शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010

क्रूरता की कोई पराकाष्ठा तो होगी

बचपन में आप ने भी सुना होगा। बड़े-बूढ़े अक्सर कहते सुने जाते हैं-सर्वेगुणा कांचनमाश्रयन्ती यानि सारे गुण कंचन में आश्रय ग्रहण करते हैं। जिसके पास धन-संपदा है, उसका समाज सम्मान करता है, उसे सभी बड़ी कुर्सी देते हैं, उसकी प्रशंसा होती है। जो लोग उससे कुछ पाना चाहते हैं, वे चारणों की तरह उसके आगे-पीछे डोलते हैं। यह बात तो पुराने जमाने से चली आ रही है परंतु धन का लोभ आदमी को कितना निर्मम बना देता है, यह आज के युग में दिखायी पड़ रहा है। आदमी धन के लिए क्या-क्या कर सकता है, आप कल्पना नहीं कर सकते। धन-संपत्ति के लिए किसी की भी हत्या कर देना मामूली बात हो गयी है, लोग अपने सगे-संबंधियों को भी नहीं छोड़ते हैं।

परंतु जो काम उत्तर प्रदेश के सीआरपीएफ के कुछ सिपाही कर रहे थे, वह तो अत्यंत घृणास्पद है, अस्वीकार्य और शर्मनाक है। अभी दांतेवाड़ा में इसी सीआरपीएफ के 76 बहादुर जवान नक्सलियों की गोलियों से शहीद हो गये। उनकी मांएं, उनके बच्चे, उनकी पत्नियां अब कभी उन चेहरों को नहीं देख पायेंगी, उन्हें पूरे जीवन उनकी कमी खलती रहेगी। उन्हें नक्सली अपराधियों के दुर्दान्त कारनामे हमेशा दर्द देते रहेंगे। इन परिवारों की अंतहीन पीड़ा में थोड़ी देर के लिए भले ही पूरा देश शामिल हुआ हो, भले ही हमारी, आप की आंखें इन बिलखते परिवारों की त्रासदी से द्रवित हो उठीं हों, पर कठोर सच यह है कि कभी खत्म न होने वाले दर्द के साथ तो उन परिवारों को ही जीना पड़ेगा, जिनके बच्चों ने समाज और देश की सुरक्षा के लिए कुर्बानी दे दी।

इन घरों में छोटे बच्चों का बचपन छिन गया होगा। वे उदास और गुमसुम होकर दिल को इस छलनी कर देने वाली याद के साथ अपनी राह पर बढ़ेंगे, कभी नहीं भूल पायेंगे कि उनके सिर से बाप का साया छीन लिया गया है। शहीदों के भाइयों को लगता रहेगा कि उनका एक बाजू कट गया है। जो बूढ़े होंगे, उनकी धीमी पड़ती सांसों में जिंदगी की निरर्थकता की घुटन समा गयी होगी। मांएं अब भी भूल जाती होंगी और दरवाजे पर आकर देखने लगती होंगी कि शायद उनके बच्चे लौट आयें। पगला गयी होंगी वो। पत्नियों की जिंदगियां पहाड़ हो गयी होंगी, कैसे ढोयेंगी वे इस वजनी अंधेरे को। सोचकर मन में आंसू के बादल घुमड़ने लगते हैं।

लेकिन जब किसी को यह पता चले कि इन शहीदों के जिस्म उन्हीं गोलियों से छलनी हुए होंगे, जो इनके ही सहकर्मियों ने सरकारी शस्त्रागारों से चुराकर चंद सिक्कों के बदले नक्सलियों को सौंपे थे, तो कठोर से कठोर व्यक्ति का मर्म भी विगलित हो उठेगा। आह, अपने ही हाथों से भाइयों के कत्ल जैसा है यह। अपने ही घरवालों की जिंदगी कसाइयों के हाथ बेचने जैसा है यह। यूपी की राजधानी लखनऊ में सीआरपीएफ के आधा दर्जन जवान पकड़े गये हैं, जो सरकारी कारतूस, बारूद और बंदूकें माओवादी हत्यारों को बेच रहे थे। यह काम अरसे से चल रहा था। इनका रैकेट प्रदेश के कई जिलों में फैला हुआ था। उन सबको पकड़ने के लिए तेजी से कार्रवाई चल रही है। जिनसे देश लड़ रहा है, उन्हें हथियार मुहैया कराने वाले ये सरकारी मुलाजिम माओवादियों से भी क्रूर और भयानक हैं। ऐसे लोगों को हमारे समाज में जीने के अधिकार से वंचित कर देना चाहिए। तुरंत, बिना देर किये। अदालत जो करे पर जनता से पूछिये, उसका जवाब यही होगा, इन्हें फांसी पर लटका दो।

हम आखिर लिखते क्यों हैं

आखिर हम लिखते क्यों हैं? लिखना कोई रोग है या मजबूरी या कुछ और? इससे क्या हासिल हो सकता है? इन सवालों पर आप क्या जवाब देंगे? लिखना कुछ भी हो सकता है। कोई जरूरी नहीं कि वह साहित्य ही हो। लिखने वाला नहीं जानता कि वह जो लिख रहा है, वह साहित्य के रूप में जाना जायेगा या नहीं फिर भी वह लिखता है। यह भी जरूरी नहीं कि लिखने का कोई उद्देश्य हो। कभी-कभी लिखना आदत जैसा होता है। बिना लिखे चैन नहीं मिलता, मन भटकता रहता है, अस्थिर बना रहता है, कुछ खोया-खोया सा लगता है। लिखने के एकदम पहले मन कहीं टिकता नहीं, कोई आ धमके तो उससे बात करने का जी नहीं होता, कोई बुला दे तो गुस्सा आता है।

कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो लिखने के पहले उसके ढांचे, उसकी भाषा, उसके प्रभाव, उसके उद्देश्य पर गौर करते हैं। उनका लिखना नियोजित होता है। जैसे कोई खंडकाव्य, महाकाव्य या चरित काव्य लिख रहा है तो पूरा इतिवृत्त उसके सामने है। उस पर पहले भी बहुत कुछ लिखा गया है, इसलिए उसका व्यापक संदर्भ भी मौजूद है। अगर केवल काव्य-रुपांतरण करना है, कहानी याद भर दिलानी है तो कोई कठिनाई नहीं है। इसलिए कि तब लेखन यांत्रिक हो जायेगा। बुद्धि केवल शिल्प पर केंद्रित रहेगी। यह तीसरे दर्जे का लेखन है क्योंकि इसमें अपने भीतर का स्फुलिंग काम नहीं आयेगा, अपनी मेधा की चमक प्रकट नहीं होगी। जब दृष्टि उधार की हो तब ज्यादा कुछ करना नहीं होता। आप कहेंगे कि वाल्मीकि ने रामायण लिख दी थी फिर तुलसीदास ने रामचरितमानस लिखकर तीसरे दर्जे का काम किया। नहीं, यही तो मैं बताना चाहता हूं। तुलसी वाल्मीकि से भी बड़े हो गये क्योंकि उन्होंने न केवल इतिवृत्त में परिवर्तन किया बल्कि सारे पात्रों को नयी युगानुरूप दृष्टि दी। यही उन्हें बड़ा बनाती है। अगर आप यांत्रिक होकर अनुकरण नहीं करते हैं और रचना को अपनी सार्थक युगीन दृष्टि दे पाते हैं तो वह अपने-आप बोलेगी, बड़ी नजर आयेगी। यह इस बात पर निर्भर करता है कि आप के पास वह दृष्टि है भी या नहीं।

साहित्य से इतर भी लिखना होता है। सामाजिक, राजनीतिक जड़ता के खिलाफ, भ्रष्टाचार के खिलाफ, लोगों की तटस्थता के खिलाफ, सामाजिक विषमताओं के खिलाफ, सरकारी उदासीनता के खिलाफ और जो कुछ भी सड़ता, बजबजाता, गंधाता दिखायी पड़ता है, उसके खिलाफ। ऐसा लेखन पत्रकारीय भी हो सकता है और साहित्यिक भी। ज्यादातर स्वतंत्र और चेतन पत्रकार परिवर्तन के लिए लिखते हैं। यह अलग बात है कि उनका लेखन नियोजित और संस्थागत पत्रकारिता से निकलती तमाम परस्परविरोधी और अलक्षित आवाजों के बीच बहुत असर नहीं दिखा पा रहा है। पूंजी से नियंत्रित मीडिया ने जिस व्यावसायिक लेखन को प्रश्रय और विस्तार दिया है, उसकी तो चर्चा भी बेमानी है। वह तो सिर्फ धन कमाने का जरिया है। पत्रकारों को इसलिए लिखना होता है क्योंकि उन्हें इसके लिए वेतन मिलता है। एक साहित्यकार खबरों में अपने युग को ढूढ़ता है और यही बोध उसे साधारण पत्रकारीय फलक से ऊपर ले जाता है।

कुछ भी अंट-शंट लिखना हो तो कोई बात नहीं लेकिन उच्च कोटि की रचना लिखी या कही नहीं जाती। मशहूर कथाकार डा. प्रेम कुमार का मानना है कि वह सिर्फ होती है, भीतर चेतन के सबसे ऊर्जस्वित क्षेत्र में एक विस्फोट की तरह पैदा होती है और विद्युत की तरंगों की तरह विस्तार ग्रहण करती है। जिसके भीतर से रचना जन्म लेती है, उसे पता ही नहीं चलता। भाव की आत्यंतिक उत्कटता और विचार का सघन प्रवाह उसे आगे बढ़ाता है और एक छोर से दूसरे छोर तक नदी की धार की तरह बहा ले जाता है।

जैसे बादल का बरसना कोई एक दिन की प्रक्रिया नहीं होती। गर्मी सागर की सतह से वाष्प पैदा करती है। यह वाष्प ऊपर उठती है। सागर की इतनी विशाल सतह से उठती वाष्प उमड़ती-घुमड़ती हुई हवा के साथ बहती चली जाती है। दूर खड़ा एक पहाड़ उसे रोक देता है, ऊपर की ठंड उसे पानी में बदल देती है। हम बारिश देखते हैं तो सागर तक कहां पहुंचते? इसी तरह मनुष्य के भीतर विशाल आकाश में बाहर के समाज, देश और परिस्थिति की विडंबनाओं से पैदा हुए विचार और भाव के बादल सघन से सघनतर होते जाते हैं। समय का कोई क्षण उसमें विस्फोट पैदा कर देता है, उसे पिघला देता है और अतिचेतन से रचना बरसने लगती है। रचनाकार के सामर्थ्य से उसके भीतर स्थित कला स्वयं ही उसे धारण लेती है। बरसते मेघ का पानी जैसे घट में ठहर जाता है, वैसे ही रचना रचनाकार की मेधा में बुनी हुई संश्लिष्ट कला में उतरकर ठहर जाती है। यह साधारण आदमी के वश की बात नहीं। जो रचता है, उसे भी नहीं मालूम होता कि रचना आखिर कैसे हुई। इसलिए कहना पड़ेगा कि लिखना तो नियोजित कारोबार है लेकिन रचना स्वत:स्फूर्त कलात्मक स्फोट। वह रचनाकार की संवेदना, उसकी दृष्टि और उसके हेतु में स्वयं ही लिपटकर बाहर आती है। श्रेष्ठ रचना स्वयं ही स्वयं को रचती है, तभी तो वह केवल होती है।

गुरुवार, 29 अप्रैल 2010

आदमी कुछ सीखता नहीं

एक खिले हुए फूल के पास से
जो भी गुजरेगा
हत्यारा या बलात्कारी
संत या बीतरागी
महंक सबके पास जायेगी
बिल्कुल एक जैसी
कोई भी पास आये
फूल नहीं रोकता
अपनी सौंदर्य-गंध को
वह सिर्फ महंकना जानता है

नदी के तट
सबके लिए खुले रहते हैं
जो चाहे, आये
किनारे बैठे या डुबकी लगाये
चोर हो, बेइमान हो या साधु
या जानवर ही क्यों न हो
नदी नहीं रोकती किसी को
अपने पास आने से
अपने भीतर उतरने से
वह सिर्फ बहती रहती है

पहाड़ खड़े रहते हैं
अपने समूचे सौंदर्य के साथ
जो भी चाहे
उन पर चढ़ सकता है,
उन्हें तोड़ सकता है
उनके भीतर
गहरी, अनजान गुफाओं में
घुस सकता है,
उन पर उगे पेड़ों से
तोड़ सकता है फल
जितना चाहे
उनकी चोटियों पर
जमी बर्फ को निहार सकता है
अपलक, निरंतर
पहाड़ सिर्फ खड़े रहते हैं

सूरज निकलता है
रोशनी फैलाता हुआ
घर-घर, आंगन-आंगन
वह रावण और विभीषण में
फर्क नहीं करता
गरीब और अमीर में
अंतर नहीं देखता
वह सिर्फ अंधेरे से लड़ता है
रोशनी फैलाता है

आदमी कुछ सीखता नहीं
न फूल से, न नदी से
न पहाड़ से, न सूरज से
इसीलिए वह पूरा
आदमी नहीं हो पाता

बुधवार, 28 अप्रैल 2010

देश बेचकर ऐश

 

क्या हो गया है इस देश को, समझ में नहीं आता। भरोसा नहीं होता कि यह वही देश है, जहां विवेकानंद ने जन्म लिया, जहां रामकृष्ण और रमन जैसे ज्ञानवान संत हुए, जहां गांधी, गोखले, तिलक, चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह, अश्फाक उल्ला खान और सुभाष चंद्र बोस जैसे उत्कट देशप्रेमियों के चरण पड़े। क्या यह वही देश है, जहां से ज्ञान का प्रकाश सारी दुनिया में फैला? फिर यहां के लोगों में इतना अज्ञान कहां से आ गया, इतनी स्वार्थपरता कहां से आ गयी? इन 50 सालों में ही ऐसा क्या बदल गया कि हम सब इतने लंपट, पाखंडी और बेइमान हो गये?

अभी सबके सामने केतन देसाई का कच्चा चिट्ठा खुला था, पूरा देश दंग रह गया था एक आदमी का विकट धनलोभ देखकर। अब माधुरी गुप्ता की सचाई सामने आयी है। एक ऐसी नंगी सचाई, जो किसी भी हिंदुस्तानी का सर शर्म से झुका कर रख देने वाली है। जिस जमीन की खुशबू से उनकी शख्सियत महंकी, जिस जमीन का अन्न उनकी नसों में खून बनकर दौड़ रहा है, उसी के खिलाफ दुश्मन की साजिश में शामिल होने का साहस वे कैसे कर पायीं, सोचकर माथा ठनकने लगता है। वे पाकिस्तान में भारतीय अफसर की हैसियत से तैनात थीं, अपने देश के हित का खयाल रखने की उन्हें जिम्मेदारी सौंपी गयी थी, उसके लिए सरकार उन्हें सारी सुविधाएं और अच्छा-खासा वेतन दे रही थी, पर उन्हें और पैसा चाहिए था। इसके लिए उन्होंने अपने देश के साथ दगा करने का फैसला किया, पाकिस्तान के लिए जासूसी करने का निर्णय किया। कैसे कर पायीं वो? भारत और पाकिस्तान में दुश्मनी है तो यह केवल नादान नेताओं की उल्टी सोच के कारण। जनता कभी दुश्मनी नहीं निभाती। उसके पास अपनी इतनी समस्याएं रहती हैं कि उसे देश के बारे में सोचने की फुरसत ही नहीं मिलती। वह ना काहू से दोस्ती, ना काहू से वैर वाली मनस्थिति में रहती है। एक पाकिस्तानी की एक हिंदुस्तानी से क्या दुश्मनी हो सकती है? आजादी के बाद पैदा हुई पीढ़ी तो इस बारे में सोच भी नहीं सकती। षड्यंत्र शासक करते हैं, जाल नेता बिछाते हैं और कभी-कभी अनजाने में जनता भी उसमें फंस जाती है। दोनों देशों के बीच सारी समस्या यह है कि पाकिस्तानी हुक्मरान हमेशा एक हीनता बोध पाले रहे हैं। बड़े भारत के आगे, विकसित होते भारत के आगे, स्थापित होते भारत के आगे पाकिस्तान जिस तरह बौना दिखता है, उससे पाक शासकों के मन में ईर्ष्या और कड़वाहट पैदा होती है। इसी कड़वाहट ने पाकिस्तान को कई बार भारत से लड़ने को भी मजबूर किया पर उसे पराजय हाथ लगी।

बार-बार की शिकस्त ने उसे लड़ाई के रास्ते बदलने को मजबूर कर दिया। उसने आतंकवाद का सहारा लिया, जासूसी के पंजे हमारी सीमाओं में फैलाये, जाली नोटों की खेपें भेजकर हमें तबाह करने का रास्ता अपनाया। इस प्रछन्न युद्ध से भारत को हमेशा नुकसान उठाना पड़ा है। शायद पाकिस्तान भी नहीं सोचता होगा कि इस तरह वह कभी भारत को घुटने टेकने पर मजबूर कर पायेगा लेकिन दर्द तो देता रहेगा, पीड़ा तो पहुंचाता रहेगा। वह इतना ही चाहता है कि भारत रह-रह कर तड़पे, रोये, गुस्साये। कहना न होगा कि वह अपनी इस कोशिश में काफी हद तक सफल है। पर बड़ा दुर्भाग्य यह है कि भारत के दिल में उस्तरे उतारने की उसकी कुटिल चाल में बार-बार हिंदुस्तानी भी शामिल होते रहे हैं। उनमें शायद गंदा खून बह रहा है। बाहर से आने वाले आतंकवादियों की मदद करने वाले इस जमीन पर भी हैं। इस गद्दारी के बदले उनकी जेबें भर जाती हैं। बस यह लालच ही उन्हें इस बेवफाई के लिए मजबूर करता है।

यह बात तो समझ में आती है कि अपनी मुश्किलों से टूटकर कोई गरीब दुश्मन के जाल में आ जाये, धन के मायाजाल में फंस जाये क्योंकि अस्तित्व संकट के ऐसे विकट हालात में उसके लिए सही-गलत का फर्क करना नामुमकिन हो जाता है। लेकिन भारतीय विदेश सेवा का कोई अधिकारी इस तरह के लोभ में आ जाये तो थोड़ी हैरत होती है। सरकार उनका हर तरह से खयाल रखती है और पूरा देश उनसे अपेक्षा करता है कि वे अपने देश का खयाल रखें। ज्यादा पैसा चाहिए तो नौकरी छोड़कर देश में ही कोई और सम्मानपूर्ण नेक धंधा कर लें पर देश के साथ गद्दारी करके ऐश करने का हक उन्हें कैसे दिया जा सकता है।

यह बड़ी समस्या है। इसका इलाज केवल कानून में नहीं है। एक गद्दार को कानून आजीवन कारावास भी दिला दे तो भी दूसरे फिर ऐसा नहीं करेंगे, ऐसा कहना मुश्किल है। सोचने की बात है कि लोगों में देश के प्रति अपनत्व, प्रेम और जवाबदेही का भाव कम क्यों होता जा रहा है। क्या यह अपवाद भर है या फिर हम किसी भयानक अपसांस्कृतिक रुपांतरण के दौर से गुजर रहे हैं, जो हमें किसी भी तरह अधिक से अधिक धन, वैभव और ऐश्वर्य के साधनों के संग्रह को ललचा रहा है। सोचना तो पड़ेगा और सबको मिलकर सोचना पड़ेगा क्योंकि मूल कारण समझ में आये बगैर इलाज नहीं हो सकता।

शाहिद नदीम की शायरी का लुत्फ़

आगरा की जमीन पे जन्मे जनाब शाहिद नदीम एक ऐसे शायर हैं, जिन्हें उर्दू और हिंदी की अदबी दुनिया अच्छी तरह जानती है. उनकी कलम में ऐसा कमाल है कि मामूली से मामूली शब्द भी उसकी नोंक पर आकर जगमगा उठता है. देश के भीतर और बाहर जो भी उर्दू के बेहतरीन रिसाले साया होते हैं, कोई भी ऐसा नहीं होगा, जिसने उनका कलाम न प्रकाशित किया हो. जितना बेहतरीन अंदाज उनके कहने में है, उतना ही बेहतरीन अंदाज उनके पढ़ने में भी है. वे जब  मंच पर होते हैं तो सामने बैठे लोग उनकी आवाज सुनकर इस तरह खामोश हो जाते हैं जैसे वे कानों से नहीं दिल से शायरी का लुत्फ़ उठा रहें हों.

