शुक्रवार, 8 अक्तूबर 2010

बाबागीरी में गलत क्या है

   अगर आप को एक राष्ट्र के नाते भारत को परिभाषित करना हो तो क्या कहेंगे? यह कि भारत दुनिया के नक्शे पर एक भौगोलिक टुकड़ा है, या यह कि एक निश्चित सीमाओं में बंधा हुआ ऐसा भूभाग, जिस पर भारत सरकार की प्रभुसत्ता स्थापित है, जिस पर भारत का संविधान और कानून लागू होता है? नहीं, इन परिभाषाओं में हर नागरिक को भावनात्मक रूप से इस ईकाई के साथ जोड़ने की जीवंत शक्ति नहीं झलकती, इनमें वह प्राणतत्व नहीं दिखता, जो किसी को भी अपने देश से प्यार करना सिखाता है, जो हृदय में देशभक्ति के बीज बोता है, जो किसी भी नागरिक के मन में देश के लिए प्राण न्योछावर कर देने का जज्बा भर देता है। राष्ट्र एक जीवंत ईकाई है, वह हमारी जुबान से बोलता है, वह हमारे रहन-सहन, खान-पान, पहनावे, हमारी भाषा, हमारी संस्कृति के रूप में अभिव्यक्त होता है, तमाम अलग-अलग संस्कारों, जीवन पद्धतियों, धर्मों के बावजूद एक अरब से ज्यादा लोगों को एक सूत्र में बांधे रखने में सफल भूमिका का निर्वाह करता है। इन अर्थों में राष्ट्र यहां के समस्त नागरिकों का एक अखंड सांस्कृतिक समवेत है, एक वृहत्तर सांस्कृतिक ईकाई है, जो हम सबके दिलों में धड़कती रहती है।

इसीलिए हर नागरिक को देश के बारे में सोचने का हक है। उसकी बेहतरी के बारे में, इस रास्ते में आने वाले अवरोधों के बारे में और उन्हें हटाने के तौर-तरीकों के बारे में। बाबा रामदेव को अगर देश की चिंता है और उनके पास देश की बेहतरी के लिए कुछ सुझाव हैं, तो यह कहकर उनका उपहास नहीं किया जाना चाहिए कि वे योग कराते हैं, तो योग ही करायें, उन्हें राजनीति के बारे में चिंता नहीं करनी चाहिए। इस तरह तो हर पेशे के लोगों से कहा जा सकता है। चिकित्सक लोगों का इलाज करें, उन्हें देश के बारे में सोचने की जरूरत नहीं है, अधिवक्ता मुकदमे लड़ें, उन्हें देश के लिए चिंतित होने की जरूरत नहीं है, शिक्षक बच्चों को पढ़ायें, उन्हें देश की दुर्दशा से क्या मतलब? ये तर्क अनर्गल और अतार्किक हैं। बाबा ने योग के महत्व और  जरूरत को पुनर्स्थापित किया है, बहुत से लोग उनके तरीके से अनेक बीमारियों से ठीक हुए हैं। योगासनों और प्राणायामों का वैज्ञानिक प्रभाव भी परीक्षित है। इससे उनकी लोकप्रियता बढ़ी है, उनके प्रति लोगों का आदर बढ़ा है। वे भी इस देश से उतना ही प्यार करते हैं, जितना कोई  और कर सकता है। फिर उन्हें देश की बदहाल स्थिति के बारे में चिंता करने का उतना ही अधिकार है, जितना किसी राजनेता को। बाबा जानते हैं कि उन्हें क्या करना चाहिए और क्यों करना चाहिए। उन्होंने राहुल गांधी से मुलाकात की, उन्हें अपनी चिंताओं से अवगत कराया, इसमें क्या गलत है। अगर वे समझते हैं कि उन्हें चुनाव में अपने लोगों को सक्रिय करना चाहिए तो उनका स्वागत किया जाना चाहिए। इससे उनके विचार लोगों तक पहुंचेंगे, हो सकता है, उनसे लोगों को कोई दिशा मिले। भविष्य जो भी हो पर बाबागीरी चलती रहनी चाहिए। 

गुरुवार, 7 अक्तूबर 2010

युवराज का वामपंथ, हकीकत या फसाना!

