन के बाद वह अपने आका द्वारा दिए गए पदों को तत्काल ही छोड़ देते हैं, लेकिन  हमारे संत कवियों को जनता से कोई मतालब ही नहीं हैयहाँ हम नेताओं को भी  पीछे छोड़ देते हैंइन्हें जनता की किसी प्रतिक्रिया से कोई अंतर नहीं पड़तावैसे अधिकांश  कवियों के असली पारखी  कवि सम्मेलनों के गैर साहित्यिक आयोजक-संयोजक, राजनेता और शिक्षा  तथा अकादमिक संस्थानों के सर्वेसर्वा ही  हैं। 
यही कारन है कि  साहित्य संस्कृति के इन कथित पुरोधाओं  को उनके परिजन ही याद करते हैंआखिर वह क्यों करेंउन्होंने जिन्दगी भर जैसे-तैसे जो कुछ भी कमाया, वह केवल परिवार के लिए ही कमायाकभी किसी कवि या शिष्य की कोई मदद नहीं कीअतः ऐसे कथित कवियों को लोग क्यों याद करें
कुछ लोगों को मलाल है कि  युवा साहित्यकारों का सम्मान नहीं करतेसाहित्य की गरिमा और स्वाभिमान के लिए उनके दिल में कोई सम्मान नहीं हैवह दिशाभ्रमित हो गए हैं. सवाल है कि साहित्य की युवा पीढ़ी  इन मठाधीशों का सम्मान क्यों करेअगर यह महाविद्यालय अथवा विश्वविद्यालयों में हिंदी की बड़ी कुर्सी पर विराजमान होते हैं  तो इन्हें प्रवक्ता, रीडर, प्रोफ़ेसर पद के लिए केवल अपने लडके-लड़कियाँ ही नज़र आते हैंजो शिष्य उनके प्रति अगाध श्रद्धा  रखता है, उनके नित्य चरण स्पर्श  करता है, जब वह यह देखता है कि  महाविद्यालय अथवा विश्वविद्यालयों में जब नौकरी कासमय  आता है तो गुरुवर को    केवल अपनी पत्नी, पुत्र, पुत्री अथवा परिवार के सदस्य ही नज़र आते हैं. इसका प्रमाण  देश के उच्च शिक्षा  संस्थानों के हिंदी विभागों में साफ़ देखा  जा सकता हैआज भी शिष्य एकलव्य कि तरह  अपना कटा अंगूठा लेकर   नौकरी के लिए दौड़  रहा है
अब निराला का दौर समाप्त हो गया हैदिनकर की हुंकार भी स्वार्थ के शोर में दब गयी हैबाबा नागार्जुन का साहित्य हाशिये पर हैअब जमाना केवल उन लोगों का है जो बदलती सत्ता के साथ अपनी निष्ठा और आस्थाएं बादल लेंनैतिक मूल्यों को तिलांजलि दे दें और स्वाभिमान को कमीज़ की तरह उतार  कर खूँटी पर टांग दें
यही कारन है ki साहित्य के ये मठाधीश  आम जनता की निगाहों में बेगाने से रहते हैं । जिन गरीब मज़दूरों पर यह कविता लिखते हैं, उन्हें अपने पास बैठाना या उनके घर जाना अपना अपमान समझते  हैं। ऐसे में  जनता  भी un बेकार लाशों को कब तक और क्यों ढोए   जो उनके लिए अपनी कविता में तो घडियाली ऑंसू तो बहते हैं लेकिन उनके ऑंसू पोंछने  की जगह अपना बड़ा पेट भरने में ही लगे रहते हैंआखिर कितना बड़ा है इनका पेट?
संतन को सीकरी सूं ही काम

शुक्रवार, 26 मार्च 2010

दोगलापन: भाषा का या चरित्र का (पहला भाग)


