गुरुवार, 8 दिसंबर 2011

उत्तेजक चर्चा के दबाव में प्रयाग शुक्ल

रीता भदौरिया के दूसरे काव्य संग्रह के लोकार्पण के अवसर पर वीरेन डंगवाल, प्रयाग शुक्ल, कवयित्री स्वयं, अशोक चक्रधर और असगर वजाहत
पानी पर गांठ के बहाने कविता और समाज पर गहन चर्चा

शेष नारायण सिंह की कलम से 
 हिन्दी की कवयित्री रीता भदौरिया के दूसरे काव्य संग्रह 'पानी में गाँठ' के लोकार्पण का अवसर। दिल्ली में भारतीय सांस्कृतिक सम्बन्ध परिषद के सभागार में राजधानी की नामचीन अदबी और शहाफी शख्सीयतों की मौजदगी में रीता की कविताओं पर चर्चा हुई और कविता और समाज पर भी। रीता के संवेदन और उनकी रचना प्रतिभा में वक्ताओं को प्रचुर संभावना दिखी। सदारत कर रहे थे हिन्दी के बड़े कवि प्रयाग शुक्ल। अध्यक्षीय संबोधन में उन्होंने समय की कमी और विमर्श से उपजे उत्तेजनात्मक तनाव के बीच से निकलने की सधी हुई कोशिश की पर समय पर तनाव भारी रहा। संक्षिप्ति की वकालत के बावजूद विस्तार से बचना उन जैसे बड़े साहित्यकार के लिए भी संभव नहीं हो सका और सच तो यह है कि यही श्रोताओं के लिए आनंददायक रहा। वे चिंतित थे कि खराब और अच्छी कविता की बात की गयी, वे चिंतित थे कि कलावाद पर आक्षेप किया गया। उन्होंने जवाब भी दिया, बहुत स्पष्ट और साफ सुथरा, कलावाद कोई बुरी चीज नहीं है, मैं स्वयं कलावादी हूँ। कला लोक से ही जन्मती है, लोक के साथ ही आगे बढ़ती है। न तो कविता के पाठक कम हुए हैं, न ही अच्छी कविताएं। सारे देश में घूमा हूँ मैं, हर जगह कविता लिखने वाले, उसके प्रशंसक मिले हैं। मैं कविता को अच्छी या बुरी कविता के रूप में नहीं देखता हूँ, मेरे लिए कविता सिर्फ अच्छी होती है, कोई ज्यादा अच्छी, कोई कम अच्छी।
इस मौके पर प्रयाग शुक्ल के अलावा असगर वजाहत, वीरेन डंगवाल, अशोक चक्रधर, आलोक पुराणिक, कमर वहीद नकवी, राम कृपाल सिंह, प्रभात कुमार राय, प्रो. जय प्रकाश द्विवेदी, कुलदीप तलवार, कुलदीप कुमार, राम बहादुर राय, सुभाष राय, वंशीधर मिश्र, मिथिलेश कुमार सिंह, मधु जोशी आदि मौजूद थे। दिल्ली के  हिन्दी पत्रकारों का भी बड़ा जमावड़ा था। असगर वजाहत ने कविता के महत्व का प्रतिपादन करते हुए उसे जीवन और समाज के परिष्कार का सबसे बड़ा औजार कहा। उन्होंने कहा कि जब आप को सभी छोड़ दें, कोई भी आप की मदद करने वाला न हो, तब भी कविता अपनी समूची ताकत और संभावना के साथ आप के साथ होगी। असगर साहब ने कहा कि कविता समानांतर समाज बनाती है, वह समाज को दिशा देने, उसे विकसित करने का काम करती है। वीरेन डंगवाल ने कहा कि बीते सालों में कविता का जनतांत्रीकरण हुआ है और बहुत से नए कवि सामने आये हैं। सुभाष राय और बंधीधर मिश्र ने कुछ खतरों की ओर संकेत किया और कविताप्रेमियों और आलोचकों को आगाह करने की कोशिश की। राय का मानना था कि बहुत सारे नकली या अखबारी अनुभवों पर कविताएं लिखी जा रहीं हैं। कवि वहां उपस्थित नहीं है, जहाँ से वह रचना का कथ्य उठाता है। अनुभव की प्रामाणिकता के अभाव में कविता भी संदेह के घेरे में है। कवि सम्मान, पुरस्कार के पीछे भाग रहा है, अच्छी कविताएं भी आ रहीं हैं लेकिन खराब कविताएं ज्यादा आ रहीं हैं। मिश्र ने धूमिल के उद्घरण देते हुए कहा कि कविताएं सार्थक वक्तव्य होने की जगह केवल वक्तव्य हो जाएँ तो वे अपना प्रभाव खो देंगी। उन्होंने दृष्टिसम्पन्नता के अभाव की ओर संकेत किया।
मधु जोशी ने विस्तार से रीता भदौरिया के संघर्ष और संवेदनात्मक विकास की चर्चा की और उनकी कविताओं को सराहा। जोशी ने कहा कि रीता की कविताओं में विचारों की निरंतरता है। अशोक चक्रधर ने रीता के संग्रह से कुछ कविताओं का पाठ किया और उनमें  एक वृहत्तर संभावना की चर्चा करते हुए कहा कि पुस्तक पर अलग से बात होनी चाहिए। इस मौके पर कवयित्री रीता ने स्वयं की रचना प्रकिया के बारे में बताया और कहा कि उन्होंने जीवन में काफी उतार-चढ़ाव देखे हैं। अपने विभाग के कामकाज के सिलसिले में ऐसे लोग भी देखे हैं जिनके पास दो वक्त की रोटी का इंतजाम नहीं है और ऐसे लोग भी, जिनके पास अपनी संपत्ति को ठिकाने लगाने का तरीका नहीं सूझ रहा। उन्होंने विकास का भ्रम और अंतिम पड़ाव, अपने कविता संग्रह से दो कविताएं पढ़कर सुनाई। गोष्ठी का संचालन जाने-माने रंगकर्मी और पत्रकार अनिल शुक्ल ने किया।

