सोमवार, 31 मई 2010

विनाश का द्वार दिखता ही नहीं

आदमी अकेला नहीं जी सकता। उसकी जिंदगी धरती के अन्य प्राणियों से बेतरह जुड़ी हुई है। वह बहुत खतरनाक समय होगा, जब धरती पर केवल आदमी बच जायेगा। यद्यपि इस तरह की कल्पना की अभी कोई गुंजाइश नहीं दिखती लेकिन हम धीरे-धीरे उसी दिशा में बढ़ रहे हैं। दरअसल आदमी बहुत स्वार्थी हो गया है। वह सिर्फ और सिर्फ अपनी चिंता करता है। बाकी जीवधारियों की चिंता के लिए उसके पास वक्त नहीं है।

सभी जानते हैं कि पर्यावरण में हर प्राणी की अपनी जगह है और कोई न कोई महत्वपूर्ण भूमिका उसे मिली हुई है। बहुत सारे पक्षी और छोटे उड़ने वाले जीव फलों और बीजों को दूर तक ले जाते हैं और इस तरह प्रकृति की विविधता के विस्तार में सहायक होते हैं। अनेक जानवर आदमी द्वारा इकट्ठे किये गये कूड़े-कचरे को साफ करते हैं, वह उनकी भोजन की कड़ी के रूप में इस्तेमाल होता है। कई पशु-पक्षी मरे हुए जानवरों को खाते हैं और इस तरह वे वातावरण को संतुलित रखने में मदद करते हैं। कई कीड़े ऐसे होते हैं जो जमीन की उर्वरा बढ़ाने में सहायक होते हैं और इस तरह आदमी की खाद्यान्न समस्या हल करने में मदद करते हैं।

ध्यान से देखें तो प्रकृति ने सभी प्राणियों के जीवन में अन्योन्याश्रय का संबंध बना रखा है। सृजन और विनाश की जो प्रक्रिया प्रकृति में निरंतर चलती रहती है, वह बड़ी ही अद्भुत है। जंगल में एक जानवर मरता है तो उसके शरीर से अनेक जानवर पोषण प्राप्त करते हैं। हड्डियों से चिपका जो कुछ थोड़ा-बहुत बच जाता है, उस पर छोटे-छोटे कीट पलते हैं। बचे हुए हिस्से का भी विघटन हो जाता है और वह मिट्टी के साथ मिलकर उसकी उपजाऊ शक्ति को बढ़ा देता है। दूर कहीं से हवा में उड़ते हुए बीज आकर जब वहां गिरते हैं तो अपने-आप उग आते हैं। नयी सृष्टि नयी कोंपलों में व्यक्त हो उठती हैं। यह विनाश पर सृजन नहीं तो और क्या है।

प्रकृति अपना कुछ भी जाया नहीं करती। जो चीजें आदमी के लिए घृणास्पद और त्याज्य हैं, उनका भी मनुष्य के उपयोग के लिए ही प्रकृति रूपांतरण कर देती है। हम जो त्याग देते हैं, उससे भी कुछ प्राणी पोषण प्राप्त कर लेते हैं और जो बच जाता है, वह रूपांतरित होकर अन्न या फल के रूप में हमारे पास ही वापस आ जाता है। बड़ी अद्भुत व्यवस्था है। लेकिन इस व्यवस्था को आदमी ही अपनी नासमझी से नष्ट कर रहा है।

शहर बढ़ रहे हैं, जंगल कम हो रहे हैं, पेड़ कट रहे हैं। इस नाते तमाम प्राणियों का प्राकृतिक आवास खत्म हो रहा है। जाहिर है वे खुले आसमान में अपनी रक्षा नहीं कर सकते। इससे दुहरा नुकसान हो रहा है। एक तो कई पशु-पक्षी धीरे-धीरे विलुप्त होने के कगार पर हैं, दूसरे प्राकृतिक संतुलन डगमगा रहा है। इस बार की गर्मी को ही लीजिए. कितनी भयानक है, आप कल्पना नहीं कर सकते। आम तौर पर 45 डिग्री से ऊपर तापमान। कई जगहों पर इससे भी ज्यादा। सहना मुश्किल है। जब आदमी इससे परेशान है तो पशु-पक्षियों का क्या हाल होगा।

सौ साल का रिकार्ड टूट रहा है। इतनी गर्मी पहले नहीं पड़ी। गर्मी ही क्यों, पिछली ठंड ने यूरोप और अमेरिका को जमा ही दिया था। दुबई में बर्फ पड़ी, कोई सोच भी नहीं सकता। बारिश अमूमन या तो बहुत भयानक होती है या होती ही नहीं। यह सारे खतरे आदमी ने खड़े किये हैं। खास तौर से औद्योगिक रूप से विकसित देशों ने। अब वे खतरा पहचानने भी लगे हैं लेकिन पीछे लौटने में बड़ी मुश्किल है। आगे विनाश का द्वार है पर तय कर लिया है कि आगे ही बढ़ते जाना है।

पिछले दिनों बड़ी चर्चा हुई, अब गिद्ध नहीं दिखते। पर अब तो बहुत सारे पक्षी नहीं दिखते, बहुत सारे कीट-पतंग जो हम-आप बचपन में गांवों में देखते थे, अब कहां हैं। गौरेया कितनी बची हैं? भगजोगनी कहां गयी? जुलाहे कहां हैं? बतखें कितनी बचीं? अगर हम इनके बारे में नहीं सोचेंगे तो हमारे जीवन के बारे में प्रकृति भी नहीं सोचेगी, यह साफ-साफ समझ लेने की जरूरत है।

रविवार, 30 मई 2010

नजर एटवी के जाने का मतलब



(शाहिद नदीम द्वारा प्रस्तुत)

शऊर फिक्रो-अमल दूर-दूर छोड़ गया, वो जिंदगी के अंधेरों में नूर छोड़ गया.
नजर एटवी साहब बिना किसी को खबर किये चुपचाप रुखसत हो गए. हम सबको आंसू बहाने का भी मौका नहीं दिया. पता नहीं कितने लोग होंगे जिनको कई सप्ताह  तक खबर नहीं हुई. मीडिया भी अब साफ-सुथरे, इमानदार और नेक इंसानों की मौत की परवाह नहीं करता, इसीलिए  उनके जाने की खबर एटा के अख़बारों में भले ही छप कर रह गयी हो, पर बड़ी खबर नहीं बन सकी. यह  उलाहना इसलिए  मुनासिब लग रहा है क्योंकि वे  केवल अच्छे इन्सान ही नहीं, उर्दू-हिंदी और हिन्दुस्तानी के एक बड़े अदीब थे, चमकते शायर थे. उनके जाने से हिन्दुस्तानी जुबान और अदब का जो नुकसान हुआ है, वह कभी पूरा नहीं हो सकता. उर्दू मुशायरों पर वे लगातार ३५ सालों से छाये हुए थे. विदेशों से भी उन्हें मुशायरों में बुलाया जाता था. वे खुद भी अदबी गोष्ठियां और मुशायरे करते रहते थे और हमेशा इस बात का ख्याल रखते थे कि  उसका मयार और संजीदगी कायम रहे. उनकी अपनी शायरी के क्या कहने. उसमें समाज और मुल्क के मुस्तकबिल के चिराग रोशन थे. उन्होंने कुछ समय तक लकीर नाम से एक अख़बार भी निकाला. उर्दू जुबान की जो खिदमत उन्होंने की, उसकी कितनी भी तारीफ की जाय काम होगी.
नजर एटवी का जन्म २८ फरवरी १९५३ को एटा के हाता प्यारेलाल में हुआ था. उनका बचपन का नाम शमसुल हसन था. उनके पिता अब्दुल लतीफ़ सिविल कोर्ट में काम करते थे. प्रारंभिक शिक्षा आर्य विद्यालय एटा में हुई. एटा से ही उन्होंने बी ए किया. पहले उनकी दिलचस्पी  फिल्मों में थी. १९७२ में वे उर्दू शायरी की ओर  मुड़े और बहुत जल्दी वहां अपना बेहतर मुकाम बना लिया.
अभी  उम्र भी क्या थी. यही कोई ५६  साल. यह भी कोई जाने की उम्र है. अभी तो उनसे समाज को, शायरी को बहुत कुछ हासिल होना था. वह एक मई २०१० का मनहूस दिन था, जो उन्हें हमसे छीन ले गया. बुखार आया और चढ़ता ही गया. रक्तचाप कम होता गया और वे बचाए नहीं जा सके.  इतने वक्त तक उनके जाने की खबर एटा से आगरा तक दो सौ किलोमीटर भी नहीं पहुंची. पहुंची भी तो कुछ ऐसे लोगों के पास रही, जिन्होंने दूसरों से शेयर नहीं किया. उनकी याद में लोग बैठे नहीं, एक गोष्ठी तक कायदे से नहीं हुई. समाज और अदब के लिए जीने-मरने वालों की क्या इतनी ही कद्र यह समाज करता है? बड़े अफसोस की बात है. इतने कम समय में भी उन्होंने बहुत लिखा, बहुत काम किया, पर वह सब भी पता नहीं अब शायरी के प्रेमियों तक पहुँच पायेगा  या नहीं. एक संग्रह जरूर उनके नाम साया हुआ है. उसका उन्वान है, सीप. उनके लिए यही सबसे बड़ी श्रद्धांजलि होगी कि उनके कलाम लोगों तक पहुंचें. सीपी से नजर साहब की तीन गजलें यहाँ पेश हैं-

१.
तूने चाहा नहीं हालात बदल सकते थे
मेरे आंसू तेरी आँखों से निकल सकते थे.

तुमने अल्फाज की तासीर को परखा ही नहीं
नर्म लहजे से तो पत्थर भी पिघल सकते थे

तुम तो ठहरे ही रहे झील के पानी की तरह
दरिया बनते तो बहुत दूर निकल सकते थे

क्यूँ बताते उन्हें सच्चाई हमारे रहबर
झूठे वादों से भी जो लोग पिघल सकते थे

होठ सी लेना ही बेहतर था किसी का
लबकुशाई से कई नाम उछल सकते थे

क़त्ल इन्साफ का होता है जहाँ शामो-सहर
ऐसे माहौल में हम किस तरह ढल सकते थे

डर गए हैं जो हवाओं के कसीदे सुनकर
वो दिए तुमने जलाये नहीं, जल सकते थे

हादसे इतने जियादा थे वतन में अपने
खून से छप के भी अख़बार निकल सकते थे

२.
तेरे लिए जहमत है मेरे लिए नजराना
जुगनू की तरह आना, खुशबू की तरह जाना

मौसम ने परिंदों को यह बात बता दी है
उस झील पे  खतरा है, उस झील पे मत जाना

मैंने तो किताबों में कुछ फूल ही रखे थे
दुनिया ने बना डाला कुछ और ही अफसाना

जब मैंने फसादों की तारीख को दुहराया
रोती मिली आबादी हँसता मिला वीराना

खाई है कसम तुमने वापिस नहीं लौटोगे
कश्ती को जला देना जब पार उतर जाना

चेहरे के नुकूश इतने सदमों ने बदल डाले
लोगों ने मुझे मेरी आवाज से पहचाना

३.
उनकी यादों का जश्न जारी है
आज की रात हम पे भारी है

फासले कुर्बतों में बदलेंगे
होंठ उनके दुआ हमारी है

अब बहुत हंस चुके मेरे आंसू
कहकहों  अब तुम्हारी बारी है

मुझसे ये कह के सो गया सूरज
अब चरागों की जिम्मेदारी  है

सिर्फ मीजाने-वक्त है वाकिफ
आसमाँ से जमीन  भारी है

जिक्र जिसका नजर नजर है नजर
उस नजर पर नजर हमारी है.

शुक्रवार, 28 मई 2010

बंदूकों की नाल से सत्ता नहीं निकलेगी

फिर एक बार नक्सलियों ने सत्ता को चुनौती दी है। मुंबई जा रही ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस के ट्रैक पर धमाका करके 65 लोगों की जान ले ली है। नक्सलियों के समर्थक बुद्धिजीवी उनका पक्ष लेते हुए कहते हैं कि समस्या के मूल में जाना होगा, समझना होगा कि वे आखिर बंदूक उठाने को मजबूर क्यों हुए। क्या वे बता सकते हैं कि इन हत्याओं से आदिवासियों की, गरीबों की समस्याएं हल हो जायेंगी? क्या इस तरह नक्सली बहुसंख्य देशवासियों की सहानुभूति खो नहीं रहे हैं? यह सर्वहारा के कल्याण का दर्शन है या निरा पागलपन?

मार्क्सवाद अपने सैद्धांतिक चेहरे में पूरी तरह मानवीय दिखता है क्योंकि वह शक्तिसंपन्न वर्ग के हाथों शोषण के शिकार लोगों के हक की बात करता है, वह तमाम असुविधाओं में जिंदगी बसर करने वाले मजदूरों, किसानों, दलितों और गरीबों की बात करता है। यह सही है कि मौजूदा व्यवस्था गरीब को और गरीब तथा अमीर को और अमीर बनाने का औजार बन गयी है लेकिन केवल इसलिए किसी को निर्दोषों की हत्या की आजादी नहीं मिल सकती।

माओ ने कहा था कि सत्ता बंदूक की नाल से निकलती है और माओवादी नक्सली जानते हैं कि माओ का प्रयोग अभी असफल नहीं हुआ है, इसलिए उन्हें पूरा भरोसा है कि वे बंदूक और बारूद की ताकत से एक न एक दिन हिंदुस्तान की सत्ता पर कब्जा कर लेंगे। वे शायद इस बात पर नहीं सोचते कि दार्शनिक माओ और शासक माओ में कितना अंतर था? क्या चीन में क्रांति के बाद सत्ता सर्वहारा के हाथ में आयी? क्या वहां सचमुच सामाजिक बराबरी आ पायी? सच तो यह है कि जब तक क्रांति नहीं होती है तब तक तो सर्वहारा के शासन की बात की जाती है, गरीबों के अधिकार की बात की जाती है लेकिन एक बार सत्ता हाथ में आते ही सारे अधिकार मुट्ठी भर लोगों के हाथ में सिमट जाते हैं, विरोध और असहमति की आजादी छीन ली जाती है, किसी एक प्रभुतासंपन्न तानाशाह या समूह की तानाशाही के हाथ में मनमानी ताकत आ जाती है। सर्वहारा मुंह ताकता रह जाता है।

हिंदुस्तान के नक्सलियों को यह भी नहीं दिखायी पड़ता कि चीन ने किस चालाकी के साथ संभावित उथल-पुथल से बचने के लिए अपनी सत्ता की गाड़ी पूंजीवादी समाजवाद के रास्ते पर मोड़ दी। चीन की समृद्धि देखकर यह अंदाज नहीं लगाना चाहिए कि वहां के सत्तानायकों में उदारता आ गयी है, वे अपने किसी भी विरोधी के प्रति न सिर्फ परम अनुदार हैं, बल्कि निर्मम और क्रूर भी हैं। तिब्बत में क्या किया उन्होंने? अपने ही राज्य शिनजियांग में क्या किया उन्होंने? क्या सत्ता में आकर किसान या सर्वहारा इतना कसाई हो सकता है?

छिपकर लोगों पर हमला करना और उन्हें मार देना, इसमें कौन सा शौर्य है। यह पागल, अंधी और बेवजह हत्याएं क्या नक्सलियों के लिए सत्ता के द्वार खोल देंगी? इस समस्या को इतना बिकराल बनाने में सरकारों की उदासीनता जितनी जिम्मेदार रही है, उतनी ही जिम्मेदार देश में एक खास किस्म के बुद्धिजीवियों द्वारा नक्सलियों को दिया जा रहा समर्थन भी है। क्रांति ऐसे तथाकथित बुद्धिजीवियों के लिए एक फैशन बन गयी है। गरीबों के हित की बात करना कोई गुनाह नहीं है, उनके हको-हुकूक के लिए लड़ना भी कोई अपराध नहीं है लेकिन क्या केवल इस नाते कि सरकारों ने गरीबों के लिए अपेक्षा के अनुरूप काम नहीं किया, निर्दोष और निरपराध नागरिकों तथा अदने सरकारी मुलाजिमों की हत्या करने का उन्हेंं अधिकार दिया जा सकता है? वे यह नहीं सोचते कि यह स्वतंत्रता उन्हें नक्सलवादियों के डर से नहीं दी गयी है बल्कि यह लोकतंत्र के बीजमंत्र की तरह उन्हें अपने आप मिली हुई है। वे यह भी जरूर जानते होंगे कि सर्वहारा के शासन में इस तरह की छूट नहीं मिलती।

बेहतर यही होगा कि पहले जनपक्षधरता के छद्म की आड़ में जनाकांक्षाविरोधी संग्राम में जुटे लोगों से बातचीत करने की पूरी कोशिश की जाय। जरूरत हो तो इस काम में उनके समर्थक दार्शनिक बुद्धिजीवियों को भी लगाया जाय। फिर भी बात न बने तो उन्हें खदेड़ दिया जाये, वे लड़ते हैं तो उन्हें नष्ट करने में भी कोई संकोच नहीं होना चाहिए। इसी में गरीबों का, आदिवासियों का, जनता का, सरकार का और देश का, सबका भला है। परंतु भविष्य में वे गलतियां जरूर सुधार ली जायं, जिनकी वजह से नक्सलियों को देश के हृदयभाग में इतनी दूर तक अपने पांव पसारने का मौका मिला था।