१.
शब का सुकुत ही तो है अब दरम्यान में
कब तक दिए जलाओगे खाली मकान में।

कोई इसे खरीद सकेगा जहान में
इक सिलसिला है कर्ब का ग़म की दुकान में।

यह खौफ़ था परिन्दे को ऊंची उड़ान में
कुछ पर बिखर न जाएं कहीं आसमान में।

खुशियों की आरजू है तो फिर यह भी सोच ले
कुछ ज़लजले तो आएंगे ग़म के मकान में।

सब तल्खियां मिज़ाजÞ की पल भर में दूर हो
वो खूबियां हैं दोस्तों उर्दू जुबान में।

वो ज़ख्म दे दिया है तेरी क़ुरबतों नें आज
रोशन सदा रहेगा जो दिल के मकान में।

अब कुछ भी मेरे पास नहीं है मेरे नदीम
जो कुछ बचा था दे दिया उसकी अमान में।

(2)

हर नफस को खिताब करता है
वक्त जब भी हिसाब करता है।

बर्फ को आब-आब करता है
काम यह आफताब करता है।

ज़हन में इन्तकाम का ज़ज्बा
ज़िन्दगी को अज़ाब करता है।

जिससे कायम है आबरू तेरी
क्यूं उसे बेनकाब करता है।

यह अलग बात वो नहीं शायर
गुफ्तगू लाज़वाब करता है।

जिकरे माज़ी नदीम अब पैदा
रूह में इज़तराब करता है।

(3)

तसव्वुर में तेरा चेहरा बहुत है
तसल्ली के लिए ऐसा बहुत है।

मैं सच हूं तो मेरी सच्चाइयों को
समन्दर क्या है इक कतरा बहुत है।

लकीरें हाथ की बतला रही है
मुकद्दर में मेरे लिखा बहुत है।

किसी का साथ तूने कब दिया है
तुझे ऐ ज़िन्दगी परखा बहुत है।

सफर में क़ाफिले के साथ चलना
घना जंगल है और ख़तरा बहुत है।

मुझे तो गांव में एक शख्स अब भी
फरिश्तों की तरह लगता बहुत है।

मुहब्बत की तिज़ारत में नदीम अब
मुनाफा कम है और घाटा बहुत है।

(4)

किसी फ़रेब से अपने न खुशबयानी से
उगा के देखा है फ़सलों को दिल के पानी से।

मेरे खुलूस की खुशबू का पूछती है पता
हवाएं आज भी घर-घर में इत्रदानी से।

न जाने कितने ही जुगनू सजे हैं पलकों पर
गमे हयात में बस एक शादमानी से।

कोई खुलूस का रिश्ता कोई वफा का दिया
मुझे यकीं है मिलेगा न बदगुमानी से।

अभी तो और भी गुल होंगे रोशनी के चराग
हवा-ए-वक्त की कुछ खास मेहरबानी से।

जवाब दे चुके आसाब मेरी फिक्रों के
किताबें जर की चमकती हुई कहानी से।

न कोई तरजे वफा और न कोई फिकरो अमल
अजीब लोग हैं बनते हैं खानदानी से।

नदीम हलक-ए-अहबाब भी ख़फा सा है
तुम्हारे लहजे की शायद यह हक बयानी से।

(5)

यूं ही अपना नसफ बताता है
जब भी मिलता है दिल दुखाता है।

जख्म को लोग फूल कहते हैं
फूल पैरों में रोज आता है।

कितने चेहरे दिखायी देते हैं
जब कोई आईना दिखाता है।

इसको जुगनू कहूं सितारा कहूं
कुछ तो पलकों पे जगमगाता है।

लफ्ज उजले से हो गये हैं नदीम
फिर कोई शेर गुनगुनाता है।

मंगलवार, 27 अप्रैल 2010

ओम प्रकाश तपस का जाना

वीरेंद्र सेंगर की कलम से

बात छह साल पहले की है। कई दिनों बाद ओम प्रकाश तपस से मुलाकात हुई थी। वह अपने नवभारत टाइम्स के दफ्तर से लौटकर आईटीओ से पैदल ही दरियागंज के मेरे दफ्तर में हाजिर हुए थे। काम निपटाकर मैं उनके साथ निकला। वे बोले, आईटीओ तक पैदल चलते हैं। थोड़ा ही चले थे कि एक आइसक्रीम वाली रेहड़ी दिखी। मैंने कहा तपस जी, आज आइसक्रीम खाते हैं। उन्होंने मुझे घूरा। शायद यह याद दिलाने के लिए कि बंधु भूलो नहीं कि हम दोनों डाइबिटीज वाले हैं। उन्होंने मुस्कराते हुए कहा, तो ऐसा करते हैं सेंगर जी, सबसे महंगी वाली आइसक्रीम खाते हैं।


मैं कुछ हैरान हुआ क्योंकि वे अक्सर महंगी आदतों पर भाषण पिला देते थे। मैंने 100 रुपये का नोट निकाला। उन्होंने नोट लिया और आइसक्रीम वाली रेहड़ी के आगे चल दिए। रास्ते में एक लाचार वृद्धा पटरी पर बैठी थी। तपस जी ने उससे कुछ पूछा, फिर उसे लगे डांटने। उसे भीख मांगने की जगह कामकाज करने की नसीहत देने लगे। इसी बीच उस महिला ने कोई दर्दनाक किस्सा बता दिया। फिर तो वे पिघल गए। उन्होंने ‘आइसक्रीम’ वाला 100 रुपये का नोट उसे दिया और आगे बढ़ गए। मैं चुप था। वे जोर से खिलखिलाए। बोले, इस ‘आइसक्रीम’ में मजा आया। शरीर और आत्मा दोनों को ठंडक मिली। इस ‘आइटम’ ने हमारी सेहत को भी नुकसान नहीं होने दिया। वह बेचारी इससे दो दिन का भोजन करेगी। अक्सर उनका ऐसा खिलंदड़ अंदाज होता था।

मैं करीब दो दशक से उन्हें करीब से जानता था। वंचितों के लिए उनके मन में करुणा का भाव था। मामला जब इनका हो तो वे निरपेक्षता की नीति को ताक पर रख देते थे। कहते थे कि इनकी हिमायत में खड़ा होना, एक पत्रकार की पहली जिम्मेदारी है। वे केवल लिखते ही नहीं थे, अपने जीवन में भी इसे उतारने की कोशिश करते थे। लंबे समय तक स्वतंत्र लेखन करने के बाद वे जनसत्ता (चंडीगढ़) से जुड़े थे। रिपोर्टिंग के दौरन पंजाब में तमाम सामाजिक संगठनों से इनकी करीबी हुई थी। मित्र संगठनों में भी उन्हें कुछ पाखंड दिखता, तो वे कलम चला देते थे। इसीलिए वे अपनी मित्र मंडली में ‘खाड़कू’ कहे जाते थे।

तब जनसत्ता में उनके बड़े भाई बनवारी कार्यकारी संपादक हुआ करते थे लेकिन तपस ने कभी कोशिश नहीं की कि उन्हें बनवारी का भाई होने का कोई लाभ मिले। कई बार तो वे उनके लेखों के प्रति अपने मतभेदों की जमकर चर्चा भी करते थे। नवभारत टाइम्स में वे लगभग डेढ़ दशक तक स्थानीय रिपोर्टिंग से जुड़े रहे। सिखों व मुस्लिम राजनीति के तमाम तानो-बानों की गहरी पहचान उन्हें हो गई थी। चाहे भूमि अधिग्रहण के मामलों में दिल्ली के किसानों की समस्याएं हों या सिखों के सामाजिक संगठनों के सरोकार, ये सब तपस की रिपोर्टिंग के प्रिय विषय थे। लंबे समय तक पंजाब में रहने के कारण सिखों की राजनीति का उन्हें खास जानकार माना जाता था। दिल्ली में 1984 में सिख विरोधी दंगों को उन्होंने बहुत करीब से देखा था। इस नरसंहार के बाद कांग्रेस के प्रति उनके मन में स्थाई गुस्सा बैठ गया था। जब भी उनका कोई मित्र कांग्रेस के प्रति जरा भी ‘मोहग्रस्तता’ दिखाता, वे भिड़ जाते।

चार महीने पहले ही उनका फोन आया था। डीएलए में छपी मेरी एक रिपोर्ट में उन्हें राहुल गांधी व कांग्रेस के प्रति कुछ ‘मोह’ नजर आया था। बोले, आप जैसे लोग भी 84 के हत्यारों का महिमा मंडन करने लगे, तो फिर ‘सच’ को पलीता लगना तय है। बड़ी मुश्किल से मैं उन्हें संभाल पाया था। यही कहकर कि समाजवादी पृष्ठभूमि के जिन नेताओं से उम्मीद कर रहे थे, वे तो एकदम पाखंडी निकले। भाजपा नेताओं को भी परख लिया गया है। ऐसे में कई मौकों पर कांग्रेस कुछ बेहतर नजर आती है। ऐसे तर्कों पर वे कहते थे कि जेपी आंदोलन के ‘हीरो’ तो जोकर निकल गये लेकिन, इसका मतलब यह भी नहीं कि कांग्रेसी ‘देवता’ लगने लगें। वे बोले थे, सेंगर जी तुम भी बिगड़ रहे हो। तुम्हारी खबर लेने दफ्तर आ जाऊंगा। काश, वे कभी आ पाते!

दिल्ली में पिछले दशक में भाषा का आंदोलन जोरों पर था। भाषा आंदोलन में वे जेल तक गए थे। वे हर किस्म के पाखंड के खिलाफ थे। इसमें दोस्तों को भी नहीं बख्शते थे। निजी जीवन में वे एकदम सर्वोदयी थे। कई सालों पहले वे डाइबिटीज के शिकंजे में आ गए थे। जड़ी-बूटियों के प्रति उनका अति विश्वास उनके लिए जानलेवा साबित हुआ। उनकी दोनों किडनियां खराब हो गई थीं। लेकिन, वे जड़ी-बूटियों से ही अपने को ठीक करके दिखाना चाहते थे। स्वाभिमान इतना कि किसी दोस्त को याद तक नहीं किया। कोई ‘सहानभूति’ दिखाए, उन्हें पसंद नहीं था। कहते थे यार-दोस्त प्यार से ‘खाड़कू’ कहते हैं। अब ‘खाड़कू’ यानी योद्धा को कभी निरीह तो नहीं नजर आना चाहिए। आखिरकार 52 वर्ष की उम्र में हमारा यह प्यारा ‘खाड़कू’ 26 अप्रैल को हमेशा के लिए चला गया। अलविदा दोस्त.

माया की बाजीगरी माया जानें

अब राहुल गांधी किस मुंह से दहाड़ेंगे मायावती के खिलाफ? अब वे कैसे चीख कर कह पायेंगे कि केंद्र सरकार से जो पैसा उत्तर प्रदेश में आ रहा है, वह कहां जा रहा है किसी को पता नहीं? अब वे बसपा सरकार की बखिया आखिर कैसे उधेड़ेंगे? उत्तर प्रदेश में अगर कांग्रेस को अपने पांव जमाने हैं, तो उसकी सबसे बड़ी राजनीतिक दुश्मन हैं मायावती। उनसे लड़े बगैर कांग्रेस प्रदेश में खड़ी नहीं हो सकती। हाल के दिनों में अपने आक्रामक अभियान से कांग्रेस धीरे-धीरे लोगों के मन में अपने लिए एक जगह बनाने में कामयाब होने लगी थी परंतु माया की बाजीगरी माया ही जाने। उन्होंने बहुत आसानी से कांग्रेस को मिमियाने के लिए मजबूर कर दिया है।

एक ही तीर से मायावती ने दो शिकार करने में सफलता हासिल कर ली है। एक तो उनके गले पर सीबीआई अपना शिकंजा कस रही थी। केंद्र का रुख उनको लेकर बहुत सकारात्मक नहीं था। माया के करारे हलफनामे के बावजूद उन्हें राहत मिल ही जायेगी, इसकी कोई गारंटी नहीं थी। इस मामले की सुनवाई भी करीब थी। दूसरे उनके लिए कांग्रेस प्रदेश में एक राजनीतिक चुनौती बनती जा रही थी। अब दोनों ही बाधाओं से कुछ दिनों के लिए माया को मुक्ति मिल गयी है।

यूपीए सरकार को बजट पर आये कटौती प्रस्तावों के खिलाफ समर्थन देने का फैसला करके मायावती ने न केवल कांग्रेस को कृतज्ञ महसूस करने के लिए विवश कर दिया है वरन उस शीतयुद्ध पर भी ठंडी छींटें मार दी हैं जो उत्तर प्रदेश में चल रहा था। विपक्ष जिस तरह महंगाई और भ्रष्टाचार के मामले पर एकजुट हो गया था, वह कांग्रेस के लिए बड़ा सरदर्द बनता जा रहा था। इस पूरे खेल के पीछे सपा के मुखिया मुलायम सिंह का दिमाग काम कर रहा था। वे वामपंथियों और भाजपाइयों को इस मसले पर एक साथ लाने में कामयाब हो गये थे। मायावती की ओर से कांग्रेस को संकट की इस घड़ी में कोई समर्थन मिलेगा, यह तो कोई सपने में भी नहीं सोच सकता था। पर मायावती जानती हैं कि मुलायम सिंह को किस तरह कमजोर बनाये रखना है। उन्होंने वक्त पर एक ऐसा दांव चला कि सब चारों खाने चित।

हालांकि वे कांग्रेस की पीठ थपथपाने के साथ ही उसे झपड़ियाने से भी नहीं चूकीं। इसलिए कि कांग्रेस की मदद के तर्क को अपनी सैद्धांतिक राजनीतिक मजबूरी का जामा पहना सकें। उनका कहना है कि वे नहीं चाहतीं कि सांप्रदायिक ताकतें सत्ता की ओर बढ़ सकें, इसलिए कांग्रेस शासन की कार्यप्रणाली से बिल्कुल असहमत होते हुए भी उन्हें कांग्रेस को समर्थन देना पड़ रहा है। कांग्रेस की इस मौके पर उन्होंने जमकर आलोचना भी की ताकि किसी को इस नये गठजोड़ के पीछे किसी राजनीतिक सौदेबाजी की दुर्गंध न महसूस हो।

उनका दांव बिल्कुल सही बैठा है। अब सीबीआई उनके मामले पर कुछ दिन खामोशी बरत सकती है, कांग्रेस को भी उत्तर प्रदेश में अपनी संदेश यात्राओं का स्वर धीमा करना पड़ सकता है। भारतीय राजनीति की यह एक बड़ी विसंगति है कि अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए फैसलों को भी राजनेता राष्ट्रीय औचित्य के चमकदार मुलम्मे में लपेटकर इस तरह पेश करते हैं कि कोई आसानी से उसके तह में न जा सके। यही उनकी प्रामाणिकता के क्षरण का सबसे महत्वपूर्ण कारण है। ऐसी चालें और दुरभिसंधियां कितनी भी छिपायी जायं, जनता की समझ में तो आ ही जाती हैं।

उन्हें सिंहासन खाली करना ही पड़ेगा

लोकतंत्र में सत्ता जनता  की होती है, यह बात अब एक सूक्ति बन कर रह गयी है. ऐसा केवल इसलिए हुआ है कि जनता ने ही अपनी शक्ति भुला दी है,  वह टुकड़ों-टुकड़ों में बंट गयी है. जो जिस खेमे में है, वह उसी की नजर से चीजों को देखता है और उसी  के द्वारा उपलब्ध कराये गए आंकड़ों के आईने में परिस्थितियों का  विश्लेषण करता है. यानि जनता अब जनता नहीं रही, वह दलबंदी का शिकार हो गयी है. उनमें से कुछ भाजपाई हैं, कुछ कांग्रेसी, कुछ मार्क्सवादी. वे जिस पार्टी में हैं, उसी की तरह सोचते हैं. बचे हुए लोगों  में से कुछ व्यक्तिपूजा की परंपरा में दीक्षित हो गए हैं. वे या  तो मुलायमवादी  हैं या मायावादी या किसी और नेता के व्यक्तिगत विचारों  से संचालित हैं. यह बंटवारा अपने-अपने  लाभ के आधार पर हुआ है. जिसको जहाँ से लाभ हो रहा है या होने वाला है, वह उसके गुणगान में लगा हुआ है. जो दलों या व्यक्तियों से प्रतिबद्ध नहीं हैं, उनमें से बहुत सारे केवल बुद्धिवादी हैं, अच्छा भाषण करते हैं, काम  पड़ता है तो पीछे हट जाते हैं. ऐसे लोग बहुत ही कायर और डरपोंक हैं.ज्यादातर बुद्धिजीवी केवल शब्दजीवी होकर रह गए हैं. इस  देश का  सबसे बड़ा संकट यह है कि  यहाँ अब जनता नाम की चीज बची ही नहीं है और अगर बची भी है तो वह किसी कोने में हताश-बदहवास नेताओं के भाषणों को सुन-सुनकर हैरान है.

जहाँ तक पारदर्शिता और परिवर्तन की बात है, उसकी अपेक्षा उनसे नहीं की जा सकती, जो यथास्थिति  बनाये रखकर अपने स्वार्थ पूरा करने में लगे हैं, अपने पुत्रों-पुत्रियों को जगह-जगह बिठाने में जुटे हैं. सत्ता का चरित्र ऐसा ही होता है. हिंदुस्तान की सत्ता कोई अपवाद नहीं है. यहाँ भी नेता अपने बड़े पेट भरने में व्यस्त हैं. जब  तक उन्हें ठोकर नहीं लगेगी, तब तक वे अपनी गन्दी आदतें नहीं छोड़ेंगे. ठोकर मारेगा  कौन? यही असली चिंतन का प्रश्न है. इस देश में दो-दो क्रांतियाँ  विफल हो चुकीं हैं. आजादी की लड़ाई  लड़ने वाले बहादुर नवजवान ज्यादातर गरीब और मध्यम  वर्ग से सम्बंधित परिवारों से आये थे. उन्होंने कुर्बानियां दीं, उन्होंने शहादत दी, उन्होंने आन्दोलन चलाये. चाहे वह गरम दल रहा हो या नरम दल. सर कटाने के लिए जो बच्चे आगे आये थे, वे छोटे-छोटे घरों के थे. उनके सपने थे, उनके संकल्प थे, उनका चिंतन था. वे एक ऐसा भारत चाहते थे जो देश के बहुसंख्य गरीब परिवारों का दर्द समझे, उनके लिए उन्हें विकास की प्रक्रिया से जोड़े और देश से गरीबी को ख़त्म करे पर दुर्भाग्य सत्ता उन लोगों की हथेली में आ गिरी, जो फूलों की सेज पर सुख और ऐश्वर्य के बीच पले-बढे थे, लन्दन  और न्यूयार्क  के सपने जिनकी आँखों में कैद थे. परिणाम यह हुआ कि  देश पूंजीवादियों के हितरक्षण   की दिशा में चल पड़ा. गरीबों की संख्या बढती गयी, उनकी कठिनाईयां भी बढती गयी, उनका गुस्सा भी बढ़ता गया. अभी भी गरीबों को निरंतर  छला जा रहा है. उनकी  बातें  तो खूब होतीं हैं पर उनके भाग्य को बदलने की कोशिश कभी नहीं होती. आशय यह कि  आजादी के लिए जो बलिदान हुए, वे व्यर्थ गए.