 वीरेन्द्र सेंगर की कलम से 
क्या कांग्रेसी संस्कृति में कायापलट होने वाली है? पार्टी के युवराज की बातों में कुछ दम है, तो यह शुरुआत होने वाली है। वे कह रहे हैं, लगातार दोहरा रहे हैं। यही कि पार्टी में अब चापलूसों के लिए कोई जगह नहीं है। उन्होंने यहां तक कह डाला है कि जिन्हें चमचागीरी ही करनी हो, वे किसी और पार्टी में अपनी जगह ढूंढ लें। कार्यकर्ताओं के बीच उन्होंने यह ‘कबीरवाणी’ निकाली, तो जमकर तालियां बजीं। वे यहीं नहीं रुके। बता डाला कि अब पार्टी की संस्कृति पवित्र होकर ही रहेगी। ऐसे में चापलूसी के भरोसे रहने वाले संभल जाएं। या तो अपने को बदल डालें या फिर नया घर ढूंढ लें। वह भी वक्त रहते। कांग्रेस के राष्ट्रीय  महासचिव राहुल गांधी पूरे फार्म में हैं।  जिन प्रदशों में गैरकांग्रेसी सरकारें होती हैं, प्राय: वहां राहुल के तेवर किसी खांटी कामरेड जैसे हो जाते हैं। उन्हें दलित और आदिवासियों की पीड़ा कुछ ज्यादा ही सताती है। वे एकदम करुणा भाव से ओत-प्रोत हो जाते हैं। पार्टी में वे युवक कांग्रेस और कांग्रेस छात्रसंगठन के प्रभारी हैं। इन संगठनों में नयी ऊर्जा पैदा करने के लिए वे जुटे हैं। देशव्यापी दौरे कर रहे हैं।

मध्य प्रदेश के टीकमगढ़ में उन्होंने दो टूक नसीहत दे डाली। हजारों लोगों के बीच हिदायत दे दी कि अब पार्टी में चापलूसी से काम नहीं चलने वाला। जो सच्ची सेवा करेगा, वही आगे बढ़ेगा। उन्होंने अपना नजरिया भी बता डाला कि उन्हें चापलूसी संस्कृति से सख्त नफरत है। पार्टी के ‘युवराज’ ने नयी संस्कृति पर जोर डाला, तो अभिभूत कार्यकर्ताओं नें राहुल गांधी जिंदाबाद के नारों की झड़ी लगा डाली। इशारा करने पर भी नारेबाजी नहीं थमीं, तो उन्हें कुछ क्षणों के लिए धीरज रखना पड़ा।ऐसा नहीं है कि इस युवा नेता ने पहली बार चमचा संस्कृति के खिलाफ आवाज उठायी हो। वे छ: साल से सक्रिय राजनीति के केंद्र में हैं। उनकी कोशिश है कि संगठन में अंदरूनी लोकतंत्र ज्यादा से ज्यादा फले-फूले। इसलिए वे कह रहे हैं कि संगठन में पदाधिकारियों को मनोनीत करने वाली संस्कृति खत्म हो। लोग चुनकर पदों पर आयें। दरअसल, उन्हें यह भी समझ में आ गया है कि दशकों से संगठन में फर्जीवाड़े का बोलबाला बढ़ा है। संगठन में जो सदस्यता अभियान चलता है, उसमें खानापूर्ति का काम ज्यादा होता है। इसी का परिणाम रहा कि तमाम मजबूत गढ़ों में पार्टी का राजनीतिक किला जर्जर हुआ है।
वे कमजोर जड़ों  को खाद पानी देने निकले हैं। महीनों की मेहनत कई राज्यों में रंग भी लायी है। माना जा रहा है कि युवा संगठन में कई स्तर पर सार्थक पहल शुरू हुई है। बोगस सदस्यता थामने के लिए फोटोयुक्त सूचियां बनी हैं। वंचित वर्गों  को भी आगे बढ़ने के अवसर मिल रहे हैं।