भाषा भी क्या चीज है। आदमी को जानवर से इन्सान बना देती है। जब मनुष्य को बोलना नहीं आता था तो वह संकेतों से संवाद कर लेता था। उसके आंसू बता देते थे, वह दुखी है। ठहाके उसकी ख़ुशी बयाँ करते थे। लाल आँखें और फड़कते होठ उसका गुस्सा जाहिर करते थे। वह अन्दर जो कुछ भी सोचता, महसूस करता था, वही उसके चेहरे पर भी छा जाता था. पर जब से उसने भाषा सीखी, वह झूठ बोलने लगा. वह अपने पड़ोसी का दुःख देखकर भीतर से खुश होता है लेकिन बाहर रोने का नाटक करता है। पड़ोसी का जमता व्यापार उसे परेशान करता है लेकिन ऊपर से गदगद होने का ड्रामा करता है. जब से उसने भाषा सीखी, उसे झूठ बोलने आ गया. जब से सभ्य हुआ, वह असभ्य हो गया. नेताजी भाषण देते हैं, हमे एक बार मौका दीजिए, गरीबी मिटा देंगे , हर हाथ को काम देंगे दूध की नदियाँ बहा देंगे । समाज में अमन कायम कर देंगे । चोरों को दंड मिलेगा। हर अमीर गरीब के जीवन और संपति की सुरक्षा होगी। पर नेताजी जब कुर्सी पा जाते हैं तो सारे वादे भूल जाते हैं। गरीबी मिटती है पर जनता की नहीं, नेता के घर की. इसकी रफ्तार इतनी तेज होती है कि देखते-देखते नेताजी का हुलिया बदल जाता है. कई शहरों में उनकी आलीशान कोठिया खड़ी हो जाती हैं, घर के हर सदस्य के लिए महँगी कारें आ जाती हैं, देशी-विदेशी बैंकों में अकूत धन जमा हो जाता है, करोड़ों-अरबों के ठेकों और व्यावसायिक प्रतिष्ठानों में उनकी हिस्सेदारी हो जाती है. वह काम और दाम की भी व्यवस्था करते हैं, पर जनता की नहीं, अपने नातेदारों-रिश्तेदारों की.. किसी को ठेका तो किसी को ऊपरी आमदनी वाली नौकरी. दूध की नदियाँ बहती हैं लेकिन उनके रास्ते जनता- जनार्दन के दरवाजे से न होकर उनके खुद के द्वार से होकर गुजरते हैं। उनकी कोशिश होती है कि उनके घर में अमन-चैन रहे पर सत्ता में बने रहने के लिए वह समाज को टुकड़ों में बाँटने से बाज नहीं आते. वे दंगे करवाते हैं. इसके लिए वे बदमाशों का इस्तेमाल करते हैं, उनकी हर तरह से रक्षा करते हैं, उन्हें जेल जाने से बचाते हैं, पनाह देते हैं. सजा से बचाते हैं. वे और उनके गुर्गे बेवा, अनाथ की संपत्ति हड़पते हैं. जनता के नाम पर आये धन को हड़पने के इंतजाम में दिन-रात लगे रहते हैं. उनके गुर्गों की फ़ौज दिन-रात अनैतिक और अवैध कामों को अंजाम देने में लगी रहती हैं। समाज का बड़ा हिस्सा अभावों और अत्त्याचार के अँधेरे में जीता है और नेताजी ऐश करते हैं। चुनावों के वक्त उन्होंने जनता से रामराज का वादा किया था लेकिन जनता के हाथ में आया दरिद्रता और भयराज. असली रामराज नेताजी के दरबार में आया. नेताजी ने जो कहा, किया उसका ठीक उल्टा. नेताजी की भाषा संसद में कुछ और होती है और सडक पर कुछ और. जारी.........