दूसरी जनक्रांति आपातकाल की  प्रतिक्रिया में जय प्रकाश नारायण की अगुआई  में हुई. सारा देश उठ खड़ा हुआ था. सबने मिलकर एक निरंकुश तानाशाही शासन को उखाड़ फेंका पर उनकी ताकत लेकर आये जनता के नेता आपस में ही पदों के लिए झगड़ने लगे. जनता देखती रह गयी और उसके सपने रेत  के महल की तरह भरभराकर ढह  गए.
फिर तो नेताओं ने समझ लिया कि जनता को एक होने का मौका मत दो, उसे देश की एकमेक जनता की तरह  सोचने का अवसर मत दो, उसे बांटकर रखो. बिलकुल अंग्रेजों की तरह चाल खेली गयी और देश की सम्पूर्ण जनता को कुनबों में तोड़ दिया गया. अब देश की  नसों का  खून चूसने वाले परजीवी पूरी तरह आज़ाद हैं कुछ भी करने के लिए. कोई विरोध नहीं होता, कोई नाराजगी नहीं दिखती. कभी-कभी निजी मामलों पर लोग गुस्सा होते दीखते हैं, लेकिन ऐसे गुस्से  मामूली दाम देकर खरीद लिए जाते हैं, मौद्रिक  अनुग्रह की छीटें उन्हें शांत कर देतीं हैं.

फिर अब क्या उपाय है? क्या केवल इंतजार किया जा सकता है या कुछ करने को बाक़ी है? रास्ते कभी बंद नहीं होते. एक रास्ता बंद होता है तो दूसरा खुल जाता है. जनता को राजनीति के षड्यंत्र से वाकिफ करना होगा, इससे उसे  होने वाले नुकसान के बारे में बताना होगा. पर उसे भाषणों से इतनी अलर्जी है कि अब वह केवल लिखे हुए या कहे हुए पर भरोसा नहीं करने वाली. उसे अब जीवन के प्रयोगों के माध्यम से समझाना होगा. कुछ लोगों को अपनी आकांक्षाओं का  बलिदान करके समाज के लिए, देश के लिए कुछ करने का  बीड़ा उठाना होगा. निकलना होगा लोगों के बीच, उसी तरह जिस तरह कभी बुद्ध निकले थे, गाँधी निकले थे. पहले जनता का भरोसा जीतना होगा, उनकी जिंदगियों का हिस्सा बनना होगा. और जब उनके दिल आप के सामने खुल जायेंगे तब उनको राजजन्य साजिशों के बारे में बताना होगा. यह एक आदमी के बूते का काम नहीं है. इसमें क्रांतिकारियों की जमात को जुटना होगा. जनता के लिए समर्पित कर्मयोगियों की तरह.

नक्सलबाड़ी के जनक कानू सान्याल का सशस्त्र  क्रांति से जब  मोहभंग हुआ था,  उन्होंने कहा था कि क्रांति एक साथ जनता के उठ खड़े होने से ही हो सकती है. करोड़ों लोगों का समवेत जनदबाव ही सत्ता की सुख-सुविधा में मस्त नाकारा लोगों को  कुर्सियां छोड़ कर हट जाने को मजबूर कर सकता है. जब जनता आती दिखेगी, उन्हें सिंहासन  खाली करना ही पड़ेगा. परिवर्तन का, जनता को वास्तविक सत्ता दिलाने का और कोई  शार्ट- कट नहीं है. क्या हम एक और जनक्रांति के लिए  तैयार हैं?    

सोमवार, 26 अप्रैल 2010

ऐसे बेईमान को फांसी दो

केतन देसाई यानी बेईमानी की दुनिया का एक और नटवरलाल। लेकिन बाकी और इनमें एक फर्क है। यह शख्स मेडिकल कौंसिल आफ इंडिया (एमसीआई) का अध्यक्ष है। एमसीआई अर्थात देश के बीमार लोगों की सेवा के लिए डाक्टर तैयार करने वाली संस्थाओं को मान्यता देने या उसे कैंसिल करने की अधिकृत संस्था। एमसीआई का काम मेडिकल कालेजों को मान्यता देने का होता है। वह यह देखती है कि जो संस्था मेडिकल कालेजों को मान्यता प्रदान करती है। वहां मेडिकल शिक्षा के लिए न्यूनतम आवश्यक संसाधन हैं या नहीं मसलन, लैब, योग्य एवं विशेषज्ञता प्राप्त शिक्षक, बिल्डिंग इत्यादि। यदि ये सब चीजें नहीं हैं तो यह माना जाता है कि उस संस्था में मेडिकल शिक्षा संभव नहीं है। इसलिए मान्यता नहीं दी जा सकती। इन सबका फैसला एमसीआई के अध्यक्ष और उसकी समिति को लेना होता है। इधर कुछ सालों से एमसीआई का रुतबा काफी बढ़ा है। वजह, साफ सरकार की एक नीति है। पहले मेडिकल और उच्च शिक्षा केवल सरकारी हाथों में हुआ करती थी। तब पूरे देश में मेडिकल कालेजों की संख्या उंगलियों पर गिनी जाने लायक थीं। 80 के दशक में उच्च शिक्षा को निजी क्षेत्र के लिए भी खोल दिया गया। तब से निवेशकों के लिए यह बहुत कमाऊ क्षेत्र हो गया है। उसमें भी मेडिकल, इंजीनियरिंग और व्यावसायिक संस्थान तो अनवरत सोना देने वाली मुर्गियां हैं। इस समय देश में 273 मेडिकल कालेज ऐसे है, जिन्हें एमसीआई की मान्यता प्रप्त है। इसी मान्यता में बेईमानी के सारे राज छिपे हैं। निजी संस्थाओं के संचालकों के जरिये इस क्षेत्र में भ्रष्टाचार की बैतरणी बह रही है। बिना एक तिहाई संसाधन जुटाए तमाम संस्थाएं मेडिकल और इंजीनियरिंग के कोर्सेज चला रही हैं। इसके लिए नियामक संस्थाओं के अध्यक्षों और समिति के सदस्यों को रिश्वत की मोटी रकम दे दी जाती है। ऐसे ही एक मेडिकल कालेज की मान्यता के सिलसिले में केतन देसाई को दो करोड़ रुपये की रिश्वत लेते धर लिया गया। सीबीआई इस बात का पता लगाने में जुटी है कि केतन के पास कितनी नामी-बेनामी धन और संपत्तियां हैं ताकि उनके बीते कारनामों का अंदाजा लगाया जा सके। फिलहाल अभी तक यह अंदाज लगा पाना मुश्किल हो रहा है कि अपने अब तक के कार्यकाल में केतन देसाई ने कितने अरब रुपये कमाए हैं। खबरें तो यहां तक हैं कि उन्होंने अब तक दो हजार करोड़ रुपये की संपत्ति कमाई है। गुजरात के एक साधारण शिक्षक का बेटा एक मेडिकल कालेज में शिक्षक की नौकरी करके तो इतना धन सपने में भी नहीं इकट्ठा कर सकता। यहां जान लेना जरूरी है कि केतन देसाई अहमदाबाद के बीजे मेडिकल कालेज में यूरोलोजी में परास्रातक करने के बाद वहीं विभागाध्यक्ष के रूप में तैनात हैं। एक पखवारे में महज एक बार वहां छात्रों को उनका दर्शन होता है। लेकिन जुगाड़ ऐसी कि सर्वश्रेष्ठ शिक्षण का बीसी राय अवार्ड भी उन्हीं के नाम आया है। स्कूटर से चलकर अपने शिक्षण कैरियर की शुरुआत करने वाले केतन के पास अहमदाबाद में एक बंगला है जिसकी कीमत करीब 10 करोड़ बताई जाती है। सवाल यह नहीं कि रिश्वत से कितने करोड़ रुपये कमाए गए, इससे भी बड़ा सवाल है कि ईमान किस नाम पर डिगा। जिस देश में गुरुओं ने अपना और शिक्षा के लिए जंगल को स्थायी मुकाम चुना हो, अपना पूरा जीवन समर्पित करने के बाद भी बदले में एक कौड़ी न ली हो, वहां का एक शिक्षक  जीवनदान देने वाली शिक्षा के नाम पर करोड़ों का घूस लेता हो, यह अकल्पनीय है। इस अपराध की सजा कम से कम एक हजार बार फांसी होनी चाहिए। कुछ साल पहले चीन में एक कैबिनेट मंत्री को घूस के अपराध में चौराहे पर खंभे में फांसी पर लटका दिया गया था। यह राजदंड था जो चीन की साम्यवादी सरकार ने उसके लिए निश्चित किया था। लोकतंत्र के नाम पर भारत में ऐसे दंड के विषय में सोचा भी नहीं जा सकता। यहां तो आर्थिक अपराध को जघन्य की श्रेणी में नहीं रखा जाता। ऐसे में किसी सुधार की उम्मीद करना भी व्यर्थ है। घूस देकर मान्यता देने वाले संस्थानों से किसी ऐसे डाक्टर की कैसे उम्मीद की जा सकती है कि वह योग्य होगा और जीवन के लिए संघर्ष करते किसी मरीज को जीवन दे सकेगा।

रविवार, 25 अप्रैल 2010

यह ताक-झांक आखिर क्यों

दूसरों की जिंदगी में ताक-झांक आम तौर पर आदमी के स्वभाव में शामिल होता है। वह भले ही खुद बहुत साफ-सुथरा न हो, ईमानदार न हो, नैतिक न हो लेकिन दूसरों की शख्सियत में ऐसी ही बातें देखकर उसका मन प्रसन्न हो जाता है। इस तरह उसे अपनी गलतियों, अपनी बुराइयों का औचित्य साबित करने की एक खुशफहमी हासिल हो जाती है। उसे लगने लगता है कि सभी लोग या तो उसके जैसे ही हैं या फिर उससे भी बुरे हैं। यह हीनता की ग्रंथि है। यह बीमारी है। इससे ग्रस्त लोगों की कमी नहीं है। वे अपनी एक दुनिया बना लेते हैं और दूसरों की हीनता का मजाक उड़ाकर खुश रहते हैं। किसी की ऐसी खुशी से दूसरे का नुकसान हो न हो लेकिन समाज में इस तरह के बीमार लोगों के लिए जगह नहीं होनी चाहिए। यह रोग संक्रामक है और ज्यादातर ऐसे लोग जो जिंदगी में नाकाम रहते हैं, अपना वांछित हासिल नहीं कर पाते हैं, इस क्लब में शामिल होते चले जाते हैं।

अब तो हमारी सरकारें भी लोगों की जिंदगियों में अनैतिक ताक-झांक करने लगी हैं। आरोप लग रहे हैं कि केंद्र सरकार कई नेताओं के फोन टेप करा रही थी। नीतीश कुमार, शरद पवार, दिग्विजय सिंह और प्रकाश करात के फोन चोरी-छिपे टेप किये जा रहे थे। नामों की फेहरिश्त देखकर कुछ अजीब लगता है। नीतीश कुमार का लोकप्रियता ग्राफ निरंतर बढ़ रहा है। बिहार के लोग खुश हैं कि बिहार में विकास के काम हो रहे हैं, अपराध कम हुआ है, सीएम सबकी सुनते हैं, हर दम कुछ न कुछ ऐसा करते रहते हैं, जो राज्य के गौरव को बढ़ा सके। कांग्रेस को यह अच्छा कैसे लगेगा। उसे तो नीतीश को टंगड़ी मारने का रास्ता चाहिए। प्रकाश करात सीपीएम के नेता हैं। पश्चिम बंगाल में ममता ने जोर लगा रखा है। उन्हें वामपंथियों को उखाड़ फेंकना है। कांग्रेस ममता से गठजोड़ करके वहां सत्ता में आना चाहती है। इसलिए नीतीश और करात के फोन टेप करना समझ में आता है। शरद पवार हालांकि सरकार में शामिल हैं लेकिन वे कब किस करवट लुढ़क जायें, कब क्या कर दें, पता नहीं चलता, इसलिए सरकार उनकी गतिविधियों पर नजर रखना चाहती होगी, यह बात भी थोड़ी-बहुत समझ में आती है परंतु वह अपने ही नेता दिग्गी बाबू की अंतरंग वार्ताओं में क्या ढूढ रही है, उनके फोन क्यों टेप किये जा रह थे, एक जरूरी सवाल है।

विपक्ष बहुत नाराज है। यह बिल्कुल अनैतिक है, गैरकानूनी है। आप किसी की निजी जिंदगी के बारे में क्या जानना चाहते हैं, क्यों जानना चाहते हैं? जीनव में जो सार्वजनिक है, वह समाज और जनता की सम्यक समालोचना के लिए खुला हुआ है। सरकार के सामने भी खुला है। उसके आगे क्यों जाना चाहती है सरकार? उन सूचनाओं का क्या इस्तेमाल किया जायेगा? ये सारे सवाल विपक्षी नेताओं को मंथ रहे हैं। वे चाहते हैं कि पूरे मसले की उच्चस्तरीय जांच करायी जाय और बताया जाय कि आखिर किसके निर्देश से यह फोनटेपिंग चल रही थी। राजनीतिक मर्यादा के इस सीमोल्लंघन के लिए जो भी जिम्मेदार हो, उसे दंडित किया जाय। लालकृष्ण आडवाणी तो बेतरह लाल-पीले हो रहे हैं। उन्हें संदेह है कि कांग्रेस सरकार आपातकाल जैसे हालात की ओर देश को ले जा रही है। सरकार इस उग्र हमले से डरी हुई है पर बेहतर होगा कि वह तत्काल इस पूरे मामले की सचाई जनता के सामने रखे और अपनी गलती स्वीकार करे। और आश्वस्त भी करे कि भविष्य में ऐसा नहीं होने दिया जायेगा।

गुरुवार, 22 अप्रैल 2010

बदलाव की ताकत नहीं तो साहित्य नहीं

साहित्य क्या है? इसे कैसे समझा जाये? लिखी हुई कोई चीज आखिर साहित्य क्यों कही जानी चाहिए? क्या जो कुछ भी लिखा गया है या लिखा जा रहा है, वह सब साहित्य है? कोई साहित्य अच्छा है या नहीं, इसका मानक क्या है? कई बार इस तरह के सवाल सामने आते हैं और सब अपने-अपने ढंग से इसका उत्तर देते हैं। तमाम विद्वानों और साहित्यकारों ने भी इन प्रश्नों पर मंथन करने की कोशिश की है। पूरब और पश्चिम में अलग-अलग तरह से इसे समझने के प्रयास किये गये हैं। आइए सही उत्तर तक पहुंचने की कोशिश करते हैं।

अंग्रेजी का पूरी दुनिया के बड़े हिस्से पर प्रभाव रहा है। वैश्वीकरण के दौर में अंग्रेजी ने उस जमाने से भी ज्यादा प्रभाव बढ़ा लिया है, जब कहा जाता था कि अंग्रेजों के राज में सूरज डूबता ही नहीं है। अंग्रेजी में बहुत सारा साहित्य लिखा गया है। इस भाषा ने कुछ बेहतरीन कवि और लेखक दुनिया को दिये हैं। साहित्य के लिए अंग्रेजी में लिटरेचर शब्द का प्रयोग होता है। इसका अगर शब्दार्थ ग्रहण किया जाय तो जो कुछ भी लिखा गया, वह साहित्य है। चाहे वह चिकित्सा के बारे में हो या धर्म के बारे में, विज्ञान से संबंधित हो या शिक्षा से। परंतु इसका जिस रूढ़ अर्थ में प्रयोग किया जाता है, वह थोड़ा भिन्न है। वह उसे कला से जोड़ता है, वह उसे कथन की चमत्कारिक शैली से जोड़ता है, वह उसे प्रभविष्णुता और बदल देने की शक्ति से जोड़ता है। एजरा पाउंड का कहना है कि अर्थ से लबालब भरी हुई भाषा ही साहित्य है। सीएस लेविस की मानें तो साहित्य केवल यथार्थ का कथन मात्र नहीं है, वह यथार्थ में कुछ और जोड़ता है। वह हमारे रेगिस्तान हो चुके दिलों को सींचता है। तमाम रचनाकारों ने साहित्य को अपने-अपने तरीके से समझने की कोशिश की है परंतु कुछ बातें ऐसी हैं, जो इन सबके चिंतन में समान रूप से उपस्थित हैं। उन्हीं के आधार पर साहित्य को समझा जा सकता है।

एक महत्वपूर्ण बात इस बिंदु पर आप को बता दूं कि साहित्य के अर्थ को लेकर भारतीय विद्वान कभी किसी भ्रम में नहीं रहे। प्राच्य विद्वानों ने कभी यह नहीं कहा कि जो कुछ लिखा गया, वह सब साहित्य है, चाहे वह कितना ही कूड़ा-कचरा क्यों न हो। संस्कृत काल से ही विशेष और कलात्मक अभिव्यक्ति को साहित्य कहा और माना जाता रहा है। शब्द को ब्रह्म कहा गया और किसी विशिष्ट प्रयोग के दौरान उसकी समूची अर्थ-शक्ति को व्यंजित करने वाली रचना को साहित्य कहा गया। इसीलिए साहित्य से प्राप्त आनंद को ब्रह्मानंद सहोदर भी माना गया। ब्रह्म अक्षर है, कभी न नष्ट होने वाला, इस तरह जो अक्षर है, वह ब्रह्म ही है। इन्हीं अक्षरों से वर्णमाला बनती है और यही शब्द बनाते हैं। शब्द से ब्रह्म तक पहुंचा जा सकता है, वह भी कभी नष्ट नहीं होते। शब्दों से ही साहित्य की रचना होती है।

साहित्य में सहित समाया हुआ है। आशय यह है कि साहित्य वह है जो संपूर्ण समाज के परिष्कार की ताकत रखता हो, उसे बदलने की शक्ति रखता हो। जिसमें समग्रता की दृष्टि हो। इसी संदर्भ में हमारे प्राचीन कवियों, लेखकों ने कहा कि साहित्य वह है जो सत्य, शिव और सुंदर से समन्वित हो। साहित्य जिस समाज के निर्माण की आकांक्षा रखता है, उसमें सत्य के प्रति अकाट्य दृढ़ता, सबके कल्याण का भाव और एक सुंदर दुनिया के निर्माण की इच्छा होनी ही चाहिए। अगर कोई रचना इस तरह की सामर्थ्य रखती है तो वह निश्चित ही साहित्य कहलाने की अधिकारी है।

साहित्य के मर्म को समझने वाले चाहे वे पश्चिम के विद्वान हों या पूरब के, सबका यह मानना है कि साहित्य में परिवर्तन की अचूक शक्ति होती है। किसी साहित्यकार को समाज में इसीलिए विशिष्ट दर्जा मिलता है क्योंकि वह सामान्य शब्दों में इतनी ऊर्जा पैदा कर देता है कि वे अपना साधारण रूप छोड़कर असाधारण कवच ग्रहण कर लेते हैं, वह शब्दों को ऐसे नये अर्थ देता है, जो लोगों को चमत्कृत कर देते हैं। यह अर्थ का वैराट्य ही सुनने या पढ़ने वालों को अपनी दिशा में मोड़ने में कामयाब होता है। जिसमें अर्थ संप्रेषण की जितनी ज्यादा ताकत होती है, वह उतना ही बड़ा साहित्यकार हो जाता है। व्यास, वाल्मीकि या तुलसी आज इतने महान इसीलिए हैं कि उन्होंने अपनी कल्पना और अपने आदर्श को इतने ऊर्जस्वित और अर्थपूर्ण शब्दों में व्यक्त किया कि वह हमारी कई पीढ़ियों के मानस में गहराई तक पसरने और पूरे समाज को अपनी वांछित दिशा में ले जाने में समर्थ हो सका।