राहुल जोर लगाकर कहते हैं कि भाई-भतीजा और परिवार की संस्कृति रोकें। वरना पार्टी का ग्राफ गिरेगा। बात में पूरा दम है। लेकिन विडंबना यही है कि राहुल खुद एक खास परिवार की उपज भर हैं। अच्छा यही है कि वे ईमानदारी से यह हकीकत खुले तौर पर स्वीकार कर चुके हैं। उनकी इस स्वीकारोक्ति से ही लोग गदगद हो जाते हैं। कांग्रेसी तो अपने युवराज के इस ‘सूफीपन’ के दीवाने हो जाते हैं। राहुल कह चुके हैं कि एक खास(नेहरू-गांधी) परिवार में जन्म लेने की वजह से उन्हें लाभ मिला है। लेकिन वे चाहेंगे कि पार्टी में परिवारवाद की संस्कृति खत्म करने में अपना योगदान दें। वे अभी इतनी खांटी बात कर रहे हैं, तो इसमें अविश्वास करने का कोई तुक भी नहीं है।  इतना जरूर है कि यह ‘टास्क’ बहुत कठिन है। खास तौर पर इसलिए, क्योंकि कांग्रेस में चमचागीरी और गणेश परिक्रमा की संस्कृति बहुत पुरातन है।

आपमें से बहुत लोगों को याद होगा ‘इमरजेंसी’ का जमाना। बात उसी कालखण्ड से है। कुछ समय के लिए पार्टी के अध्यक्ष हुए थे देवकांत बरुआ। इंदिरा जी की कृपा से इतनी बड़ी कुर्सी मिली थी। सो, खुशामदी में बोल गये थे, ‘इंदिरा इज इंडिया-इंडिया इज इंदिरा।’ यह जुमला खूब चर्चित रहा था। कांग्रेस के राजनीतिक इतिहास में इसी जुमले से बरुआ ‘अमर’ हुए हैं। क्यों कि सालों तक वे इस जुमले के जरिये चापलूसी संस्कृति के ‘शलाका’ पुरुष बने रहे थे। इंदिरा जी संजय गांधी को ही अपनी राजनीतिक विरासत देना चाहती थीं। ‘इमरजेंसी’ के दौर में संजय गांधी की तूती बोलती थी। उस जमाने में तरह-तरह के किस्से चलते थे। यही कि किसी राज्य के माननीय मुख्यमंत्री ने हवाई अड्डे में उनकी चप्पलें उठायी थीं। यह अलग बात है कि बाद में वे नेता जी पार्टी में बहुत ऊं चाई पर गये। ऐसा करने वाले वे अकेले भी नहीं थे। कांग्रेस की नयी पीढ़ी के लिए वह जमात भी ‘आदर्श’ बन गयी है।

राहुल की दिक्कत यह है कि वे चमचा संस्कृति से आये एक बड़ी जमात के नेता हैं। जिस ‘दस जनपथ’ में पले-बढ़े हैं, वहां दिन-रात चापलूसों का जमावड़ा रहता है। हो सकता है कि उन्हें यहीं से ‘बोधिसत्व’ मिला हो। पिछले चार-पांच सालों से वे वंचित वर्गों  के पास जा रहे हैं। दलितों के घर ‘रैन बसेरा’ करके वे चर्चित हो गये हैं। इन दौरों से वे गरीबी को नजदीकी से देख-समझ रहे हैं। वे कभी बुंदेलखण्ड के अकालग्रस्त क्षेत्र के लिए पीड़ा जताते हैं, तो कभी उड़ीसा में आदिवासियों के हितों के योद्धा बन जाते हैं। गैर कांग्रेसी सरकार वाले प्रदेशों में ही ‘युवराज’ दरिद्र नारायण क्यों बनते हैं? यहां राजनीतिक विरोधी उनकी नीयत पर सवाल उठाते हैं। इसका जवाब यही होगा कि वे कांग्रेसी सत्ता वाले राज्यों में जाएं और वहां भी इसी ‘कबीरवाणी’ का संचार करें। इन कसौटियों पर उन्हें खरा उतरना है। शायद तभी युवा कांग्रेसी समझेंगे कि
अब पार्टी में चापलूसी संस्कृ ति का जमाना हवा-हवाई होने वाला है।