बुधवार, 26 मई 2010

जल्दी मौत चाहता है अफजल

क्या कालकोठरी में होना मौत से भी ज्यादा भयानक है? अफजल गुरु को तो ऐसा ही लगता है। वह कई साल से मौत के इंतजार में जेल में बंद है। उसकी दया याचिका पर राष्ट्रपति को फैसला करना है, पर इसमें जल्दी नहीं हो पा रही है। इस मामले को लेकर काफी राजनीतिक बहस भी हुई। कांग्रेस सरकार पर जानबूझकर देर करने का विपक्ष ने आरोप लगाया। कहा गया कि सरकार इस बात से डर रही है कि इससे कहीं मुसलमान नाराज न हो जाय। इस आरोप में कितनी सचाई है यह कहा नहीं जा सकता क्योंकि कांग्रेस सरकार का कहना है कि मामला बहुत संवेदनशील है और जो भी विलंब हो रहा है, प्रक्रियागत कारणों से हो रहा है।
यह बात समझ में नहीं आती कि भारत के स्वाभिमान और सत्ता के प्रतीक संसद पर हमला करने के आरोपी को अगर मौत की सजा दी जाती है तो इससे मुसलमान क्यों नाराज होगा? ऐसा सोचना तो एक तरह से मुसलमानों की राष्ट्रभक्ति पर संदेह करने जैसा है। मुसलमान भी इस देश को अपनी जन्मभूमि मानता है, इसके प्रतीकों पर हमला उसे भी उतना ही मर्माहत करेगा, जितना हिंदुओं को या इस देश में रहने वाली किसी भी कौम को। यह सच है कि इस्लाम की गलत व्याख्या करके भाारत के खिलाफ युद्ध छेड़ने वालों के बहकावे में आकर अनेक मुसलमान युवकों ने आतंकवाद का रास्ता अपनाया है लेकिन इससे पूरी कौम को कठघरे में नहीं खड़ा किया जा सकता। ऐसे में नहीं लगता कि कांग्रेस को इस बात का डर होगा कि ंमुसलमान इससे नाराज हो जायेंगे।

जो भी हो लेकिन इस विलंब ने अफजल गुरु को तोड़ दिया है। किसी आदमी को अकेले दीवारों में कैद करके रखना, उसे किसी से मिलने न देना, किसी से बात न करने देना, उसे बाहरी दुनिया से काट देना एक तरह से उसके सार्वजनिक जीवन की मौत ही तो है। उसे रोज-रोज मरना पड़ता है। मौत की सजा तो एक सेकेंड में प्राण हर लेती है लेकिन काल कोठरी तो रोज मारती है। जो पीड़ा अफजल ने अपने वकील के माध्यम से व्यक्त की है, वह बताती है कि वह इस कैद से ऊब गया है, वह अपने जीवन की निरर्थकता से हताश हो गया है। उसकी यह हताशा आतंकवादियों के लिए एक गहरा संदेश है।

एक खतरनाक कैदी को जेल में इस तरह अकेले कैद रखने में सरकार को बहुत धन खर्च करना पड़ता है लेकिन आतंकवादियों को तोड़ने के लिए यह सजा मौत से भी कारगर है। तिल-तिल कर मरना बहुत ही यातना देता है। वह जीतेजी मार देता है। देश के दुश्मनों को यही सजा मिलनी चाहिए। अफजल ने जो किया, उसका खामियाजा तो उसे भुगतना पड़ेगा। अब इस मामले में सरकार ने भी प्रक्रिया तेज कर दी है और उम्मीद की जानी चाहिए कि बहुत जल्द अफजल को इस यातना से मुक्ति मिल जायेगी। वह जो चाहता है, वही होगा।

मंगलवार, 25 मई 2010

हां, राठौर की सजा बढ़ गयी

समाज में अपराधियों की कमी नहीं है लेकिन लोग शांति से जीना चाहते हैं। कोई नहीं चाहता कि उसका ऐसे लोगों से पाला पड़े, जिन्होंने अपराध को अपनी जीवन-शैली के रूप में स्वीकार कर लिया है। अपराधी जब केवल अपराधी होता है, तब उससे मुकाबला करना आसान हो जाता है। क्योंकि तब पूरा समाज इस मुहिम में साथ खड़ा नजर आता है। भौतिक रूप से भले कोई सामने न आये लेकिन जब भी कोई आदमी समाज के दुश्मनों से जूझता है तो लोग भीतर ही भीतर उसके लिए प्रार्थना तो करते ही हैं।

दिन पर दिन भीरु होते समाज में अभी इतनी जान बाकी है तो भला समझिये। पुलिस, प्रशासन भी देर-सबेर ऐसी मुहिम का साथ देता ही है। परंतु अगर वह अपराधी सरकारी तंत्र में हो, पुलिस में हो, प्रशासन में हो तो बहुत मुश्किल हो जाती है। कोई साथ नहीं आना चाहता, कोई पहल नहीं करना चाहता। कौन अपनी जान सांसत में डाले? और ऐसा अपराधी अपने पद, अपनी हैसियत, अपने रसूख का इस तरह इस्तेमाल करता है कि सीधे उसकी संलिप्तता उजागर होती ही नहीं। एसपीएस राठौर ने यही किया।

अभी कुछ ही महीने पहले रुचिका का मामला जब सुर्खियों में आया था तो कितनी सारी कहानियां मीडिया में उछलीं थीं। इन कहानियों ने राठौर को एक क्रूर खलनायक के रुप में सबके दिमाग में ठूस दिया था। किस तरह उसने रुचिका के भाई को उत्पीड़ित कराया, किस तरह उसने रुचिका को आत्महत्या करने के लिए विवश कर दिया, किस तरह उसने पूरे परिवार को सड़क पर ला खड़ा किया, उन्हें मकान बेचकर भाग जाने को मजबूर कर दिया।

मीडिया की पक्षधरता ने आखिरकार पूरी व्यवस्था को झकझोर कर रख दिया था। केंद्र सरकार तक हिल गयी और उसे कई महत्वपूर्ण फैसले करने पड़े। राठौर को मिले पदक छीन लिये गये। सीबीआई अदालत के निर्णय के बाद बाहर निकलते हुए उसके चेहरे पर जो विजय दर्प की मुस्कान उभरी थी, उसने कितना बवाल कराया था, सबको याद है। तब सभी यही अंदाज लगा रहे थे कि इस खलनायक को बड़ी सजा जरूर मिलेगी, कम से कम उम्र कैद तो होगी ही। परंतु तब भी उसकी वकील पत्नी जिस तरह के दावे ठोंक रही थी, वह अनायास नहीं था।

वह जानती थी कि उसके पति ने जो भी कराया है, उसके बहुत कम सबूत छोड़े हैं। अब जब सत्र अदालत ने राठौर को सजा सुनायी है तो इस सचाई को समझना कठिन नहीं रह गया है। कुल 18 महीने कैद की सजा। फिर भी यह सीबीआई अदालत द्वारा सुनाई गयी सजा की तीनगुनी है। यह समझा जाना चाहिए कि उसकी सजा बढ़ा दी गयी है। हालांकि अभी राठौर को आगे अपील करने का पूरा अवसर है लेकिन अगर उसे डेढ़ साल भी कैद काटनी पड़ी तो यह उस जैसे सुविधाभोगी आदमी के लिए एक दुस्वप्न की तरह होगी।

असल में ऐसे सफेदपोश अपराधियों की सजा समाज को खुद निश्चित करनी चाहिए। लोग ऐसे लोगों का संपूर्ण बहिष्कार कर सकते हैं। समाज से अलगाव की यंत्रणा बहुत कठिन होती है और यह किसी भी कैद से कई गुना भयानक होती है। राठौर को जेल की रोटी कब तोड़नी पड़ेगी, यह तो अभी नहीं कहा जा सकता लेकिन समाज तो उसकी सजा तुरंत शुरू कर सकता है। अभी से, आज ही से।

सोमवार, 24 मई 2010

धैर्य का इम्तेहान न लें

मनमोहन सिंह अभी आप को भूले नहीं हैं। उनको याद हैं आप सब। उन्हें याद है कि इसी जनता ने उन्हें कुर्सी सौंपी है। उन्हें याद है कि जनता महंगाई से बहुत परेशान है। जीवन कठिन हो गया है। चादर छोटी हो गयी है। लोग पांव ढंकते हैं तो सिर बाहर आ जाता है और सिर ढंकते हैं तो पांव खुल जाता है। देशवासियों का क्या दोष?

बड़ों की, अमीरों की, धनपतियों की बात नहीं कर रहा परंतु गरीब और मध्यवर्ग का मानुष तो वैसे ही परेशान रहता है। घर चलाना, बच्चों को पढ़ाना कोई आसान काम नहीं रहा। एक ईमानदार जिंदगी के लिए बहुत मुश्किल है। इसीलिए वे बेचारे तो हमेशा इसी कोशिश में रहते हैं कि जितनी बड़ी चादर हो, उतना ही पांव पसारें लेकिन अगर कोई उनकी चादर ही फाड़ने पर उतारू हो तो वे क्या करें। महंगाई ने यही तो किया। खाने-पीने के सामान से लेकर कपड़े, तेल, साबुन, बच्चों की किताबें, सबकी कीमतें बढ़ गयीं। छोटे दुपहिया से चलने वालों की मुश्किल तब और बढ़ गयी, जब पेट्रोल के दाम बढ़ा दिये गये।

आम आदमी एक तो महंगाई से त्रस्त था, दूसरे मनमोहन सरकार के मंत्री उसके घाव पर अपने जले-भुने बयानों का नमक छिड़कते रहे। कोई कहता कि उसके पास जादू की छड़ी नहीं है, जो छू दे और महंगाई नीचे उतर आये। कोई कहता उसे क्या मालूम महंगाई कब कम होगी, वह कोई ज्योतिषी तो है नहीं। अरे भाई, किस बात के मंत्री हो, जब तुम्हें कुछ भी नहीं पता, जब तुम कुछ भी नहीं कर सकते। अब क्या प्रधानमंत्री ज्योतिषी हैं जो उन्होंने कह दिया है कि दिसंबर तक महंगाई पर काबू कर लेंगे?

चलो इस तरह उन्होंने बहुत लंबा समय जनता से मांग लिया है। अगर उस समय भी महंगाई नीचे नहीं उतरी तो कोई न कोई वाजिब कारण तो होगा ही। जनता को पूरी ईमानदारी से बता दिया जायेगा कि महंगाई क्यों काबू में नहीं आ पायी। मनमोहन सिंह से इमानदारी की तो उम्मीद कर ही सकते हो। कई राज्यों में नक्सली सरकारों को परेशान किये हुए हैं, उन पर भी काबू करना है। वह भी कर लेंगे। बस आप थोड़ा धैर्य रखिये। जनता के पास और अस्त्र क्या है? धैर्य रखना और चुपचाप सरकारों और मंत्रियों की गैरजिम्मेदारी का खामियाजा भुगतना, जनता के ये दो महान कर्तव्य हैं और वह कहां इन्हें निभाने में कोई चूक करती है।

यह सरासर छल है, अन्याय है, प्रशासनिक नियंत्रण के अभाव का परिणाम है, समय से उचित और माकूल निर्णय न ले पाने का अंजाम है। आखिर इसका दुष्परिणाम जनता क्यों भुगते? सरकार को यह बात ठीक से समझ लेनी चाहिए कि इस तरह के वादे, बहकावे बहुत लंबे समय तक नहीं चलते। जनता धैर्य तो रखती है, पीड़ाएं चुपचाप तो सहती है लेकिन समय आने पर वह ठोकर भी मारती है। और उसकी ठोकर झेलना बड़े-बड़ों के वश की बात नहीं होती। इसलिए एक नेक सलाह मानें तो आम आदमी के धैर्य का इम्तेहान न लें।

प्रेम की नगरी में प्रेम की बोली

 भोजपुरी में पढ़ें 
आगरा में दो दिन का विश्व भोजपुरी सम्मेलन संपन्न हुआ। हमारे देश में हजारों बोलियां बोली और समझी जाती हैं। जो लोग जिन बोलियों में अपने को व्यक्त करते हैं, उनके पूर्वजों द्वारा इकट्ठा किये गये समस्त ज्ञान का भंडार उन बोलियों में सुरक्षित रहता है। ये बोलियां हमारी ज्ञान परंपरा की वाहक हैं। वैश्वीकरण का खतरा तमाम अभावों के बावजूद अपनी बोली और संस्कृति को जीने वाले गरीब ग्राम्यांचलों पर बढ़ रहा है। गांव को बाजार की तरह देखने वाले उन्हें उनकी समस्त सांस्कृतिक सत्ता के साथ निगल जाने को तैयार हैं। हमारे लिए यह एक बड़ा सांस्कृतिक संकट है। शायद लंबी गुलामी से भी भयानक। इसी पृष्ठभूमि में 22-23 मई को आयोजित विश्व भोजपुरी सम्मेलन में भारत के अलावा मारीशस, कनाडा, सिंगापुर, मलेशिया समेत कई देशों से भोजपुरी के विद्वान और साहित्यकार ताज की नगरी में मिले। ब्रजभाषा की छांव में इस सम्मेलन का अपना विशेष महत्व समझा जायेगा।

विश्व भोजपुरी सम्मेलन केवल भोजपुरी के संकट पर केंद्रित नहीं रहा बल्कि सभी बोलियों पर मंडराते संकट को उजागर करने और उसके लिए सबको उठ खड़े होने का संदेश देने में भी कामयाब हुआ। इस बात पर एकराय दिखी कि भोजपुरी की शब्द संपदा और उसके साहित्य को समृद्ध किया जाय। पहली बात तो यह कि भोजपुरी का अपना शब्दकोश तैयार किया जाना चाहिए। भोजपुरी के शब्दों में जो अथर्संपन्नता और सामर्थ्य है, वह दुनिया की शायद ही किसी भाषा में हो, इसलिए उनका संरक्षण जरूरी काम है। बिना देर किये भोजपुरी का संपूर्ण शब्दकोश तैयार किया जाना चाहिए।

  इसके साथ ही ज्यादा से ज्यादा प्रतिभासंपन्न रचनाकार भोजपुरी में लिखें। भोजपुरी समर्थ होगी अपने लेखकों की रचनाओं के अलावा देश और विदेश की दूसरी भाषाओं के अच्छे साहित्य की उपलब्धता से। हिंदी, बांग्ला, तमिल, मराठी, उड़िया, कन्नड़ के अलावा अंग्रेजी, रसियन तथा अन्य विश्व भाषाओं के बड़े लेखकों, कवियों को भोजपुरीभाषी अगर अपनी भाषा में पढ़ पायें, तो भोजपुरी से नयी पीढ़ी को भी जोड़े रखना संभव हो पायेगा।

मारीशस की सरिता बुधू को वह दिन बेतरह याद आया, जब कोलकाता से पहला जहाज बिहार के मजदूरों को लेकर रवाना हुआ था। कलकतवा से चलल बा जहजिया, बयरिया रे धीरे बहो। उन गिरमिटिया मजदूरों के साथ गीता, रामायण या यूं कहें कि पूरी भोजपुरी संस्कृति जहाज पर सवार हुई थी। वे अपनी मेहनत, अपनी कर्मनिष्ठा भी ले गये। यही कारण था कि वे मजूर वहां हुजूर बन गये, वे गिरमिटिया वहां गवर्नमेंट बन गये। भोजपुरी अब भी मारीशस, सूरीनाम, टोबागो, ट्रीनीडाड में बोली जाती है लेकिन जैसा भोजपुरियों का सबसे घुलमिल जाने का आचरण रहा है, वैसे ही अलग-अलग देशों में जाकर भोजपुरी भाषा ने भी वहां की स्थानीय भाषाओं के तमाम शब्द आत्मसात कर लिये, उन भाषाओं को भी अपने शब्द दिये। भारत के भोजपुरीभाषियों को उनसे सबक लेना चाहिए। भोजपुरी को उन शब्दों से परहेज नहीं करना चाहिए, जो दूसरी भाषाओं के होकर भी उनके लोकमानस में गहरे उतर गये हैं।

 सम्मलेन के अंतिम दिन भोजपुरी मां की सेवा में समूची जिंदगी होम कर देने वाले साहित्यकार और भोजपुरी आन्दोलन को निरंतर संगठित रखने में अपना सर्वस्व निछावर कर देने वाले पांडेय कपिल को सेतु सम्मान दिया गया।  भोजपुरी के समर्थ रचनाकार और पाती के संपादक अशोक द्विवेदी तथा भोजपुरी गीतों के सुकुमार गायक डा. कमलेश राय का मानना है कि  पांडेयजी का सम्मान इस सम्मेलन की एक बड़ी उपलब्धि है. इससे भोजपुरी के लिए लड़ने वालों का  उत्साह बढेगा.