शब्द के साथ ही दृष्टिसंपन्नता और कला भी साहित्य के लिए जरूरी औजार हैं। जिसमें समाज के भीतर चल रही अंतर्क्रियाओं को समझने की शक्ति नहीं है, वह साहित्य नहीं रच सकता। यह समझ ही रचनाकार को भविष्य के सटीक पूर्वानुमान की ताकत देती है। इसी कारण कवि, कहानीकार, उपन्यासकार या किसी भी विधा का रचनाकार वर्तमान को तो रचता ही है, समय में आगे तक झांककर देख सकता है। वह अपनी दृष्टिसंपन्नता के कारण ही शब्दशिल्पी होने के साथ ही भविष्यद्रष्टा भी बन जाता है। कला उसके लिए साधन है। वह उसे सुरुचिपूर्ण और प्रभावशाली ढंग से व्यक्त होने का माध्यम प्रदान करती है। किसी भी साहित्यकार के लिए यह जरूरी होता है कि भाषा, शिल्पविधान और अन्य कलात्मक तत्वों की उसे पूरी जानकारी हो और रचना के समय वह इनके प्रति पूरी तरह जागरूक हो। केवल तभी वह कुछ नया रच सकेगा, कुछ तोड़ सकेगा, कुछ बदल सकेगा।

बुधवार, 21 अप्रैल 2010

अम्बेडकर के सपनों से खेलते उनके अनुयायी़

’’वे धन्य हैं, जो यह अनुभव करते हैं कि जिन लोगों में हमारा जन्म हुआ। उनका उद्धार करना हमारा कर्तव्य है। वे धन्य हैं, जो गुलामी का खात्मा करने के लिए अपना सब कुछ निछावर करते हैं। और धन्य हैं वे, जो सुख और दुःख, मान और अपमान, कष्ट और कठिनाइयां, आंधी और तूफान-इनकी बिना परवाह किये तब तक सतत् संघर्ष करते रहेंगे, जब तक कि अछूतों को मानव के जन्मसिद्ध अधिकार पूर्णतया प्राप्त न हो जायें।’’ युगांतरकारी व्यक्तित्वों की श्रृंखला में डा. भीमराव अम्बेडकर का नाम अग्रणी है। उन्होंने आजीवन गैर बराबरी तथा मानवता के लिए संघर्ष किया। सदियों से शोषित और उत्पीड़ित दलितों के जीवन में एक नया अध्याय जोड़ा। यह उनके संघर्ष का ही परिणाम है कि आज दलित देश की सत्ता में सक्रिय भागीदारी कर रहे हैं। भारतीय संविधान के माध्यम से उन्होंने दलितों के लिए जो आरक्षण का प्रावधान कराया। उससे ही दलितों के भाग्य का सूूरज उदय हुआ जो आज विभिन्न क्षेत्रों में दैदीप्यमान हो रहा है।निःसंदेह डा. अम्बेडकर दलितों के मसीहा थे। उनके दिलो-दिमाग में दलितों की जाति विशेष न होकर सम्ूपर्ण दलित वर्ग था जो जलालत की जिंदगी व्यतीत कर रहा था। शिक्षित बनो, संगठित रहो तथा संघर्ष करो के मूल मंत्र के आधार पर उन्होंने दलितों में स्वाभिमान की भावना पैदा की। वह राजनीतिज्ञ की अपेक्षा समाज सुधारक थे। उनका जीवन दलितों के उत्थान और विकास को समर्पित था। अफसोस इस बात का है कि उनकी मृत्यु के बाद दलित आंदोलन बिखर गया। वह दिशाहीन हो गया तथा सत्ता के लिए डा. अम्बेडकर के सपनों से बलात्कार करके कुर्सी पाने में अधिक सक्रिय रहा। जिस मनुवाद और ब्राह्मणबाद के वह आजीवन विरोधी थे। उनके कथित अनुयायियों ने उसको फलने-फूलने का अवसर दिया। सत्ता के लिए उनके सिद्धांतों की बलि चढ़ायी। यही कारण है कि आज दलितों का कोई सर्वमान्य नेता अथवा मसीहा नहीं है। अगर हैं भी तो दलितों की जाति विशेष के हैं। दलित आंदोलन के पतन का मुख्य कारण इस वर्ग के नेताओं की दिशाहीनता तथा स्वार्थपरता रही। यह लोग आज भले ही उनकी जयंती जोर-शोर से मना रहे हों लेकिन वस्तुतः वह उनके सिद्धांतों की हत्या कर रहे हैं। यही कारण है कि आजतक दलित वर्ग एकजुट नहीं है। उनका कोई सर्वमान्य नेता नहीं है। किसी भी दलित राजनेता के पास दलितों के लिए कोई एजेंडा नहीं है। आज भी दलित एक वर्ग के रूप में संगठित नहीं हो पाया है। जिस छूआछात के खिलाफ डा. अम्बेडकर आजीवन लड़ते रहे आज दलित वर्ग भी दलित और महादलित के रूप में विभक्त हो गया है। उनका आपस में कोई तालमेल नहीं है। दलितों में भी ऊंच-नीच की भावना बड़ी तेजी से पनपती जा रही है। लगभग हर दलित जातियों के अलग-अलग संगठन हैं। अपने-अपने आराध्य हैं। अपने-अपने सिद्धांत हैं। अपनी-अपनी परम्पराएं हैं। आखिर जब दलित एकजुट नहीं होंगे तो उनका आंदोलन कैसे चलेगा और कैसे उनकी स्थिति में आमूलचूल परिवर्तन होगा।दलितों में भी महादलित वाल्मीकि जाति आज भी मनसा-वाचा-कर्मणा से डा. अम्बेडकर को स्वीकार नहीं कर पाई है। उनके आराध्य महर्षि वाल्मीकि हैं। वह हिंदू धर्म की सभी मान्यताओं को मानते हैं और अपने हिंदू होने पर गर्व महसूस करते हैं। इसके विपरीत दलितों की जाटव जाति के लोग हिंदू धर्म से विमुख हैं। वह अम्बेडकर द्वारा अपनाये गये बौद्ध धर्म की विचारधारा के अधिक नजदीक हैं। कोरी, खटीक, धोबी आदि दलित जातियों में अम्बेडकर की विचारधारा आज तक नहीं पहुंची है। इसके लिए वह दलित नेता अपनी जवाबदेही से नहीं बच सकते जो अपने को डा. अम्बेडकर का अनुयायी मानते हैं। उनके मिशन को आगे बढ़ाने का दावा करते हैं। यही कारण है कि डा. अम्बेडकर जयंती में सम्पूर्ण दलितों की भागीदारी नहीं होती अपितु इसमें जाटव जाति का हर्षोल्लास अधिक दिखाई पड़ता है। दलितों के समाज सुधार का आंदोलन दम तोड़ चुका है। वह दिशाहीन और दिशाभ्रमित है। इसी लिए दलितों में हताशा और निराशा का भाव समाहित है।वस्तुतः दलितों में भी एक ऐसा वर्ग पैदा हो गया है जिसने आरक्षण के माध्यम से ऊंची-ऊंची नौकरियां हासिल की हैं। आरक्षण के कोटे के कारण बड़े-बड़े ओहदे हासिल किए हैं। मंत्री, सांसद और विधायक हैं। यह लोग दलित को मिलने वाले हर लाभ को अजगर की भांति निगल रहे हैं। जिस समाज से यह आये हैं। उस दीन-हीन और वंचित समाज के लिए इनके दिल में संवेदनशून्यता का भाव है। इन पढ़े-लिखे और साधन-संपन्न लोगों ने डा. अम्बेडकर के आंदोलन की हत्या की है। उनके कारवां को रोका है। अगर सुविधाओं से वंचित दलितों की आंखें खुल गई तो वह इस नवधनाढ्य-अफसरी वर्ग को माफ नहीं करेगा।डा. अम्बेडकर व्यक्ति पूजा के खिलाफ थे। वह नहीं चाहते थे कि उनकी पूजा हो। उनकी मूर्तियों लगें और लोग उन्हें भगवान मानें। इस संदर्भ में उन्होंने 14 अप्रैल 1942 में मुम्बई के परेल में अपनी जयंती पर आयोजित विराट सभा को संबोधित करते हुए कहा था - ’’नेता योग्य हो, तो उसके प्रति आदर प्रकट करने में कोई हर्ज नहीं, परंतु मनुष्य को ईश्वर के समान मानना विनाश का मार्ग है। इससे नेता के साथ ही साथ उसके भक्तों का भी अधःपात होता है ? इसलिए मैं चाहता हूं कि मेरा जन्म दिवस मनाने की प्रथा बंद कर दी जाय।’’आवश्यकता इस बात की है कि अगर डा. अम्बेडकर के जाति-विहीन, शोषणविहीन तथा समतायुक्त समाज की संरचना करनी है तो हमें आत्मचिंतन करना पड़ेगा। इस देश का बहुत बड़ा नुक्सान जातिवाद से हुआ है। समाज जातियों में बड़ी तेजी से बंटता जा रहा है। जातिय संगठन इतने प्रभावशाली हो गए हे कि वह सरकार तक को चुनौती देने लगे हैं। राजनीति जातिवाद के भंवरजाल में फंस चुकी है। शोषक लोग एकजुट होकर लोकतांत्रिक संस्थानों पर योजनाबद्ध तरीके से कब्जा करने में लगे हैं। समानता और समता बेमानी हो गया है। इसके लिए चिंतनशील व संघर्षशील लोगों को आगे आना होगा।

वे जंगली थे, जंगली ही रह गये

मरघट पे भीड़ है या मजारों पे भीड़ है
अब गुल खिला रहा है तुम्हारा निजाम और

दुष्यंत का यह एक शेर आज के हालात बखूबी बयान कर रहा है। हिंदुस्तान में आदमी की जान बहुत सस्ती है। जो मुजरिम हैं, दहशतगर्द हैं, उन्हें किसी के प्राण लेने में तनिक संकोच नहीं होता। मामूली फायदे के लिए या लोगों में दहशत फैलाने के लिए वे कुछ भी कर गुजरते हैं। इतनी लाकानूनियत है कि लूट, हत्या और बलात्कार के बाद हमारी पुलिस को जिस तेजी से काम करना चाहिए, नहीं कर पाती है। कई बार तो उसके हाथ कुछ भी नहीं लगता और मजबूरन उसे मामला बंद कर देना पड़ता है। बहुत दबाव होने पर कभी-कभी वह निर्दोष आदमियों को उस अपराध में दबोच लेती है, जो उन्होंने किया ही नहीं। कई बार वाहवाही लूटने के लिए वह किसी को भी ललकार कर मुठभेड़ कर डालती है। बाद में पता चलता है कि जो मर गया, बेचारा अपने मित्र की पार्टी में शरीक होकर घर लौट रहा था। पुलिस का चेहरा अपने काम करने के तरीके से अब इतना भयानक हो गया है कि लोग शिकायत करने थाने जाने से भी घबराते हैं।

अगर कहीं मामला आतंकवादियों का हो तो पुलिस के लिए बड़ा सरदर्द होता है। ऐसी कोई खबर मिलने पर वह पहले अलर्ट जारी करती है, नाकेबंदी करती है, कई थानों को खबर करती है, बम निरोधक दस्तों, कुत्तों को जुटाती है। इस सारी कार्रवाई में इतना समय लग जाता है कि हमलावर अपना काम पूरा करके निकल जाते हैं। अक्सर पुलिस मौके पर तब पहुंचती है, जब ध्वंस और रुदन शेष रह जाता है। अगर कोई अफसर या जवान हिम्मत करके देश के दुश्मनों का मुकाबला करता भी है तो बाद में उसकी नीयत पर सवाल उठाये जाते हैं, उल्टे उसे ही गुनहगार साबित करने की कोशिश की जाती है। बटाला कांड में क्या-क्या गुल खिलाने के प्रयास हुए, कौन नहीं जानता? मुंबई में जिन्होंने दुश्मनों से मुकाबले का साहस किया, उनमें से कइयों को जान गंवानी पड़ी। कई इमानदार और निर्दोष अफसर शहीद हो गये। आम तौर पर पुलिस तंत्र में यह धारणा बन गयी है कि इस तरह के खतरे से बचने के लिए अगर बेईमानी काम आ सकती है तो बेईमान हो जाने में क्या जाता है। कम से कम जान तो बची रहेगी।

इन परिस्थितियों में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अफसरों को देश के सामने खड़ी चुनौतियों का अहसास कराते हैं तो बहुत ही अजीब लगता है। यह काम हम वर्षों से करते आ रहे हैं। सरकार के नुमाइंदे दार्शनिक अंदाज में पेश आने लगे हैं। आतंकवाद बड़ी समस्या है। यह बाहर से तो आ ही रहा है, हमारा पड़ोसी मुल्क तो हथियारबंद लड़ाकों को तोड़-फोड़, मार-काट करने के लिए भेज ही रहा है, घर के भीतर नक्सली भी हुकूमत से टकराने का दुस्साहस प्रदर्शित करने लगे हैं। इसके लिए काफी हद तक सरकारें भी जिम्मेदार हैं। देश के बड़े इलाकों में 63 साल की आजादी में भी विकास की किरन नहीं पहुंची। वहां अब भी जिंदगियों में अंधेरा है, भूख है, दरिद्रता है, अशिक्षा है। वहां अब भी बच्चों के हाथों में किताबों की जगह तीर-धनुष है, कपड़े की जगह फटे-पुराने चिथड़े हैं। वहां अब भी सड़कें नहीं जातीं, नेताओं की गाड़ियों का कारवां नहीं पहुंचता। अफसर नहीं जाते। उनकी पीड़ा किसी मंत्री, मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री ने कभी महसूस नहीं की। वे जंगली थे, जंगली ही रह गये। पर जब उनके लिए नक्सलियों ने हथियार उठाये तो अब सबकी नजर उधर जा रही है। जब कोई बहाना नहीं था, तब तो कोई उनके दरवाजे पर नहीं पहुंचा, अब तो बड़ा बहाना है। नक्सलियों को निपटाये बगैर वहां कैसे पहुंचेगा विकास का रथ? प्रधानमंत्री दोनों मोर्चों पर एक साथ काम करना चाहते हैं। अफसरों पर बड़ी जिम्मेदारी डालना चाहते हैं। केंद्र सरकार गरीबों के लिए बहुत पैसा खर्च करती है, अगर अफसर चाहें, ठीक से निगरानी करें तो उसका लाभ असली आदमी को मिल सकता है।

परंतु क्या यह एक बड़ा सवाल नहीं है कि नौकरशाहों ने अब तक ऐसा क्यों नहीं किया, अपनी जिम्मेदारियां ठीक से क्यों नहीं निभायी? वे लालफीताशाही, भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी की गंगा में मधुर स्रान का आनंद क्यों उठाते रहे? सभी जानते हैं कि सरकारी योजनाओं के धन को किस तरह ठेकेदार, अफसर और मंत्री की तिकड़ी पचा रही है। जब तक इस समस्या का हल नहीं निकलता, जब तक अफसरशाही को जवाबदेह नहीं बनाया जाता, उनके कान नहीं ऐंठे जाते, न तो गरीबों को उनका हक मिलेगा, न ही आतंकवादियों और नक्सलियों को सबक सिखाना संभव हो पायेगा।

मंगलवार, 20 अप्रैल 2010

मां को इस तरह न छेड़ो

प्रकृति में रचना की शक्ति है तो ध्वंस की भी। उसमें सौंदर्य है तो विद्रूपता भी। बर्फ से लदे पहाड़, कल-कल बहती नदियां, शांत झीलें, फूलों से लदी घाटियां और लहराता विशाल सागर किसके मन को नहीं लुभाता? किसे नहीं अच्छा लगता चांदनी रात में आसमान में दौड़ते बादलों को देखना? जुगनुओं का जलना-बुझना, तारों का टूटना, सूरज का उगना और डूबना किसके मन को शीतल नहीं करता? प्रकृति जब शांत होती है, अपने रचनाकाल में होती है तो उसका रूप-लावण्य मन को मोहने वाला होता है, मस्तिष्क को चमत्कृत कर देने वाला होता है। लेकिन वही प्रकृति जब ध्वंसलीला पर उतर आती है तो विज्ञान की अपनी मेधा से जल,थल और नभ को जीतने का दावा करने वाला मनुष्य अपनी प्राण-रक्षा के लिए भागने या महाचेतनात्मिका मां से प्रार्थना के अलावा कुछ नहीं कर पाता। जब कभी सुनामी आती है, चक्रवात आते हैं, भू-स्खलन होता है, बाढ़ आती है तो सभी असहाय हो जाते हैं। प्रकृति का रौंद्र रूप देखकर किसी का भी मन भय से कांप उठता है।

फिर भी हम गंभीरता से नहीं सोचते। प्रकृति ने जो जीवन-चक्र रचे हैं, जो वानस्पतिक और जैविक विविधता धरती को सौंपी है, उसके संरक्षण की जगह आदमी ने भौतिक प्रगति के लिए उसमें लगातार छेड़-छाड़ की है, धरती का गंभीर दोहन किया है। प्राकृतिक संतुलन धरती के ऊपर तो बिगड़ा ही है, धरती के भीतर भी दबाव के अनेक नये क्षेत्र बने हैं। इस कारण भूकंप और ज्वालामुखियों की हलचल बढ़ी है। तमाम प्रयोग और अध्ययन हो रहे हैं कि इन प्राकृतिक आपदाओं से बचाव के लिए सटीक भविष्यवाणी की जा सके, लेकिन कोई प्रामाणिक कामयाबी अभी तक मनुष्य को नहीं मिली है। इसीलिए हर साल दुनिया के तमाम इलाकों में प्रकृति के कोप से हजारों जानें जाती हैं, भारी आर्थिक नुकसान होता है। इससे बचने का कोई भौतिक उपाय खोजने की जगह मनुष्य को प्रकृति का दोहन बंद करना चाहिए, लेकिन उसे यह सीधी सी बात समझ में नहीं आ रही है।

अब देखिये, पूरा यूरोप आइसलैंड के एक ज्वालामुखी से थर्राया हुआ है। उसके धुएं और राख ने आसमान को ढंक लिया है। एक हफ्ते से बड़ी विषम स्थिति बनी हुई है। उड़ानें बंद हैं। जो जाने वाले थे, वे जा नहीं पा रहे हैं। जो लौटने वाले थे, वे लौट नहीं पा रहे हैं। दुनिया भर के हवाई अड्डों पर हजारों लोग फंसे हुए हैं। कोई व्यापार के सिलसिले में निकला था, कोई पढ़ाई के लिए, कोई घूमने के लिए लेकिन सब के सब इधर-उधर फंस गये हैं। पूरा उत्तरी यूरोप असहाय स्थिति में है। एयरलाइंस को 20 करोड़ डालर प्रति दिन का नुकसान उठाना पड़ रहा है। यूरोप अभी मंदी की मार से बाहर निकल नहीं पाया था कि उसे प्राकृतिक आपदा का यह गहरा झटका झेलना पड़ रहा है। इससे केवल एयरलाइंस ही प्रभावित नहीं हुई हैं बल्कि ट्रेवल, टूरिज्म, हास्पिटेलिटी, इंश्योरेंस, एयर कार्गो, फल-सब्जी व्यापार और लोजिस्टिक इंडस्ट्रीज भी इसके चपेट में हैं। भारत के हवाई अड्डों पर भी सैकड़ों विदेशी फंसे हुए हैं, कई यूरोपीय देशों को भारतीय उड़ानें भी स्थगित हैं। अभी तक भारत की एयरलाइंस इंडस्ट्री को सौ करोड़ का नुकसान हो चुका है।