सोमवार, 4 अक्तूबर 2010

खेल खतम , खेल शुरू

लम्बी धींगामुश्ती, आरोपों-प्रत्यारोपों, अव्यवस्थाओं और हेरा-फेरी एवं भ्रष्टाचार की खबरों के बाद आखिरकार राष्ट्रमंडल खेल शुरू हो गये। दुनिया भर में भारत के नेताओं और अफसरों ने खुलकर देश की किरकिरी कराई। कहने को तो हमारा देश विश्व की एक बड़ी ताकत के रूप में उभर रहा है, वैश्विक स्तर पर होने वाली बड़ी-बड़ी पंचायतों में हमारे प्रतिनिधि शामिल होते हैं, लेकिन अपने घर में हम सब कुछ ठीक-ठाक रखने में अक्सर नाकाम हो जाते हैं। हमारे पास मनमोहन सिंह के रूप में ऐसा प्रधानमंत्री है, जिसकी प्रशंसा बराक ओबामा सहित दुनिया के कई राष्ट्रनायक खुले मन से करते हैं लेकिन अपने देश में उनके ही मंत्री उनकी ऐसी तस्वीर बना देते हैं कि लोग उन्हें ठीक से पहचान ही नहीं पाते। अक्सर लोग यही समझते हैं कि मनमोहन सिंह तो एक चेहरा भर हैं, उनको काम करने की पूरी स्वतंत्रता नहीं है। इन खेलों की तैयारियों के दौरान भी देश को कुछ ऐसा ही अनुभव हुआ।

हम सभी जानते हैं कि भ्रष्टाचार इस देश की प्रमुख समस्या है। यह अफसरशाही से लेकर सरकारों तक में निचले पायदान से ऊपर की सीढ़ी तक एक महामारी की तरह फैला हुआ है। बिना रिश्वत के कोई काम नहीं होता। यह रोग इतना भयानक रूप ले चुका है कि अब सरकारी कर्मचारी, अफसर और नेता इसे अपना अधिकार मान चुके हैं। रिश्वत लेना जिम्मेदार पदों पर बैठे लोगों का अधिकार है, इसलिए जनता को समझ लेना चाहिए कि रिश्वत देना उसका कर्तव्य है। इस आम समझ के बावजूद लोग कम से कम यह नहीं समझते थे कि जिस मामले की निगरानी खुद प्रधानमंत्री कार्यालय कर रहा है और जो देश की प्रतिष्ठा से सीधा जुड़ा हुआ है, उसमें भी बेईमान और दलाल अपनी गोटियां फिट कर लेंगे। पर हुआ ऐसा ही। जो काम खेलों के आयोजन से एक साल पहले ही पूरा हो जाना चाहिए था, वह काम खेलों के शुभारंभ की पूर्वसंध्या तक पूरे नहीं हो पाये। दुनिया भर में देश की साख को बट्टा लगा, देश की बदनामी हुई। कितनी हास्यास्पद बात होती अगर यह आयोजन हमारे हाथ से छिन गया होता। एक बार तो हालात संकट के इस खतरनाक मुहाने तक पहुंच भी गये थे लेकिन जैसे इस देश का हर काम भगवान करता है, वैसे ही उसने पूरे देश को अपमानित होने से भी बचा लिया। अब जब खेल शुरू हो गये हैं तो अपने खिलाड़ियों की बारी है कुछ कर दिखाने की। हमारे देश की खेलनीति जिस तरह की है, उसमें बहुत उम्मीद करना निराश करने वाला साबित होगा।