ग़ज़ल पर दुष्यंत

साए में धूप संग्रह से ------
मैं स्वीकार  करता हूँ...
..कि ग़ज़लों को भूमिका की जरूरत नहीं होनी चाहिए, लेकिन एक कैफिअत  इनकी भाषा के बारे में जरूरी है. कुछ उर्दू-दां दोस्तों ने कुछ उर्दू शब्दों के प्रयोग पर ऐतराज किया है. उनका कहना है कि शब्द शहर नहीं शह्र होता है, वजन नहीं वज्न होता है.
..कि मैं उर्दू नहीं जानता , लेकिन इन शब्दों का प्रयोग यहाँ अज्ञानतावश नहीं, जानबूझकर किया गया है. यह कोई मुश्किल काम नहीं था कि शहर क़ी जगह नगर लिखकर इस दोष से मुक्ति पा लूँ, किन्तु मैंने उर्दू शब्दों को उस रूप में इस्तेमाल किया है, जिस रूप में वे हिंदी में घुल-मिल गए हैं. उर्दू का शह्र हिंदी में शहर लिखा और बोला जाता है; ठीक उसी तरह जैसे हिंदी का ब्राह्मण उर्दू में बिरहमन हो गया है और ऋतु रुत हो गयी है.
...कि उर्दू और हिंदी अपने-अपने सिंहासन से उतरकर जब आम आदमी के पास  आती हैं तो उनमें फर्क कर पाना  बड़ा मुश्किल होता है. मेरी नीयत और कोशिश यह रही है कि इन दोनों भाषाओँ को ज्यादा से ज्यादा करीब ला सकूँ. इसलिए ये गज़लें उस भाषा में कही गयी हैं, जिसे मैं बोलता हूँ.
..कि ग़ज़ल की विधा एक बहुत पुरानी किन्तु सशक्त विधा है, जिसमे बड़े-बड़े उर्दू महारथियों ने काव्य रचना की है. हिंदी में भी महाकवि निराला से लेकर आज के गीतकारों और नए कवियों तक अनेक कवियों ने इस विधा को आजमाया है. परन्तु अपनी सामर्थ्य और सीमाओं को जानने के बावजूद इस विधा में उतरते हुए मुझे आज भी संकोच तो है, पर उतना नहीं, जितना होना चाहिए था. शायद इसका कारन ये है की पत्र-पत्रिकाओं में इस संग्रह की कुछ गज़लें पढ़कर और सुनकर विभिन्न वादों, रुचियों और वर्गों की सृजनशील प्रतिभाओं ने अपने पत्रों, मंतव्यों एवं टिप्पणियों  से मुझे एक सुखद आत्मविश्वास दिया है. इस नाते मैं उन सबका अत्यंत आभारी हूँ.
..और कमलेश्वर! वह इस अफसाने में न होता तो ये सिलसिला शायद यहाँ तक न आ पाता. मैं तो....
हाथों में अंगारों को लिए सोच रहा था
कोई मुझे अंगारों की तासीर बताये.

गुरुवार, 25 मार्च 2010

प्रगति के नए प्रतिमान

बंधू आगे बढ़ता  चल,
सबका माल पचाता  चल
अगर तरक्की करनी है तो
टंगड़ी मार गिराता  चल

सच्चाई को आग लगा दे,
भाईचारे को दफना दे
उन्हें डुबोकर बीच भंवर में
अपनी कश्ती पार लगा ले
झूठ  फरेबों की नदियाँ में
गोते खूब लगाता चल.........

अगर कवि बनना  है बन्दे,
चाटुकारिता सीखले मंडे
इधर उधर की कविता लेकर
डाल दे तुकबंदी के फंदे
साहित्यिक चोरी को अपना
मान के धरम निभाता चल.......
गर नेता बनाना है लाले,
बेशरमी को गले लगा ले
ठगी दलाली और चंदे की
सदाबहारी फसल उगा ले
विश्वासों में भोंक के  खंजर
गुंडों को गले लगाता  चल.....

यदि बनना  चाहो पत्रकार
करो सच्चाई का तिरस्कार
सच का झूठ  और झूठ का सच
कर शब्दों का ऐसा चमत्कार
दारू पीकर माल पचाकर
अपनी कलम चलाता  चल....

थानेदार का यदि सपना है,
 चोर बलात्कारी अपना है
रिश्वत तेरा सगा बाप है,
फिर भी राम राम जपना है
मां  बहनों से जोड़ के  रिश्ता
गाली बेख़ौफ़ सुनाता चल.......

शिक्षक पद यदि तू पा जाये,
ट्यूशन की तू नाव चलाये
शिक्षण  करम छोड़कर प्यारे
फ़ोकट का तू वेतन पाए
कर तिकड़म नेतागीरी,
विद्या की लाश उठाता  चल.........