रविवार, 16 अक्तूबर 2011

सरकार और सरोकार नहीं बाजार बदल रहा है स्त्री को


देवेन्द्र
कथाकार 

गांव में रहते हुए बचपन से ही हमने जिस समाज को देखा है उसमें स्त्री को दोयम दर्जे का नागरिक कहना लहीम-शहीम नागरिकता पर गोबर करना होगा। मनुष्य की योनि में जन्म लेकर परम्पराओं के नाम पर स्त्री के साथ जिस बर्बर सामाजिक आचरण को व्यवहार की तरह अपनाया जाता है, उसे देखते हुए ‘नागरिक’ शब्द जैसा कोई सम्बोधन मुझे उपयुक्त नहीं लगता। हमारी भाभियां जब ब्याह कर आयी थीं, तब उनकी उम्र बमुश्किल चौदह-पन्द्रह साल रही होगी। उन्हें अहरिहार्य प्राकृतिक जरूरतों के निबटान हेतु सुबह से पहले और शाम के देर बाद मुंहअंधेरे में तय समय के लिए बिना खिड़कियों और बिना झरोखों वाले सीलबंद कमरों की घुटन से बाहर निकलने दिया जाता था।

चाहे कैसी भी तबीयत हो, हजारों साल से वे एक ऐसी व्यवस्था की अभ्यस्त थीं कि पूरे दिन पेट में मैला ढोती रहती थीं। सेक्स तथा सहवास की कामना के कारण ही नहीं,दिन-दोपहर प्राकृतिक निबटान की अपरिहार्य जरूरतों के कारण भी वे चरित्रहीन समझी जा सकती थीं। हमारा घर बनिस्बत गांव का सम्पन्न घर था फिर भी ऐसी कोई व्यवस्था हमने नहीं देखी सुनी थी। पच्चीस-तीस साल तक एक पर एक चार-पांच बच्चों को पैदा कर चुकने के बाद उनकी सांसों में पायरिया भर जाता था, दांत हिलने लगते थे। चालीस साल औरतों के बूढ़ी होने की उम्र होती थी। धूमिल की एक कविता है-