संकट मंगलवार को थोड़ा कम होता दिखायी पड़ा तो कुछ उड़ानों का रास्ता साफ हुआ लेकिन सर मुड़ाते ही ओले पड़े। पता चला है कि एक दूसरे ज्वालामुखी ने लावा उगलना शुरू कर दिया है। सभी सजग हैं, डरे हुए भी। देखो और इंतजार करो के अलावा कोई और रास्ता नहीं है। तुरंत यह कहना मुश्किल है कि यूरोपीय देशों को इस आपदा ने कितना बड़ा झटका दिया है लेकिन निश्चय ही वह मंदी से उबरते हुए यूरोप की कमर तोड़ देने वाला साबित हो सकता है।

प्रकृति के सहज स्वरूप को मनुष्य ने ही विकृत किया है। उसके भयानक परिणाम भी उसे ही भुगतने पड़ेंगे। कोई भी अनुभव कर सकता है कि सामान्य ऋतु चक्र असंतुलित हो गये हैं। गर्मी, जाड़ा और बरसात अब अपने समय से नहीं आते। गर्मी में ताप सामान्य से इतना ऊपर जाने लगा है कि सहना मुश्किल हो रहा है। इसी तरह जाड़े में तापमान सामान्य से बहुत नीचे चला जाता है, ठंड काटनी मुश्किल हो जाती है। कभी तो इतनी बरसात होती है कि बस्तियां, कस्बे, शहर अपंग हो जाते हैं, बाहर निकलना असंभव हो जाता है और कभी लोग बूंद-बूंद के लिए आकाश की ओर ताकते रहते हैं, बादल दिखते ही नहीं। याद है पिछले जाड़े में अमेरिका और यूरोप जम गये थे, बर्फ की मोटी चादर में ढंक गये थे। यह सब प्राकृतिक असंतुलन आदमी के किये का परिणाम है, इसलिए उसे भुगतने के लिए भी तैयार रहना चाहिए। परंतु सबसे बड़ी बात यह है कि अब भी अगर उसे होश आ जाय तो वह भयानकतम संकट से बच सकता है। प्रकृति की चेतावनी को समझने की जरूरत है अन्यथा बहुत देर हो जायेगी।

सोमवार, 19 अप्रैल 2010

अपने को बदलो कलमकारो

जाने कब हम कलमकारों का जमीर जागेगा और सच्चाई की जंग के लिए आगे आएंगे ? आजादी के बाद जो अपेक्षाएं थीं। समतायुक्त समाज का सपना था। हर हाथ को काम और रोटी का वादा था। क्या हुआ इन वायदों और संकल्पों का ? आज भी अंधेरे में भारत सिसक रहा है। किलकारियां मार रहा है तो केवल इंडिया। वह इंडिया जहां कारपोरेट सेक्टर है। मॉल हैं। फिल्मी ग्लैमर है। राजनीति की गंगा है। थैलीशाहों और कालेधन वालों की बस्ती है। आखिर इसके लिए कौन जिम्मेदार है ? हम भले ही राजनैतिक दलों को दोषी ठहरायें लेकिन वास्तविकता यह है कि आजादी के बाद कलमकारों से जो उम्मीदें थीं। वह पूरी तरह धराशायी हो गईं हैं। वह भी सत्ता का दलाल बनकर इठलाता है। उसकी पूरी कोशिश रहती है कि वह किसी पद को प्राप्त करे। उसकी पुस्तकों को पुरस्कार मिले। उसके पुत्र-पुत्रियों को अच्छा रोजगार मिले। इसके लिए भले ही उन्हें अपने आत्मसम्मान की बोली लगानी पड़े तो भी वह पीछे नहीं रहता। यही कारण है कि समाज में कलमकारों के प्रति सकारात्मक और आशाजनक द्रष्टिकोण नहीं है। यह अफसोस की बात है कि हम कलमकारों ने अपने को देवदूत समझ लिया है। आम जनता से हमारा कोई जुड़ाव नहीं रह गया है। हम आम आदमी से मिलना ही नहीं चाहते। उसकी दुःख और तकलीफों में षरीक होना हमारी शान के खिलाफ है। इस समय सारा देश महंगाई से जूझ रहा है। लोग भुखमरी के कारण आत्महत्या तक कर रहे हैं। ऐसे विषम समय में कलमकारों ने क्या जनता को जागरूक करने का प्रयास किया ? क्या उन्हें सच्चाई से अवगत कराया कि देश में बेतहाशा अच्छी फसल होने के बावजूद आम आदमी को महंगा अनाज क्यों मिल रहा है ? गरीबों को चिकित्सा और शिक्षा से क्यों महरूम किया जा रहा है ? ऐसा नहीं किया कलमकारों ने क्योंकि जनता के पास न तो कलमकारों को देने के लिए पैसे हैं और न ही वह उन्हें सुखों का भोग करवा सकती है। यही कारण है कि आज किसी भी कलमकार की समाज में कोई पहचान नहीं है। आश्चर्य तो तब होता है कि राष्ट्रिय ख्यातिप्राप्त कथित साहित्यकारों को उनके मौहल्ले वाले ही नहीं जानते। अखिर जाने क्यों ? वह न तो किसी के दुख दर्द में जाते हैं और न ही वह इस बात का ख्याल रखते हैं कि उनके क्षेत्र के लोग किस समस्या से जूझ रहे हैं। वह आम आदमी की शवयात्रा में जाना अपनी तौहीन समझते हैं। इसमें दोष किसका है कि यह बात हम अक्सर कहते हैं कि समाज में हमें उचित सम्मान नहीं मिल रहा है। आखिर क्यों मिले आपको आम जनता का सम्मान ? आपने क्या किया है। उनके लिए ? क्या कभी आप उनके कंधे से कंधा भिड़ाकर जनसमस्याओं के लिए आंदोलनरत् हुए ? कभी किसी निर्दोष को पुलिस से छुड़ाने के लिए किसी पुलिस थाने में गये। अब सवाल यह पैदा होता है कि क्या कलमकार भी अन्य लोगों की तरह केवल कलम से मजदूरी कर रहा है या उसका समाज के प्रति भी कुछ दायित्व है। अगर समाज के प्रति वह अपने दायित्व को नकारता है तो वह किस मुंह से कहता है कि समाज में कलमकारों को उचित मान-सम्मान नहीं मिल रहा। यह प्रश्न भी अनुत्तर है कि आखिर हम किसके लिए लिख रहे हैं। क्या कवि-गोष्टी में चंद लोगों के सामने काव्य-पाठ कें लिए अथवा किसी पत्र-पत्रिका में अपनी रचनाएं छपवाने के लिए। अगर आप इसी में संतुष्ट हैं तो फिर शिकायत क्यों ? क्यों आप अपने को लोकतंत्र का चौथा खम्भा कहते हो ? क्यों कहते हो अपने को जनवादी, प्रगतिशील और राष्ट्रवादी कलमकार ? याद रखिए कि अगर हमने अपने दायित्वों का पालन नहीं किया तो भावी पीढ़ियां हमें कदापि माफ नहीं करेंगी। जब हम अपनी कलम से गरीब, मजदूर,, दलित और महिलाओं के उत्पीड़न की बात लिखते हैं। लेकिन अपने घरों व प्रतिष्ठानों में हमें उन्हें ही उपेक्षित और उत्पीड़ित करते हैं। क्या यह हमारा दोगलापन नहीं है ? क्यों किसी सेठ को देखकर हमारी बांछें खिल जाती हैं और निर्धन को देखकर क्यों तिरस्कार का भाव पैदा होता है ? बदलते परिवेश में आवश्यकता इस बात की है कि हम आत्मचिंतन करें। हमें मान के साथ लोगों की कड़वी बातों को सुनने की भी आदत डालनी होगी। हम परमब्रह्म नहीं हैं। हम नियंता भी नहीं हैं। हम अन्य लोगों की भांति हाड-मांस के पुतले हैं। अन्य लोगों की तरह सारी बुराइयां हममें हैं। हम अपने मतलब के लिए किसी के सामने दुम हिला सकते हैं। जोड़-तोड़ में भी हम माहिर हैं। हम हर जगह अपनी गोटी बैठाने की जुगत में ही लगे रहते हैं। इतिहास गवाह है कि कबीर इसलिए महान नहीं थे कि वह कवि थे। वह इसलिए महान हुए कि उन्होंने निर्भीकता के साथ तत्कालीन समाज के पांखड का पर्दाफाश किया। जनता से उनका सरोकार हमेशा बना रहा। वह कलम के सौदागर नहीं थे अपितु मेहनत-मजदूरी से अपना और अपने परिवार का लालन-पालन करते थे। इसीलिए आज भी कबीर प्रासंगिक हैं। अतः अब भी वक्त है कि जाग जाओ और जनता से अपनी दूरियां मिटाओ। जिनके बारे में अपनी रचनाओं में लिख रहे हो। उन्हें गले लगाओ अन्यथा इतिहास को तुम्हें कूड़ेदान में फेंकने में देर नहीं लगेगी।

क्या विधायिका में पत्नियाँ या प्रेमिकाएं होंगी

जब हम अपने अतीत पर नजर डालते है तो पाते है कि प्राचीन काल में गार्गी, मैत्रेयी, अपाला जैसी प्रसिद्ध महिला दार्शनिक थी। स्वंतत्रता आंदोलन में भी महिलाओं का योगदान पुरुषों से कम नही था। इस आंदोलन से जुड़ने के गांधीजी के आह्वान पर ऐसे समय महिलाओं ने इसमें भाग लिया जब सिर्फ 2 प्रतिशत महिलाएं ही शिक्षित थीं। इस तथ्य से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि महिलाओं के लिये घर से बाहर निकलना कितना कठिन था परंतु वे फिर भी बाहर निकली। स्वतंत्रता के बाद संविधान सभा के सदस्य के रूप में महिलाओं ने स्वतंत्र भारत के लिए संविधान का मसौदा तैयार करने के काम में हिस्सा लिया। लेकिन आजादी के बाद भी वह कमजोर व पिछड़ी बनीं रही, जिस कारण महिला सशक्तिकरण की आवश्यक आन पड़ी। महिला सशक्तिकरण का तात्पर्य है सामाजिक सुविधाओं की उपलब्धता, राजनैतिक और आर्थिक नीति निर्धारण में भागीदारी, समान कार्य के लिए समान वेतन, कानून के तहत सुरक्षा एवं प्रजनन अधिकारों को इसमें शामिल किया जाता है। सशक्तिकरण का अर्थ किसी कार्य को करने या रोकने की क्षमता से है, जिसमें महिलाओं को जागरूक करके उन्हें आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक, शैक्षिक और स्वास्थ्य संबंधित साधनों को उपलब्ध कराया जाये। इसी बात को ध्यान में रखते हुए यूपीए की सरकार ने अपने इस संकल्प को दोहराया है कि वह महिला सशक्तिकरण की दिशा में महत्वपूर्ण कार्य करेगी। इसका खुलासा राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने संसद के दोंनो सदनों के संयुक्त अधिवेशन में अपने अभिभाषण में किया। उन्होंने कहा कि उनकी सरकार संसद और विधायिका में महिलाओं को 50 फीसदी आरक्षण, स्थानीय निकायों में महिलाओं की भागीदारी 33 से बढ़ाकर 50 फीसदी करने को प्रतिबद्ध है। जबकि वर्तमान में केवल बिहार और मध्यप्रदेश के स्थानीय निकायों में महिला आरक्षण 50 फीसदी है। इसके साथ ही वह केन्द्र सरकार की नौकरियों में महिलाओं की भागीदारी से संतुष्ट नहीं है। अतः उनकी भागीदारी बढ़ाने को कारगर कदम उठाए जाएंगे। महिलाओं को साक्षर बनाने के लिए राष्ट्रिय महिला साक्षरता मिशन की स्थापना की जाएगी। यह सभी कार्य 100 दिन में पूरे किए जाने का संकल्प है। पंचायतो को सशक्त बनाना पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी का सपना था तथा उसमें महिलाओं की सशक्त भागीदारी सुनिश्चित करना संप्रग सरकार का संकल्प है। वर्तमान में महिलाओं को पंचायतों में 33 फीसदी आरक्षण है, परन्तु वर्तमान में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 42 फीसदी हो चुका है। सरकार संशोधन करके महिलाओं को 50 फीसदी सीटें देना चाहती है। देखा गया है कि सत्ता हाथ में आते ही महिला प्रतिनिधियों ने अपने अधिकारों को पहचाना और वे सामान्य विकास के साथ गांव के सामाजिक मुद्दों में मुखर साबित हुई है। इस प्रकार से ये संस्थाएं जो पहले समाज के प्रभुत्ववर्ग की बपौती होती थी, वे ग्राम पंचायत की इकाई बनती दिखाई दे रही हैं। इस तरह महिलाओं के आने से, जिनमें निचले वर्ग की महिलाएं भी शामिल थी, ने सामाजिक न्याय की अवधारणा को पंचायती राज के द्वारा साबित किया। बिहार के कटिहार जिले के एक भिखारिन हलीमा खातून ने किराड़ा पंचायत के चुनाव में विजयी होकर पंचायती राज के इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ा,कि अगर फटेहाल जिंदगी से बेहाल लोग जब किसी कार्य को करने की ठान ले, तो कोई ताकत भी उनको नही रोक सकती है, इसी तरह उत्तर प्रदेश में गाजीपुर जिले में 60 फीसदी महिलाओं को पंच निर्वाचित किया गया। जहांतक संसद और विधानमंडलों में महिलाओ के आरक्षण का प्रश्न है। तो यह समय संप्रग सरकार के लिए अनुकूल है। मुख्य विरोधी दल भाजपा सहित वाम मोर्चा उसके साथ है। इस विधेयक में आमूलचूल परिवर्तन की बात कहने वाले मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव अब उतनी मजबूत स्थिति में नहीं कि वह महिलाओं को आरक्षण से रोक पाएं। लेकिन इसका पास होना इतना आसान नहीं है। इस संदर्भ में इस विधेयक के विरोधियों के पक्ष को सहज खारिज नहीं किया जा सकता। विरोधियों की इस बात में दम है कि कानून पास होने से केवल संभ्रांत और ताकतवर परिवार की महिलाओं को ही इसका लाभ मिलेगा। दलित, पिछड़ी व अल्पसंख्यक महिलाएं इससे महरूम रहेंगी। इस सच्चाई को झुठलाया नहीं जा सकता कि आज भी मजबूरी में पार्टियां दलितों और पिछड़ों को टिकट देती हैं। इसके साथ यह भी तथ्य है कि रिजर्व सीट से कितनी महिलाओं को दलों ने अपना प्रत्याशी बनाया। क्या यह हकीकत नहीं है कि महिलाओं के नाम पर संसद और विधायिका में नेताओं के परिवार की महिलाएं अथवा उनकी प्रेमिकाएं ही चुनकर आती हैं। पार्टी की आम कार्यकर्ता महिला नहीं। यही स्थिति स्थानीय निकायों में हो रही है। जहां महिला रिजर्व सीट है। वहां काबिज प्रतिनिधि अपने परिवार की महिला को ही टिकट दिलवाते हैं। सरकार ने वादा किया है कि वह राष्ट्रिय महिला साक्षरता मिशन का गठन करेगी और महिलाओं को साक्षर बनाने संकल्प पूरा करेगी। सवाल इस बात का है कि क्या महिलाओं को वर्तमान प्रशासनिक मशीनरी के द्वारा साक्षर बनाया जाएगा अथवा सरकारी अनुदान को हजम करने में माहिर एनजीओ द्वारा साक्षर बनाया जाएगा। क्या फर्जी आंकड़ों के द्वारा साक्षरता का लक्ष्य पूरा होगा। इस बारे में यूपीए सरकार को सोचना होगा। केन्द्रीय नौकरियों में महिलाओं की कम भागीदारी पर चिंता व्यक्त करते राष्ट्रपति ने कहा कि वह उन्हें उचित प्रतिनिधित्व देगी। लेकिन सच्चाई यह है कि सरकारी नौकरियां धीरे-धीरे कम हो रही हैं। कम्प्यूटर और आउटसोर्सिंग के कारण वैसे ही सरकारी नौकरियों का अकाल है। बैंको सहित सरकारी प्रतिष्ठानों का अधिकांश कार्य ठेके पर हो रहा है। दूसरी ओर देश में करोड़ों बेरोजगारों की सेना है। यह बात समझ से परे है कि वह कैसे केन्द्रीय सेवाओं में महिलाओं को उचित भागीदारी देगी। देखते है आखिर मनमोहन की सरकार महिलाओं को कैसे मोहती है ?

और कुर्बान हो गये शशि

शशि थरूर को मनमोहन  सिंह और सोनिया गांधी ने बहुत जल्दी विदा कर दिया। दरअसल वे राजनीति में बिल्कुल नये थे। राजनेता किस तरह लंबे समय तक पिच पर जमे रहते हैं, यह सीखने में अभी उन्हें समय लगता। उन्हें मौका मिलता तो वे जरूर सीख लेते लेकिन उनके स्वभाव ने साथ नहीं दिया। उनके ट्वीट्स कई बार उन्हें मुश्किल में डाल चुके थे पर हर बार वे कोई न कोई सफाई देकर बच निकलने में कामयाब रहे। कई बार प्रेस पर गलतबयानी करने का आरोप लगाकर भी निकल भागे। पर आखिर में ललित मोदी के एक ट्वीट ने उन्हें ऐसी परेशानी में डाल दिया कि वे शहीद हो गये। वे इस बार भी बच जाते पर यह केवल उनकी पार्टी का मसला नहीं रह गया। विपक्ष बीच में कूद पड़ा। सरकार दबाव में आ गयी। अभी उसे कई ऐसी जिम्मेदारियां पूरी करनी हैं, जो विपक्ष की मदद के बिना पूरी नहीं हो पायेंगी। बजट पास कराना है, महिला बिल भी लटका हुआ है।

सरकार ने अपने स्वार्थ में शशि थरूर को बलि का बकरा बना दिया।अगर सुनंदा पुष्कर को आईपीएल कोचि फ्रेंचाइजी की मधुर इक्विटी का लाभ मिल रहा था तो यह वास्तव में उनके दोस्त मंत्री की कृपा का प्रसाद था या कुछ और, इसकी पूरी जाँच होनी चाहिए थी. बात केवल सुनंदा की ही नहीं है, आईपीएल के भीतर जो भी खेल चल रहे हैं, उन सबकी खबर लेनी चाहिए थी और जरूरी होने पर ललित मोदी से सचाई पूछी जानी चाहिए थी.  थरूर से उनकी कोई खटपट है तो सरकार को इस पर भी सोचना चाहिए था। यह काम तो सरकार का था कि वह आईपीएल में पैसा लगाने वाले सभी लोगों के खाते खंगालती। पर सरकार ने ज्यादा लंबा मामला खींचने की जगह थरूर की छुट्टी करने में ही भलाई समझी। अपने सर से बोझ उतार फेंका। जो तरीका अपनाया गया, वह असली समस्या पर गौर करने की जगह खुद को पाक-साफ दिखाने के लिए अपनाया गया कदम ज्यादा लगता है।

ललित मोदी के वैभव का राज क्या है, क्या सरकार को यह भी नहीं देखना चाहिए? यह ठीक बात है कि उन्होंने आईपीएल के जरिये देश के क्रिकेटप्रेमियों के सामने एक नया रोमांच पेश किया। दुनिया भर के बेहतरीन खिलाड़ियों को एक जगह अपनी करामात दिखाते देखना निश्चित ही आनंद देने वाला अनुभव है। साथ में बड़े सितारे और तारिकाओं का जमावड़ा और दुनिया के कोने-कोने से चुनी गयी सुंदरियों का नृत्य रूप-दर्शन किसे नहीं लुभाता है पर करोड़ों दर्शकों की जेब से निकले धन का यह वैभव किस-किस को कैसे-कैसे संपन्न कर रहा है, यह भी तो देखा जाना चाहिए। अब सरकार ने पूरे मामले की व्यापक जांच की घोषणा की है। देखना है वह किसकी-किसकी तिजोरी में झांकती है, कितनी काली भेंड़ों को पकड़ती है।