सोमवार, 22 मार्च 2010

बोलना है तो सोचना है

सिपाही सोचता नहीं है. उसे बताया जाता है कि उसे सोचना नहीं है. उसे सिर्फ करना है. उसके हाथ में बन्दूक थमा दी गयी है. वह पूरी तरह लोडेड है. उसकी पेटी में और भी कारतूस  हैं. जरूरत पड़ने पर वह उनका इस्तेमाल कर सकता है. उसे ट्रेनिंग दी गयी है. पूरी तरह फिट रहना सिखाया गया है. उसे निशाने पर सही वार करना भी बताया गया है. उसे लड़ने की सारी कला सिखाई गयी है. बचना भी बता दिया गया है. अब वह रणभूमि में है. असली जगह, असली प्रयोगशाला में. उसे केवल अपना काम करना है, लड़ना है. दुश्मन की पहचान भी उसे बता दी गयी है. हुक्म  दे दिया गया है. अब उसे सोचना नहीं  है. अपना सारा समय दुश्मन को पराजित करने या उसे मार देने में लगाना है. अगर वह सोचने लगा तो हो सकता है, शत्रु के हाथों मारा जाये, गंभीर रूप से घायल  हो जाये. सोचने से उसे नुकसान हो सकता है. सोचने का काम दूसरे लोग कर रहे हैं इसलिए इस पचड़े में उसे नहीं पड़ना है. अगर उसने ऐसा किया तो उसकी जान जा सकती है, वह मेडल से वंचित हो सकता है, वह देश के लिए कलंक साबित हो सकता है.
हर सिपाही को ऐसा बता दिया जाता है. असल में सेना या पुलिस में हर मातहत अपने अधिकारी के सामने सिपाही की ही तरह व्यवहार करता है. चाहे वह कितना ही बड़ा अधिकारी क्यों न हो, वह अपने बॉस के आगे अदने सिपाही की ही तरह होता है. उसे सिर्फ सुनना होता है, सवाल की अनुमति नहीं होती. जो सुनता है, उसे मानने के अलावा कोई और चारा नहीं होता. यही अनुशासन है. सवाल करना अनुशासनहीनता है और ऐसा करने से वर्दी जा सकती है. सेना और पुलिस का यह अनुशासन धीरे-धीरे पत्रकारिता में भी प्रवेश  कर रहा है. इसलिए कि यहाँ  भी सभी रणभूमि में हैं. संकट यह है कि सभी बिना हथियार के हैं. अपने लिए हथियार भी तलाशना है, लड़ाई भी करनी है और जीतनी भी है. हारे तो बाहर होंगे, बचेगा केवल हरिनाम. लड़ाई भी अपनी-अपनी. मदारी की तरह भीड़ जुटानी है, कैसे, यह आपको तय करना है. मदारी चौराहे से थोडा हटकर बैठ जाता है, डमरू बजाता है, जोर की आवाज लगाता है. जब कुछ लोग उसे घेरकर खड़े हो जाते हैं तो सांप की खाल हाथ में लहराता हुआ ऐलान करता है कि सभी साँस रोके  खड़े रहें, अभी थोड़ी देर में यह मरा हुआ सांप फुँकार कर उठ खड़ा होगा. बस थोड़ी ही देर में, हाँ थोड़ी ही देर में. फिर जोर का डमरू बजाता है. भीड़ बढ़ती जाती है, वह बीच-बीच में अपने सधे हुए बन्दर को कटोरे के साथ लोगों के पास दौड़ाता है और बार-बार ज्यादा से ज्यादा ऊँची आवाज में सांप के उठ खड़े होने की याद दिलाता है. लोग आते रहते हैं, जाते रहते हैं. भीड़ बनी रहती है. बंदर पैसा इकठ्ठा करता रहता है. खेल-तमाशे के आखिर तक सांप की खाल फन फैलाकर खड़ी नहीं होती. खेल ख़त्म हो जाता है, मदारी अपना झोला उठाता है और दूसरे ठिकाने की ओर चल पड़ता है.
कुछ ऐसा ही खेल आजकल पत्रकार भी खेल रहे हैं. भीड़ जुटानी है. ज्यादा से ज्यादा दर्शक जुटाने हैं, अधिक से अधिक पाठक जुटाने हैं. कलम की  इस दुनियां में बने रहने की यह एक अनिवार्य शर्त है. दिन भर दिमाग में यही चल रहा है कि भीड़जुटाऊ खबर क्या हो सकती है, कहाँ मिल सकती है. कोई श्मशान की ओर भागा  जा रहा है. पता चला है कि वहां एक तांत्रिक आया है, वह मुर्दे खाता है, पंचाग्नि के बीच बैठा रहता है. किसी ने बताया कि वह जिसे अपने हाथ  से भस्म दे दे, उसका कल्याण हो जाता है, बड़ा से बड़ा काम हो जाता है. कोई राजधानी से सौ किलोमीटर दूर एक गाँव की ओर निकल पड़ा है. किसी ने फोन पर बताया कि वहां एक दिव्य बालक का जन्म हुआ है. उसका मुंह घोड़े जैसा है, उसका दिल पसली के बाहर एक पतली झिल्ली में लटका हुआ है और वह धड़कता हुआ साफ दिख रहा है, उसके सर पर एक भी बाल नहीं है पर वहां लाल त्रिशूल बना हुआ है. वह साक्षात् अवतार लगता है, ऐसा अवतार, जिसमें नर और पशु दोनों एक साथ परिलक्षित हो रहे हैं. कोई शहर के बड़े होटल की ओर सबसे पहले पहुँचने की