शुक्रवार, 21 मई 2010

कबीर भोजपुरी के आदिकवि

(आगरा में शनिवार से विश्व भोजपुरी सम्मेलन होने जा रहा है। दुनिया भर के तमाम देशों से और देश के कोने-कोने से भोजपुरी के विद्वान साधक ताज के शहर में आ डटे हैं। इस मौके पर हिंदी और भोजपुरी के बारे में मशहूर साहित्यकार और हिंदी के अप्रतिम विद्वान हजारी प्रसाद द्विवेदी के विचार जानकर आप को अच्छा महसूस होगा। 1976 में अखिल भारतीय भोजपुरी साहित्य सम्मेलन के अधिवेशन में उन्होंने भोजपुरी में जो भाषण दिया था, उसके अंश यहां हिंदी में दिये जा रहे हैं)

कबीरदास भोजपुरी के आदि कवि थे। उन्होंने कहा है, जो रहे करवा त निकंसे टोंटी। लोटे में पानी होगा, तभी तो टोंटी से निकलेगा। यहां तो एक बूंद भी पानी नहीं है। हम सोचते थे कि भोजपुरी अपनी मातृभाषा है, इसमें लिखना आसान होगा लेकिन जिस भाषा में हम रोज बोलते हैं, लगता है उसमें लिखना कठिन काम है। किसी भी भाषा में लेखन के लिए कुछ साधना की जरूरत होती है, कुछ मेहनत-मशक्कत करनी पड़ती है। मेरे अंदर तो ऐसा कुछ भी नहीं है।

भोजपुरी बहुत शक्तिशाली बोली है। लोकसाहित्य का ऐसा भंडार कहीं और नहीं दिखता। मुहावरे, लोकोक्तियां और व्यंग्य-विनोद का तो यह खजाना है। इसे बोलने वालों की संख्या भी विशाल है। पांच करोड़ से भी ज्यादा। बहुत कम भाषाएं हैं, जो इतने लोगों द्वारा बोली जाती हैं। भोजपुरियों में अपनी भाषा का गर्व भी बहुत है। ग्रियर्सन ने लिखा है कि ऐसा भाषा प्रेम उन्होंने कहीं और नहीं देखा। भोजपुरीभाषी हमेशा देश की अखंडता की बात सोचता है। इसके लिए वह सर्वस्व नयोछावर करने को भी तत्पर रहता है। वह अपने घर में भोजपुरी बोलता है, अपनी भाषा में कविता भी लिखता है लेकिन अलग रहने की बात कभी नहीं करता। हमारी सार्वदेसिक भाषा हिंदी को सजाने-संवारने में भी भोजपुरियों का भारी योगदान रहा है। सदल मिश्र और भारतेंदु हरिश्चंद्र से लेकर अनेक बड़े-बड़े रचनाकार भोजपुरी क्षेत्र से संबंधित रहे हैं। अपनी बोली से प्रेम के बावजूद इन लोगों ने हिंदी को संवारने में अपना जीवन लगा दिया।

पुराने जमाने से देश में दो तरह की भाषाओं का प्रयोग होता आया है। एक लोकभाषा और दूसरी संस्कृत भाषा। कई बार लोकभाषा में अच्छा साहित्य रचा गया। अब बहुत कम बचा है, काफी कुछ नष्ट हो गया है। बौद्ध और जैन धर्म का प्रचुर साहित्य लोकभाषा में ही लिखा गया। पालि में अकूत साहित्य भरा पड़ा है। मुझे लगता है कि वह भोजपुरी का ही प्राचीन रूप है। जब तक बात धार्मिक उपदेश की, प्रेम की रही, आसानी से काम चलता रहा पर जब दर्शन, तर्कशास्त्र जैसे गंभीर विषयों की बात आयी तो फटाफट संस्कृत में लिखा जाने लगा। आधुनिक हिंदी भी पहले लोकभाषा के रूप में ही सामने आयी। लेकिन जैसे-जैसे उसमें लोकभाषा के तत्व कम होते जा रहे हैं, वह भी संस्कृत के पद पर बैठती जा रही है। अभी भी उसमें संस्कृत जैसा कसाव नहीं आया है मगर आ जायेगा। जहां तक सूक्ष्म चिंतन-मनन मूलक साहित्य की बात है, हिंदी निश्चित रूप से सार्वदेसिक भाषा का रूप ले चुकी है परंतु जहां तक रागात्मक अभिव्यंजना का प्रश्न है, हिंदी जन-जीवन से दूर होती जा रही है। एक तरह से बौद्धिक कसरत बढ़ती जा रही है। इसकी प्रतिक्रिया में हर बोली के प्रतिभावान साहित्यकार जनभाषा की ओर आशा भरी नजरों से देख रहे हैं। आंचलिकता के नाम पर खिचड़ी भी पकायी जा रही है। यह अकारण नहीं हो रहा है, इतिहास विधाता के निर्देश पर हो रहा है।

विशाल हिंदीभाषाभाषी क्षेत्र में अनेक बोलियां बोली जाती हैं। ब्रजभाषा का साहित्य बहुत समृद्ध रहा है। अवधी, राजस्थानी की अपनी परंपरा रही है। भोजपुरी की साहित्यिक परंपरा भी कम पुरानी नहीं है। हिंदी सबको अपना मानकर चलती है। चाहे राष्ट्रभाषा कहें या राजभाषा या संपर्क भाषा, संविधान बनाने वालों ने हिंदी को सार्वदेसिक भाषा के रूप में चुना लेकिन बहुत से लोग इसे मानने को तैयार नहीं। वे चाहते हैं कि यह काम अंग्रेजी करती रहे। पहले थोड़ी शर्म थी पर अब तो लोग खुलकर कहने लगे हैं कि हिंदी नहीं अंग्रेजी ही संपर्क भाषा रहनी चाहिए। लेकिन कठिनाई यह है कि अंग्रेजी के साथ देश का आत्म सम्मान जुड़ नहीं पाता। इसलिए चलेगी तो हिंदी ही।

कोशिश यह भी हो रही है कि हिंदी की शक्ति कम की जाय। हिंदी के अंतर्गत आने वाली बोलियों में अलगाव के बीच बोने के प्रयास भी हो रहे हैं पर वे सफल नहीं होंगे। अलग-अलग बोलियों में भी बेहतर साहित्य लिखा जाता रहेगा और हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में सम्मान भी मिलेगा। अगर भोजपुरी बोलने वालों को कुछ अधिक सुख-सुविधा, मान-सम्मान मिले तो इससे हिंदी को कोई आपत्ति नहीं होगी। भोजपुरी को भी हिंदी से प्रतिस्पर्धा की बात मन में नहीं लानी चाहिए। हमें हिंदी और भोजपुरी को एक ही समझकर काम करना चाहिए। दोनों को दो मानने पर झंझट होगी। हिंदी में लिखने वाले को भी नमन और भोजपुरी में लिखने वाले को भी। भगवान सबका कल्याण करे।

गुरुवार, 20 मई 2010

नाटक ही तो है सब

मनुष्य के जन्म के साथ ही नाटक का जन्म हुआ होगा। भले ही हाव-भाव के प्रदर्शन और इस तरह खुद को अभिव्यक्त करने के विभिन्न तौर-तरीकों के लिए नाटक शब्द का प्रयोग बाद में हुआ हो लेकिन आदिम मनुष्य जब कभी बहुत प्रसन्न या बहुत दुखी होता रहा होगा तो अपनी मनोदशा की अभिव्यंजना के लिए वह जो तरीका उपयोग करता रहा होगा, वह नाटक ही तो रहा होगा।

भारत आध्यात्मिक दृष्टि से बहुत ही संपन्न रहा है। हमारे ऋषियों ने जीवन को ही नाटक की संज्ञा दी है। वे संपूर्ण जगत को एक रंग-मंच की तरह देखते हैं और स्वीकार करते हैं कि हर मनुष्य अपनी निश्चित भूमिका में है, वह भूमिका पूरी होते ही वह रंग-मंच से बाहर हो जायेगा। वह नाटक में इसलिए है क्योंकि उसे क्या करना है, यह वह तय नहीं करता है। उसकी पटकथा पहले से तैयार रहती है। उसी के हिसाब से वह अपने संवाद बोलता है, अपना अभिनय प्रस्तुत करता है। जो इस अभिनय को वास्तविकता मानकर चलते हैं, उन्हें कष्ट होता है। जो इसकी असलियत समझते हैं, वे दुखांत हो या सुखांत, हर स्थिति में प्रसन्न रहते हैं।

जीवन में स्वतस्फूर्त ढंग से व्यक्त हो रहा नाटक ही कालांतर में साहित्यान्वेषियों द्वारा कला और साहित्य की एक विधा के रूप में स्वीकार किया गया होगा। नाटक के सर्वाधिक प्राचीन स्वरूप वेदों में मिलते हैं। यह पांच हजार वर्ष से भी ज्यादा पुरानी रचना है। बाद में ईंसा से तीन शती पूर्व आचार्य भरत मुनि और कई अन्य काव्यशास्त्रियों ने नाटक पर गंभीरता से विचार मंथन करके इसके सिद्धांतों की रचना की। भरत मुनि ने अपने नाट्यशास्त्र में नाटक के प्रकार, नाटक में रस, अभिनय कला, नाटक की आलोचना आदि विषयों पर विस्तार से चर्चा की। तब तक संस्कृत में श्रेष्ठ नाटक लिखे जाने लगे थे।

पश्चिम में नाटक पर सोच-विचार बहुत बाद में शुरू हुआ। प्राचीन ग्रीस की राजधानी एथेंस में सबसे पहले नाटकों पर काम हुआ। ईसा से कोई दो शताब्दी पहले यूनानी विद्वानों ने नाटक को समझने और उसे परिभाषित करने का प्रयास किया। प्रारंभ में कामेडी और ट्रेजेडी अर्थात सुखांत और दुखांत, दो तरह के नाटक लिखे और अभिनीत किये जाते रहे। बाद के समय में इनमें विविधता आयी। तब तक भारत में नाटकों पर विशद काम हो चुका था और उच्च कोटि की नाट्यलेखन और अभिनय कला विकसित हो चुकी थी।

प्रारंभ में नाटक काव्य के अंतर्गत ही था। संस्कृत साहित्य में ज्यादातर नाटक काव्य शैली में ही रचे गये और अभिनय भी गीत-संगीत से भरपूर हुआ करता था लेकिन कालांतर में यह साहित्य और कला की अलग विधा के रूप में विकसित हुआ। नाटक में अब भी काव्य जैसा आनंद निहित रहता है। यह कलाकारों के सामूहिक प्रदर्शन कौशल के रूप में सामने आता है। अब भी नाटकों में काव्यकला की अपनी भूमिका रहती है। यह गद्य और पद्य का मिश्रित साहित्य रूप है।

समकालीन नाटकों में तमाम तरह के प्रयोग हो रहे हैं। थियेटर यद्यपि बाहर से भारत आया लेकिन किंचित अन्य रूप में वह बहुत पहले से भारत में मौजूद रहा है। प्राचीन काल से ही यहां विशाल रंग-मंच पर नाटक खेले जाते रहे हैं। आज के नाटकों में वर्तमान जीवन की दुरूहताओं, मनुष्यता पर आसन्न संकट, सामाजिक विकृतियों और राजनीतिक दांव-पेच को भी कथ्य बना कर नाटक को सामाजिक परिवर्तन के हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है। नाटकों का ही आधुनिक रूपांतर फिल्मों के रूप में हमारे सामने है। साहित्य में भी युगीन परिस्थितियों को समझने और बदलने के लिए नाटकों को सशक्त माध्यम के रूप में लिया जा रहा है। अब नाटक एक महत्वपूर्ण रचना विधा के रूप में अपनी जगह बना चुका है।

बुधवार, 19 मई 2010

पागल हत्यारों के हाथ तोड़ दें

दांतेवाड़ा भय की गिरफ्त में है। दांतेवाड़ा ही नहीं पूरा देश हतप्रभ है, चिंतित है, दहशत में है। भारत जैसे इतने विशाल देश की इतनी ताकतवर सत्ता शक्ति से लोगों का भरोसा उठने लगा है। सभी असुरक्षित महसूस कर रहे हैं, सबका विश्वास डगमगाने लगा है। हाल के दिनों में दूसरी बार छत्तीसगढ़ के जंगलों में निरपराध, निर्दोष लोगों के खून बहाये गये हैं, जनता को सुरक्षा का भरोसा दिलाने निकले विशेष दर्जनों पुलिस अधिकारी बारूदी धमाके की भेंट चढ़ गये हैं। नक्सलियों ने एक बस उड़ा दी, जिसमें 40 लोग मारे गये। ज्यादातर स्थानीय आम नागरिक थे, जिन्हें नक्सलियों के खिलाफ अभियान में मदद के लिए विशेष अधिकारी के रूप में काम पर लगाया गया था। एक बार फिर कई मांओं को अपने बेटे खोने पड़े हैं, कई पिताओं को अपने आँख के तारे गंवाने पड़े हैं, कई बच्चे अनाथ हो गये हैं और कई सुहागिनें अचानक एक दुखद पल में विधवा हो गयी हैं।

अब सरकार इसकी जांच करायेगी, फिर से उन भूलों और गलतियों की पहचान की जायेगी, जो इस दर्दनाक वाकये का कारण बनीं, फिर कुछ परिवारों की करुण और मर्मांतक व्यथा को कुछ नोटों से तोलने का उफक्रम किया जायेगा। सत्ता, सरकार और उसके सारे पुर्जे कुछ दिन जागते रहेंगे, शोकाकुल विलाप की मुद्रा का प्रदर्शन करते रहेंगे, नये-नये संकल्प लिये जायेंगे और जैसे ही देश इस घटना को भूलने लगेगा, सारा तंत्र फिर अगले हमले तक के लिए सो जायेगा। यह नाटक शुरू हो गया है। पूरा देश देख रहा है लेकिन एक अत्यंत दुखद सत्य है कि देश और जनता की अपनी सत्ता लोकतांत्रिक व्यवस्था में अमूर्त होती है। वह एक बार अपनी पूरी ताकत कुछ सियासी लोगों के हाथों में सौंपकर स्वयं असहाय, अशक्त, दीन-हीन और दरिद्र हो जाती है। वह केवल बातें करने वाले मंत्रियों को उनकी कुर्सी से नीचे नहीं उतार सकती, वह कायर हत्यारों के गिरोह के सामने लाचार हुकूमत को चेतावनी तक नहीं दे सकती। हिंदुस्तान मे जनता केवल चुनाव के दौरान दिखती है। उसकी ताकत के सामने सभी झुकते हैं, सभी उसके हाथ-पांव जोड़ते हैं लेकिन चुनाव के नतीजे सामने आते ही जनता की ताकत कुछ खास हाथों में गिरवी हो जाती है।

नक्सलियों के खिलाफ हमारी सरकार जब-जब लड़ाई का अपना इरादा जाहिर करती है, अपराधियों के ये गिरोह अपनी ताकत के प्रदर्शन में तनिक देर नहीं लगाते। उन्हें सरकारी गतिविधियों की पूरी जानकारी रहती है। कब कितने जवान कहां से कहां के लिए रवाना हो रहे हैं, किस रास्ते से होकर निकलेंगे, उन्हें सब पता रहता है, लेकिन सरकारों को, उनके खुफिया तंत्र को कुछ भी पता नहीं रहता। आश्चर्य का विषय है कि जिस इलाके में कुछ ही दिन पहले अर्धसैन्य बल के 75 जवानों को भून दिया गया था, वहां भी हमारा सूचना तंत्र पूरी तरह सोया पड़ा है। अगर वे जागते होते तो शायद नरसंहार दुहराया नहीं जा सकता था।

सुरक्षा बलों की उच्चस्तरीय बैठकों में कई बार उन्हें हाईटेक करने, अत्याधुनिक हथियारों से लैस करने और खुफिया तंत्र को ताकतवर बनाने की योजनाओं पर विचार-विमर्श होता रहा है परंतु जब भी अग्निपरीक्षा की घड़ी आयी है, तब सारे इरादों, संकल्पों और योजनाओं की धज्जियां उड़ती नजर आयी हैं। आखिर क्यों? क्यों नहीं हम इन पागल हत्यारों के खिलाफ ताकत का इस्तेमाल करना चाहते हैं? अगर वे अंधी हत्याओं के जरिये देश को डराये रखने की कोशिश कर रहे हैं तो उन्हें आखिर कब यह बताया जायेगा कि सत्ता की ताकत उन पर बहुत भारी पड़ सकती है, क्यों नहीं सरकार को अब ऐसे संकल्प को जमीन पर उतारना चाहिए कि उन्हें भागकर छिपने की भी जगह न मिले। जनता को इस पर कोई एतराज नहीं होगा। राजनीतिक दलों को भी इस पर कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। और अगर कोई तीसरा एतराज करता भी है तो उसके क्या मायने।

मंगलवार, 18 मई 2010

देश का भविष्य संवारने का प्रयास

बच्चे देश के भविष्य होते हैं. अगर उनकी देखभाल ठीक से की जाय, उनके चरित्र निर्माण पर ध्यान दिया जाय और उनकी शिक्षा-दीक्षा की चिंता उचित ढंग से हो पाए तो कोई कारण नहीं कि हम एक मजबूत और संपन्न राष्ट्र का निर्माण न कर सकें. दुःख की बात है कि अपने देश में बच्चों पर ही हमारा ध्यान नहीं है. सरकारें तमाम योजनायें बनातीं हैं पर नौकरशाही के मकडजाल में फंसकर वे दम तोड़ देतीं हैं. गरीब परिवारों के बच्चे पढ़-लिख नहीं पाते क्योंकि उनको परिवार की रोटी का इंतजाम करने में भी अपनी काम उम्र के बावजूद जुटना पड़ता है. इस अँधेरे में कुछ टिमटिमाती आशाएं दिखतीं हैं समाज में रोशनी फैलाती हुईं. आगरा में प्रयास नामक संस्था ऐसे बच्चो का भविष्य संवारने में जुटी है. यह डा. बीना शर्मा और उनके कुछ समर्पित सहयोगियों के संकल्प का परिणाम है. गत दिनों प्रयास ने अपना वार्षिक कार्यक्रम " हमने क्या सीखा " आयोजित किया. इस कार्यक्रम में बच्चों ने अपने बहुविध कौशल का बेहतरीन प्रदर्शन किया.

संस्था गीत "हम हैं छोटे –छोटे बच्चे" के साथ कार्यक्रम की शुरुआत हुई परिचय वर्ग ने "दया करो भगवान" ,बोधन वर्ग ने "इन्साफ की डगर पर बच्चों दिखाओ चलकर"और अभिव्यक्ति वर्ग ने "नगर-नगर और गाँव –गांवमें दीप जलाएंगे" की प्रस्तुति दी. बच्चों ने तीन लघु नाटक ईदगाह,संघठन में शक्ति और आतंकवाद मिटायेंगे, प्रस्तुत किये. रुना, कश्मीरी और रैनी ने "आसरा इस जहां का मिले ना मिले "भजन की प्रस्तुति दी तो नन्ही बच्ची मुस्कान ने कौआ और गिलहरी की कहानी प्रभाव पूर्ण तरीके से प्रस्तुत किया. रेनी और साथियों ने" कद्दूजी की चली बरात " कविता सुनाई. कार्यक्रम में सभी रंग दिखाई दिए. ईदगाह के बाजार ने तो सबको मोह लिया. कहीं मिट्टी के बने खिलौने थे तो कहीं कोई गुब्बारे बेच रहा था. प्यारू ने नमाज अदा करवाई. संचालन तरुना और डा. बीना ने किया.
सीमा ने प्रयास की गतिविधियों का उल्लेख किया तो डा. अनुपम ने बच्चों की उत्तर पुस्तिकाओं के मूल्यांकन के समय के तथ्य सबके सामने रखे. रजनी ने सभी का सहयोग किया. सुधीर जी बच्चों की गतिविधियों को केमरे में कैद करते रहे. कहा जाए तो पूरे आयोजन के मूल में सुधीर जी की भूमिका पवनपुत्र हनुमान की रही. " हम होंगे कामयाब "गीत के साथ कार्यक्रम संपन्न हुआ.