रविवार, 18 अप्रैल 2010

उर्दू शायरी में तखल्लुस और कविता में उपनाम की परंपरा

किसी भी कवि सम्मेलन को देखो अथवा मुशायरे को। वहां इस अदब के नामचीन लोग मिल जायेंगे। किसी का नाम भोंपू है तो कोई पागल है। कोई सरोज है तो कोई रंजन। कोई संन्यासी है तो कोई निखिल संन्यासी। लेकिन इस सच्चाई को बहंत कम लोग ही जानते होंगे कि इनके असली नाम कुछ और है और साहित्यिक अथवा मंचीय नाम कुछ और। लेकिन यह लोग साहित्यिक जगत में इन्हीं उपनामों से चर्चित हैं। यही स्थिति उर्दू शायरों की है। इनके उपनाम अथवा तखल्लुस भी इनके मूल नामों से सर्वथा भिन्न हैं। वस्तुतः भाषा किस प्रकार दूसरी भाषा पर अपना अटूट प्रभाव डालती हैं। इसका साक्षात उदाहरण है उर्दू शायरी में तखल्लुस और हिंदी कविता में उपनाम। कहा जाता है कि तखल्लुस की शुरूआत उर्दू शायरी के जन्म से ही है। पहले शायर दक्षिण के एक शासक वली दक्खिनी थे। उर्दू में शायद ही कोई ऐसा शायर होगा जिसका तखल्लुस न हो। जैसे बहादुरशाह जफर, रघुपति सहाय उर्फ फिराक गोरखपुरी, जोश मलीहाबादी, आलम फतेहपुरी, मोहम्मद इकबाल हुसैन उर्फ खलिस अकबराबादी, अबरार अहमद उर्फ गौहर अकबराबादी आदि नामों की लम्बी श्रृंखला है। हिंदी में मिलन, सरित, प्रेमी, रंजन, विभोर, बिरजू, आजाद, दानपुरी, दिलवर, संघर्ष, राज, सहज आदि उपनाम ताजनगरी में चर्चित हैं।आखिर क्या कारण था कि रचनाकारों को अपना उपनाम अथवा तखल्लुस रखना पड़ा। एक जनवादी कवि जो स्वयं अपना नाम बदल कर उपनामधारी हो चुके हैं। उनका कहना है कि हिंदी में अधिकांश गैर ब्राह्मण कवियों ने ही अपने नाम के पीछे उपनाम लगाये। इसका कारण यह था कि ब्राह्मण को तो जन्मजात् योग्य व विद्वान माना जाता है। अतः उन्हें अपना मूल नाम अथवा जातिसूचक शब्द हटाने की आवश्यकता ही नहीं थी। लेकिन गैर ब्राह्मणों के साथ यह संभवतः मजबूरी रही होगी। यही कारण है कि हिंदी कवियों में बहुतायत में गैर ब्राह्मणों ने ही उपनामों को अपनाया है। महाकवि निराला के बारे में यह स्पष्ट ही है कि उनका पूरा नाम सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला‘ था।उपनामों के बारे में एक अभिमत यह भी है कि अधिकांश मंचीय लोगों ने अपने उपनाम इसलिए रखे जिससे वह जनता में शीघ्र ही लोकप्रिय हो जाये। लोकप्रियता में उनके मूल नाम आड़े न आयें। यही कारण है कि गोपाल प्रसाद सक्सैना को पूरा देश नीरज के नाम से ही जानता है। व्यंकट बिहारी को पागल के नाम से, प्रभूदयाल गर्ग को काका हाथरसी, देवीदास शर्मा को निर्भय हाथरसी तथा राज कुमार अग्रवाल को विभांशु दिव्याल के नाम से हिंदी मंच जानता है।हां इसका अपवाद भी है पं. प्रदीप। जिन्होंने अपने द्वारा रचित भजन और फिल्मी गीतों से देश में धूम मचा दी थी। हे मेरे वतन के लोगों जरा आंखों में भर लो पानी.......जैसे अमर गीत के प्रणेता का वास्तविक नाम पं. रामचन्द द्विवेदी था लेकिन फिल्मी दुनियां में यह नाम अधिक लोगों की जुबां पर शायद ही चढ़ पाये इसलिए उन्हें प्रदीप के नाम से ही मशहूरी मिली। हिंदी रचनाकार पाण्डेय बैचेन शर्मा ‘उग्र‘ व चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी‘ आदि ने उपनाम भले ही लगाया हो लेकिन वह अपने ेजातिसूचक शब्दों का जरूर प्रयोग करते रहे। हिंदी में श्यामनारायण पाण्डेय, सोहन लाल द्विवेदी, द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी, मैथिलीशरण गुप्त, जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, सुमित्रानंदन पंत आदि ने कभी भी अपनामों का सहारा नहीं लिया और अपने मूल नामों से ही हिंदी जगत पर छाये रहे। जहां तक उर्दू शायरी का सवाल है। इसमें अधिकांश शायर अपने जन्मस्थानसूचक शब्द का ही अधिक प्रयोग करते हैं। जैसे दिल्ली में जन्मे शायर देंहलवी, आगरा के अकबराबादी, बरेली के बरेलवी, लुधियाना के लुधियानिवी, गोरखपुरी, जयपुरी आदि। इसके विपरीत उर्दू शायरी में ऐसे कुछ ही शायर भी हैं जो अपने जन्मस्थान सूचक शब्द को अपने नाम के आगे लगाने में परहेज करते हैं। जैसे के.के. सिंह मयंक, कृष्ण बिहारी नूर, बशीर वद्र आदि। मशहूर कवि और कथाकार रावी का वास्तविक नाम रामप्रसाद विद्य़ार्थी था। हिंदी जगत के प्रसिद्ध कवि सोम ठाकुर पहले सोम प्रकाश अम्बुज के नाम से जाने जाते थे। इसी प्रकार डा. कुलदीप का मूल नाम डा. मथुरा प्रसाद दुबे थाा। इसी प्रकार वरिष्ठ गीतकार चौ. सुखराम सिंह का सरकारी रिकार्ड में नाम एस.आर. वर्मा है। निखिल संन्यासी के नाम से चर्चित कवि का मूल नाम गोविंद बिहारी सक्सैना है। इसी प्रकार चर्चित गजलकार शलभ भारती का मूल नाम रामसिंह है। इसी श्रंखला में सुभाषी (थानसिंह शर्मा), पंकज (तोताराम शर्मा), रमेश पंडित (आर.सी.शर्मा), एस.के. शर्मा (पहले शिवसागर थे अब शिवसागर शर्मा), डा. राजकुमार रंजन (डा. आरके शर्मा) कैलाश मायावी (कैलाश चौहान) दिनेश संन्यासी (दिनेश चंद गुप्ता), पवन आगरी ( पवन कुमार अ्रग्रवाल), अनिल शनीचर (अनिल कुमार मेहरोत्रा), सुशील सरित (सुशील कुमार सक्सैना), हरि निर्मोही (हरिबाबू शर्मा), राजेन्द्र मिलन (राजेन्द्र सिंह), पहले रमेश शनीचर अब रमेश मुस्कान (रमेश चंद शर्मा) ओम ठाकुर (ओम प्रकाश कुशवाह) राज (एक का नाम राजबहादुर सिंह परमार है तो दूसरे राज का मूल नाम राजकुमार गोयल ह)

धधकतीं बस्तियां, जलते हुए लोग

यह किस्सा किसी किताब का या इतिहास के पन्नों का नहीं है। यह 21वीं सदी के उस भारत का है जिस पर देश के राजनेताओं, नौकरशाहों, श्रीमानों को नाज रहता है। घटना करीब दो साल पहले की है। बुंदेलखंड क्षेत्र के महोबा जनपद का एक गांव, जो लगातार चार साल से सूखे की मार झेल रहा था। उसी गांव में एक किसान परिवार रहता था। घर में पत्नी और दो-तीन बच्चे थे। खेत-बाड़ी काफी थी लेकिन लगातार सूखे के कारण फसलें चौपट हो गई थीं। ऊंचे दामों पर खरीदकर जो बीज बोये, वह भी बिना पानी के सूख चुके थे। कर्ज का बोझ बढ़ता जा रहा था। पहले खेती के लिए कर्ज लिया। बड़ी मुश्किल से कर्ज मिल पाता था। सरकारी अधिकारियों के दरवाजे चक्कर काटते-काटते उसकी चप्पलें टूट चुकी थीं। जितना मिलता था, उसका आधा तो उसे पाने में ही चुक जाता था। बाकी तपती धरती में खाक हो चुका था।

अब खाने के लिए कर्ज लेना पड़ रहा था। देनदारी बढ़ती जा रही थी। क्योंकि कर्ज वापस करने की सारी उम्मीदें सूख चुकी थी। इस कारण साहूकार अब खाने के नाम पर कर्ज देने को राजी नहीं थे। बैंकों की आरसी उसकी रात की नींद हराम किए हुए थी। उस दिन वह बहुत परेशान था। सुबह निकला था किसी काम की तलाश में पर नाउम्मीदी का गट्ठर लिए वह शाम को घर लौटा था। घर के हालात देख वह भूखे बच्चे की तरह बिलखने लगा था। लगातार कई दिनों की भूख से उसके बच्चे फूट-फूटकर रो रहे थे। पत्नी करीब-करीब अचेत सी एक टुटहे खटोले पर निढाल पड़ी थी। उसे अपने दुखों का दूर-दूर तक कोई अंत नहीं दिख रहा था। उसकी उम्मीदें हार गईं। हिम्मत जवाब दे गई। वह बच्चों के सोने का इंतजार करता रहा। उसी रात वह अंजुरीभर मिट्टी का तेल कहीं से मांग कर ले आया था। गांव के किसी अलंबरदार ने थोड़ी दया खाकर उसे दे दिया था, यह सोचकर कि घर में दीया जलाएगा।

वह एकाएक उठा और सोने के लिए बिछी टूटी चारपाई को झट से उठाया। एक मोटी सी रस्सी ली। चारपाई को कसकर अपनी कमर और पीठ से बांधा। रस्सी बहुत मजबूत बांधी ताकि खुलने की गुंजाइश न रहे। कमर से कपड़ा भी लपेट लिया था। मिट्टी के तेल को उठाया और कमर में बंधे कपड़े और चारपाई में डाल दिया। डालने का अंदाज ऐसा था कि पूरा कपड़ा मिट्टी के तेल से तर हो गया। माचिस उठाई और उसमें आग लगा दिया। एक जिंदा आदमी धूं-धूं कर जल रहा था। मौत बहुत बेरहम होती है। जलते समय उसे अपार पीड़ा हुई। चीखता-चिल्लाता वह बदहवाश भागने लगा। रात के सन्नाटे को चीरती उसकी चीख ने पूरे गांव को जगा दिया। मौत के इस रूप को देखकर सभी के रोंगटे खड़े हो गए। चाहते हुए भी कोई कुछ नहीं कर सकता था। अचेत पड़ी उसकी बीवी ने जैसे ही इस दृश्य को देखा,वह पागलों सी इधर-उधर भागने-चिल्लाने लगी। पर उसने मौत को इस कदर अपने शरीर से बांध रखा था कि कोई कुछ नहीं कर सका।

देखते ही देखते उसका शरीर राख में तब्दील हो गया। पूरे गांव की नींद उड़ गई थी। उसकी जिंदा लाश से रोज-रोज कर्ज का तकादा करने वाले गांव के साहूकारों में अजीब सा सन्नाटा था। आरसी जारी करने वाले बैंकों के मैनेजर भी सहम गए थे और चुप्पी साध ली थी। अखबारों में खबरें छप जाने के कारण प्रशासन हरकत में आया। पर वह यही साबित करने में लगा रहा कि वह भूख से नहीं मरा था। गृह कलह से तंग आकर उसने खुद को आग लगा ली थी। पर उस परिवार का कोई पैरोकार ही नहीं था। इसलिए थोड़े दिन की हलचल के बाद सब कुछ शांत हो चुका था। खबरिया चैनलों के एक संवाददाता हमारे मित्र हुआ करते हैं। वह इस बेईमान दुनिया में ईमान पर कायम रहने वाले दृष्टिसंपन्न व्यक्ति हैं। उन्होंने इस घटना का फालोअप कवर करने की ठानी। दिल्ली स्थित अपने मुख्यालय से बिना इजाजत लिए वह झांसी से महोबा चले गए। कैमरामैन को साथ लेकर बहुत मुश्किल से गांव पहुंचे। वहां के हालात देखकर उनका दिल दहल गया। वहां एक नहीं, कई घर कमोबेश ऐसे ही हालातों से होकर गुजर रहे थे। जिंदा राख हो चुके उस किसान के घर तो आज भी मौत भूख के रूप में डेरा जमाये हुए थी।

भूख और बीमारी से उसकी पत्नी भी मरणासन्न थी। दो बच्चे कई दिनों की बासी रोटी के टुकड़ों से जूझ रहे थे। उन टुकड़ों की खासियत यह थी कि उसे कुत्ते कहीं कूड़े के ढेर से उठा लाये थे। टुकड़े इतने कड़े हो चुके थे कि कुत्ते उसे हड्डियों की तरह चबाने की कोशिश कर रहे थे पर अनमने होकर छोड़ दे रहे थे। इंसान के वे बच्चे उन्हीं टुकड़ों पर अपनी जिंदगी की सांसें तलाश रहे थे। हमारे मित्र ने बहुत मन से डिस्पैच तैयार किया। विजुअल्स के साथ मुख्यालय भेजा। थोड़ी देर बाद एंकर ने जवाब दिया-यार मजा नहीं आया। मुख्य विजुअल तो है ही नहीं। यदि उसके जिंदा जलते हुए दृश्य मिल जाते तो अच्छी स्टोरी बनती। पर अब सब मामला ठंडा-ठंडा सा है। इससे टीआरपी नहीं बढ़ेगी। यह जवाब सुनकर मित्र ने मन ही मन फैसला लिया। कुछ महीनों बाद उन्होंने खबरिया चैनल से विदा ले ली।

एक साहित्यकार के पीछे पड़े झूठे और बीमार शब्दों के महारथी

दिल्ली में सबको पता है कि किस तरह वरिष्ठ पत्रकार वीरेंद्र सेंगर के मजबूत नाम की आड़ लेकर विभूति नारायण राय को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की गयी। यह सद्धर्म उन तथाकथित युधिष्ठिरों ने किया, जो शिक्षा जगत के सभी दुशासनों, दुर्योधनों को पराजित करने की तैयारी कर चुके हैं। पर वे नहीं जानते कि उनके हाथ में जो झूठ की म्यान है, उसमें से असली तलवार नहीं निकलने वाली।

एक हिंदी वाला हिंदी के नाते ही उलझन में है। कुछ लोग उसके पीछे पड़े हैं। दोनों हाथों में कीचड़ लिये, भद्दे शब्दों की बंदूकें ताने और झूठ की तीर-कमान साधे। उसे एक डमी की तरह मार गिराना चाहते हैं, उसका कमजोर परिंदे की तरह शिकार कर लेना चाहते हैं। उन्हें लग रहा है कि बस वह अब गिरा कि तब। पर जब हर वार के बाद वह सीधा खड़ा दिखता है तो वे खिसियाकर फिर अपने तरकश खाली कर देते हैं। कुछ तो इतने परेशान हैं कि उन्हें गालियां बकने मेें कोई परहेज नहीं है। कुछ सादगी और सम्मान दिखाते हुए लठियाने में जुटे हैं। जिस आदमी ने अपना अब तक का जीवन गरीबों, दलितों को सम्मान दिलाने के लिए खर्च किया, उस पर दलित उत्पीड़न का आरोप लगाया जा रहा है, जिस आदमी ने जाति के नाते अपने लोगों में कोई पहचान ही नहीं रखी, उसे जातिवादी ठहराया जा रहा है, जो पुलिस में रहकर भी आदमी बना रहा, उसे पुलिसिया, बूढ़ा होता तानाशाह, जिहादी, अंगूरीबाज, सोमरसी और न जाने क्या-क्या कहा जा रहा है। मीडिया के कुछ ज्ञानी महारथी अपने बेअसर होते शब्दों के कारण गालियों का नया शब्दकोश रचने में जुटे हैं।

एक तो वैसे ही मीडिया विश्वास के संकट से गुजर रहा है, शब्द अपनी सार्थकता खो रहे हैं, उनकी बदल देने या ध्वस्त कर देने की सामर्थ्य कम होती जा रही है, दूसरे उन्हें और भी कमजोर बना देने का जैसे अभियान ही छेड़ दिया गया हो। यह संजीदा पत्रकारों की भाषा नहीं लगती। जो भाषा कोई भी सभ्य समाज स्वीकार नहीं कर सकता, उसका प्रयोग धड़ल्ले से किया जा रहा है। पढ़े-लिखों की नजर में जो शब्द गालियां बन चुके हैं, उन्हें गंदे एवं बदबूदार तहखानों से घसीटकर बाहर निकाला जा रहा है और शिष्ट लोगों के दिमागों में ठूंसने की कोशिश की जा रही है। यह निरा बौद्धिक नंगई की तरह है। सभी जानते हैं कि भाषा की ताकत जब चुक जाती है, तर्क की सामर्थ्य जब खत्म हो जाती है, तब आदमी मुंह में गाली और हाथ में डंडा लेकर सामने आ खड़ा होता है, बिल्कुल जानवरों की तरह। क्या सचमुच पत्रकारों के सामने ऐसी मजबूरी आ गयी है कि वे शब्दों की संजीदगी और कानून के रास्ते से हटकर कलम की जगह लट्ठ का इस्तेमाल करें? अगर हां तो यह मीडिया का अब तक का सबसे बड़ा संकट है, उसकी सत्ता कायम रहने पर गंभीर सवाल है।

यह सब विभूति नारायण राय को लेकर चल रहा है। वे अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के कुलपति होने के नाते जाने जाते हैं, ऐसी बात नहीं है। उन्हें पहले से ही लोग जानते थे। उनके पुलिस में बड़े ओहदे के कारण नहीं बल्कि उनकी रचनाधर्मिता के कारण। अपने लेखन से वे बहुत पहले साहित्य में अपनी जगह बना चुके थे। सभी जानते हैं कि पुलिस में रहकर भी आदमी बने रहना कितना मुश्किल है। वे स्वयं स्वीकार करते हैं, 'पुलिस सेवा किसी भी अन्य नौकरी की तरह रचनात्मकता विरोधी है। अगर आप अपनी नौकरी के अतिरिक्त दिलचस्पी के दूसरे क्षेत्र नहीं रखेंगे तो धीरे-धीरे आप जानवर में तबदील हो जायेंगे। नौकरी में आने के बाद मैंने पढ़ने-लिखने का सिलसिला जारी रखा और इस तरह आदमी बने रहने का प्रयास करता रहा।' वे अपने प्रयास में सफल रहे या नहीं, वे मनुष्य हैं या नहीं , यह कौन तय करेगा? वे लोग, जो किसी स्वार्थ की पूर्ति न होने से उन पर एक साथ टूट पड़े हैं या वे जो किसी सम्मानित, प्रतिष्ठित और स्वाभिमानी पत्रकार के नाम से झूठा इंटरव्यू छापकर विभूति नारायन को छोटा करने की कोशिश कर रहे हैं?