कोशिश में है. खबर है कि वहां एक बाबा छिपा हुआ है, जो भगवा की आड़ में सेक्स रैकेट  चलाने  का आरोपी है. सुना जा रहा है कि उसके कुछ बड़े नेताओं से भी रिश्ते हैं. सभी कुछ ऐसा ढूंढ़ रहे हैं, जो ब्रेकिंग न्यूज बन सके और जिसके चलते सारी जनता उसके चैनल की दीवानी हो जाये. वाह क्या जलजला  लेकर आया, मजा आ गया, शाबाश. प्रिंट का भी यही हाल है. फैशन शो में किसी की चड्ढी सरक गयी, इससे बड़ी खबर क्या हो सकती है. किसी बदमाश, डकैत ने मंदिर में मां को सोने का मुकुट चढ़ाया है, शहर के उम्रदराज मशहूर नेता की कमसिन बीवी पहली बार माँ बनी है. उसके घर हिजड़े जमा हो गए हैं और वे बच्चे की माँ के कान में पड़े सोने के कुंडल से कम कुछ लेने को तैयार नहीं हैं.
सिपाही पत्रकार  बेचारे क्या करें, संपादक ने कहा है, कुछ ऐसा ले आओ, जो धूम मचा दे, बिजली गिरा दे, धुआं कर दे. कुछ ऐसा ले आओ, जो लोगों को बेचैन कर दे, उनकी नींद हराम  कर दे. कोई धोबियापाट आजमा रहा है, कोई चकरी  तो कोई जांघघसीटा. सबके अपने-अपने दांव, दांव पर दांव. होड़ है कि कुछ इंनोवातिव करो, कुछ ऐसा करो, जो अभी तक नहीं हुआ. याद करो लक्ष्मण जब परशुराम से नाराज हुए थे तो अपनी ताकत का बयान करते हुए कहा था-कंदुक इव ब्रह्माण्ड उठाऊँ, कांचे घट जिमी दारिउ   फोरी. है न कमाल की बात. अरे भाई जब ब्रह्माण्ड को ही उठा लेंगे तो खड़े कहाँ होंगे? वाजिब सवाल है पर किसे नहीं पता कि  वे  शेषनाग के अवतार हैं. उन्हीं के फन पर धरती टिकी हुई है, उन्हें तो बस फन हिलाना भर है, प्रलय मच जाएगी. फिर कोई पूछेगा कि धरती उनके     फन  पर है तो वे शेषनाग कहाँ टिके होंगे. फिर क्या जवाब दिया जायेगा? अरे एक बार भीड़ जुटा लो यार, कोई ठेका थोड़े ही ले लिया है हर सवाल का जवाब देने का. हर बार नए तरीके अपनाओ और सवालों को नजरंदाज करो. यह आज के संपादकों का गुरु मन्त्र  है. वे भी क्या करें, बेचारे  फँस गए हैं. एक बार मीडिया में आ गए तो आ गए. एक बार संपादक हो गए तो हो गए. वे ही जानते हैं कितने पापड़ बेलने पड़े. अब किसी  भी तरह इस पद पर बने रहना है. और यहाँ बने रहने का एक ही उपाय है, धंधे को बढ़ाते रहना. उसके लिए जो कुछ करना पड़ेगा, करेंगे. जब बॉस  का ये चिंतन है तो बेचारा जर्नलिस्ट क्या करे. उसे तो  बॉस को खुश रखना है. जब तक बॉस खुश तब तक नौकरी पक्की, बॉस  ज्यादा खुश तो प्रमोशन  के भी मौके. ऐसे में सोचने की बेवकूफी कौन और क्यूँ करेगा? उसने जैसा कहा वैसा ही करो. सोचो मत.
आज की पत्रकारिता का यह सबसे बड़ा संकट है. जो सोचने वाले लोग हैं, उनकी जरूरत नहीं है. क्योंकि वे कई बार असहमत हो सकते हैं, नए सुझाव दे सकते हैं. ज्यादा चिंतनशील हैं तो जनहित की बात उठा सकते हैं, मीडिया की जिम्मेदारियों पर बहस छेड़ सकते हैं, उसकी जवाबदेही पर उंगली उठा सकते हैं. मैं नहीं कहता कि ऐसी आवाजें ख़त्म हो गयीं हैं, पर कमजोर  जरूर पड़ गयीं हैं. वे परदे पर मौजूद हैं. उन्हें भी खड़े रहने के लिए धन  की जरूरत होगी, उन्हें भी अपनी दूकान तो देखनी ही है. एक मसीहा को भी सच बोलने के लिए अपना पेट भरना ही पड़ता है. भूखा  रहेगा तो बोलने के पहले  ही मूर्छित हो सकता है, मर भी सकता है. जीना और चलने   की ताकत रखना सामाजिक जिम्मेदारियों को पूरा करने की दिशा में बढ़ने की पहली शर्त है. जिस तरह राजनेताओं के लिए समाज और देश  की  प्रगति, उन्नति को नजर में रखना जरूरी माना जाता है, उसी तरह पत्रकारों के लिए भी होना चाहिए. खबरों के चयन और प्रस्तुति का नजरिया किसी व्यक्ति  या किसी धंधे का मोहताज न होकर  व्यापक चिंतन और सुचिंतित दृष्टि  से संचालित होना चाहिए. तभी पत्रकार  सामाजिक, राजनीतिक बुराइयों से आक्रामक ढंग से जूझ सकेगा, तभी इस लड़ाई के दौरान   आने वाले लोभ  और आकर्षण से वह खुद को बचा पायेगा. ऐसे हालात  कैसे  बनें,  इस पर हम सब को खुलकर सोचना है, आत्मालोचन करना है और सच्ची पत्रकारिता की  क्षीण धारा को वेगवान बनाने के रास्ते ढूंढने हैं.