मुख्य अतिथि श्री महेश चंद गुप्ता ,भूतपूर्व प्रबंधक, इलाहाबाद बेंक ने बच्चों को रिजल्ट वितरित किया. गुरु गोविन्द दोनों खड़े दोहे से अपनी बात शुरू करते हुए उन्होंने शर्म को मानव की विशेषता बताया. यही गुण मानव को जानवरों से अलग करता है. बच्चों का कार्यक्रम देख उन्हें अपना बचपन याद आगया, यह मेरे जीवन का अनमोल क्षण है जो मैंने प्रयास में बच्चों के साथ बिताया. उन्होंने स्वयं भी प्रयास से जुड़ने की इच्छा व्यक्त की. मेधावी छात्रों के लिए उन्होंने अपनी ओर से ५०० रूपये की धनराशि प्रदान की. विशिष्ट अतिथि श्री डी.एम. नायक, असिस्टेंट डायरेक्टर,राष्ट्रीय लघु उद्योग निगम लिमिटेड ने बच्चों को स्कूली बैग वितरित किये. नायक जी ने घोषणा की कि प्रयास के जो बच्चे हाईस्कूल कर चुकेंगे, उन्हें निशुल्क रोजगार परक पाठ्यक्रम कराने की सुविधा दी जायेगी. सभा के अध्यक्ष डी.एल. ए.दैनिक समाचारपत्र के सम्पादक, विचार डा. सुभाष राय ने सर्वाधिक उपस्थिति, अच्छे व्यवहार और प्रत्येक कार्य में पहल के लिए क्रमशः अजमेरी ,रुना और रेनी को प्रमाणपत्र और पुरस्कार प्रदान किये. अध्यक्षीय उदबोधन में उन्होंने कहा कि आज के भागदौड़ भरे युग में बच्चों का बचपन छिनता जा रहा है. ऐसे समय में इन बच्चों के चेहरे का भोलापन और शान्ति देख कर नयी आशा बांधती है. बच्चों के द्वारा प्रस्तुत सांस्कृतिक प्रस्तुतियों को उन्होंने बहुत सराहा.

कार्यक्रम के प्रारम्भ में शुभम ,शाहीन और सोनिया ने अतिथियों को पुष्प गुच्छ दिया और प्रयास समिति के अध्यक्ष प्रो.एस.एन.शर्मा ने स्वागत वक्तव्य देते हुए कहा कि आज के व्यस्तता भरे माहौल में भी आप इस छोटी संस्था के लिए समय निकाल कर उपस्थित हुए, इससे संस्था का गौरव बढ़ा है और प्रयास के बच्चो को संरक्षण मिला है. धन्यवाद श्री ओ.पी मखीजा जी ने दिया, कहा कि मेरी दिली इच्छा है कि इन बच्चों में से कम से का एक बच्चा अवश्य आई.ए.एस. अवश्य बने. कार्यक्रम प्रयास सचिव बीना शर्मा के निर्देशन में संपन्न हुआ. साधना वैद ,डा. अनुपम सारस्वत ,डा. वरुण भारद्वाज ,श्रीमती अरुणा सारस्वत ,डा.सीमा दीक्षित ,श्री शैलेन्द्र दुबे .श्री ,एस.के.सिंह ,रेखा और मधु उपस्थित रहे. इस अवसर पर प्रयास के बच्चों के अभिभावक भी अपने नन्हें -मुन्नो के करतब देखने को मौजूद थे.

हिंदुस्तान को हिंदुस्तान ही रहने दें

क्या मुसलमान लड़कियों को, युवतियों को, महिलाओं को आगे बढ़ने का हक नहीं है? समाज के अन्य तबकों के साथ अपने घर-परिवार के साथ देश के विकास में योगदान करने का अधिकार नहीं है? बिल्कुल है। इस समुदाय से निकली महिलाएं भी जीवन के हर क्षेत्र में आगे बढ़ी हैं, अपना मुकाम हासिल किया है। पर यह बात भी सही है कि सिर्फ उन्हीं परिवारों से लड़कियां आगे निकल पायीं या अब भी निकल पा रही हैं, जिनके सोच में आधुनिकता है, जिनके अंदर लड़कियों को लेकर कोई सामाजिक या धार्मिक ग्रंथि नहीं है। इसी समाज से तो फातिमा बीबी आयीं थीं, नजमा हेपतुल्ला, शबाना आजमी, शहनाज, सानिया मिर्जा इसी समाज से तो निकलीं।

लेकिन मानना पड़ेगा कि अभी भी मुसलमान समाज की महिलाओं का जिस अनुपात में समाज और देश के लिए योगदान होना चाहिए, वह नहीं हो पा रहा है। इसके लिए व्यवस्था को दोष देने का ज्यादा फायदा नहीं है। जो गरीब परिवार हैं, बच्चों को पढ़ा नहीं पाते, धार्मिक मान्यताओं में जरूरत से ज्यादा उलझे हुए हैं, उनकी बात छोड़ दें तो जो संपन्न मुस्लिम परिवार हैं, वहां भी इस तरह की समस्याएं दिखायी पड़ती हैं। कोई भी धर्म आदमी के चरित्र निर्माण, उसकी नैतिकता, ईश्वर में उसकी आस्था के बारे में नकारात्मक विचार नहीं रखता लेकिन कोई जरूरी नहीं कि जो लोग खुदा में, भगवान में या ईश्वर में विश्वास करते हुए दिखते हैं, वे जीवन में पूरी ईमानदारी बरतते ही हों। आजकल धार्मिक जगहों पर जितना आडंबर और पाखंड फैला हुआ है, उतना कहीं और नहीं है। फिर समाज के लिए यह आवश्यक नहीं कि वह पंडितों, बाबाओं और मुल्लाओं की हर बात माने ही।

किसी भी समाज की सबसे बड़ी जरूरत होती है, उसकी प्रगति और इसमें अगर धार्मिक दखलंदाजी बाधक है तो उसका विरोध होना चाहिए। अभी हाल में ही एक फतवा जारी करके कहा गया है कि मुसलमान महिलाओं को ऐसी सरकारी नौकरियां नहीं करनी चाहिए, जहां उन्हें पुरुषों के साथ काम करना पड़े, उनसे बार-बार बात करनी पड़े। कुछ मुस्लिम विद्वानों ने इस फतवे को सही नहीं माना है लेकिन यह सुझाव दिया है कि अगर मुसलमान महिलाओं को ऐसी जगह काम करना ही पड़े तो उन्हें ठीक से पूरा शरीर ढंक कर जाना चाहिए। बुर्का पहनकर जाना चाहिए। कपड़ा पारदर्शी नहीं होना चाहिए, शरीर पर कसा हुआ नहीं होना चाहिए, कोई भी अंग बाहर से दिखना नहीं चाहिए।

स्वयं मुस्लिम समाज के भीतर से इस पर कड़ा प्रतिवाद उभर कर सामने आया है। यह बहुत शुभ लक्षण है। एक महिला ने तो हदीस के हवाले से ही कहा है कि व्यक्ति की मंशा साफ होनी चाहिए, यह सबसे ज्यादा महत्व की बात है। कपड़े से क्या होता है। आप खूब अच्छी तरह से शरीर ढंककर रहिए लेकिन आप की मंशा ठीक नहीं है, आप के इरादे में खोट है तो उस कपड़े का क्या लाभ। यह प्रतिक्रिया, हो सकता है गुस्से में आयी हो लेकिन इस गुस्से को भी समझने की जरूरत है। यह गुस्सा वास्तव में इस बात पर है कि इस तरह की बेवजह रोक-टोक से आधी मुस्लिम आबादी की प्रगति में बाधाएं खड़ी होती हैं, उनकी पढ़ाई-लिखाई में अवरोध खड़ा होता है, उनकी सारी प्रतिभा धरी की धरी रह जाती है। इस बारे में सोचना होगा तो मुसलमानों को ही। वे ही निर्णय ले सकेंगे। वे ही उन्हें रोक सकेंगे, जो असली समस्याओं पर तो कभी सोचते ही नहीं, छोटी-छोटी और बेसिर-पैर की बातों में दिमाग लगाते हैं और पूरे समाज को कठिनाइयों में डालते हैं।

मुसलमानों की असली समस्या सामाजिक-आर्थिक विकास की है। इसका निदान बच्चों-बच्चियों की बेहतर शिक्षा में है, उनकी मेधा के समुचित इस्तेमाल में है। अगर देश के अन्य समाजों के साथ वे भी अपने को आगे ले जाना चाहते हैं तो आधुनिक प्रगतिशील समाज के चिंतन को, जीवन शैली को उन्हें भी स्वीकार करना पड़ेगा। जो भी लोग इस राह में बाधा खड़ी कर रहे हैं, उनको मिलकर रोकना होगा। जिन्हें धर्म और प्रवचन का काम सौंपा गया है, वे केवल अपना काम करें, अपना चिंतन सबके ऊपर थोपने की कोशिश न करें तो बेहतर। हिंदुस्तान को हिंदुस्तान ही रहने दें, लीबिया, बेरूत या सऊदी अरब में बदलने की कोशिश न करें तो अच्छा।

शनिवार, 15 मई 2010

वीरेंद्र हमदम की ग़ज़ल

मित्रों आइये आज वीरेंद्र हमदम की ग़ज़ल  सुनते हैं. ये ग़ज़ल  साहित्य की मशहूर पत्रिका अभिनव कदम में साया हो चुकी  है ---

कब किसी को तल्खियाँ अच्छी लगीं
भूख थी तो रोटियां अच्छी लगीं

जल उठे मेरी मशक्कत के चिराग
पत्थरों की  सख्तियाँ अच्छी लगीं

क्यों रहें कमजोर पत्ते शाख पर
पेड़ को भी आंधियां अच्छी लगीं

अपने फन का इक नमूना ताज है
हमको अपनी उंगलियाँ अच्छी लगीं

कुछ नयी राहें भी निकलीं इस तरह
राह की  दुश्वारियां अच्छी लगीं

मैं जरा सा भी नहीं भाया  उसे
हाँ मेरी मजबूरियां अच्छी लगीं

कुछ तरस भी आ रहा था वक्त को
कुछ हमारी नेकियाँ अच्छी लगीं

कैद करके कांच की दीवार में
कह रहा था मछलियाँ अच्छी लगीं.

शुक्रवार, 14 मई 2010

डरना क्यों

जो डरता है
वह पल-पल मरता है

बहुत डरावनी है मौत
बताकर कभी नहीं आती
चलने का न्योता नहीं देती
ताकि आदमी मन बना सके
घर वालों को समझा सके
और कोई बहुत जरूरी
काम हो तो निपटा सके

इसीलिए  हर कोई
डरता है मौत से
सब कुछ जल्दी-जल्दी
कर लेना चाहता है
धन-संपदा से
घर भर लेना चाहता है
संपदा आ जाती है
तो उसकी सुरक्षा के लिए
परेशान रहने लगता है
यह जानते हुए कि
ले नहीं जायेगा
अगले जीवन के लिए
एक भी सिक्का

असफलता भी डराती है
कोई हार को गले
नहीं लगाना चाहता
कोई पीछे नहीं रहना चाहता
दुनिया की चूहा दौड़ में
आशंका रहती है
कछुआ पता नहीं
आगे निकल पाए या नहीं

अब आप समझ सकते हैं
कि लोगों को नींद
क्यों रात भर नहीं आती

सारा डर इसलिए है कि
हमने अपना काम भुला दिया है
केवल कर्म का अधिकार मिला है
आदमी को
बस वह कर्म ही नहीं करता
दिन-रात परिणाम की
चिंता में मगन रहता है

इसिलिये हर वक्त
डरता रहता है

गुरुवार, 13 मई 2010

कलम के सिपाही किधर चल पड़े

आप जानते हैं समाचार क्या होता है? जब मैंने समाचार की दुनिया में दाखिला लिया था, तब मुझे पता नहीं था कि समाचार क्या होता है। समाचार लिखता था, मेरे लिखे समाचार प्रकाशित भी होते थे, प्रशंसाएं भी मिलती थीं पर न मेरे साथियों ने कभी मुझे बताया कि समाचार क्या होता है, न ही मेरे मन में कभी यह सवाल उठा। बात बहुत पुरानी है। प्रयाग में जब माघमेला लगता था, मैं उसके चक्कर लगाता रहता था। जो भी अच्छा साधु नजर आता, उसके पास बैठ लेता, उसकी परीक्षा लेने से नहीं चूकता। प्रयाग में रहकर पढ़ाई-लिखाई तो दुरुस्त हो ही जाती है, सो मेरी भी ठीक-ठाक थी। ऐसे में किसी भी महामंडलेश्वर या अखाड़ाधिराज से टकराने में तनिक देर नहीं लगती।

एक दिन ऐसे ही जा टकराया एक महाबली से। उनका नाम था स्वामी नरसिंहानंद। कुछ देर तो वे यूं ही बतियाते रहे फिर पूछ बैठे, बेटा क्या करते हो। मैंने जवाब दिया, समाचारपत्र में काम करता हूं। उन्होंने दूसरा सवाल दागा, बता सकते हो, समाचार का क्या मतलब होता है। मुझे किसी साधु से ऐसे सवाल की उम्मीद नहीं थी, इसलिए आंय-बांय-सांय जो दिमाग में आया, बक डाला। एक भाषण दे दिया। वे चुपचाप सुनते रहे। फिर बोले, तुम्हारे पिताजी कभी तुम्हें पत्र लिखते होंगे तो पूछते तो होंगे, अपना समाचार बताना। जब वे ऐसा लिखते होंगे तो मन में यही भाव रखते होंगे कि तुम कोई नूतन शुभ सूचना दोगे। वे यह थोड़े ही सोचते होंगे कि तुम उन्हें बताओगे कि तुम्हारा पैर टूट गया है या तुम घायल हो गये हो।

मैं एकटक उनकी ओर देखे जा रहा था। इतनी विद्वत्तापूर्ण और सम्यक चर्चा चल रही थी कि मेरे मन से उनसे लड़ पड़ने का भाव तिरोहित हो गया। वे बोले, सम्यक प्रकारेण आचार: इति समाचार:। सम्यक आचरण ही समाचार है। उनकी व्याख्या अद्भुत थी। मुझे बिल्कुल एतराज नहीं हुआ। मैंने कहा, बाबा, तब तो हम लोग समाचार न लिखते हैं, न छापते हैं। इस परिभाषा के अनुसार आजकल समाचार लेखन होता ही नहीं। हमारे समाज में समाचारों की कमी नहीं है लेकिन लगभग सभी समाचारपत्र विसमाचार पर भरोसा करते हैं और उसे ही समाचार मानते हैं।

समाचार एक कलात्मक लेखन है। कोई भी घटना होती है, वहां पत्रकार सबसे पहले पहुंचने की कोशिश करते हैं। उस घटना की हर पहलू से पड़ताल करते हैं। छोटे से छोटा ब्योरा जानने की कोशिश करते हैं। घटना क्यों हुई? उसका कारण क्या था? उसका परिणाम क्या हुआ? उसे रोका क्यों नहीं जा सका? जिम्मेदार कौन था? भविष्य में क्या किया जाय कि वह अपने आप को न दुहराये? या और भी जो सवाल किसी के मन में उठ सकते हैं, उन सबके जवाब पाने की कोशिश करता है। पत्रकार अपने-आप को एक अदने आदमी की तरह प्रस्तुत करके अपने भीतर उठने वाले सवालों की जांच-पड़ताल करता है। फिर वह अपनी स्टोरी तैयार करता है। अपने सीनियर्स को दिखाता है। अगर उनके मन में कोई सवाल आता है या कोई संदेह होता है तो उन्हें दूर करके उसे अंतिम रूप देता है। फिर वह समाचार के रूप में प्रकाशन के लिए तैयार हो जाती है।

इस महत्वपूर्ण जिम्मेदारी को एक पत्रकार पूरी तटस्थता से निभाये, यह उससे उम्मीद की जाती है। अगर वह तटस्थ नहीं है, अगर वह घटना से पीड़ित या उसके लिए जिम्मेदार पक्ष के प्रभाव में है तो उसकी स्टोरी वस्तुनिष्ठ नहीं रह पाती। तब उसकी पठनीयता भी कम हो जाती है। उसके सामने लगातार प्रामाणिक और विश्वसनीय बने रहने की कठिन चुनौती होती है। जो इस चुनौती पर जितना खरा उतरता है, उसकी प्रतिष्ठा पाठकों या श्रोताओं में उतनी ही बढ़ती चली जाती है। अगर समाचार लिखते समय कोई आग्रह एक पत्रकार में होना चाहिए तो वह जनपक्षधरता का होना चाहिए। व्यापक जनहित का भाव किसी भी पत्रकार को दृष्टिसंपन्न बनाता है। यह विजन ही बड़ा पत्रकार पैदा करता है। जिनके पास यह कीमती चीज नहीं होती, वे समाचार बेचने वाले होते हैं। वे खुद भी बिके हुए होते हैं। वे जानबूझकर किसी एक पक्ष को लाभ पहुंचाने की नीयत से समाचार बनाते हैं और उस फायदे में अपनी हिस्सेदारी भी वसूलते हैं। इसे ही पीत पत्रकारिता कहा जाता है। आजकल ऐसे लोगों की तादाद समाचार उद्योग में कुछ ज्यादा ही हो गयी है।

समाचार जगत जैसे-जैसे बड़े उद्योग का रूप ले रहा है, वैसे-वैसे समाचार के रूप-स्वरूप में भी परिवर्तन हो रहा है। जो बुरा है, घृणास्पद है, जघन्य है, नग्न है, विरूप है, नकारात्मक है, सनसनीखेज है, वह ज्यादा लोगों को अपनी ओर आकर्षित करता है। इसलिए वह ज्यादा बिक सकता है। उद्योग के नजरिये से जो ज्यादा बिक सकता है, वह अधिक उपयोगी है। इसी कारण अब समाचारों को इन्हीं कसौटियों पर आंकने की प्रथा चल पड़ी है। नकारात्मकता के उच्छेद की जगह उसकी यथातथ्य प्रस्तुति को समाचारों में ज्यादा जगह मिल रही है।

यह ठीक है कि जो सड़ रहा है, जो बजबजा रहा है, जो समाज को गंदा कर रहा है, उसका विरोध होना चाहिए, उसे बदला जाना चाहिए, नहीं बदले तो उसे ध्वस्त कर दिया जाना चाहिए पर यह बड़ा काम है, यह केवल सड़ांध के प्रदर्शन मात्र से संभव नहीं है। कोई रिश्वतखोर है, भ्रष्ट है, उपद्रवी है, दंगाई है और पत्रकार जानता है, उसके पास उसकी पूरी कहानी है तो उसके सामने दो विकल्प हैं। एक तो वह उसकी कहानी को मिर्च-मसाले के साथ परोस दे और अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो ले और दूसरा जो ज्यादा महत्वपूर्ण है, वह यह कि वह इस कहानी को अपने अंजाम तक ले जाने के लिए पहले इतने सुबूत इकट्ठे कर ले कि वे उसे कानून की गिरफ्त में पहुंचा देने के लिए पर्याप्त हों, फिर कानून की भी मदद ले और अपनी स्टोरी इस तरह फाइनल करे कि उसके बचने की संभावना शेष न रहे। इसमें समय लग सकता है लेकिन यह उसके समाचार की विश्वसनीयता को असंदिग्ध बनाने में मददगार होगा।

हमारे सामने ऐसे विदेशों के कई उदाहरण मौजूद हैं, जिनमें पत्रकारों की सधी हुई खबरों और विश्लेषणों ने सरकारें ढहा दीं, बेईमान राष्ट्रपतियों और प्रधानमंत्रियों को राजतख्त से नीचे उतार दिया। अपने देश में भी कुछ निहायत जिम्मेदार पत्रकारों ने सरकार को, जनप्रतिनिधियों को और जनता के प्रति जवाबदेह प्रतिष्ठानों को नाक रगड़ने के लिए मजबूर किया। न्यूज चैनलों पर कभी-कभी अब भी ऐसी कोशिशें दिखायी पड़ती हैं। यह बात समझनी पड़ेगी कि जनविरोधी, भ्रष्ट और बेइमान सत्ता के खिलाफ प्रामाणिक अभियान भी लोगों को पसंद आते हैं और इस तरह की मुहिम से जुड़ी खबरें बिकाऊ माल न होकर भी ज्यादा कीमत अदा करने में सक्षम होती हैं। यही सच्ची पत्रकारिता की दिशा है। अगर सभी कलमकार इस पर चल पड़ें तो समाज, सत्ता और देश का बड़ा कल्याण हो सकता है।

बुधवार, 12 मई 2010

हिंदुस्तान इतना लाचार क्यों?