आश्चर्य है कि नागपुर से छपने वाले एक अखबार ने दिल्ली के मीडिया जगत में तीन दशक से भी ज्यादा समय से अपनी इमानदारी, विश्वसनीयता और दो-टूक बात कहने के अंदाज के लिए जाने जाने वाले एक प्रतिष्ठित पत्रकार का ऐसा इंटरव्यू प्रकाशित किया, जो उन्होंने दिया ही नहीं। दुस्साहस की हद तो यह कि कई महीने से वह इंटरव्यू उस अखबार के लिए खबरें भेजने वाले एक तथाकथित क्रांतिकारी पत्रकार के ब्लाग पर पड़ा हुआ है। उसमें विभूति नारायण राय को जमकर कोसा गया है। जब यह बात खुली तो सभी सन्न रह गये। अब उसी अखबर के लोग आरोप लगा रहे हैं कि उनके साथ राय ने बदसलूकी की, कमरे में बुलाकर गालियां दी, लाठियों से धुनने की धमकी दी और हिंदी विश्वविद्यालय परिसर में उनके अखबार पर पाबंदी लगा दी। भाई मेरे, जैसा करोगे, वैसा भुगतना तो पड़ेगा ही। क्या यह सब अपने झूठ की पोल खुल जाने के बाद उधर से सबका ध्यान हटाने की कोशिश भर नहीं लगती? यह इंटरव्यू अभी भी दैनिक 1857 के दिल्ली के प्रतिनिधि के उस मशहूर ब्लाग पर पड़ा हुआ है, जो तमाम चोर-गुरुओं का कच्चा चिट्ठा खोलने में दिन-रात एक किये हुए हैं। अगर वे इतना नेक काम कर रहे थे, उच्च शिक्षण संस्थानों से भ्रष्टाचार को उखाड़ फेंकने की पवित्र मुहिम में संलग्न थे तो इसमें इस सफेद झूठ की मदद लेने की क्या जरूरत आ पड़ी? इस तरह वे एक मनुष्य को जानवर बनाने की कोशिश नहीं कर रहे थे तो क्या कर रहे थे?

मुझे कहने की आवश्यकता नहीं कि विभूति नारायण कौन हैं? उनके बारे में प्रसिद्ध बांग्ला साहित्यकार महाश्वेता देवी बहुत कुछ कह चुकीं हैं, नवारुण भट्टाचार्य बहुत कुछ लिख चुके हैं। हिंदी साहित्य में विभूति अपने रचनात्मक योगदान से जहां खड़े हैं, वह बहुत सारे लेखकों के लिए ईर्ष्या का विषय हो सकता है। वे अपने पहले ही उपन्यास 'घर' से चर्चा में आ गये थे। पुलिस की नौकरी में रहते हुए उन्होंने लगातार काम किया। 'शहर में कर्फ्यू', 'किस्सा लोकतंत्र', 'तबादला' और 'प्रेम की भूतकथा' तक उन्होंने जितनी ऊंचाई हासिल की, वैसी ऊंचाई इस उम्र में कम ही लेखकोंं ने अर्जित की है। व्यवस्था में रहते हुए उसकी चीर-फाड़ बहुत आसान काम नहीं है, पर यह उन्होंने पूरी निर्भयता से किया। व्यंग्य में 'एक छात्रनेता का रोजनामचा' और आलोचना में 'कथा साहित्य के सौ बरस' उनकी अन्य रचनाएं हैं। इन सबमें 'शहर में कर्फ्यू' का साहित्य की दुनिया ने भरपूर स्वागत किया। इस एक उपन्यास ने विभूति नारायण राय को हिंदी जगत में ऊंची जगह दिला दी। इसका अंग्रेजी, बांग्ला, मराठी, उर्दू, पंजाबी आदि कई भाषाओं में अनुवाद हुआ। नवारुण भट्टाचार्य ने लिखा है,'यह एक विस्मयकारी उपन्यास है। पुलिस में रहते हुए जिस तरह सत्ता और जनता के रिश्तों पर विभूति ने कलम चलायी है, वह विस्मयकारी है।' विभूति ने 'सांप्रदायिक दंगे और पुलिस' पर शोध भी किया, जो खासा चर्चित रहा।

मैं नहीं कहता कि चूंकि विभूति नारायण राय एक बड़े साहित्यकार हैं, प्रतिष्ठित रचनाकार हैं, इसलिए वे कोई भी गलती या गैरकानूनी काम करने के लिए स्वतंत्र हैं। मैं यह भी नहीं कहता कि उनके अतीत की उपलब्धियों के नाते हर गलती के लिए उन्हें माफ कर दिया जाना चाहिए। गलती कोई भी कर सकता है, कुछ लोग जानबूझकर भी गलतियां करते हैं। जिस गलती से किसी व्यक्ति, समाज या देश का नुकसान हो सकता है, उसका खुलकर प्रतिकार होना ही चाहिए। इसी संदर्भ में जहां तक विभूति नारायण राय का प्रश्न है, पहले तो यह तय होना चाहिए था कि उन्होंने कोई गलती की है या नहीं। उन्होंने एक भूमिहार को पत्रकारिता विभाग का अध्यक्ष बनाया, यह बात आखिर क्यों कही जा रही है? क्या भूमिहार होते ही कोई आदमी अयोग्य हो जाता है? और अगर अनिल कुमार राय अंकित अयोग्य थे, उन्होंने तमाम विदेशी लेखकों की किताबों से सामग्री बिना उनका संदर्भ दिये चुरा ली थी तो अब तक पत्रकारों की तत्वभेदी नजर उन पर क्यों नहीं गयी? वे वर्धा आने से पहले भी तो कई विश्वविद्यालयों में बड़े पदों को सुशोभित कर चुके थे? अब किसी नियुक्ति के पहले सीबीआई से जांच कराने की परंपरा तो है नहीं। हां, जब यह मामला प्रेस में आया तो इस पर जांच बिठा दी गयी है। उसका परिणाम आने तक तो धैर्य रखना चाहिए। एक प्रोफेसर की नियुक्ति का अनुमोदन न होने से भी उनके चहने वालों में नाराजगी है लेकिन सबको यह मालूम होना चाहिए कि किसी विश्वविद्यालय में कुलपति सर्वसमर्थ नहीं होता। अगर इ.सी., कार्य परिषद उसकी सिफारिश न माने तो? यह इस देश की स्वीकृत परंपरा है कि लोकतांत्रिक संस्थानों में किसी एक व्यक्ति को सारे अधिकार नहीं दिये जाते। विभूति स्वयं कह चुके हैं कि अंकित के मामले की जांच करायी जा रही है और अगर वे दोषी पाये गये तो बचेंगे नहीं, इसके बावजूद उनके लिए महाजुगाड़ी, शैक्षणिक कदाचारी, मैटर चोर प्रेमी पुलिसिया कुलपति जैसे संबोधनों का प्रयोग संयम खो देने या खिसिया जाने से इतर और क्या हो सकता है? लिखने की आजादी का अर्थ यह नहीं है कि भाषा की तमीज ही खो दें। कुछ भी ऐसा नहीं है जो संजीदा शब्दों में बयान नहीं हो सकता। तीखा से तीखा हमला भी संयत तरीके से किया जा सकता है। भाषा बिगड़ती है तो लगता है कि या तो कोई स्वार्थ है या गु्स्सा है या बोलने वाला भाषा में गंवार है।

दिल्ली में सबको पता है कि किस तरह वरिष्ठ पत्रकार वीरेंद्र सेंगर के मजबूत नाम की आड़ लेकर विभूति नारायण राय को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की गयी। यह सद्धर्म उन तथाकथित युधिष्ठिरों ने किया, जो शिक्षा जगत के सभी दुशासनों, दुर्योधनों को पराजित करने की तैयारी कर चुके हैं। पर वे नहीं जानते कि उनके हाथ में जो झूठ की म्यान है, उसमें से असली तलवार नहीं निकलने वाली। सच्ची लड़ाई के लिए हथियार भी सच्चे होने चाहिए। सच का महासमर झूठ के बूते नहीं जीता जा सकता क्योंकि झूठ का भांडा एक न एक दिन फूटता ही है। और जब आप के पास पुख्ता प्रमाण हों, मजबूत तर्क हों तो भाषा के कान उमेठने की कोई जरूरत ही नहीं है। ऐसे में तो साफ और सीधी बात में भी उन गालियों से ज्यादा ताकत होगी, जो सत्ताचक्र, दैनिक 1857 और कुछ अन्य अखाड़िये ब्लागबाज विभूतिनारायण राय के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं। हिंदी का मुंह टेढ़ा नहीं है। अगर कोई आईना आप का मुंह टेढ़ा दिखाये तो दोष आईने का ही होगा, उसमें चेहरा देखने वाले का नहीं। विभूति नारायण राय अगर समाज के दुश्मन हैं, हिंदी के शत्रु हैं, शिक्षा जगत के तानाशाह हैं तो साफ-सुथरी हिंदी में यह बात कहने की पूरी सामर्थ्य है, उसके लिए नये विद्रूप और बीमार शब्दों को गढ़ने की आवश्यकता नहीं है। कलम लिखने के काम आती है, खूब लिखिये लेकिन उसे किसी के सिर में घोंपने का पागलपन ठीक नहीं है। मैं विभूति नारायण राय, अनिल कुमार राय या अनिल चमड़िया में से किसी का बचाव या समर्थन नहीं करना चाहता लेकिन शब्दों की शक्ति और मर्यादा का बचाव करने के लिए हमेशा खड़ा मिलूंगा। आप अगर शब्दों से आजीविका कमा रहे हैं तो सत्य बोलिए, यह आप का धर्म है पर उनके लिए उचित शब्द भी चुनिये। तभी आप की बात लोग सुनेंगे, तभी उसका असर भी होगा।

शनिवार, 17 अप्रैल 2010

कौन खत्म करेगा जातिवाद

देश के सर्वोच्च न्यायालय ने पहली बार जातिवाद पर तीखी टिप्पणी करते हुए इसे अमानवीय करार दिया है। दलितों के सामूहिक नरसंहार में फैसला सुनाते समय यह टिप्पणी की कि जातिवाद का समूल नाश होना चाहिए। वस्तुतः जातिवाद के खिलाफ हमारे महापुरुषों स्वामी विवेकानंद, डा. अम्बेडकर और डा. राम मनोहर लोहिया आदि का अभिमत गलत नहीं था। उन्होंने भारतीय समाज में जातिवाद का भयंकर खतरे के रूप में देखा था। राष्टीय एकता और अखंडता के लिए वह जातिवाद को सबसे बड़ा दुश्मन मानते थे। इसीलिए यह महापुरुष आजीवन जातिप्रथा के खिलाफ संघर्षरत् रहे। जहां डा. अम्बेडकर जातिविहीन व शोषणविहीन समाज के हिमायती थे। वहीं जातिप्रथा के खिलाफ डा. लोहिया ने जाति तोड़ो का नारा दिया था। लेकिन हमने इन महापुरुषों की बात को हवा में उड़ा दिया जिसका खामियाजा आज सम्पूर्ण देश उठा रहा है। अफसोस इस बात का है कि न तो डा. अम्बेडकर के अनुयायियों ने उनकी जातिविहीन समाज की परिकल्पना को साकार करने का प्रयास किया और न ही डा. लोहिया के चेलों ने जाति तोड़ने में दिलचस्पी दिखाई। सुप्रीम कोर्ट ने इस मुद्दे पर अपना अभिमत जाहिर करके एक ज्वलंत बहस को जन्म दिया है।इस वास्तविकता से इंकार नहीं किया जा सकता कि जाति प्रथा इस देश में आदिकाल से चली आ रही है। इसके मूल में हमारे कथित धर्म हैं। हमारा हिंदू धर्म वर्ण व्यवस्था पर आधारित है जो मानता है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र से ही भारतीय समाज की संरचना हुई है। इसके साथ यह कहना समीचीन होगा कि इस वर्ण अथवा जाति-व्यवस्था की मुख्य विशेषता ऊंच-नीच भी है। अमुक जाति उच्च है कि अमुक जाति से नीची। इस जाति प्रथा ने मानव को जन्म से ही शर्मसार करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। कथित सवर्ण जहां जन्म के आधार पर अपने को श्रेष्ठता का अनुभव करता है वहीं दूसरी ओर शूद्र जन्म से ही अपने को नीच मानकर कुंठा और हीनभावना से ग्रसित हो जाता है। यह स्थिति केवल हिंदू धर्म में ही नहीं अपितु सभी धर्मों में है। जिन लोगों ने हिंदू धर्म की जाति व्यवस्था से त्रस्त होकर इस्लाम ग्रहण किया। वह भी जातिवाद के शिकार है। कथित उच्च कुंलीन मुस्लिम भी जातिवाद की बुराई से अलग नहीं हैं। यही स्थिति ईसाई धर्म में भी है। जो दलित जातियां जाति प्रथा से मुक्ति का सपना देखते-देखते क्रिश्चियन हो गई। वह भी अपने से दलित रूपी जिन्न को दूर नहीं कर पाई हैं। और तो और सिख धर्म जो मानवता का संदेश देता है। जिसके गुरूओं ने जातिवाद को मानवता के लिए खतरा बताया। वह भी जातिवाद की बीमारी से मुक्त नहीं है। आज भी पंजाब में दलित अथवा पिछड़े सिखों के अलग गुरूद्वारे दिखाई देते हैं। सवाल पैदा होता है कि जातिवाद को कौन दूर करेगा ? अगर करेगा भी तो क्यों ? जिस जाति के लोगों को जाति के नाम पर श्रेष्ठता की बीमारी लग चुकी है। उससे जातिवाद समाप्त करने की अपेक्षा करना क्या उचित होगा ? जो लोग जातिवाद के शिकार हैं और जिन पर जाति के नाम पर अत्याचार व अमानवीय व्यवहार होता है, क्या उनकी आवाज को देश सुनेगा। इस जातिवाद को मिटाने के लिए सरकारों की भूमिका क्या होगी ? यह प्रश्न भी मन को मथ रहा है। क्या इस समस्या को मिटाने में सामाजिक संगठन अपनी सक्रिय भूमिका निभायेंगे ? यह अनुत्तरित प्रश्न है।अगर सरकार की मंशा होती तो जातिवाद कब का समाप्त हो गया होता। लेकिन उसने इस ओर पहल नहीं की। बल्कि जातिवाद के सहारे अपनी राजनीति चलाते रहे। हां जातिवाद के खिलाफ चौ. चरण सिंह का एक साहसिक कदम याद आता है कि जब वह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे तो उन्होंने प्रदेश में जाति के आधार पर संचालित व सरकार द्वारा अनुदानित शिक्षण संस्थान के नाम बदलने के लिए इन संस्थानों के प्रबंधक मंडल को विवश कर दिया था। उनके प्रयास का यह परिणाम हुआ कि राजपूत कालेज आरबीएस कालेज बन गया। ब्राह्ण कालेज परशुराम तथा अग्रवाल कालेज महाराजा अग्रसेन कालेज बन गया। अगर अन्य राजनेताओं ने चौधरी साहब का अनुसरण किया होता तो निश्चित रूप से जातिवाद का प्रभाव अवश्य कम होता।यह प्रगति की ओर अग्रसर भारत के लिए शर्मनाम बात है कि वह आज भी जातिवाद रूपी बीमारी को ढो रहा है। जब समाज का समूचा ताना-बाना बदल रहा है। परम्परागत पेशे बदल रहे हैं। पढ़ने-पढ़ाने, लड़ने-लड़ाने, व्यापार तथा सेवा करने में समाज की सभी जातियों ने अपने मूल स्वरूप को छोड़ दिया है तो फिर जातिवाद की लाश को ढोने से क्या फायदा ? समय का तकाजा है कि सरकार और सामाजिक संगठनों को इस बीमारी से निजात दिलाने के लिए पहल करनी होगी तथा साहसिक फैसले लेने होंगे। सरकार को सबसे पहला काम जाति-आधारित संगठनों की गतिविधियों पर रोक लगानी होगी। जाति के नाम के मोहल्लों और गांवो के नाम बदलने होंगे। चुनाव से पूर्व जाति-वार आंकड़े जो अखबारों में छपते हैं, उनपर रोक लगानी होगी। सभी केन्द्रीय, प्रांतीय, सार्वजनिक उपक्रम, शिक्षा तथा व्यवसाय से जुड़े लोगों को जातिय संगठनों से जुड़ने पर रोक लगानी होगी। सभी राजनैतिक दलों, सामाजिक संगठनों को जाति संगठनों से जुड़े लोगों से परहेज करना होगा। विद्यालयों और नौकरी के फार्मों से जाति के नाम का कॉलम समाप्त करना होगा। सरकार को अंतरजातीय-अर्न्तधार्मिक विवाहों को प्रोत्साहित करना होगा। अगर संभव हो तो सरकारी नौकरी पाने की आवश्यक योग्यता में अन्तरजातीय विवाह का प्रावधान करना होगा। मीडिया भी जातिवाद के उन्मूलन में सकारात्मक व ऐतिहासिक भूमिका निभा सकता है। अगर वह अपने अखबारों, चैनल्स पर जाति संगठनों के समाचार और गतिविधियां को छापने अथवा प्रसारित करने पर पाबंदी लगा दे तो जातिवाद की कमर सहज ही टूट सकती है। लेकिन सौ टके का सवाल पैदा यह होता है कि समाज, सरकार, मीडिया जातिवाद को वास्तव में मिटाना चाहते हैं।

बिना दाम, नहीं कोई काम

बदलाव आना चाहिए। सभी लोग चाहते हैं कि व्यवस्था में बदलाव आना चाहिए। देश ने आजादी के बाद लोकतांत्रिक प्रणाली स्वीकार की। कहते हैं लोकतंत्र में जनता के लिए, जनता का शासन होता है। लेकिन भारतीय लोकतंत्र में ऐसा दिखता नहीं। जनता को प्रतिनिधि चुनने की आजादी है लेकिन अगर चुना हुआ प्रतिनिधि बाद में जनता की आकांक्षाओं पर खरा नहीं उतरता है तो भी वह उसे मजबूर नहीं कर सकती कि वह अपना पद छोड़कर हट जाये। कोई ऐसी व्यवस्था भी नहीं है कि वह अपने प्रतिनिधि की शिकायत करे और उस पर उचित कार्रवाई हो। इसलिए जो एक बार सांसद या विधायक चुन लिया गया, वह पांच साल तक अपनी मनमानी करने को आजाद हो जाता है। जनता सिर्फ इतना कर सकती है कि उसे दूसरी बार न चुने।

कहने को तंत्र लोक का है लेकिन लोक की चिंता करता कौन है? सांसदोंपर सवाल पूछने के लिए पैसा लेने के, मतविभाजन की परिस्थितियों में बिकने के भी आरोप लगाये जाते हैं। मंत्रियों तक के चाल-चलन पर सवाल उठते रहते हैं। जब कभी राजनीति में अपराधियों की घुसपैठ की बात होती है, दिल दहल जाता है। राज्यों की विधानसभाओं से लेकर संसद तक में ऐसे लोगों की अच्छी-खासी मौजूदगी है, जिन पर हत्या, बलात्कार और डकैती तक के गंभीरतम आरोप हैं। बड़ी से छोटी सभी पार्टियों में ऐसे बाहुबलियों की उपस्थिति देखी जा सकती है। अब तो कहा जाने लगा है कि राजनीति साफ-सुथरे लोगों का काम नहीं है। अगर आप नैतिक हैं, इमानदार हैं तो आप चुनाव कैसे लड़ेंगे, इतना पैसा कहां से लायेंगे? और अगर आप साहस करके धन जुटाना भी चाहते हैं तो कौन देगा आप को इतनी रकम? जाहिर है, वही लोग जो बाद में आप से अपने स्वार्थ पूरे करना चाहेंगे। क्या आप धन के लिए उन्हें ऐसा आश्वासन दे पायेंगे कि जो भी अल्लम-गल्लम वे चाहेंगे, उसके लिए आप मर मिटेंगे? नहीं तो आप के लिए वहां कोई जगह नहीं है। ऐसे में राजनीति के रास्ते उन लोगों के लिए साफ खुले हुए हैं, जो बेइमान हैं, भ्रष्ट हैं क्योंकि उन्हीं रास्तों से जल्दी और ज्यादा पैसा आता है।