शनिवार, 20 मार्च 2010

शाहिद नदीम की गज़लें


शाहिद नदीम आगरा में जन्मे. पढाई-लिखाई के बाद उन्होंने अदब और शायरी को अपनी जिंदगी के खास फलसफे की तरह स्वीकार किया और सूरज को भी निगलने की कोशिश में लगे अंधेरों के खिलाफ सच एवं इमान का दिया उठाये निकल पड़े.
वे अदब की हर विधा में लिखते हैं और जो भी लिखते हैं, उसके उम्दा होने में कोई शक नहीं होता. दुनिया भर के तमाम अदबी पत्र-पत्रिकाओं में उनकी रचनाएँ आती रहतीं हैं. शाहिद नदीम साफ और बेबाक गज़लगोई में एक बड़ा नाम है, जिसने आगरा का नाम उर्दू शायरी की दुनिया में रोशन किया है.




१.
चलो मंजर बदल कर देखते हैं.
किसी पत्थर में ढलकर देखते हैं.

कहाँ तक साथ देगी नामुरादी
इसी के साथ चल कर देखते हैं.

यक़ीनन खुद-ब-खुद बदलेंगे चेहरे
बस इक शीशा बदल कर देखते हैं.

सदा कायम रहेंगे  क्या उजाले
अगर यह है तो चलकर देखते हैं.

खुद अपने झूठ की तरदीद करके
इसे सच में बदलकर देखते हैं.