हिंदुस्तान जैसे विशाल देश के सामने पाकिस्तान की औकात क्या है? कुछ भी नहीं। न आर्थिक नजरिये से, न ताकत की दृष्टि से। यह बात कई बार साबित भी हो चुकी है। जब भी उसने सीधी रार छेड़ी, उसे मुंह की खानी पड़ी, पराजित होना पड़ा, झुक कर समझौते करने पड़े। उसकी इसी रार ने उसके दो टुकड़े भी करवा दिये। पूर्वी पाकिस्तान टूट कर अलग हो गया। बांग्लादेश बन गया। पर उसकी भारत को परेशान करने, उसे छेड़ते रहने की आदत नहीं गयी। हमारे नेताओं को, हमारी हुकूमतों को इसकी परवाह नहीं, इसकी चिंता नहीं।
जब पाकिस्तान कोई बड़ी साजिश अंजाम देता है, हम नाराज होते हैं, मुंह फुला लेते हैं, चेतावनी देते हैं, बातचीत बंद कर देते हैं पर यह सब बहुत लंबा नहीं चलता है। रक्षामंत्री ए के एंटनी कहते हैं, आखिर आप पड़ोसी तो नहीं बदल सकते, उसी के साथ रहना है, उसकी सारी उल्टी-सीधी हरकतों के बावजूद उससे हम पिंड नहीं छुड़ा सकते। और जब साथ रहना है तो बात तो करनी पड़ेगी। एंटनी कोई पहले नेता नहीं हैं, जो यह बात कह रहे हैं, हिंदुस्तान के नेता अक्सर इसी तरह की बातें करते रहते हैं।

हमले पर हमले सहकर भी भारत पाकिस्तान से बदल जाने की उम्मीद नहीं छोड़ता। यह व्यर्थ की उम्मीद लगती है। बंटवारे को 63 साल से भी ज्यादा हो चुके हैं। हम हमेशा दोस्ती का हाथ बढ़ाते रहे, वह पीछे से वार करता रहा। यह अलग बात है कि सीधी लड़ाई में हमने उसे हर बार पछाड़ा पर इससे उसका लड़ने का जुनून कहां खत्म हुआ। अब उसके खरीदे हुए सिपाही हिंदुस्तान से लड़ रहे हैं। हम तो उन्हें भी नहीं रोक पाते, जो हमारी मिट्टी में जन्म लेकर भी दुश्मनों के हाथ बिक जाते हैं। न केवल आतंकवादी हमलों के मामलों में बल्कि पाकिस्तान से छपकर आने वाले नकली नोटों के प्रसार में भी हमारे अपने लोग कमीशन के लालच में उनके जासूसों द्वारा खरीद लिये जाते हैं। अब तो बड़े अफसर भी उनकी गुलामी बजाते मिल रहे हैं। आखिर हम इतने गद्दार क्यों निकल रहे हैं, हम किसी के भी सामने अपनी बोली लगाने में क्यों तनिक संकोच नहीं करते?

क्या हो गया है, हमारे स्वत्व को, स्वाभिमान को, देशभक्ति को? और क्या हो गया है हमारी कानून-व्यवस्था की मशीनरी को, हमारी खुफिया सेवाओं को? वे क्यों गहरी नींद में रहती हैं? उनके हाथ हिंदुस्तानी कहलाने वाले गद्दारों के गिरेबान तक क्यों नहीं पहुंचते, उनको हमारी जमीन पर आकर षड्यंत्र का जाल बिछाने वाले दुश्मन के जासूसों और उपद्रवियों का सुराग क्यों नहीं मिलता?

हर हमले के बाद हम मुस्तैदी की बात करते हैं, सतर्कता के उपाय करते हैं, सीमाओं पर निगरानी बढ़ाने की स्कीमें बनाते हैं पर हमले रुकते नहीं। हर हमले के बाद हम पाकिस्तान को चेतावनी देते हैं, अब इसे दुहराया तो? मगर हमले रुकते नहीं। हम जानते हैं कि वे हमसे ही छीनी गयी जमीन पर आतंकवादियों को ट्रेनिंग दे रहे हैं, हमारे देश पर हमला करने वालों का सार्वजनिक सम्मान कर रहे हैं, भारत के खिलाफ उन्हें आग उगलने का मौका दे रहे हैं, पर हम निरुपाय हैं, लाचार हैं। हम बातचीत के अलावा कुछ नहीं कर सकते।

इतनी लाचारी भी ठीक नहीं। हमारे सत्तानायकों ने कई बार आतंकवादियों के आगे घुटने टेके हैं। उनसे लड़ने में देश के बहादुर बच्चों की मूल्यवान जिंदगियां निछावर होती रही हैं और हम अहिंसा और क्षमा के देवदूत बनकर बार-बार एक धूर्त और पाखंडी पड़ोसी को माफ करते आये हैं। आखिर बातचीत की क्या मजबूरी है? जब वह हमारी एक बात नहीं मान सकता कि आतंकवादियों को अपनी जमीन पर भारत के खिलाफ साजिश करने से रोके, कश्मीर छीनने के लिए बदमाशों को घूम-घूम कर चंदा मांगने से रोके, हमारे खिलाफ अपराध करने वाले उपद्रवियों को हमारे हवाले करे, तो उससे किसी भी तरह की बातचीत की क्या जरूरत है? यह समझना होगा कि जो बातचीत की भाषा समझता ही न हो, उसके सामने अपनी लाचारी प्रदर्शित करके हमें कभी कुछ हासिल नहीं होगा।

मंगलवार, 11 मई 2010

इतने आत्मविस्मृत क्यों हैं हम

हर देशवासी चाहता है कि अपने देश के गौरव, उसकी प्रतिष्ठा पर कोई आंच न आये। भले ही वह स्वयं देश के लिए ज्यादा कुछ नहीं कर पाता हो, अपने निजी कारोबार में व्यस्त रहता हो लेकिन देश तो सबके दिल में बसा होता है, रगों में धड़कता रहता है। और फिर जो मेहनत हम अपने निजी कामों में करते हैं, अपना कारोबार चलाने में, अपनी संस्थाएं मजबूत करने में, अपना उद्योग बढ़ाने में और इसी तरह के अपने अन्य कामों में जो ऊर्जा हम लगाते हैं, वह भी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से देश की बेहतरी में योगदान जैसा ही होता है। हर किसी के श्रम से देश आगे बढ़ता है, विकसित होता है। इसलिए दुनिया में उसकी जो भी छवि बनती है, उसे जो भी सम्मान मिलता है, उसका श्रेय हर उस व्यक्ति को जाता है, जो मेहनत, लगन, ईमानदारी और जिम्मेदारी से अपने दायित्व का निर्वाह करता है।

यह अपेक्षा केवल आम नागरिकों से ही नहीं की जानी चाहिए, उन लोगों से भी की जानी चाहिए, जो सरकारों में बड़े ओहदों पर बैठे हुए हैं। उन्हें तो और भी जिम्मेदार होना चाहिए, और भी पारदर्शी एवं जवाबदेह होना चाहिए। पर ऐसा दिखता नहीं। पिछले दिनों एक मंत्री महोदय की छुट्टी हो गयी। वे अक्सर भूल जाते थे कि वे सरकार में मंत्री हैं और मंत्री के नाते उन्हें अपनी लक्ष्मणरेखा का ध्यान रखना है। शशि थरूर कई बार विरोधी नेताओं की भाषा में बोलने लगते थे। वे जब रौ में होते थे तो अपने नेताओं की, कांग्रेस पार्टी के इतिहास पुरुषों की भी आलोचना करने से नहीं चूकते थे। कई बार उन्होंने सरकार को परेशानी में डाला और आखिरकार मनमोहन सिंह को उनसे तौबा करनी पड़ी।

उन्हीं के रास्ते पर जयराम रमेश भी चल पड़े हैं। वे अपनी चीन यात्रा के दौरान खुद को रोक नहीं सके, चीनियों के स्वागत सत्कार से इतने भाव-विह्वल हो गये कि बीजिंग के प्रवक्ता की तरह बोलने लगे। उन्होंने अपने देश की बुराई कर डाली, भारत सरकार के गृह मंत्रालय की खिंचाई कर डाली। यह कतई अपमानजनक है। इसे कोई भी देशवासी स्वीकार नहीं कर सकता। हम सब अपनी कमियां जानते हैं, उनके लिए जिम्मेदार लोगों को भी पहचानते हैं लेकिन यह समस्याएं हमारी हैं, इनसे हम देश के भीतर लड़ते रहेंगे, किसी बाहरी की मदद मांगने नहीं जायेंगे।

मंत्री महोदय को क्या इतनी साधारण सी बात समझ में नहीं आयी। आखिर चीन में ये सब बातें करके वे क्या हासिल करना चाहते थे? आत्मप्रशंसा, थोड़ी सी वाहवाही? विदेशी जमीन पर अपने देश के मुंह पर कालिख पोतकर क्या उन्हें ऐसा नहीं महसूस हुआ कि यह कालिख तो खुद उनके ही चेहरे पर पुत गयी है? अगर नहीं तो ऐसे आत्मविस्मृत, आत्महीन और स्वाभिमानशून्य व्यक्ति को केंद्र में मंत्री बने रहने का क्या अधिकार है?

मनमोहन सिंह सरकार के कई मंत्री मंत्रिमंडल की सामूहिक जिम्मेदारी के आदर्श को भी भंग करते रहते हैं, अपना काम ठीक से करने की जगह दूसरों के काम-काज में ताक-झांक करते रहते हैं, उनकी कमियां ढूढते रहते हैं। यह बहुत ही गैर-जिम्मेदाराना बात है। इसे बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए। अगर जरूरी हो तो इन बड़े समझे जाने वाले लोगों को भी समय-समय पर राष्ट्र की गरिमा और सम्मान के अलावा उनकी जिम्मेदारियों और जवाबदेहियों पर ज्ञान दिया जाय, उन्हें यह भी बताया जाय कि कहां, क्या बोलना है, क्या नहीं। और फिर भी अगर कोई इन मर्यादाओं को तोड़ता है तो उसको बख्शा नहीं जाना चाहिए।

संसार मृगमरीचिका के पीछे

बंशीधर मिश्र की कलम से
संसार मृगमरीचिका के पीछे भाग रहा है। मृगमरीचिका अर्थात् जो है नहीं उसका पूरी तरह आभास। ऐसा आभास कि आंखें, मन, बुद्धि सब धोखा खा जाएं। इस समय पूरी दुनिया इसी धोखे का शिकार है। अपनी ताकत की चोटी पर बैठे अमेरिका का मायाजाल उसके अपने ही रचे गए अजायबघर में दम तोड़ गया। पिछले डेढ़-दो सालों में अमेरिकी अर्थव्यवस्था का सारा गुरूर चकनाचूर हो गया। एक समय में जिस देश के साम्राज्य का सूरज नहीं अस्त होता था, उस इंग्लैंड की अपनी ताकत अब बची ही नहीं है। यदि अमेरिका और पश्चिम के विकसित पूंजीवादी देश उसको विरादराना सहारा न दें, तो वह मिमियाने की मुद्रा में खड़ा नजर आएगा। आस्ट्रेलिया की तो अर्थव्यवस्था ही भारतीय जैसे विदेशी छात्रों की फीस की बदौलत चल रही है। इंग्लैंड के हाल के चुनावों में तेरह साल से काबिज लेबर पार्टी को जनता ने नकारकर कंजरवेटिव पार्टी को चुन लिया। इसका मतलब यह कि श्रमिकों के हितों और आम आदमी की बेहतरी की बात करने वाली लेबर पार्टी से लोगों का मोह भंग हो गया।

 इन दिनों भारतीय संसद जातीय जनगणना पर गुत्थमगुत्था कर रही है। सफेद कपड़ों से लकदक माननीयों की पूरी विरादरी दो हिस्सों में बंटी नजर आ रही है। मुलायम सिंह यादव, लालू यादव, शरद यादव जाति के आधार पर पिछड़ों की जनगणना की मांग कर रहे हैं। उनका कहना है कि यदि ऐसा नहीं किया गया, तो यह पिछड़ों का सरासर अपमान माना जाएगा। चिदंबरम जैसे भद्र पुरुष को जाति के आधार पर जनगणना का काम बहुत अटपटा लग रहा है। पर गतिरोध को टालने के लिए प्रधानमंत्री ने खुद संसद में खड़े होकर तीनों यादव तिकड़ी की मांगें मंजूर कर लीं। आजाद हिंदुस्तान में यह पहली बार है जब जाति के आधार पर जनगणना की जा रही है। यह हमारे और हमारे माननीयों के मानसिक विकास की पोल खोलती है।


दरअसल, मनुष्य छलावे में जीने का अभ्यस्त हो चुका है। पूरा संसार उन चीजों के पीछे भाग रहा है, जो हैं ही नहीं। चाहे यह सवाल किसी एक व्यक्ति का हो या किसी समाज, देश या दुनिया का, सब मृगमरीचिका के शिकार हैं। अमेरिका और इंग्लैंड जैसी महाशक्तियां जिसे अपनी ताकत समझकर इतराती फिरती थीं, वह रेत की दीवार की तरह भरभराकर ढह गयी। दुनिया के 80 फीसदी संसाधनों का अकेले इस्तेमाल करना वाला अमेरिका आर्थिक रूप से गंभीर खतरे के दौर से गुजर रहा है। वहां के करीब एक सौ बैंक और वित्तीय संस्थाएं आर्थिक रूप से दिवालिया हो चुकी हैं। इस सूची में फेडरल बैंक तक शामिल है।

कर्ज की नींव पर खड़ा अमेरिकी समाज अपनी आदतों, व्यसनों की वजह से कंगाली के कगार पर पहुंच चुका है। काल्पनिक अवधारणाओं को अपनी ताकत मानकर जो शेयर बाजार 21 हजार का आंकड़ा पार कर चुका था, वह सालभर पहले सात-आठ हजार के अंक के भीतर गोते लगा रहा था। फिर भी हैरत तो यह है कि आदमी सुधरा नहीं। नास्डैक से लेकर मुंबई स्टाक एक्सचेंज के सूचनापटों पर दुनिया के करोड़ों लोगों की निगाहें टिकी रहती हैं। न जाने कितने खिलाड़ियों ने इस खेल में कंगाल होकर फांसी लगा ली, जहर खा लिए। पर आदमी है कि मानता नहीं। क्योंकि वह सपनों में महल बनाकर उसमें जीने का आदी हो चुका है।

भारतीय संसद पिछले दिनों जातीय जनगणना के मुद्दे पर बहस करती नजर आई। यहां तक कि सत्ताधारी कांग्रेस के सांसद इस मुद्दे पर बंटे नजर आए। गृह मंत्री का तर्क था कि जाति के आधार जनगणना ठीक नहीं। उनके मन मष्तिस्क में व्यावहारिक दिक्कतों के अलावा शायद सैद्धांतिक अड़चनें ज्यादा थीं। जाति को स्वीकारना मनुष्य की विकसित चेतना का विपर्यय माना जाएगा। मनुष्य मूलत: मनुष्य है। उसे जाति, धर्म, संप्रदाय के खांचे में बांटना ठीक नहीं। पर तमाम ‘माननीयों’ की राय में जाति भारतीय समाज का जीवंत यथार्थ है। इसे झुठलाना ठीक नहीं।
 
सवाल यह उठता है कि इसकी जरूरत क्यों आई? जाति का होना और जातीय जनगणना दोनों अलग-अलग मुद्दे हैं। अपनी जाति की संख्या जानकर ये नेता शायद अपनी राजनीतिक ताकत का आकलन करना चाहते हैं। क्योंकि लोकतंत्र में संख्या बल सबसे बड़ा बल माना जाता है। लेकिन यह बल मनुष्य के आधार पर गिना न जाकर जाति के आधार पर गिना जाए, तो समाजवाद का झंडा ऊंचा करने वाले लोगों पर हंसी आना स्वाभाविक है। लगता है, इसके पीछे उनकी मंशा समाज को बांटकर राज करने की है। जाति भारतीय समाज की कृत्रिम व्यवस्था है। यही नहीं, दुनिया के किसी भी हिस्से में आदमी जाति के साथ पैदा नहीं होता। क्योंकि यह भी मन से उपजी काल्पनिक अवधारणा है। यह जैविक और भौतिक यथार्थ नहीं है। इसीलिए विज्ञान इसे खारिज करता है।

सोमवार, 10 मई 2010

जाति न पूछो साध की

जाति न पूछो साध की. यह इसी देश की परंपरा रही है. हमारे पूर्वजों ने बार-बार कहा है कि  जाति का कोई मतलब नहीं है, यह बेमानी है. भगवान ने कोई जाति नहीं बनाई. उसने सिर्फ आदमी बनाया. उसे बांटा  नहीं. उसे अलग-अलग दीवारों  में कैद नहीं किया. आदमी-आदमी में कोई भेद नहीं किया. वह समदर्शी यूँ ही थोड़े कहा गया है. पर आदमी ने उसकी मंशा नहीं समझी. उसने तमाम लकीरें खींच डालीं. जातियों की, सम्प्रदायों  की, उंच-नीच की, गरीब-अमीर की. सबने अपनी-अपनी हदें बना लीं, इतनी मुकम्मल और सख्त कि कोई दूसरा उनके घेरे में दाखिल न हो सके, घेरे के पास तक न फटक सके.