नौकरशाही भी भ्रष्ट होने के लिए अभिशप्त है। वह राजनीतिक दबाव में काम करती है। यह उसकी नियति है। इसे स्वीकार न करने वाले को हमेशा अपना बोरिया-बिस्तर बांधे रहना पड़ता है। कभी-कभी कुछ लोग हिम्मत करते भी हैं लेकिन या तो टूट जाते हैं या उदास मन से किसी कोने में बैठकर अपने अवकाश ग्रहण करने के दिन गिनते रहते हैं। राजनीतिक आदर्शों और सिद्धांतों के अभाव में अवसरवादियों की बड़ी जमात खड़ी हो गयी है। जाति, संप्रदाय, भाषा और क्षेत्र के नाम पर उगते जा रहे छोटे-छोटे राजनीतिक दलों ने स्वेच्छाचारिता का पाखंड फैला रखा है। इनमें से कई गाहे-बगाहे सत्ता के पायदान तक भी पहुंच जाते हैं। वे पूरी प्रशासनिक मशीनरी को अपने मंतव्य की पूर्ति के लिए इस्तेमाल करते हैं। इन्हीं हालातों में कोई नोटों की माला पहनकर गौरवान्वित महसूस करता है तो कोई अपने गांव में हवाई पट्टी बनवाकर आत्ममुग्ध हो जाता है। कोई सरकारी खजाने का हजारों करोड़ अपने खातों में हस्तांतरित कर लेता है तो कोई चारे-चरवाहे के नाम पर माल गटक लेता है। अधिकारी इन सारे नेक कामों में राजनीतिज्ञों की मदद करते हैं। उनके पास कोई चारा नहीं।

इस राजनीतिक अराजकता में जनता क्या करे? अपनी समस्याएं कैसे निपटाये? उसकी सीधे कोई नहीं सुनता। थक-हारकर वह भी बहती गंगा में हाथ धोने लगती है। हर काम में रिश्वत। बिना दाम नहीं कोई काम। सामान्य तौर पर देखने से लगता है कि देश ने आजादी के बाद काफी तरक्की की है। लेकिन यह भी किसी से छिपा नहीं है कि बेइमानी, भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, मिलावटखोरी बड़े पैमाने पर बढ़ी है। गरीब और अमीर की खांई चौड़ी हुई है। चूंकि मौजूदा व्यवस्था में पैसा खर्च करने पर कठिन, असाध्य, असंभव और अवैध काम भी बहुत आसानी से हो जाते हैं, इसलिए जिनके पास पैसा है, वे और पैसा बना रहे हैं। गरीब की तो रोटी की समस्या ही हल नहीं हो पाती, फिर वह कैसे पैसे कमाने की सोचे।

ध्यान से देखें तो यह बहुत अमानवीय लगेगा। जो दिन भर मेहनत करता है, वह सबसे ज्यादा साधनहीन है, जो किंचित मेहनत नहीं करता, उस पर धन बरस रहा है। कहीं तो व्यवस्था में कोई खोट है, कोई बड़ी कमी है। इंदिराजी से लेकर अब तक सभी प्रधानमंत्री अर्थव्यवस्था का चेहरा मानवीय बनाने की बात करते आये हैं, लेकिन उसकी क्रूरता में कोई कमी नहीं आयी है। ऊपर से दिखायी भले न पड़े लेकिन भीतर ही भीतर देश की बड़ी आबादी में गहरी हताशा है, गुस्सा है और बौखलाहट है। कभी यह एक साथ उभरा तो उस आंधी को कोई सरकार रोक नहीं पायेगी।

शुक्रवार, 16 अप्रैल 2010

कोई कवि बन जाय, सहज संभाव्य नहीं

कविता क्या है? अक्सर यह सवाल किया जाता है। कोई नहीं जानता कि पहली कविता ने कब जन्म लिया, किसने सबसे पहले शब्द को कविता का रूप दिया लेकिन इतना कोई भी कह सकता है कि कविता ने दुख से ही जन्म लिया होगा। उमड़ कर आंखों से चुपचाप बही होगी कविता अनजान। दुनिया भर के विद्वानों, कवियों, आलोचकों ने कविता को परिभाषाओं में बांधने का काम किया। भारतीय मेधा ने स्वीकार किया कि रसो वै काव्यम। रस ही काव्य है। जिसे पढ़ने या सुनने से आदमी के भीतर बहुत गहरे रस की अनुभूति हो। उसे महसूस हो कि जो बात कही गयी लगती है, वह उतनी ही नहीं है। वह जितना डूबे, उतना ही आनंद से सराबोर होता चला जाय। यह आनंद अभिव्यक्ति की सचाई से पैदा होता है। सुनने वाला या पढ़ने वाला वैसी ही अनुभूति अपने भीतर ढूंढ लेता है और यह अनुभूति की साम्यता ही उसे आह्लादित करती है। गहरी पीड़ा की अभिव्यक्ति से एकाकार होते ही आंखों में आंसू आ जाते हैं। इस तरह कविता व्यक्ति को अपने कथ्य के केंद्र की ओर खींच ले जाती है। वह कवि की तरह ही सोचने लगता है, अनुभव करने लगता है। अगर कोई कविता ऐसा नहीं कर पाती तो उसके कविता होने पर संदेह स्वाभाविक है।

पश्चिमी विद्वानों ने भी कविता को समझने-समझाने की कोशिश की। वर्ड्सवर्थ ने कहा कि कविता गहरे भावों का आकुलता भरा उफनता प्रवाह है। एमिली डिकिंसन ने कहा कि जब मैं कोई पुस्तक पढ़ती  हूं और वह मुझे इतना शीतल कर देती है कि कोई भी आग गरम न कर पाये, मैं समझ जाती  हूं कि वह कविता के अलावा और कुछ नहीं हो सकती है। तमाम परिभाषाओं के बावजूद समय के साथ कविता अपने रूप बदलती रहती है और इसीलिए वह किसी भी परिभाषा में बंधने से इंकार करती रही है। फिर भी उसे समझने के लिए हमेशा ही नयी-नयी परिभाषाएँ गढ़ने की कोशिशें होती रहती हैं। पूरी दुनिया में कविता के आंदोलन चलते रहे हैं। अलग-अलग दौर में कविता को अलग-अलग तरीके से समझने का प्रयास किया गया। पारंपरिक अनुशासन को आवश्यक मानने वाले लोगों का कहना है कि कविता में गेय तत्व होना ही चाहिए अन्यथा गद्य और काव्य में अंतर क्या रह जायेगा। परंतु इस नाते क्या जो भी गेय हो, उसे कविता कह देना समीचीन होगा? कविता की और भी जरूरतें होती हैं और उनके होने पर ही वह कविता होगी।

कवि अपनी बात सीधे नहीं कहता। वह उसे कलात्मक संक्षिप्ति के साथ व्यक्त करता है। इस कला में शब्द की व्यंजना, बिम्ब, प्रतीक, ध्वन्यार्थ आदि आते हैं। यही कविता को सीधे गद्य से अलग करते हैं। गेयता भी काव्य कला का एक तत्व है, लेकिन एकमात्र या अंतिम तत्व नहीं। और यह भी जरूरी नहीं कि किसी कविता को कविता तभी माना जायेगा, जब उसमें सारे तत्व समाहित हों। इसी अर्थ में गेयता न भी हो और बाकी तत्व हों तो भी कविता बन सकती है। कविता की सबसे बड़ी ताकत उसमें पढ़ने या सुनने वाले की उपस्थिति है, आम आदमी की उपस्थिति है। यह काव्य का प्रमुख और अनिवार्य तत्व है। अगर कोई कविता सारे अनुशासन से लैस है, अलंकार, छन्द, प्रतीक, बिम्ब और उत्तम भाषा-शैली से भी संपन्न है लेकिन उसका कथ्य लोगों की संवेदना को झकझोरता नहीं, उनमें गुस्सा, भय, क्रोध या प्यार नहीं पैदा नहीं करता तो उसे कविता कहने की कोई मजबूरी नहीं है।

इसीलिए कविता करना बहुत कठिन और विरल बात है। कविता प्रयास और कल्पना से नहीं बनती। कवि जन्म लेता है, पैदा होता है। कोई भी कवि बन जाय, सहज संभाव्य नहीं है। शब्द जिसके हाथों में खेल सकते हों, अर्थ जिसके भाव का अनुगामी हो, ऐसे लोगों को प्रकृति अलग से ही रचती है। समय उन्हीं के चरण चूमता है, जो समय के आगे चल सकते हैं, सच्चे सपनों को पहचान सकते हैं और यह काम केवल कवि ही कर सकता है।

राहुल भ्रष्टाचार पर चुप क्यों

भ्रष्टाचार के बारे में सारा देश मौन है। लगता है कि सबने इस अपराध को स्वीकार कर लिया है। जब हमने अपराध को स्वीकार कर ही लिया है तो विकास के नाम पर नारेबाजी  क्यों। राहुल गाँधी कहते हैं कि उत्तर प्रदेश में मनरेगा सहित केंद्र की अन्य योजनाओं का सही ढंग से क्रियान्वयन  नहीं हो रहा है। सरकार गरीबों की सुध नहीं ले रही है। उन्हें एक बात माननी होगी कि जब केंद्र सरकार ने भ्रष्टाचार को अपराध ही नहीं माना तो उत्तर प्रदेश में क्या गलत हो रहा है। सारे  देश में भ्रष्टाचार का परचम लहरा रहा है। विकास के नाम पर भ्रष्टाचार सही नहीं ठहराया जा सकता लेकिन सेना सहित प्रशासन के सभी अंगों में यह पूरी तरह हाबी है।  आज ईमानदार आदमी को उसके घरवाले भी पसंद नहीं करते। समाज में भी उसका स्थान निरंतर नीचे की और जा रहा है। और तो और मालिक भी ईमानदार को पसंद नहीं करते। जो मालिकों का टैक्स बचा सके, उनके काले धंधे को चला सके, रिश्वत देकर उनकी समस्या का समाधान करवा सके, वही आदर के पात्र होते हैं । मेरा मानना हैं कि देश विदेशी हमले से नहीं अपितु भ्रष्टाचार से गुलाम होगा। हमारा देश तो महान है पर उसका दुर्भाग्य कि यहाँ हर आदमी बिकाऊ है। सांसद , विधायकों को तो जनता ने खुलेआम बिकते देखा है। नौकरशाही इसमें पूरी तरह लिप्त है। न्याय भी बिना पैसे के नहीं मिलता। इससे बड़ा इस देश का दुर्भाग्य क्या होगा जहाँ रिश्वत देकर सेना में सिपाही भर्ती होता है।रिश्वत देकर भर्ती युवा में क्या देशभक्ति की भावना होगी। वह दुश्मन के सामने गोली चलाएगा या पीठ दिखाकर भाग जायेगा। पुलिस में बिना रिश्वत दिए कोई युवा प्रवेश नहीं कर सकता। आजकर डाक्टर और इंजीनीयर भी पैसे देकर तैयार किये जाते हैं। भगवान के दर्शन भी बिना पैसे के नहीं हो सकते। जब सब कुछ पैसा ही है तो फिर इस भ्रष्टाचार पर घडियाली आंसूं क्यों। क्या राहुल गाँधी उत्तर प्रदेश को कोसने की बजाए अगर भ्रष्टाचार के खिलाफ देशव्यापी अभियान छेड़ें तो उनके राजनीतिक भविष्य के लिए अच्छा होगा। लेकिन वह ऐसा नहीं करेंगे। उनकी पार्टी के अधिकांश सांसद, विधायक और मंत्री अरबपति और करोडपति हैं। वह यह भी जानते हैं कि इतना पैसा बिना बेईमानी के नहीं आ सकता। वह अपनी पार्टी का टिकट  भी उसी व्यक्ति को देंगे जो चुनाव का खर्चा उठा सके। आज उनके साथ जो युवा नेता हैं। वह सब धनी हैं। गरीबी की लड़ाई लड़ने के लिए राहुल गाँधी को भ्रष्टाचार के खिलाफ भी आन्दोलन करना होगा. परन्तु क्या वह यह साहस कर सकेंगे। क्या राहुल गाँधी  भ्रष्टाचारियों को खुलेआम फांसी देने की वकालत करेंगे।

सादगी का सम्मान


आगरा हिंदी का प्रमुख केंद्र रहा है। हिंदी साहित्य और पत्रकारिता में यहाँ के लोगों ने कीर्तिमान स्थापित किये हैं। इसी भूमि पर जन्म लिया है डा लाल बहादुर सिंह चौहान ने . कृशकाय शरीर, लम्बा कद, सादगी भरा जीवन. उन्हें देखकर कोई कह नहीं सकता कि ये हिंदी के जाने-माने साहित्यसेवी हैं. बोलचाल में सरलता. अहंकार दूर तक नहीं। यह रचनाकार लगभग अस्सी पुस्तकों का सर्जक है। कहने को तो वे न्यू आगरा इलाके में रहते हैं लेकिन उनके आस-पास के लोग तब चकित रह गए जब उन्हें अख़बार और दूरदर्शन से एक दिन मालूम पड़ा कि डाक्टर चौहान को भारत सरकार ने शिक्षा और साहित्य में पद्मश्री देने का फैसला किया है। देखते ही देखते वे आम से खास बन गए। डाक्टर साहब केवल साहित्यकार ही नहीं हैं अपितु समाजसेवी भी हैं। वह अन्य लोगों की तरह अपनी महानता और दानवीरता का बखान नहीं करते बल्कि मौन साधक के रूप में अपनी सेवा में तल्लीन रहते हैं। ज़र, जोरू और ज़मीं के लिए हमेशा से संघर्ष होते रहें हैं। लोग एक इंच ज़मीं के लिए जान दे और ले लेते हैं। ऐसे भौतिकवादी युग में डाक्टर चौहान ने अपने एत्मादपुर स्थित ग्राम बमनी में कई बीघा ज़मीं सरकार को स्कूल और चिकित्सालय खोलने के लिए दान कर दी। वह संगीत के भी शौक़ीन हैं। उन्हें देश की कई संस्थाओं से पुरस्कार मिल चुके हैं। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान उन्हें विज्ञानं भूषण की उपाधि से अलंकृत कर चुका है । हिंदी में उन्होंने नाटक, कविता, कहानी, जीवनी, उपन्यास आदि लिखे हैं। अनुगूँज उनका चर्चित काव्य संग्रह है। अभी 7 अप्रेल को देश के महामहिम राष्ट्रपति ने उन्हें पद्मश्री से अलंकृत किया हैं। बयोवृद्ध होने के बाद भी उनका जोश युवाओं को मात कर देता है। उनकी तमन्ना हिंदी साहित्य का शिखर छूने की है। उनके चाचा डॉ शिवदान सिंह चौहान हिंदी के महान आलोचक थे। उनकी प्रेरणा से ही लाल बहादुर इस क्षेत्र में आये। पद्मश्री डाक्टर लाल बहादुर सिंह चौहान का पता ४६ दयाल बाग़ रोड, न्यू आगरा, आगरा तथा मोबाईल नंबर ९४५६४०२२७४ है.

गुरुवार, 15 अप्रैल 2010

संसद सुन रही है क्या

आखिर जनता की पीड़ा से जुड़ी खबरें अक्सर छोटी क्यों हो जाती हैं? उन पर संसद में चर्चा क्यों नहीं होती? पीड़ित लोगों को सहारा देने के लिए हंगामे क्यों नहीं होते? संसद क्या निजी वैमनस्य और दलगत प्रतिद्वंद्विता निपटाने की चौपाल है? वहां अपनी महिला दोस्त पर मेहरबानी के लिए शशि थरूर के मामले को तूल दिया जाता है क्योंकि इससे विपक्षी पार्टियों को सत्तारूढ़ दल को घेरने, उसे नंगा करने में मदद मिल सकती है। वहां दांतेवाड़ा के नरसंहार पर केवल इसलिए हल्ला मचाया जाता है कि इससे कांग्रेस को पसीना आ सकता है।


थरूर का मामला बेशक महत्वपूर्ण है क्योंकि इसमें हो सकता है कि मंत्री ने अपनी दोस्त को आर्थिक लाभ पहुंचाने के लिए अपने पद का, अपनी शक्ति का दुरुपयोग किया हो। इसकी जांच होनी ही चाहिए। इसी तरह दांतेवाड़ा में हमारी सरकार और खुफिया तंत्र की असफलता विचारणीय है,  देश की सुरक्षा को कैसे मजबूत किया जाय, यह भी खासा महत्व का सवाल हो सकता है लेकिन इससे भी ज्यादा खास बात उन परिवारों की ओर नजर डालने की है, जिनके बच्चे नक्सलियों के शिकार बन गये। उनका क्या दोष था, वे तो अपने कर्तव्य का पालन कर रहे थे। यह इसलिए जरूरी है कि कहीं लोगों का सरकार की कायराना हरकत देखकर राज्य की शक्ति से भरोसा न उठ जाय और वे अपने बच्चों को सेना और अर्धसैन्य बलों में भेजना बंद न कर दें।

इन मामलों पर सकारात्मक दृष्टिकोण से बात होनी चाहिए ताकि सत्ता पक्ष और विपक्ष मिलकर इन प्रश्नों पर गंभीरता से गौर करें और समाज और देश के लिए उचित रास्ता निकालें। ऐसा कुछ हो कि गलतियां दुहराने के अवसर न आयें। अगर कोई भ्रष्ट हैं, तो वह पद पर बने रहने में कामयाब न हो और कोई साफ-सुथरा है तो उसे अनावश्यक लांछनों में न घिरना पड़े। इसी तरह देश के भीतर देश के खिलाफ लड़ने वाले लोगों की नकेल इस तरह कसी जाय कि उनके हाथ फिर किसी निर्दोष पर उठने से पहले कांपें। केवल खेमेबाजी करके एक-दूसरे को घेरने और हल्ला मचाने में संसद का कीमती समय जाया नहीं होना चाहिए।

परंतु इन बहसों में डूबकर हम जनता पर आयी आपदाओं को नजरंदाज कर दें, यह निश्चित ही आपत्तिजनक है। असम, पश्चिम बंगाल और बिहार के कई इलाकों में तूफान से लाखों लोग बेघर हो गये हैं, डेढ़ सौ से ज्यादा लोगों की जानें चलीं गयीं हैं। इस हल्ले-हंगामें में हमने उधर देखा ही नहीं। संसद में पीड़ितों के प्रति न तो कोई सहानुभूति जतायी गयी, न ही उनकी मदद के लिए कोई बात कही गयी। वास्तविक संकट में जनता के प्रति हमारे जनप्रतिनिधियों की यह आपराधिक उदासीनता अत्यंत शर्मनाक है। इसकी जितनी  निंदा की जाये, कम होगी।

याद में तूफान उठता है

मित्रों, मन यूँ ही कभी-कभी कुछ पंक्तियाँ सहेजता रहता है. कभी पन्ने पर उतर जातीं हैं, कभी मन के आकाश में खो जातीं हैं. ये  कुछ शब्द उतर आयें हैं. सोचा आप तक पहुँच जायं......

स्वाद अच्छा रंग अच्छा रूप अच्छा है
देख इसकी आड़  में ये जाल किसका है

घाव ताजा है खुला मत छोड़ तू इसको
इस तरह की चोट से तो खून रिसता है

एक जंगल था नदी थी और कल-कल था
इस तरफ अब धूल का तूफान उठता है

आँधियों के साथ दिन भर भागते रहना
क्या कहूँ हर शाम कितना पांव दुखता है

मेघ का झरना गली में बाढ़  का आना
याद में है याद में तूफान उठता है

धमनियों में लपलपाती जीभ का हिलना
थरथराती   देह मेरा दांत बजता है