‘प्रजातंत्र का वह कौन सा  नुस्खा है कि
 जिस उम्र में मेरी मां का चेहरा चकत्तियों की थैली है
 उसी उम्र की मेरी पड़ोसन के चेहरे पर
 मेरी प्रेमिका जैसा लोच है।’ 


सम्पन्न माने जाने वाले हमारे गांव में ढेर सारे जानवर थे, जिनके बीमार होने से हमारी खेती लड़खड़ा जाती। आर्थिक ढांचा गड़बड़ा जाता है। उनका समय से इलाज कराया जाता। उनके डाक्टर गांवों में आते थे। लड़कियों के लिए कहा जाता था-बिन ब्याहे बेटी मरे, ठाढ़ी ऊख बिकाय, बिन मारे वैरी मरे, ई सुख कहां समाय।


पूरे परिवार की मुसीबत यही लड़कियां ब्याह कर ससुराल भेजी जाती थीं। उन्हें बाकायदा विवाह नामक संस्था में बांधकर लाया जाता था। वे पिता, भाई और मां की जिम्मेदारियों से बेदखल कर दी जाती थीं। परम्परागत जायदाद में उनका कोई हिस्सा नहीं होता था। मां, बाप, भाई, बहन, सहेलियां, गांव के पेड़, तालाब और दूर-दूर तक फैले-फू ले सरसों के खेत, बेलों और बकरियों से होकर जो रिश्ते उनके जीवन में घुस आये थे, उनकी महक, उनकी स्मृतियों को ससुर के घर में खुरच-खुरच कर बेरहमी से मिटा दिया जाता था।

हजारों साल से वे इसे यातना की तरह नहीं उत्सव की तरह स्वीकार करती थीं। सिर्फ स्थूल और थोड़ी प्रताड़नाओं से ही नहीं, जबकि यह भी उनकी दिनचर्चा के अभिन्न अंग थे, उन्हें किस्सों, कहानियों से बहला-फुसलाकर पालतू बनाया जाता था। उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक या दास कहना दासों की स्थिति का बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन करना होगा क्योंकि दासों को अपने मालिक, जिसने उन्हें गुलाम बना रखा है,से नफरत करने, लड़ने का नैतिक हक प्राप्त होता है लेकिन उन लड़कियों के जेहन में यह पाप की तरह होता था।

उनकी मुक्ति का पथ कब्रगाह के डरावने और सुनसान अंधेरे में जाता था। चूल्हे और चौके की धीमी आंच में सींझती उन औरतों के जीवन में कोई सपना नहीं उगता था। हर महीने कई-कई कठोर व्रतों से गुजरते हुए वे अगले सात जन्मों के लिए उसी परिवेश और पति की कल्पना करतीथीं जो रोज रात को उन्हें सहवास सुख देता था और  बदले में वे बच्चा पैदा करती थीं। आंगन की  भर धूप और हवा में ही उन्हें जीना होता था।


अप्राकृतिक स्थितियों में पड़ी-पड़ी जब अक्सर वे मर जातीं तो उनके मरने को शोक और संवेदना की तरह नहीं, एक निर्जीव सूचना की तरह लिया जाता था। आज भी भारत की लगभग सत्तर प्रतिशत आबादी गांवों में रहती है और कमोबेश स्थितियां जस की तस बनी हुई हैं।  सम्पन्न परिवार धीरे-धीरे शहरी मध्य वर्ग में रूपांतरित होने लगा है। जो विपन्न थे, उनकी बदहाली बेइंतहां बढ़ी है। संयुक्त परिवार का आर्थिक आधार छितरा गया है। संयुक्त परिवार और विवाह संस्था, इन दोनों की मजबूत चार दीवारी में स्त्रियों के प्रति जानवरों से भी कई गुना ज्यादा बर्बर आचरण हमारी दिनचर्या और व्यवहार में इस कदर शामिल था कि हमें अपनी क्रूरताओं का आभास तक नहीं होता था। हमारी महान संस्कृति और सभ्यता का हिस्सा था यह सब। उनकी सुरक्षा, शील और मर्यादित आचरण की दुहाई देकर हम निर्विघ्न और निर्विवाद रूप से जायज काम में शिरकत करते थे। जैसे जेल के पुराने कैदी नये कैदियों के प्रति क्रूर आचरण को अपना नैतिक और भौतिक अधिकार मानते हैं, उसी तरह  घर की बूढ़ी औरतें सास या दादी के रूप में इन औरतों के लिए होती थीं। हजारों साल से उनके साथ यही होता चला आ रहा है।