जहाँ अहले-वफा ने सर रखे थे
उन्हीं राहों पे चलकर देखते हैं.

समय की तेज रफ्तारी से आगे
नदीम अब हम निकलकर देखते हैं.

२.
सुनहरी धूप का मंजर सुहाना लगता है.
मगर समझने में इसको जमाना लगता है.

जो हो सके तो नयी रौशनी को अपना लो
तुम्हारी आँख का जुगनू पुराना लगता है.

अब उस जगह पे रुकीं हैं समा अतें मेरी
जहाँ यह  किस्स-ए-गम  शादमाना लगता है.

वह एक धुंधला सा अहसासे-आरजू अब तो
दिलो-नजर के लिए ताजयाना लगता है.

मेरी सजाओं को किस्तों में बांटने वाले
तेरा यह फैसला अब मुनसिफाना लगता है.

मसर्रतों के हवाले से घर के आँगन में
ग़मों की भीड़ का इक कारखाना लगता है.

नदीम मैं नहीं कहता, ये लोग कहते हैं
तेरा यह तर्जे-बयां शायराना लगता है.

३.
नस्ले-आदम के रहनुमाई हो
ख़त्म यह आपसी लड़ाई हो.

इसको कहते हैं गुनाहे-अजीम
पीठ पीछे अगर बुराई हो.

जिन्दा रहती है वह सनद बनकर
बात तहरीर में जो आई हो.

दस्तकें दे के लौट जाती है
जैसे अब नींद भी पराई हो.

हो जो अहसास आदमीअत का
जिंदगी में बड़ी कमाई हो.

नाव कागज की तैर सकती है
शर्त यह है कि रहनुमाई हो.

वह तसव्वुर में ऐसे आये नदीम
जैसे आँगन में धूप आई हो.

४.
उसी फिजां में उसी रंगोबू में ढलना था.
मैं इक दिया था मुझे आँधियों में जलना था.

पुराने लोगों की तहजीब भी बचानी थी
नए ज़माने की तहजीब में भी ढ़लना था.

जहाँ से गुजरी थी मुझ पर कयामते-सुगरा
वहां से जिस्म नहीं जाँ को मेरी जलना था.

मैं जीत लेता हर बाज़ी उससे मगर
अना के पत्तों को अपने जरा बदलना था.

मैं बेअमल था मेरे हर कदम में लगज़िश थी
तू बा अमल था तुझे गिरते ही संभलना था.

मेरे वजूद का हर ज़र्रा जिससे रोशन था
मियां नदीम उसी आदमी से छलना था.

राजनीति में साधु

देश की राजनीति में साधु सन्यासी कोई नई बात नहीं हैप्राचीन काल  से ही ऋषियों का राजनीति में पूरा प्रभाव रहा हैसतयुग से लेकर त्रेता और द्वापर में कई  उदाहरन देखे जा सकते हैं। लेकिन साधुओं पर हमेशा से ही प्रश्न-चिह्न   लगता रहा हैद्रोणाचार्य के ऊपर  यह आरोप था कि वे राजाओं के जरखरीद गुलाम थेउन्होंने कभी अपने धर्म का पालन नहीं किया. वस्तुतः जब योगी राजदरबार में रम  जाता है तो वह भोगी बन जाता हैयोगी से भोगी बनाने वाला इन्सान अधिक नुकसानदेह होता हैवह समाज से कट जाता हैराजसी रोटी खाने के कारन उसकी  तेजस्विता समाप्त हो जाती हैआज के कथित साधु भी राजनैतिक आश्रय तलाशते हैं.  शायद  ही कोई ऐसा संत, महंत होगा जिसके सम्बन्ध किसी नेता से न हों. वास्तव में देश में बड़ी संख्या में कुकुरमुत्तों की तरह उगे साधु विलासिता का जीवन व्यतीत कर रहें hain। उनके ठाट-बाट  देखकर पूंजीपति भी शरमाते हैं. इश्वर के प्रति  आस्था का ढोंग रखने वाले यह साधु अपनी सुरक्षा के लिए हथियारबंद लोगों को साथ रखते हैं.उन्हें अपनी जान की चिंता क्यों है, अगर वो बीतरागी हैं .