इससे भारतीय समाज में  अनेक तरह की समस्याएं पैदा  हुईं. जो नीच समझे गए, उनका तिरस्कार किया गया, उनका शोषण किया गया, उन्हें उनके वाजिब हक़ से महरूम किया गया. प्रतिक्रिया स्वाभाविक थी. इतिहास में ऐसे तमाम वाकये दर्ज हैं, जब जातिगत संघर्ष हुए, जो पराभूत हुआ, उस पर जबरदस्त अत्याचार किये गए. सांप्रदायिक संघर्ष का तो इस देश में लम्बा खूनी इतिहास रहा है. जब भारत सामंतों और राजाओं द्वारा शासित था, तब भी राज-काज को जाति और  संप्रदाय की मानसिकता से ही संचालित होते देखा गया.

हमारी वैदिक व्यवस्था के अनुदार हो जाने के बाद समाज में कर्म के आधार पर बनते वर्गों में जो निचले  पायदान पर खड़े थे, उन पर जुल्म की इंतिहा हो गयी. उन्हें पूजा नहीं करने दी जाती थी, उन्हें मंदिरों में घुसने की इजाजत नहीं थी, उन्हें धार्मिक पुस्तकें छूने की अनुमति नहीं थी. इस जर्जर सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ संतों ने जिहाद छेड़ा. जाति-पांति  पूछे नहिं  कोई, हरि को भजे सो हरि का होई या जाति हमारी जगतगुरु जैसी आवाजें तभी उठीं. उत्तर से लेकर दक्षिण तक भक्ति आन्दोलन ने जोर पकड़ा. संत नामदेव से लेकर रविदास, कबीर, दादू दयाल, पीपा, सेन, शेख फरीद, रज्जब, गरीबदास  जैसे तमाम संत कवियों ने जाति, वर्ग और संप्रदाय को लेकर समाज में फैले भेदभाव पर तीखा हमला बोला. अपने-अपने समय में इन सबने टूटते-बिखरते समाज को एक नए सूत्र से बांधने  का काम किया.

आप ध्यान से देखें तो इस आन्दोलन को स्वर और गति देने वाले अधिकाँश  कवि निम्न वर्ग से आये थे. उन्होंने खुद अपनी आँखों से तथाकथित  उच्च, कुलीन वर्ग का अत्याचार देखा था, वे निचली जातियों के लोगों पर होने बाले जुल्म से दो-चार हुए थे. वे इस सामाजिक विसंगति से चिंतित थे, इस अनुदारता से विचलित थे. वे समाज में सबको बराबर की हैसियत दिए जाने के पक्षधर थे. वे मनुष्यता की प्रतिष्ठा चाहते थे. इस परिवर्तन की कामना से संचालित होकर वे अपनी पूरी  ताकत से निकल पड़े. जिस भगवान् का नाम लेकर उत्पीडन और जुल्म का कारोबार चल रहा था, उसी भगवान के हवाले से उन्होंने उसका प्रबल विरोध भी किया. जिन धार्मिक किताबों की आड़ में कुलीन वर्ग अपनी सत्ता कायम रखने की कोशिश में जुटा था, उन किताबों को भक्त कवियों ने ठुकरा दिया. तुम कहते हो कागज लेखी, मैं  कहता हूँ आँखिन देखी या वेद -कतेब नहीं कछु जाने.

दर असल उच्च जातियों की प्रभुता के जो मूलाधार थे, उन सबको संतों ने सिरे से ख़ारिज कर दिया. यहाँ तक कि  उन्होंने भगवान को भी बाहर की दुनिया से भीतर घसीट लिया. उन्होंने कहा कि भगवान हर  आदमी के ह्रदय में है और अगर तुम आदमी को सम्मान नहीं देते तो भगवान को भी सम्मान नहीं देते. यह इसलिए जरूरी हो गया था कि  मंदिर, मस्जिद ईश्वर के नाम पर धार्मिक पाखंड के केंद्र बने हुए थे और उन पर भी उन्हीं लोगों का कब्ज़ा था, जो समाज को टुकड़ों-टुकड़ों में बांटकर रखना चाहते थे  ताकि उनका शोषण जारी रहे. असल में भक्तों  ने   उसी धारा को और आगे बढाया, जिसके बीज नाथों और सिद्धों ने डाले थे. सहज जीवन की स्वीकृति में सामाजिक विषमताओं के उन्मूलन का स्वर देखा जा सकता है. यह बात बौद्धों में भी थी. जाति की अनावश्यकता के प्रतिपादन के कारण ही बौद्ध धर्म की ओर भी उपेक्षितों का भारी आकर्षण दिखाई पड़ा था.

धीरे-धीरे सामंती व्यवस्था के विनाश और राजतंत्रात्मक प्रभुसत्ताओं के पराभव के कारण जाति और संप्रदाय की कठोर दीवारों में कुछ सुराख़ हुए. अंग्रेजों के खिलाफ स्वाधीनता  आंदोलन ने इस संकीर्णता  को और कमजोर किया. लोग देश की मुक्ति की कामना से आगे आये तो कभी किसी वे उनकी जाति, उनका धर्म, उनका संप्रदाय नहीं पूछा. देशभक्तों की कोई जाति नहीं होती, कोई संप्रदाय नहीं होता. इसी ऐक्य भाव ने हमें ताकत दी, इसी ने हमें ऐसी सत्ता से टकराने का साहस दिया, जिसके राज में सूरज डूबता ही नहीं था. और इसी जज्बे और हौसले के कारण हम विजयी भी हुए, ब्रितानी पराभूत हुए, भारत आज़ाद हुआ.

लेकिन हम आजाद होकर भी आज़ाद नहीं हो सके. राजनीतिक स्वतंत्रता तो मिली पर इतने वर्षों बाद भी हमारा भारत सामाजिक और आर्थिक आज़ादी के लिए तड़प रहा है. यहाँ मनुष्य फिर खतरे में है. हम एक कमजोर देश के रूप में सबके सामने हैं, एक लंगड़ाते गणतंत्र के रूप में प्रस्तुत हैं. न अपनी भाषा पर गर्व करने लायक बन सके, न धर्म निरपेक्ष बन सके, न जाति निरपेक्ष. हम भूल गये भारतेंदु का आप्त वाक्य, निज भाषा उन्नति अहे  सब उन्नति को मूल. आज भी हिंदी को जो जगह मिलनी चाहिए थी, नहीं मिल सकी. जाति, संप्रदाय की दीवारें और मजबूत, और कठोर हुईं हैं. देश के राजनेताओं ने इन बंटवारों को बनाये रखने में कोई कोर-कसर  नहीं छोड़ी. जब भी गरीब की बात  हुई तो जातियों की बात हुई, जब भी समता, समानता की बात हुई तब हिन्दू-मुस्लिम, सिख-ईसाई  की बात हुई. निरपेक्षता का मतलब सांप्रदायिक पक्षधरता से अलग नहीं रह सका. इसीलिए इस देश ने आज़ादी के बाद जाति, संप्रदाय के नाम पर कई बड़े दंगे देखे, भयावह कत्लेआम का सामना  किया.

अब भी किसी को होश नहीं है. राजनीति से तो कोई उम्मीद नहीं की जा सकती, क्योंकि बगैर जाति, संप्रदाय के उसका रथ आगे बढ़ता ही नहीं. वे अभी तक जाति, संप्रदाय के नाम पर लोगों को लड़ाते आये हैं, अब इन्हीं आधारों पर जनगणना करके अपनी विध्वंसक ताकत का जायजा भी लेना चाहते हैं. सभी अनुभव करते हैं कि अब कुछ होना चाहिए. समाज के भीतर  का गुस्सा, उसकी पीड़ा, उसकी निरुपायता जब संगठित  होकर खड़ी होगी, तभी भारतीयता की प्रतिष्ठा का रास्ता साफ होगा, तभी हर भारतीय केवल मनुष्य की तरह स्थापित होगा. और तभी  हिन्दू, मुसलमान, ब्राह्मन , शुद्र होकर भी लोग इन खोलों के बाहर होंगे. यह सच है कि  परिवर्तन की इस दिशा में अलग-अलग बिना एक-दूसरे को जाने हुए देश के कोने-कोने में लोग सक्रिय हैं. उन सबकी आवाज समवेत होकर उभरे, इसके लिए एक विराट सम्मोहक ऐक्य सूत्र की जरूरत है. वह मैं भी हो सकता हूँ, आप भी और कोई और भी.

शनिवार, 8 मई 2010

मंज़िल तक

सुबह हो  गयी है. उठने और चल पड़ने का वक्त आ गया है, पर कहाँ, किसलिए औए क्यों? इन्हीं  सवालों की छानबीन  करते कुछ शब्द------

जो लीक पर

चलते हैं
वे पहुँचते हैं
दूसरों द्वारा तलाशी
गयी मंज़िल तक

वे सिर्फ़ चलना जानते हैं
अनुकरण करना
उनकी अपनी
कोई मंज़िल नहीं होती

जो लीक से हटकर
चलते हैं मगर
सिर्फ़ चलते हैं
चलने के लिए
कहीं पहुँचने के लिए नहीं
वे नहीं पहुँचते कहीं भी

और जो लीक छोड़कर
चलते हैं पर
ध्यान रखते हैं
मंज़िल का भी

सिर्फ़ वे ही पहुँच पाते हैं
अपने शिखर तक
अपनी मंज़िल तक

अशोक रावत की गजलें

अशोक रावत गजलगोई में एक जाना-पहचाना नाम है। बकौल सोम ठाकुर, अशोक रावत उन गजलकारों में से एक हैं, जिनकी गजलों में युगीन दुर्व्यवस्था, दिग्भ्रमित राजनीति और संस्कारहीन मानसिकता को नितांत नवीन, चिंतना-सम्मत सहजात भाषा सौष्ठव के साथ कभी व्यंग्य, कभी विक्षोभ और कभी शुभाशंसा के रूप में पूर्ण परिपक्वता के साथ शब्दायित किया गया है। रावतजी मथुरा के गांव मलिकपुर में नवंबर 1953 में जन्मे। पेशे से इंजीनियर होते हुए भी उन्होंने गजल को अपनी अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में चुना। उनकी रचनाओं का साहित्य जगत में खूब स्वागत हुआ, उन्हें बहुत सराहा गया। देश की सैकड़ों पत्रिकाओं में उनकी गजलें प्रकाशित हुईं। हिंदी गजल यात्रा-2, लोकप्रिय हिंदी गजलें, गजलें हिंदुस्तानी, नयी सदी के प्रतिनिधि गजलकार, धूप आयी सीढ़ियों तक, कोई दावा न फैसला कोई, आरम्भ जैसे कई संकलनों में उनकी गजलें शामिल की गयी हैं। थोड़ा सा ईमान नाम से उनका एक गजल संग्रह भी प्रकाशित हो चुका है। यहां उनकी कुछ बेहतरीन गजलें पेश हैं।

1.
दुश्मनों से भी निभाना चाहते हैं
दोस्त मेरे क्या पता क्या चाहते हैं

हम अगर बुझ भी गये तो फिर जलेंगे
आँधियों को ये बताना चाहते हैं

साँस लेना सीख लें पहले धुएं में
जो हमें जीना सिखाना चाहते हैं

ये जुबां क्यों तल्ख हो जाती है जब हम
गीत कोई गुनगुनाना चाहते हैं
2.
रोज कोई कहीं हादसा देखना
अब तो आदत में है ये फजां देखना

उन दरख्तों की मुरझा गयी कोपलें
जिनको आँखों ने चाहा हरा देखना

रंग आकाश के, गंध बारूद की
और क्या सोचना, और क्या देखना

जाने लोगों को क्या हो गया हर समय
बस बुरा सोचना, बस बुरा देखना

उसको आना नहीं है कभी लौटकर
फिर भी उसका मुझे रास्ता देखना

एक जोखिम भरा काम है दोस्तों
इस समय ख्वाब कोई नया देखना
3.
सारा आलम बस्ती का जंगल जैसा ही है
बदला क्या है आज, सभी कुछ कल जैसा ही है

बरसें तो जानूं ये धब्बे, बादल हैं, क्या हैं
रंग-रूप तो इनका भी बादल जैसा ही है

गमलों में ही पनप रही है सारी हरियाली
बाकी सारा मंजर तो मरुथल जैसा ही है

मंत्रों का उच्चारण हो, या पूजा हो या जाप
मंगल ध्वनियों में भी कोलाहल जैसा ही है

हाथ लगाने पर ही होता है सच का आभास
आँखों देखा तो सब कुछ मखमल जैसा ही है

कितना सच है अब भी गंगा के पानी का स्वाद
सरकारी लेखों में गंगाजल जैसा ही है
4.
थोड़ी मस्ती थोड़ा सा ईमान बचा पाया हूं
ये क्या कम है मैं अपनी पहचान बचा पाया हूं

मैंने सिर्फ उसूलों के बारे में सोचा भर था
कितनी मुश्किल से मैं अपनी जान बचा पाया हूं

कुछ उम्मीदें, कुछ सपने, कुछ महकी-महकी यादें
जीने का मैं इतना ही सामान बचा पाया हूं

मुझमें शायद थोड़ा सा आकाश कहीं पर होगा
मैं जो घर के खिड़की रोशनदान बचा पाया हूं

इसकी कीमत क्या समझेंगे ये सब दुनिया वाले
अपने भीतर मैं जो इक इंसान बचा पाया हूं

खुशबू के अहसास सभी रंगों ने छीन लिए हैं
जैसे-तैसे फूलों की मुस्कान बचा पाया हूं
5.
तय तो करना था सफर हमको सवेरों की तरफ
ले गये लेकिन उजाले ही अंधेरों की तरफ

मील के कुछ पत्थरों तक ही नहीं ये सिलसिला
मंजिलें भी हो गयीं हैं अब लुटेरों की तरफ

जो समंदर मछलियों पर जान देता था कभी
वो समंदर हो गया है अब मछेरों की तरफ

साँप ने काटा जिसे उसकी तरफ कोई नहीं
लोग साँपों की तरफ हैं या सपेरों की तरफ

शाम तक रहती थीं जिन पर धूप की ये झालरें
धूप आती ही नहीं अब उन मुडेरों की तरफ

कुछ तो कम होगा अंधेरा, रोज कुछ जलती हुई
तीलियां जो फेंकता हूं मैं अंधेरों की तरफ

अशोक रावत जी से संपर्क करना चाहते हों तो फोन करें...09458400433

धन्यवाद, डा. त्रिमोहन तरल जी को। उन्होंने साहित्य पहेली हल कर दी। इसलिए कि उनके लिए यह कभी पहेली रही ही नहीं। अच्छे कवि होने के नाते वे स्वयं अशोक रावत जी के अंतरंग मित्र हैं। फिर भी वे वक्त पर बात-बेबात पर पहुंचे, इसके लिए उन्हें बधाई।

शुक्रवार, 7 मई 2010

सबके दिल की बात है गजल

गजल कहना और सुनना किसे पसंद नहीं है। इसकी खास वजह है, उसकी लय और उसमें निहित अर्थ का स्फोट। यह विधा पूर्व-अरेबियन कविता से छठीं शताब्दी के कुछ पहले निकली। फारसी साहित्य में गजल का वर्चस्व दिखता है। वहीं से यह अरबी, तुर्की, पश्तो और बाद में उर्दू में आयी। इस विधा का अपना तकनीकी अनुशासन है, इसकी बहरें हैं, इसके मीटर हैं। इसमें पांच से 25 तक शेर हो सकते हैं। पहला शेर गजल की जमीन तैयार करता है। इसे मतला कहते हैं। मतले की दोनों पंक्तियों में काफिया और रदीफ एक जैसे होते हैं। उसके बाद का हर शेर उसी मीटर पर आगे बढ़ता है और उसकी दूसरी पंक्ति मतले के रदीफ को दुहराती है। अंतिम शेर को मकता कहते हैं, जिसमें शायर अपना परिचय भी छोड़ता है। ज्यादातर शायर इसके लिए तखल्लुस का प्रयोग करते हैं पर यह कोई जरूरी नहीं है। कुछ अपने नाम का ही कोई हिस्सा उपयोग में ले लेते हैं।

प्रारंभिक तौर पर गजल के मायने हैं अपनी प्रेमिका से बातचीत। यह ऐसी विधा है, जिसमें शायर प्यार, विछोह और उससे उपजे दर्द का वर्णन करता रहा है। ग़ज़ल को समझने के लिए सूफी मत को भी समझना पड़ेगा क्योंकि कई बड़े ग़ज़लगो सूफी संत हुए। वे एक ऐसी मुहब्बत की बात करते हैं, जिसे हासिल करना लगभग असंभव है लेकिन जिसे वह हासिल हो जाती है, वह जीवन की पूर्णता को प्राप्त कर लेता है। उसी की तलाश में वह दर्द से छटपटाता रहता है, पीड़ा से व्याकुल रहता है और अपनी इसी प्यास को, इसी तड़प को, अपने प्रियतम की खूबसूरती को गाता रहता है। इन्हीं सूफियों के जरिये ग़ज़ल दक्षिण एशिया तक पहुंची।

हालांकि अब गजल ने अपना चेहरा बदल लिया है। अब शायर केवल अपने दर्द की बात नहीं करता, अपनी प्यास की बात नहीं करता, उसे अपना समाज भी दिखता है, उसकी परेशानियां दिखती हैं, उसका दर्द दिखता है और उससे वह अलग नहीं हो पाता। जदीद शायरी के तत्व अब गजलों में भी आ गये हैं। इसीलिए गजलें हर किसी को अपनी बात कहती नजर आती हैं। यही उसकी लोकप्रियता का प्रमुख कारण है।

यह भी कहना ठीक नहीं होगा कि गजल केवल उर्दू की धरोहर है। वह अब लगभग सभी भाषाओं में कही, सुनी और गायी जा रही है। हिंदी में बेहतरीन गजलें कहीं जा रही हैं। हिंदी का विशाल पाठक समुदाय होने के नाते ज्यादातर शायर चाहते हैं कि उनकी गजलें हिंदी देवनागरी में भी साया हों। जर्मन और अंग्रेजी में भी कई कवियों ने गजल के मीटर को इस्तेमाल करने की कोशिश की है। कश्मीरी अमेरिकी शायर आगा शाहिद अली ने रीयल गजल्स इन इंगलिश के नाम से अंग्रेजी की गजलों का संपादन भी किया है।

गजल में उसका हर शेर अलग-अलग अपने में पूर्ण होता है। पर यह कोई जरूरी नहीं कि इसी तरह गजल कही जाय। कुछ लोग ऐसी गजलें भी कहते हैं, जिनमें एक विचार आरंभ से अंत तक चलता है। ऐसी गजलों को मुसलसल गजल कहते हैं। काफिया और रदीफ का नियम भी कुछ लोग नहीं मानते। बहुत से शायर ऐसी गजलें कह रहे हैं, जिनमें रदीफ नहीं होता। इन्हें गैर-मुरद्दफ गजल कहते हैं।

तकनीक और कथ्य के स्तर पर गजलों में पिछले दो दशकों में भारी परिवर्तन आया है। इन तबदीलियों ने गजल को शायरी से मुहब्बत रखने वालों के सर-माथे चढ़ा दिया है। इस समय गीत विधा में जितने अनुशासन प्रचलन में हैं, गजल का अंदाज सबसे ज्यादा लुभाने वाला है। इसीलिए गजल के चाहने वालों की तादाद उत्तर से लेकर दक्षिण तक, पूरब से लेकर पश्चिम तक सबसे अधिक है। गेय कविता में गजल आगे भी सिरमौर बनी रहेगी, इसमें कोई शक नहीं होना चाहिए।

यह पहेली आप हल करेंगे?