इस भयानक सच्चाई के साथ-साथ एक और दिलचस्प तथ्य उस परिवेश का अनिवार्य हिस्सा था। अक्सर सुनाई पड़ ही जाता कि फ लां की बहू अपने नौकर से फंसी है। कोई देवर से तो कोई ससुर से। दो-तीन पीढ़ियों को मिलाकर किसी कुटुम्ब का इतिहास बनाया जाय तो यह लगभग हर घर की कहानी थी। परम्पराओं की लाख पहरेदारी और उन बिना झरोखों वाले बन्द कमरों के किसी सुराख से आती रोशनी में तैरते धूलकणों पर संवेदनाएं   अपने लिए रास्ता बना ही लेती थीं। असूयपश्या और योनिशुचिता के आदर्श अक्सर अपने जख्मों को छिपाकर ही बड़बोलापन करते रहते। यह असम्भव है कि जीवन हो और उसके चिन्ह पूरी तरह मिटाये जा सकें। रोशनी में तैरते धूलकणों पर वे झिलमिला ही जाते।


स्त्रीयातना का इतिहास संयुक्त परिवार की कठोर भित्ति पर अंकित था। जब कभी संयुक्त परिवार टूटता तो निर्विवाद तथ्य की तरह उसका जिम्मा औरतों पर डाल दिया जाता। संयुक्त परिवार से एकल परिवार की ओर जाती सामाजिक संरचना स्त्री मुक्ति का सबसे निर्णायक महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक कदम है। वासना के अंधेरे एकांत में रिरियाते और तड़पते पति की कायरता को क्षण-प्रतिक्षण धिक्कारते हुए चतुर सेनापति की तरह स्त्री ने अत्यन्त धैर्य पूर्वक, समय का इंतजार करते हुए कुशल रणनीतिकार  की भूमिका में यह युद्ध जीता है। वह जानती है कि अकेला होते ही मर्द कितना कमजोर और केंचुआ होता है।


परम्पराओं और दंभ की बैसाखी आखिर कितने दिनों तक उसे ताने रहेगी। उसकी शक्ति का स्रोत सीता या साबित्री नहीं, द्रोपदी होने में ही है। लाचारी,अभागापन और घुटन जितना सम्पन्न सवर्ण औरतों के जीवन में था, उतना खेतों में काम करने वाली मजदूर औरतों में नहीं होता था। जर्जर रूढ़ियों और अमानवीय मर्यादाओं की घातक पहरेदारी वहां नहीं थी। अपनी अनिवार्य दिनचर्या में वे प्रत्यक्षत: श्रम से जुड़ी हुई थीं। अपनी सीमित जरूरतों से ज्यादा कमा लेती थीं। वे किसी भी मायने में परजीवी व परिवार और समाज की दया की मुंहताज नहीं थीं। बेहद आत्मनिर्भर होने के कारण उनकी स्थिति बहुत हद तक भिन्न होती थी। वे लड़ लेती थीं। उनकी हत्याएं होती थीं। वे कुएं में कूद कर आत्महत्याएं नहीं करती थीं। कठोर श्रम से पैदा हुए उनके भीतर के आत्म विश्वास के लात खाकर हमारी गौरवशाली परम्पराएं और पूज्य परिवार उनके साथ लगभग ठीक-ठाक ढंग से ही पेश आते थे। उनकी मुसीबतें भिन्न किस्म की होती थीं। वे दूसरी बातें हैं जिनसे उन्हें रूबरू होना पड़ता था। 


स्त्री स्वतंत्रता के संदर्भ में यह तय है कि उनकी स्थिति सवर्ण मध्यमवर्गीय औरतों से बेहतर थी, जिसे उन्होंने कठोर श्रम से हासिल किया था। स्त्री मुक्ति का प्रश्न जब कभी वास्तविक गम्भीरता और सामाजिक सरोकार का प्रश्न बनेगा तो तय है कि उसकी सैद्धांतिकी और अनुभव के स्रोत वही मजदूर औरतें बनेंगी।


