गुरुवार, 8 दिसंबर 2011

उत्तेजक चर्चा के दबाव में प्रयाग शुक्ल

रीता भदौरिया के दूसरे काव्य संग्रह के लोकार्पण के अवसर पर वीरेन डंगवाल, प्रयाग शुक्ल, कवयित्री स्वयं, अशोक चक्रधर और असगर वजाहत
पानी पर गांठ के बहाने कविता और समाज पर गहन चर्चा

शेष नारायण सिंह की कलम से 
 हिन्दी की कवयित्री रीता भदौरिया के दूसरे काव्य संग्रह 'पानी में गाँठ' के लोकार्पण का अवसर। दिल्ली में भारतीय सांस्कृतिक सम्बन्ध परिषद के सभागार में राजधानी की नामचीन अदबी और शहाफी शख्सीयतों की मौजदगी में रीता की कविताओं पर चर्चा हुई और कविता और समाज पर भी। रीता के संवेदन और उनकी रचना प्रतिभा में वक्ताओं को प्रचुर संभावना दिखी। सदारत कर रहे थे हिन्दी के बड़े कवि प्रयाग शुक्ल। अध्यक्षीय संबोधन में उन्होंने समय की कमी और विमर्श से उपजे उत्तेजनात्मक तनाव के बीच से निकलने की सधी हुई कोशिश की पर समय पर तनाव भारी रहा। संक्षिप्ति की वकालत के बावजूद विस्तार से बचना उन जैसे बड़े साहित्यकार के लिए भी संभव नहीं हो सका और सच तो यह है कि यही श्रोताओं के लिए आनंददायक रहा। वे चिंतित थे कि खराब और अच्छी कविता की बात की गयी, वे चिंतित थे कि कलावाद पर आक्षेप किया गया। उन्होंने जवाब भी दिया, बहुत स्पष्ट और साफ सुथरा, कलावाद कोई बुरी चीज नहीं है, मैं स्वयं कलावादी हूँ। कला लोक से ही जन्मती है, लोक के साथ ही आगे बढ़ती है। न तो कविता के पाठक कम हुए हैं, न ही अच्छी कविताएं। सारे देश में घूमा हूँ मैं, हर जगह कविता लिखने वाले, उसके प्रशंसक मिले हैं। मैं कविता को अच्छी या बुरी कविता के रूप में नहीं देखता हूँ, मेरे लिए कविता सिर्फ अच्छी होती है, कोई ज्यादा अच्छी, कोई कम अच्छी।
इस मौके पर प्रयाग शुक्ल के अलावा असगर वजाहत, वीरेन डंगवाल, अशोक चक्रधर, आलोक पुराणिक, कमर वहीद नकवी, राम कृपाल सिंह, प्रभात कुमार राय, प्रो. जय प्रकाश द्विवेदी, कुलदीप तलवार, कुलदीप कुमार, राम बहादुर राय, सुभाष राय, वंशीधर मिश्र, मिथिलेश कुमार सिंह, मधु जोशी आदि मौजूद थे। दिल्ली के  हिन्दी पत्रकारों का भी बड़ा जमावड़ा था। असगर वजाहत ने कविता के महत्व का प्रतिपादन करते हुए उसे जीवन और समाज के परिष्कार का सबसे बड़ा औजार कहा। उन्होंने कहा कि जब आप को सभी छोड़ दें, कोई भी आप की मदद करने वाला न हो, तब भी कविता अपनी समूची ताकत और संभावना के साथ आप के साथ होगी। असगर साहब ने कहा कि कविता समानांतर समाज बनाती है, वह समाज को दिशा देने, उसे विकसित करने का काम करती है। वीरेन डंगवाल ने कहा कि बीते सालों में कविता का जनतांत्रीकरण हुआ है और बहुत से नए कवि सामने आये हैं। सुभाष राय और बंधीधर मिश्र ने कुछ खतरों की ओर संकेत किया और कविताप्रेमियों और आलोचकों को आगाह करने की कोशिश की। राय का मानना था कि बहुत सारे नकली या अखबारी अनुभवों पर कविताएं लिखी जा रहीं हैं। कवि वहां उपस्थित नहीं है, जहाँ से वह रचना का कथ्य उठाता है। अनुभव की प्रामाणिकता के अभाव में कविता भी संदेह के घेरे में है। कवि सम्मान, पुरस्कार के पीछे भाग रहा है, अच्छी कविताएं भी आ रहीं हैं लेकिन खराब कविताएं ज्यादा आ रहीं हैं। मिश्र ने धूमिल के उद्घरण देते हुए कहा कि कविताएं सार्थक वक्तव्य होने की जगह केवल वक्तव्य हो जाएँ तो वे अपना प्रभाव खो देंगी। उन्होंने दृष्टिसम्पन्नता के अभाव की ओर संकेत किया।
मधु जोशी ने विस्तार से रीता भदौरिया के संघर्ष और संवेदनात्मक विकास की चर्चा की और उनकी कविताओं को सराहा। जोशी ने कहा कि रीता की कविताओं में विचारों की निरंतरता है। अशोक चक्रधर ने रीता के संग्रह से कुछ कविताओं का पाठ किया और उनमें  एक वृहत्तर संभावना की चर्चा करते हुए कहा कि पुस्तक पर अलग से बात होनी चाहिए। इस मौके पर कवयित्री रीता ने स्वयं की रचना प्रकिया के बारे में बताया और कहा कि उन्होंने जीवन में काफी उतार-चढ़ाव देखे हैं। अपने विभाग के कामकाज के सिलसिले में ऐसे लोग भी देखे हैं जिनके पास दो वक्त की रोटी का इंतजाम नहीं है और ऐसे लोग भी, जिनके पास अपनी संपत्ति को ठिकाने लगाने का तरीका नहीं सूझ रहा। उन्होंने विकास का भ्रम और अंतिम पड़ाव, अपने कविता संग्रह से दो कविताएं पढ़कर सुनाई। गोष्ठी का संचालन जाने-माने रंगकर्मी और पत्रकार अनिल शुक्ल ने किया।