आज मन हुआ एक मजेदार खेल का. ब्लाग पर गज़लें बहुत पसंद की जाती हैं. जो भी पहुँचता है, दिल से पढता है और कुछ  न कुछ अपने मन के उद्गार छोड़ जाता है. आइये मैं एक मशहूर नामचीन शायर की एक गजल सुनाता हूँ. ग़ज़ल के नीचे उस पर एक छोटी सी टिप्पडी है. उसमें  उस शायर का नाम है, साथ ही साथ उसके संग्रह का  भी नाम है, जिसमें यह ग़ज़ल छपी है. आप की सुविधा के लिए  इन नामों के सभी अक्षर काले कर दिए गए हैं. आप को सिर्फ यह बताना है कि शायर का और उसके संग्रह का नाम क्या है. आइये ग़ज़ल पढ़िए---

हमें भी खुबसूरत ख्वाब आँखों में सजाने दो
हमें भी गुनगुनाने दो, हमें भी मुस्कराने दो

हमें भी टांगने दो चित्र बैठक में उजालों के
हमें भी एक पौधा धूप का घर में लगाने दो

हवाओं को पहुँचने दो हमारी खिडकियों तक भी
हमारी खिडकियों के कांच टूटें, टूट जाने दो

हवा इतना करेगी बस कि कुछ दीपक बुझा देगी
मुडेरों पर सजा दो और दियों को झिलमिलाने दो

समझने दो उसे माचिस का रिश्ता मोमबत्ती से
जलाता है जलाने दो, बुझाता है बुझाने दो

हमें कोशिश तो करने दो समंदर पार जाने की
हमारी नाव  जल में डूबती है डूब जाने दो

यहाँ तलाश करें शायर और उसकी किताब का नाम. केवल काले यानि बोल्ड अक्षरों पर गौर फरमाएं. खोज लें तो अपनी टिप्पडी में लिखें.--रात  आती है तो अँधेरा लेकर आती है. हम अक्सर इसकी काली साजिशों  से नजान रहते हैं.  हमें  थोडा सा भी हम या भरम नहीं होता कि यह हमारा कुछ बिगाड़ सकती है. हम सो जाते हैं. गहरी नींद में ग़ुम हो  जाते हैं.  यह ठी  है कि हर रा के बाद  सवेरा आता ही है पर जागते रहना जरूरी है. पता नहीं कौन बिना शोर किये सूरज के खिलाफ बेईमान साजिश में जुटा हो.

कल बात-बेबात के इसी पन्ने पर इसी शायर की कुछ बेहतरीन गजलें होंगीं. साथ में उन दोस्तों के  नाम भी होंगे, जिन्होंने यह पहेली सही-सही हल कर ली.

गुरुवार, 6 मई 2010

नाख़ून क्यों बढ़ते हैं : हजारी प्रसाद द्विवेदी

मेरी छोटी लड़की ने उस दिन पूछ दिया कि आदमी के नाख़ून क्यों बढ़ते हैं तो मैं कुछ सोच ही नहीं सका. जब आदमी जंगली  था, वनमानुष जैसा,  उसे नाख़ून की जरूरत थी. जंगल में वही उसके अस्त्र थे. दांत  भी थे पर नाख़ून के बाद ही उसका स्थान था. उन दिनों उसे जूझना पड़ता था, प्रतिद्वंद्वियों को पछाड़ना पड़ता था. नाख़ून उसके लिए आवश्यक अंग  था. फिर धीरे-धीरे वह अपने अंग से बाहर की वस्तुओं का सहारा लेने लगा. पत्थर के ढेले और पेड़ की डालें काम में लाने लगा. राम की बानरी सेना के पास ऐसे ही अस्त्र थे. उसने हड्डियों के भी हथियार बनाये. मनुष्य और आगे बढ़ा. उसने धातु के हथियार बनाये. जिनके पास लोहे के अस्त्र और शस्त्र थे, वे विजयी हुए.

असुरों के पास अनेक विद्याएँ थी पर लोहे के अस्त्र नहीं थे. शायद घोड़े भी नहीं थे. आर्यों के पास ये दोनों चीजें थीं. आर्य विजयी हुए.फिर इतिहास अपनी गति से आगे बढ़ता गया. पलीते वाली बंदूकों ने, कारतूसों ने, तोपों ने, बमों ने, बमवर्षक वायुयानों ने इतिहास को किस कीचड भरे घाट तक घसीटा है, यह  सबको मालूम है. नखधर मनुष्य अब एटम  बम पर भरोसा कर आगे की ओर चल पड़ा है. पर उसके नाख़ून अब भी बढ़ रहे हैं. अब भी प्रकृति मनुष्य को उसके भीतर वाले अस्त्र से वंचित नहीं कर रही है. अब भी वह याद दिला देती है कि तुम्हारे नाख़ून को भुलाया नहीं जा सकता. तुम वही लाख वर्ष पहले के नखदंतावलम्बी   जीव हो- पशु के साथ एक ही सतह पर विचरने वाले और चरने वाले.

वात्स्यायन  के कामसूत्र से पता चलता  है कि आज से दो हजार वर्ष पहले का भारतवासी नाखूनों को जमकर संवारता था. उनके काटने की कला काफी मनोरंजक बताई गयी है. त्रिकोण, वर्तुलाकार, चंद्राकार, दंतुल आदि विविध आकृतियों के नाख़ून उन दिनों विलासी नागरिकों के न जाने किस काम आया करते थे. गौड़ देश के लोग उन दिनों बड़े-बड़े नखों को पसंद करते थे और दक्षिणात्य  लोग छोटे नखों को.  समस्त अधोगामिनी वृत्तियों को और नीचे खींचने वाली वस्तुओं को भारतवर्ष ने  मनुष्योचित बनाया है, यह बात चाहूँ भी तो नहीं भूल सकता.
(महान आलोचक नामवर सिंहजी  द्वारा सम्पादित हजारी प्रसाद द्विवेदी संकलित निबंध से उद्धृत )      

आवारगी के मजे

आवारगी किसे नहीं लुभाती. आवारा के मायने वो नहीं है जो अमूमन लोग लगाते हैं. आजकल किसी को आवारा कह दीजिये, वो  लड़ने को आमादा हो जायेगा. इसका प्रयोग अब गाली की तरह होने लगा है. मेरे  एक कवि मित्र हैं. जाने-माने कवि हैं.आगरे के हैं. रामेन्द्र मोहन त्रिपाठी. झूम के गाते हैं. मंच पर कभी कविता सुनाते हैं तो आप समझिये  कविता के साथ नाचने लगते हैं. धीरे-धीरे उनका समूचा व्यक्तित्व ही काव्यमयता से भर गया है. वे बात भी करते हैं तो हिलते रहते हैं. बातों की लय पैदा होने लगती है. एक बार उन्होंने अपने एक गीत में आवारा लफ्ज का इस्तेमाल किया. उन्होंने गीत को ही आवारा कह दिया. खूब बहस हुई. फिर सब लोग इस नतीजे पर पहुंचे कि आवारा का  मतलब घुमक्कड़ होता है.

इन अर्थों में तो मैं कह सकता हूँ कि  एक ज़माने में मैं भी भारी आवारा था. घूमने में बड़ा मजा आता था. कई बार यह घूमना सिर्फ घूमने के लिए नहीं होता था. जब थैली में पैसा न हो, एक वक्त पेट में निवाला न गया हो तो घुमक्कड़ी कैसे होगी. पढाई-लिखाई के दिनों में मैंने अपनी हालत ऐसी बना रखी थी कि घूमना इसलिए होता था कि कहीं से कुछ सिक्के हाथ लग जाएँ या बन सके तो भोजन ही मिल जाये.  काम बनता भी था, कई बार नहीं भी बनता था. नौकरी और शादी के बाद यह आवारगी बंद हो गयी. क्योंकि तब न तो पैसे की ज्यादा जरूरत रह गयी न ही भोजन की अनिश्चितता रह गयी. पर मन के भीतर  कहीं यह आवारगी बची हुई थी.

मेरी पत्नी जब भी घर बनाने की बात करतीं, मेरे मन के भीतर छिपा वह आवारा जाग उठता. मकान के गैरजरूरी होने पर लम्बा भाषण झाड़ देता. यार, मकान बनाने का मतलब अपनी कब्र बनाना है. फिर तो हम कहीं नहीं जा सकते, फिर तो तय समझो की इसी शहर में दफन होना है. लेकिन वह  नहीं मानीं और उन्होंने एक घर बना ही डाला. घर बनने के बाद सचमुच मेरी वह बात तो सही होती दिख रही है कि अब  यहीं मर- मिटना है लेकिन भाई मेरे, मकान होने के   अपने मजे भी तो हैं. अब हमें हर साल अपना टीन-टप्पर उठाकर भागना नहीं पड़ता है , नए मकानमालिक की खुजाई नहीं करनी पड़ती है और उसके तमाम मर्मभेदी सवालों के जवाब नहीं देने पड़ते  हैं.

दर असल यह सब मुझे याद इसलिए आ  गया क्योंकि  मेरे एक जिगरी दोस्त ने अपना घर बनाया तो हमें वहां जाना पड़ा. बंशीधर मिश्र एक वरिष्ठ पत्रकार और सशक्त  लेखक हैं. उनके और मेरे सोचने में काफी समानता रहती है. घर की बात उन्हें भी देर से समझ में  आयी. आयी नहीं कान पकड़कर लाई गयी. उनके गृहप्रवेश पर मैं भी मौजूद था. और भी कई मित्र थे.

इस तरह हम दोनों की आवारगी पर अंकुश तो लग गया है लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि आवारगी एकदम ख़त्म हो गयी है. मन को मौके की तलाश रहेगी और न जाने  कब वह फिर से अपन डेरा-डंडा उठा ले, गाते हुए निकल पड़े--मैं आवारा हूँ.   

मंगलवार, 4 मई 2010

आइये ग़ज़ल सुनें

कहीं जाना है मुझे. जल्दी  में हूँ लेकिन सोचा आप से कुछ बतियाता चलूँ. जब वक्त बहुत  कम हो तो जो चीज सबसे ज्यादा मन को पसंद आती है, वो है ग़ज़ल. लीजिये दो गजलें पेश कर रहा हूँ. शायर किसी परिचय का मोहताज नहीं है. बड़ा नाम है जनाब मुनव्वर  राणा का, आप जानते होंगे. उनकी दो गज़लें पेश हैं---आइये सुनें

१.
जिसे दुश्मन समझता हूँ वही अपना निकलता है
हर एक पत्थर से मेरे सर का कुछ रिश्ता  निकलता है

डरा धमका के तुम हमसे  वफा करने को कहते हो
कहीं तलवार से भी पांव का कांटा निकलता है

जरा सा झुटपुटा होते ही छुप जाता है सूरज भी
मगर इक चाँद है जो शब् में भी तनहा निकलता है

किसी के पास आते हैं तो दरिया सूख जाते हैं
किसी की एड़ियों  से रेत में चश्मा निकलता है

फ़जां में घोल दी है नफरतें अहले-सियासत ने
मगर पानी कुंएं से आज तक मीठा निकलता है

जिसे भी जुर्मे-गद्दारी में तुम सब क़त्ल करते हो
उसी की जेब से क्यों मुल्क का झंडा निकलता है

 दुआएं माँ की पहुँचाने को मीलों-मील जाती है
कि जब परदेश जाने के लिए बेटा निकलता है

२.
भरोसा मत करो सांसों की डोरी टूट जाती है
छतें महफूज रहतीं हैं हवेली टूट जाती है

मुहब्बत भी अजब शय है की जब परदेश में रोये
तो फौरन हाथ की एक-आध चूड़ी टूट जाती है

कहीं कोई कलाई एक चूड़ी को तरसती है
कहीं कंगन के झटके से कलाई टूट जाती है

लड़कपन में किये वादे की कीमत कुछ नहीं होती
अंगूठी हाथ में रहती है मंगनी टूट जाती है

किसी की प्यास के बारे में उससे पूछिये जिसकी
कुँए में बाल्टी रहती है डोरी टूट जाती है

कभी एक गर्म आंसू काट देता है चटानों  को
कभी एक मोम के टुकड़े से छैनी टूट जाती है

बात-बेबात ने अपने दो माह पूरे किये

बात-बेबात ने आज अपने दो माह पूरे कर लिए. चार  मार्च को मैंने आरम्भ किया था. अपनी रचनाओं का प्रकाशन मेरे लिए कोई नयी बात नहीं  थी. ब्लॉग पर आने के पहले मेरी सैकड़ों कविताएँ और टिप्पड़ियां समाचारपत्रों और प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी थीं. पर सच मानिये अपने ब्लॉग पर आना एक नया अनुभव रहा. एकदम पागल कर देने वाला. जो चाहो लिखो और एक क्लिक पर उसे अपने प्रियजनों तक भेज दो. फिर बार-बार  ब्लॉग-जोडकों पर जाकर देखो कि उन्होंने रचना उठा ली या नहीं. और सच मानिये, जब  कोई पढ़कर नाइस  या बहुत खूब या बिल्कुल सही लिखा या इसी तरह लिखते रहिये, जैसी टिप्पड़ियां छोड़ जाता है, मन कितना कृतग्य और गदगद अनुभव करता है, मैं आप को बता नहीं सकता. मेरी  किसी रचना पर सबसे पहली टिप्पडी मानिक जी ने की. उनका सुझाव  था कि बढ़िया लिख रहे हैं, लिखते रहिये, टिप्पड़ियों की परवाह मत कीजिये. दूसरे लिखने वालों के ब्लॉग पर भी जाइये, उनका उत्साह बढाइये. मैंने उनकी राय मानी, उस पर अब भी अमल कर रहा हूँ.

मेरे ब्लॉग पर कई प्रतिष्ठित लेखक लिखते रहते हैं. वीरेंद्र सेंगर , बंशीधर मिश्र, डा. त्रिमोहन तरल , डा. एम् एस परिहार और अन्य  कई लेखकों के योगदान से मैं विविध प्रकार की सामग्री  देने की कोशिश करता हूँ. इस ब्लॉग का मूल स्वर साहित्य और समसामयिक ज्वलंत विषयों पर गंभीर चिंतनपरक  सामग्री देने का रहा है.कोशिश यह रहती है कि यह गंभीरता भाषा और प्रस्तुति दोनों स्तरों पर बनी रहे. यद्यपि ब्लॉग में कुछ भी लिखने के लिए आप स्वतंत्र हैं लेकिन यही चरम स्वतंत्रता  आप को संजीदगी के साथ बांधती भी है. जब दायित्व बड़ा हो और खुद ही निभाना हो तो संयम, धैर्य और आत्मनियंत्रण के बिना पूरा नहीं हो सकता. मेरी सभी ब्लागलेखकों  को यह छोटी सी सलाह है कि लेखन में  स्वयं से निर्धारित  सीमाओं का अतिक्रमण न करें.