लैंगिक और प्राकृतिक भिन्नताओं के आधार पर लड़कियों और महिलाओं को कुछ ऐसी अनचाही स्थितियों का सामना करना पड़ता है, जिनसे कभी भी किसी पुरुष को गुजरना नहीं पड़ता है। वास्तव में कभी संवेदनशील होकर पुरुष उन समस्याओं के समाधान में स्त्रियों के साथ शिरकत करेंगे, मुझे यकीन नहीं होता।


विवाह संस्था, यौनशुचिता और संयुक्त परिवार के इसी त्रिकोणीय दुष्चक्र के भीतर मरी हुई परियों के पंख छितराये पड़े हैं। इसी त्रिक ोण में हजारों साल से उनके सपनों की लाशें दफनायी जा रही हैं। इस त्रिकोण की जब तक कोई एक भुजा बची रहेगी, स्त्री मुक्ति का प्रश्न कटी पतंग की तरह अपरिहार्य रूप से बिजली के तारों पर फंसा, बेजान, फड़फड़ता रहेगा। अन्तत: बेनतीजा।


आज संयुक्त परिवार लगभग गुजरे जमाने की चीज हो गया है। लगातार फैलते जा रहे शहरी मध्यवर्ग के जीवन  में उसके लिए कोई ‘स्पेस’ नहीं है। एकल परिवार में स्त्री की भूमिका, शक्ल-सूरत और सीरत काफी हद तक बदल चुकी है। विवाह संस्था सिर्फ इस तर्क पर बहुत दिनों तक जीवित नहीं रहेगी कि ‘आखिर’ इसका विकल्प क्या है? ‘यौनशुचिता’ के बारे में मैं कुछ नहीं कह सकता कि स्त्री जीवन में यह कितनी बनी और बची हुई है। पुरुष अपने पौरुष के दर्प में इसे हमेशा लतियाता आया है। जैसे-जैसे समाज में रोजगार के अवसर विकसित होंगे, स्त्री आत्मनिर्भर होगी, संयुक्त परिवार के आधार पर खड़ी त्रिकोण की दोनों भुजाएं जगह-जगह से चिटकने लगी हैं।

स्त्री मुक्ति के सामाजिक संघर्ष का नेतृत्व वे औरतें कत्तई नहीं करेंगी जो घूसखोर बाप की नाजायज कमाई खा-खाकर चटोर हो चुकी हैं और पति के घर में निकम्मी पड़ी-पड़ी ऊबती हुई समाज और सरोकारों से नफरत करती हैं। स्त्री मुक्ति की सामाजिक जरूरत और उसकी ऐतिहासिक पहल उनके फैशन का हिस्सा भर है, जिनकी दिनचर्चा सुबह-सवेरे घर में चौका-वर्तन, झाड़ू-पोछा करने आयी नौकरानी के साथ,कांव-कांव करते हुए शुरू होती है। ब्यूटी पार्लर और किटी पार्टी में क्लबों में अपने होने का अर्थ तलाशती इन रीतिकालीन नायिकाओं की बंजर संवेदनाओं में एक घास उगाने भर क्षमता नहीं है। एकल परिवार की इन गृहस्वामिनी को अपनी आजादी से ज्यादा पुरुष को गुलाम बनाये रखने की चिन्ता होती है। वे बराबरी के लिए नहीं वर्चस्व के लिए लालायित है।आत्मनिर्भरता किसी भी तरह की आजादी का सबसे बड़ा नैतिक तर्क होता है। वह यहां सिरे से नदारद है।