कोशिश है कि पदकों की दृष्टि से इस बार कम से कम दूसरे स्थान पर रहने का सौभाग्य भारत को मिल जाय पर यह बहुत आसान नहीं होगा। खिलाड़ियों को सरकार के स्तर पर संस्थागत प्रोत्साहन की कोई व्यवस्था इस देश ने की ही नहीं है, खेलों में हमेशा फिसड्डी रहने के बावजूद हमारी सरकारों ने कभी यह नहीं सोचा कि देश के भीतर खिलाड़ियों के विकास के लिए आधुनिक साधन और सुविधाएं उपलब्ध कराने की दिशा में कुछ खास करने की जरूरत है। जो खिलाड़ी कभी पदक ले भी आते हैं, वे अपनी निजी मेहनत से और गैर-सरकारी मदद से  खुद को इस लायक बनाते हैं। हां, स्वागत, वंदन में हम पीछे नहीं रहते। कुछ दिन यह सब चलता है, फिर सबको भूल जाता है। सरकार एक पल के लिए जागती है, खुशियां मनाती है और फि र सो जाती है। अब स्टेडियम के बाहर के खिलाड़ियों के खेल खत्म हुए, असली खिलाड़ियों की बारी है, हमें उम्मीद तो करनी ही पड़ेगी।