मेरे   इस छोटे से सफ़र में पाठकों ने मेरा उत्साह बहुत बढाया. ज्यादा नहीं लेकिन कुछ टिप्पड़िया भी आतीं रहीं. असल में ब्लॉगों पर घूमते हुए लोगों के पास बहुत वक्त नहीं होता है, इसलिए बहुत गंभीर चीजें नज़रों से छूट जातीं हैं और बहुत निजी चीजों पर लोगों की ज्यादा नजर जाती है. मैंने कई   बार महसूस किया कि मैंने जब कुछ बहुत अच्छा सोचकर लिखा तो बहुत कम लोगों ने देखा, टिप्पड़ियों की तो बात ही न करें. लेकिन जब बहुत निजीपन  के साथ कोई छोटी सी, खूबसूरत सी चीज  पेश की तो लोग  वहां बार-बार पहुंचे, खूब टिप्पड़ियां कीं. इसका मतलब है कि आज हम सब अपने निजीपन को दूसरों के साथ बाँटना ही नहीं चाहते बल्कि दूसरों के ड्राइंग रूम में बैठकर उनके सुख-दुःख भी शेयर   करना चाहते हैं. यह बहुत बड़ी बात है लेकिन जीवन को समृद्ध और चिंतनशील  बनाये रखने के लिए कुछ गंभीर और बड़ी चीजों पर भी ठहरना  पड़ेगा. यह ठीक है कि गज़लें अच्छी लगाती हैं, मन को लुभातीं हैं लेकिन मन के साथ मष्तिष्क को भी तो कुछ चाहिए. जीवन को कहानियां भी चाहिए, विश्लेषण   भी चाहिए और स्वस्थ संवाद भी चाहिए.

मुझे ख़ुशी है कि इस छोटी यात्रा में मुझे कुछ लोगों ने पसंद किया. मेरे  ब्लॉग की रचनाएँ जनसत्ता और हरिभूमि जैसे प्रतिष्ठित  समाचारपत्रों ने प्रकाशित की. ब्लाग की दुनिया में रमे प्रियवर अविनाश वाचस्पति जी ने मुझे जब यह सूचना  मेरे मेल पर दी तो  मुझे अच्छा लगा. मित्रवर बी  एस  पाबला  ने  प्रिंटमीडिया  पर ब्लागचर्चा  में इसका उल्लेख भी किया और वाचस्पतिजी ने मुझे इसका लिंक भी भेजा. वे अब मेरे अच्छे मित्र है. गत्यात्मक ज्योतिष में महारत रखने वाली आदरणीय संगीता पुरी जी हमेशा मेरा उत्साह बढ़ातीं रहीं. वे जब-तब  मेरे ब्लॉग पर आकर देख जातीं हैं कि मैं क्या कर रहा हूँ. और जब भी  आतीं हैं तो मुझे बता जातीं हैं कि वे आयीं थीं. उनकी टिप्पड़ी जरूर मिलती है. उन्होंने ब्लाग ४ वार्ता में एक बार मेरी एक कविता का  उल्लेख भी किया. आशा है वे इस नए और नादान ब्लागिये  का ध्यान रखेंगीं और भटकने से रोकेंगीं. ब्लाग की दुनिया के महारथी आदरणीय डा. रूप चन्द्र शास्त्री  मयंक ने चर्चा मंच में मेरी एक कहानी मेरा पहला प्रेमपत्र का उल्लेख किया. मैं चाहूँगा कि वे लगातार हम जैसे नए लोगों का मार्गदर्शन करते रहें.

 साहित्य और प्रगतिशील  विचारधारा  से जुड़े  कुछ प्रबुद्धजनों  ने मेरे ब्लाग के लेखों  और सूचनाओं  का उपयोग किया, इसके  लिए उन्हें साधुवाद. डा परिहार द्वारा  लिखे गए सादगी का सम्मान और मेरी रचना अरुंधती राय का नया रोमांस का दो खास ब्लॉगों पर उपयोग किया गया. एक और बड़ी  बात इस दौरान हुई. मेरे प्यारे छोटे भाई यशवंत सिंह ने अपने महाब्लॉग भड़ास से बात-बेबात को जोड़कर मेरी पहुँच को और विस्तार दिया. उन्हें तो हमेशा स्नेह देता रहा हूँ, आगे भी देता रहूँगा.

इन दो महीनों में जो भी  मेरे परिचय में आये, जिन्होंने मुझे पसंद किया, जिन्होंने मेरे लिए टिप्पड़िया दीं या केवल मेरी रचनाएँ पढ़ी, वे  सभी मेरे साथ विचारयात्रा के इस जुलूस में शामिल हैं और आगे भी इसमें बने रहेंगें, ऐसा मेरा  विश्वास है. सबके लिए अर्ज करना चाहूँगा-
मैं अकेला ही चला था जानिबे मंजिल मगर
लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया.

सोमवार, 3 मई 2010

दिल क्यों है परेशां?

बेनाम से इक ख़ौफ से दिल क्यों है परेशा
जब तय है कि कुछ वक्त से पहले नहीं होगा

शहरयार साहब जब यह बात कहते हैं तो इस पर सोचने का मन करता है। यह सच है या नहीं पर लोग ऐसा ही कहते हैं। वक्त से पहले कुछ भी नहीं मिलता। हर मुलाकात का, हर बात का, हर खयाल का वक्त तय है। तकदीर का एक-एक पन्ना वक्त ही लिखता है। फिर दिल क्यों हो परेशां?

अगर यह सच है तब तो हमें केवल वक्त का इंतजार करते रहना चाहिए। जब उसने पहले से तय कर रखा है कि किसे, कब, क्या मिलना है तो बेवजह भाग-दौड़ का क्या मतलब, ख्वाब बुनने का क्या फायदा? तो क्या जो आलसी बनकर बैठा रहेगा, उसके लिए भी वक्त कुछ अच्छे सपने हकीकत की जमीन पर उतार सकता है, बिना कुछ किये केवल इंतजार से भूख मिट सकती है, प्यास जा सकती है? क्या वक्त खुद-ब-खुद भोजन-पानी का प्रबंध कर सकता है? एक कवि ने कहा है-
अजगर करै न चाकरी, पंछी करै न काम
दास मलूका कह गये सबके दाता राम

दास मलूका की बात सच मान लें तो सारी दुनिया का कारोबार रुक जायेगा। जब राम को ही सब करना है। किसी को खाना देना है, किसी को भूखा रखना है तो फिर आदमी की मेहनत का क्या? तुलसीदास भी कुछ ऐसी ही बात कहते हैं--
होइहि वहि जो राम रचि राखा
को करि तर्क बढ़ावहि शाखा

जो राम ने रच रखा है, वही होगा। बेकार तर्क करने का कोई फायदा नहीं। राम ने जब सब पहले ही तय कर दिया और उसमें कोई फेर-बदल नहीं हो सकता तो कोई अपना पांव क्यों दुखाये, क्यों सोचे, क्यों भागे?

नहीं निरा भाग्यवाद सही नहीं है। इसका मतलब कुछ और है। भविष्य अज्ञात है, कल क्या होगा, किसी को मालूम नहीं, कोई बता भी नहीं सकता। जो भविष्य बताने का दावा करते हैं, वे लोगों को धोखा देते हैं, उनकी परेशानियों का लाभ उठाते हैं। यही अनिश्चितता मनुष्य को सक्रिय रखती है, कुछ करते रहने को प्रेरित करती है।

हम देखते हैं कि कई बार हम बहुत अच्छा करते हैं लेकिन परिणाम उतना अच्छा नहीं आता, कई बार हम उदास मन से ऐसा सोचकर काम करते हैं कि यह तो हो ही नहीं सकता, लेकिन वह चमत्कारिक ढंग से बहुत अच्छा हो जाता है। हताशा तब होती है, जब हम अपनी मेहनत के अनुकूल परिणाम नहीं हासिल कर पाते।

यहीं वक्त की महत्ता सामने आती है। उसकी महत्ता सीमित है। असल में हम जब यह मान लेते हैं कि क्या होगा, उस पर हमारा अधिकार है, तभी कठिनाई आती है। तभी वक्त बीच में आ खड़ा होता है। परिणाम पर हम अपना अधिकार वक्त के आगे कई बार साबित नहीं कर पाते और हताश हो जाते हैं।

यहां एक बात समझने की है। वह यह कि हमें केवल कर्म का अधिकार है। करने के लिए हम पूरी तरह आजाद हैं। क्या करना है, यह हमें ही तय करना होता है। पर क्या होगा, इस पर हमारा पूरा अधिकार नहीं हो सकता। फिर क्या करें कि हताशा से बचे रहें। अपना काम करते रहें पर जो परिणाम आये, वह जैसा भी हो, उसे वैसा ही स्वीकार करें और आगे अपने काम में जुट जायें। जब कर्म की निरंतरता जीवन का हिस्सा बन जायेगी, तब परिणाम के प्रति भी एक निश्चिंतता का भाव पैदा हो जायेगा। यह मनस्थिति कभी हताश नहीं होने देगी। फिर वक्त या भाग्य की चिंता भी खत्म हो जायेगी।

रविवार, 2 मई 2010

मगर आईने सारे धुंधले हुए

अचानक शहरयार साहब के कलाम से नये सिरे से रूबरू होने का मौका मिला। समकालीन उर्दू शायरी में शहरयार एक बड़ा नाम हैं। हिंदी पाठकों में भी उनकी मुकम्मल पहचान है। वे अपनी शायरी में सामाजिक विसंगतियों को तो उभारते ही हैं, एक नये समाज का ख्वाब भी देखते हैं। सातवें दशक में उनकी गजलों ने उर्दू शायरी में नयेपन का अहसास कराया था। उनकी गजलें लोगों की जुबान पर आ गयीं थीं। उनका एक शेर आप को याद दिलाता हूं-
सीने में जलन आंखों में तूफान सा क्यूं है
इस शह्र में हर शख्स परीशान सा क्यूं है
उनके जितने संग्रह उर्दू में आये हैं, उससे ज्यादा हिंदी में आ चुके हैं। वे उम्मीद और हौसले के शायर हैं। नये शायरों के लिए तो वे आदर्श की तरह हैं। आइए आप को भी उनकी कुछ गजलें सुनायें--

1.
किस्सा मिरे जुनूं का बहुत याद आयेगा
जब-जब कोई चिराग हवा में जलायेगा

रातों को जागते हैं इसी वास्ते कि ख़्वाब
देखेगा बंद आंख तो फिर लौट जायेगा

कब से बचा के रखी है इक बूंद ओस की
किस रोज तू वफा को मिरी आजमायेगा

कागज की कश्तियां भी बड़ी काम आयेंगी
जिस दिन हमारे शह्र में सैलाब आयेगा

दिल को यकीन है कि सर-ए-रहगुजर-ए-इश्क
कोई फसुर्दा दिल ये गजल गुनगुनायेगा

2.
हवा तू कहां है, जमाने हुए
समंदर के पानी को ठहरे हुए

लहू सब का सब आंख में आ गया
हरे फूल से जिस्म पीले हुए

जुनूं का हर इक नक्श मिटकर रहा
हविस के सभी ख़्वाब पूरे हुए

मनाज़िर बहुत दूर और पास है
मगर आईने सारे धुंधले हुए

जहां जाइए रेत का सिलसिला
जिधर देखिए शह्र उजड़े हुए

बड़ा शोर था जब समाअत गयी
बहुत भीड़ थी जब अकेले हुए

हंसो आसमां बे-उफक हो गया
अंधेरे घने और गहरे हुए

हम डर कर क्यों जियें

अमेरिका, आस्ट्रेलिया, ब्रिटेन और कनाडा को लगता है, हिंदुस्तान के दिल पर हमला होने ही वाला है। कभी भी, किसी भी क्षण। उन्होंने अपने नागरिकों को चेतावनियां जारी की हैं, दिल्ली मत जाना, अगर दिल्ली में हो तो अपने ठिकाने पर बने रहना, बाजारों में मत निकलना, भीड़-भाड़ वाली जगहों पर मत जाना। हर संदिग्ध वस्तु से सजग रहना। हमारी खुफिया एजेंसियों को कुछ पता नहीं है, इसीलिए हम डर गये, चारों ओर पुलिस का पहरा बिठा दिया गया, चेकिंग शुरू हो गयी। दिल्ली के बाजारों में भीड़ कम हो गयी, लोग चौकन्ने हो गये।

इस तरह डरने की क्या सचमुच जरूरत है? क्या हमें नहीं पता कि पाकिस्तान कभी चुप नहीं बैठता? जो किसी भी तरह की जवाबदेही लेने को तैयार न हो, जो हमेशा झूठ बोलकर अपने अपराध को छिपाने की कोशिश करता रहता हो, जो स्वयं भीषण आपदाओं से घिरे होने के बावजूद दूसरों के खिलाफ साजिशें रचने में खुशी महसूस करता हो, उससे आखिर उम्मीद ही क्या की जा सकती है। कई पश्चिमी देशों को पाकिस्तान से मेल भेजे गये हैं कि वे अपने खिलाड़ियों को कामनवेल्थ खेलों में न भेजें अन्यथा उन्हें नुकसान उठाना पड़ सकता है। पश्चिम के देश आतंकवादियों से हमेशा डरे रहते हैं। उनके डर का वाजिब कारण है। वे आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई का ढोंग तो करते हैं लेकिन इस मामले में कार्रवाई के स्तर पर पाखंडपूर्ण नजरिया रखते हैं।

वे तालिबान से, अल-कायदा से लड़ रहे हैं क्योंकि उन्होंने बड़ी तबाहियां देखीं हैं। उन्हें अपनी बर्बादियों का नजारा तो हमेशा याद रहता है परंतु भारत ने जो झेला है या झेल रहा है, उससे उन्हें कुछ खास मतलब नहीं। इसीलिए तो जब भारत के खिलाफ युद्ध छेड़ने वाले जैश, लश्कर, जमात-उद-दावा की बात आती है तो वे खामोश हो जाते हैं। क्यों नहीं पाकिस्तान पर इस बात के लिए दबाव बनाया जाता है कि वह इन संगठनों से जुड़े बदमाशों पर भी उसी तरह कार्रवाई करे जैसे तालिबान के खिलाफ की जा रही है? यह दोगलापन जब तक बना रहेगा, आतंकवादी अपना काम करते रहेंगे।

भारत को यह बात बहुत साफ तरीके से समझ लेनी चाहिए कि आतंकवाद से उसे अकेले ही लड़ना पड़ेगा। ऐसे में जो लोग सार्वजनिक चेतावनियां जारी करके आम हिंदुस्तानी को डराने की कोशिश कर रहे हैं, उनसे भी कहा जाना चाहिए कि वे ऐसी सूचनाओं को भारत सरकार या खुफिया संगठनों से शेयर करें, चारों ओर हल्ला न मचाएं। अब बहुत डरने की जगह हमें आतंकवाद के साथ जीना सीख लेना चाहिए लेकिन इस बात की पूरी तैयारी भी रहनी चाहिए कि जो भी हमारी जमीन पर आंख गड़ाए, उसकी आंखें फिर देखने लायक न रहें, जो भी हमें नुकसान पहुंचाने की कोशिश करे, वह लौटकर जाने लायक न रहे, जो भी हमारे मुल्क के नागरिकों की जान लेने के इरादे से हमारी सीमा में घुसने की जुर्रत करे, वह हमारी संगीनों के पहरे को किसी भी सूरत में भेद न सके। इसके लिए जो भी करना जरूरी हो, करना चाहिए। कातिल के बाजुओं में कितना जोर है, यह देख लेने का वक्त आ गया है। उनकी मुश्कें कसनी पड़ेंगी, उनकी बाहें मरोड़नी पड़ेंगी। हम डर कर जियें, इसकी जगह दुश्मन को डराकर रखना ज्यादा मुनासिब होगा। यह तो लड़ाई है और लड़ाई में जीत होनी चाहिए, चाहे जैसे हो। शत्रु को धराशायी करने का कोई भी तरीका नाजायज नहीं होता।

शनिवार, 1 मई 2010

उसने आत्महत्या कर ली

आज मन थोडा उदास था. उसने आत्महत्या कर ली. उसे मैं नहीं जानता था, मैंने  देखा भी नहीं था. सुना कि वह सुंदर थी, पढने लिखने में भी ठीक थी. अभी किशोरावस्था  की देहलीज पर थी. उसके मां-बाप झगड़ते रहते थे. इस झगडे में उनका इतना समय चला जाता था कि अपनी जवान होती बच्ची से बात करने, उसकी समस्याओं को समझने का उनके पास वक्त ही नहीं बचता था. ऐसे ही एक   दिन वे झगड़ते रह गए और सुगंधा  ने अपने कमरे में जाकर फन्दा लगा लिया.

यह बिल्कुल सच  घटना है. सुनते हैं कि बहुत से लोग बच्चियों को पैदा  होने  से पहले ही मार देते हैं. जो बच जातीं हैं, उन्हें भी इस दुनियां में बहुत सारी लड़ाइयाँ लड़नी पड़तीं हैं. कई बार वे बचकर भी नहीं बच पातीं हैं. क्योंकि उनके अपने फैसले भी वे नहीं कर पातीं हैं. उनकी जिंदगियों के निर्णय दूसरे लोग करते हैं. कई बार उनके मां-बाप और अक्सर उनके पति. माँ-बाप जो नहीं चाहते, वह कर पाना उनके लिए मुश्किल होता है. इस अंतर्संघर्ष में भी बहुत सी बच्चियों को जान  गंवानी पड़ती है. निरुपमा बड़ी थी, समझदार थी.. वह एक बड़े शहर में पढ़ रही थी. उसे अपने ही एक सहपाठी से प्रेम हो गया. वे शादी करना चाहते थे. लेकिन वह पंडितजी की बेटी थी, उसके मां-बाप कैसे बर्दाश्त करते कि उनके घर एक छोटी जाति  का लड़का बारात लेकर आये. निरुपमा पिताजी को समझाने घर गयी पर वह लौटी नहीं. अब वह कभी नहीं लौटेगी.

लड़कियों  के साथ ऐसा क्यों होता है? वह भी आज के प्रगतिशील और पढ़े-लिखे समाज में. सभी देख रहे हैं कि वे लड़कों से किसी मायने में कमजोर साबित नहीं हो रहीं हैं फिर भी उनके साथ भेद-भाव होता है, उनकी उपेक्षा की जाती है और अगर वे बेहतर  करतीं हैं तो उनसे  लोग ईर्ष्या करते हैं और भरसक उन्हें किनारे करने की कोशिश होती है. प्रकृति ने उन्हें पुरुष से केवल शरीर संरचना  में भिन्न बनाया है. वहां वे कमजोर  और कोमल हो सकतीं हैं पर मेधा में, बुद्धि में, कलात्मकता में वे  किसी से कमजोर नहीं हैं. फिर उनके इन गुणों के लिए दुनिया उनका स्वागत क्यों नहीं करती?

फूल की हर पंखडी को नोंच कर क्या पाओगे
गंध में उसकी नहाकर महकना सीखो जरा