बावजूद इन सारी संभावनाओं और दलीलों के आज स्त्री बदलने की तैयारी में हैं। लड़कियां अपनी इच्छाओं को जबान और महत्वाकांक्षाओं का पंख लगाने को तत्पर है। पितृसत्तात्मक सामंती समाज के शील, संकोच और मर्यादा शायद ही अपने आवरण में उन्हें छल सकें। कानून और सरकार के बल पर नहीं बाजार के बल पर स्त्री बदल रही है। बाजार स्त्री को हजारों साल की जलालत से मुक्त कर रहा है किसी ऐतिहासिक और सामाजिक सरोकार को समझ कर नहीं, बस इसलिए कि उसे अपने फायदे के लिए नये किस्म के श्रम, नये किस्म की श्रमिक और एकदम नये किस्म के ‘प्रोडक्ट’ की जरूरत है। खतरे कम नहीं है इस राह में। लेकिन छ: फीटी साड़ी और घूंघट को कफन की तरह लपेटे समाज की टिकठी पर और कितने दिन पड़ी रहे स्त्री। हजारों साल की इस पाशविक गुलामी में आखिर ऐसी कौन दुर्दशा बची रह गयी  जिसका भय दिखाकर आप उसे बाजार के मोहक सपनों की ओर जाने से रोक लेंगे।

रविवार, 26 जून 2011

हरि अनंत हरि कथा अनंता

 हरि अनंत, हरि कथा अनंता। इस देश में जो हरि के गुन गाता है, बाबा कहलाता है, जो हरिमय हो जाता है, बापू कहलाता है। हमारे यहां न तो बाबाओं की कमी है, न ही बापुओं की। । राम देव बाबा, जयगुरुदेव बाबा, पायलट बाबा, ड्राइवर बाबा, आशाराम बापू, तमाशाराम बापू। एक ऐसा भी शख्स इस देश में हुआ, जो एक साथ महात्मा भी था, बाबा भी और बापू भी। बापू केवल अपने बच्चों का नहीं, पूरे देश का। वह था गांधी बाबा। हमारे देश में किसी न किसी बहाने इस बाबा की चर्चा होती ही रहती है। भ्रष्टाचार जितना बढ़ रहा है, रघुपति राघव राजाराम का पारायण भी उतना ही बढ़ रहा है। बलात्कार, अपहरण, लूट की घटनाएं बढ़ेंगी तो गांधी का नाम लेने वाले भी बढ़ेगे। यह गांधी का देश है। यहां हर बुराई को ढंकने के लिए गांधी को चादर की तरह तान दिया जाता है। सचाई यह भी है कि गांधी का नाम ज्यादा लिया जा रहा हो तो समझो कोई बड़ा घपला, घोटाला होने वाला है, बड़ी विपदा आने वाली है।

बाबा की बतकही का मौका मिला है तो लगे हाथ  एक और बाबा की चर्चा कर दूं। नागार्जुन बाबा। उनकी जन्मशती मनायी जा रही है। इसलिए उन पर, उनकी कविता पर बात हो रही है। उन्हीं की एक कविता है, गांधी के तीन बंदर। वैसे तो यह पूरी कविता ही उल्लेखनीय है लेकिन मेरी पसंद की कुछ पंक्तियां इस प्रकार हैं..ज्ञानी निकले, ध्यानी निकले तीनों बंदर बापू के। बापू के भी ताऊ निकले तीनों बंदर बापू के। गुरुओं के भी गुरू बने हैं तीनों बंदर बापू के। बापू को ही बना रहे हैं तीनों बंदर बापू के। बापू को उनके तीनों बंदर क्या बना रहे हैं? नागार्जुन बाबा ने गोल कर दिया। सोचा होगा, लोग समझदार हो गये हैं। पढ़ेंगे तो समझ ही जायेंगे। बाबा ने ये कविता बहुत पहले लिखी थी। अब तो गांधी के तीनों बंदर और भी चालाक और शातिर हो गये है। गांधी ने अपने जीवन में तमाम तरह के प्रयोग किये थे। उनके बंदर भी प्रयोगधर्मा हैं। गुरु ने सत्य के साथ प्रयोग किया, उनके बंदर असत्य के साथ प्रयोग कर रहे हैं। सफेद हो या केसरिया या किसी भी रंग की, मत पूछो, टोपी के पीछे क्या है। गांधी के बंदरों ने उनकी जीवनी बार-बार पढ़ी है। अपने जिन प्रयोगों के बारे में गांधी ने खुलकर नहीं लिखा मगर भूले-भटके अपनी चिट्ठियों में यदा-कदा जिक्र किया, बंदरों ने चोरी-चुपके उनका भी स्वाद चखा है। आखिर वे गांधी के बंदर हैं, कोई ऐरे-गैरे नहीं।