शनिवार, 2 अक्तूबर 2010

शुक्रवार, 1 अक्तूबर 2010

अज्ञेय, केदार, नागार्जुन, शमशेर व फैज़ की जन्‍मशती पर वर्धा में गंभीर विमर्श

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
 म‍हात्‍मा गांधी अंतरराष्‍ट्रीय हिंदी विश्‍वविद्यालय, वर्धा में हिंदी के ऐतिहासिक महत्‍व के बड़े कवियों  -  अज्ञेय, केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन, शमशेर तथा उर्दू के विश्‍व विख्‍यात रचनाकार फैज़ अहमद फैज़ की जन्‍म शताब्‍दी तथा कवि रवीन्‍द्रनाथ टैगोर की डेढ़ सौवीं जयंती के अवसर पर उनके साहित्‍य पर चिंतन मनन करने तथा उनके शताब्‍दीपरक मूल्‍यांकन के सन्दर्भ में गंभीर व दूरगामी विमर्श हेतु आयोजित शताब्‍दी समारोह-शृंखला का उद्घाटन दो अक्टूबर को हिंदी के मूर्धन्‍य साहित्‍यकार व विश्‍वविद्यालय के कुलाधिपति प्रो. नामवर सिं‍ह करेंगे।
पूर्वाह्न 11 बजे प्रारंभ होने वाले उद्घाटन सत्र की अध्‍यक्षता प्रो. निर्मला जैन करेंगी। कुलपति विभूति नारायण राय स्‍वागत वक्‍तव्‍य देंगे तथा प्रतिकुलपति प्रो.ए. अरविंदाक्षन धन्‍यवाद ज्ञापित करेंगे। साहित्‍य विद्यापीठ के अधिष्‍ठाता प्रो. सूरज पालीवाल समारोह का संचालन  करेंगे। इस अवसर पर विश्‍वविद्यालय के संग्रहालय की वेबसाइट www.archive.hindivishwa.org , जिसकी संकल्‍पना स्‍वयं कुलपति विभूति नारायण राय ने तैयार की है, का लोकार्पण प्रो. नामवर सिंह द्वारा किया जाएगा।
सायं अज्ञेय एवं केदारनाथ अग्रवाल के साहि‍त्यिक अवदान पर दो संगोष्ठियाँ आयोजित होंगी, जिनकी अध्‍यक्षता क्रमश:प्रो.गंगा प्रसाद विमल एवं प्रो. नित्‍यानन्‍द तिवारी करेंगे तथा प्रो. शंभुनाथ एवं प्रो. खगेन्‍द्र ठाकुर मुख्‍य वक्‍ता होंगे। इन संगोष्ठियों में वक्‍ताओं के रूप में अखिलेश, धीरेन्द्र अस्थाना, प्रो. बलराम  तिवारी, राजकिशोर,  प्रो. अजय तिवारी,  बोधिसत्‍व,  विमल कुमार,  डॉ.कृपाशंकर चौबे,  डॉ. रति सक्‍सेना,  डॉ. कविता वाचक्नवी, डॉ. मीता शर्मा,  विजय शर्मा, डॉ. कृपाशंकर चौबे, वसंत त्रिपाठी, नरेन्‍द्र पुण्‍डरीक,  डॉ. वीणा दाढे,
मनोज कुमार पाण्‍डेय तथा  शशिभूषण  भागीदारी करेंगे। इन सत्रों का संचालन डॉ. शंभु  गुप्‍त तथा प्रो. संतोष भदौरिया करेंगे।
3 अक्‍टूबर को आयोजित तीन सत्रों में नागार्जुन, शमशेर बहादुर सिंह तथा फैज़ अहमद फैज़ के कृतित्‍व एवं शताब्‍दीपरक महत्‍व पर अलग-अलग चर्चा होगी। प्रात: 10 बजे नागार्जुन पर एकाग्र संगोष्‍ठी की अध्‍यक्षता प्रो. खगेन्द्र ठाकुर करेंगे तथा प्रो. विजेन्‍द्र नारायण सिंह मुख्‍य वक्‍ता होंगे। प्रो. गोपेश्‍वर सिंह,  डॉ. नीरज सिंह, डॉ. राम आह्लाद चौधरी, प्रो.के.के. सिंह तथा अवधेश मिश्र वक्‍ता के रूप में अपने विचार रखेंगे। इस सत्र का संचालन प्रो.कृष्‍ण कुमार सिंह करेंगे। अपराह्न 12  बजे प्रारंभ होने वाले सत्र में शमशेर की रचना पर विमर्श होगा जिसकी अध्‍यक्षता अरूण कमल करेंगे। प्रो. रंजना अरगडे मुख्‍य वक्‍ता होंगी। उषा किरण खान, प्रो. माधव सोनटक्‍के, दिनेश कुमार शुक्‍ल, डॉ.विनोद तिवारी व  डॉ. मीनाक्षी जोशी, वक्‍ता के रूप में उपस्थित रहेंगे। इस सत्र का संचालन राकेश मिश्र करेंगे।
अपराह्न 3 बजे फैज़ अहमद फैज़ पर केंद्रित सत्र का आगाज़ होगा, जिसकी अध्‍यक्षता कवि आलोक धन्‍वा करेंगे। मुख्‍य वक्‍ता अली जावेद होंगे। दिनेश कुशवाह तथा कुछ अन्‍य साहित्‍यकार वक्‍ता होंगे। विश्‍वविद्यालय के विशेष कर्तव्‍या‍धिकारी राकेश सत्र का संचालन करेंगे।
२ अक्टूबर सायं  गांधी जयंती के अवसर पर आयोजित शताब्‍दी श्रृंखला के दौरान सांस्‍कृतिक संध्‍या कार्यक्रम में आमं‍त्रित कवियों का कविता पाठ तथा नागार्जुन की कविताओं पर बसंत त्रिपाठी के निर्देशन में नागपुर के कलाकार अपनी नाट्य प्रस्‍तुति देंगे।

अडूर गोपालकृष्णन की नजर में फिल्म समारोह, एक उपलब्धि

(अविनाश वाचस्पति)
 यमुनानगर। दादा साहेब फाल्के अवार्ड से सम्मानित मशहूर फिल्मकार अडूर गोपालकृष्णन ने कहा कि बड़े शहरों में सुविधाओं की वजह से फिल्मोत्सव आसानी से आयोजित हो जाते हैं। लेकिन यमुनानगर जैसे शहर में फिल्म फेस्टिवल का आयोजन एक अमूल्य उपलब्धि है। आने वाले वर्षो में यह समारोह अपने और बेहतर स्वरुप में निखरकर सामने आएगा। अडूर ने तीसरे हरियाणा अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह के अवसर पर दीप प्रज्वलित करते हुए यह उद्गार प्रकट किए। उन्होंने कहा कि गंभीर सिनेमा लोगों की समझ को परिपक्व करता है। इस भव्य कार्यक्रम की अध्यक्षता कालेज प्रिंसिपल डा. सुषमा आर्य ने की। फिल्मकार के. बिक्रम सिंह विशिष्ठ अतिथि के तौर पर उपस्थित रहे।

अडूर गोपाल कृष्णन ने यह भी कहा कि विश्व सिनेमा को हरियाणा की धरती पर उतारने का प्रयास प्रशंसनीय है। सिनेमा को सर्वाधिक ख्याति मीडिया से मिली है। हालांकि कॉमर्शियल फिल्में इतनी ज्यादा अपील नहीं करती,जितनी कला फिल्में करती हैं। दुनिया भर में अनेक मीडिया स्कूल फिल्म से जुड़ी हुई विधाओं की ट्रेनिंग दे रहे हैं, जहां से निर्देशक, कैमरामैन और अन्य तकनीकी के जानकार सामने आ रहे हैं। उन्होंने कहा कि जिसे संस्कृति की समझ होती है। वही अच्छी फिल्म बनाता है। इस समय क्षेत्रीय भाषा में बनी फिल्में देश विदेशों में खूब लोकप्रिय हो रही है।

हरियाणा फिल्म समारोह के डायरेक्टर अजीत राय ने कहा कि सिनेमा लोगों की सोच को सही दिशा देता है, जो समाज को बदलने में सक्षम होते हैं। सिनेमा की असली पहचान भारतीय जन जीवन में गहरे जुड़ी हुई है। जिसके प्रभाव के आगे दुनिया नतमस्तक है। हमारे लिए गर्व का विषय है कि तीसरे हरियाणा फिल्म समारोह में देश के दो बड़े विश्व प्रसिद्ध फिल्मकार अडूर गोपालकृष्णन व श्याम बेनेगल अपनी फिल्मों के साथ शामिल हुए हैं। फिल्म समारोह को ठोस आकार देने के लिए कोशिशें जारी रहेंगी। जिसमें श्याम बेनेगल जी का दर्शकों के साथ सीधा संवाद करवाया जाएगा। इसके अतिरिक्त फिल्म अभिनेता ओमपुरी भी लोगों से रू-ब-रू होंगे। फिल्मोत्सव में श्याम बेनेगल की दो और मूल रुप से हरियाणा के कलाकार यशपाल शर्मा की चार फिल्में इस महोत्सव में प्रदर्शित की जाएंगी।

उन्होंने बताया कि यमुनानगर में आयोजित फिल्म फेस्टिवल आम आदमी का फेस्टिवल है। बड़े शहरों में फिल्मोत्सव पर २५० करोड़ रुपए खर्च किए जाते हैं, जबकि यहां पर पांच लाख रुपए में ही इस समारोह का आयोजन किया जा रहा है। उन्होंने कहा कि अच्छे सिनेमा खुद ब खुद लोगों के दिलों में जगह बना लेता है। उन्होंने सभागार में उपस्थित लोगों से आह्वान किया कि वे सिनेमा का जश्न मनाएं। इस फिल्म फेस्टिवल से सभी को यादगार अनुभव मिलेंगे।

कालेज प्रिंसिपल डा. सुषमा आर्य ने कहा कि तीसरे हरियाणा अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह के दौरान उच्च क्वालिटी का सिनेमा लोगों को दिखाया जाएगा। १० देशों की फिल्में समारोह के दौरान दिखाई जाएंगी। समारोह में नौ फिल्मों का हरियाणा प्रीमियर होगा। जबकि ३० शॉर्ट फिल्म भी दिखाई जाएगी। समारोह में चाइल्ड फिल्म व डाक्यूमेंट्ररी फिल्म सेक्शन को भी शामिल किया गया है। समारोह में उन फिल्मों को दिखाया जा रहा है, जिसमें आम आदमी के जन जीवन को उकेरा गया है। कालेज प्रिंसिपल ने अडूर गोपालकृष्णन व के. बिक्रम सिंह जी को पुष्प गुच्छ व प्रतीक चिंह देकर सम्मानित किया। अडूर गोपालकृष्णन की फिल्म शैडो किल से समारोह में फिल्मों के प्रदर्शन की शुरूआत हुई।