 गांधी ने पहले लंगोटी पहनी फिर प्रयोग शुरू किये। उनके बंदरों को पता है कि इसका उल्टा भी हो सकता है। अगर गांधी की तरह प्रयोग शुरू किया तो केवल लंगोटी ही बच जायेगी। असत्य के बिना सत्य का अस्तित्व नहीं। सत्य की चर्चा इसीलिए होती है, क्योंकि असत्य की सत्ता कायम है। कई बार सत्य की सत्ता की स्थापना अर्धसत्य या असत्य की ताकत से होती है। नागार्जुन बाबा की मानो तो गांधी के बंदर बड़े ज्ञानी हैं। उन्हें वाल्मीकि की कथा भी मालूम है। राम, राम नहीं आता तो मरा, मरा कहो। असत्य के साथ प्रयोग करो, सत्य का संधान अपने आप संभव हो जायेगा। जीवन में सुख हो, समृद्धि हो, ऐश्वर्य हो, यही तो चाहिए। क्या यह सत्य से मिलेगा? त्याग तो तभी संभव होगा, जब त्यागने लायक कुछ हो। इसलिए पहले अपना घर ठीक करो। छल से, कपट से, गबन से, अपहरण से, जैसे भी हो सके। बड़ी-बड़ी योजनाएं डकारनी हैं, यहां वन जी, टू जी क्या कई हंड्रेड जी लाइन में खड़े हैं।

मौका मिला नहीं कि कोयले की खदान तक निगल जायेंगे, जनता का करोड़ों रूपया अपने घर की सजावट में लगा देंगे, बचा तो रोज एक नया जूता पहनने का अरमान भी तो पूरा होना चाहिए। कीमती 365 जोड़ी तो होने ही चाहिए। प्रयोग वे अच्छे हैं जो गांधी को याद रखने लायक बनाये। खुद गांधी बनने से क्या मिलेगा। जीतेजी सत्य का नरक भोगें तो मरने के बाद कुछ चौराहों पर मूर्तियां लगने से क्या मिलने वाला। ऐसा बनो यार कि जीतेजी मूर्तियां तन जायें, उधर से गुजरो तो लगे कि तुम्हारी भी कोई सत्ता है। अहिंसा भी क्या देगी। किसी को दुखी न करें तो सुखी कैसे हो पायेंगे। जमीनें कब्जानी हैं, आलीशान घर बनाने हैं, बड़ी गाड़ियां खरीदनी हैं और कुछ स्विस बैंक में भी तो होना चाहिए। यह सब दूसरों को पीड़ित किये बिना आखिर कैसे संभव है। इसलिए गांधी के बंदर हिंसा को एक नयी प्रयोगभूमि की तरह स्वीकार कर चुके हैं। भूल जाइए कि गांधी की कांग्रेस में ही उनके बंदर मिलेंगे। गांधी की कांग्रेस भी अब रही कहां। बापू के बंदर बापू के ताऊ बन गये हैं। वे अब हर जगह हैं। उनका ब्रांड सर्वदलीय है, वे सर्वसमाज में व्याप्त हैं। जिधर जाइयेगा, उधर पाइयेगा। वे गांधी को तो बना ही रहे, सबको उल्लू बना रहे हैं, खूब खा रहे हैं और गा रहे हैं, रघुपति राघव राजाराम, सबको सन्मति दे भगवान।        

रविवार, 19 जून 2011

कासी गुरू की आत्मा

ओम तद्भवाय  नमः|   अखिलेशाय नमः |  शब्ददंडधारी स्वामी अखिलेश जी की कृपा से मेरी मुलाकात कासी गुरू की आत्मा से हुई। हालांकि वे स्वयं ई ससुरी आत्मा से बहुत परेशान दिखे। उनका अनुभव है कि यह सहृदय, दयावान, करुण, कातर सी चीज न होती तो वे अपनी मोटरबाइक से हाथ न धो बैठते। हुआ कुछ यूं कि बड़े जुगाड़ से उन्होंने बाइक खरीदी। बड़े जतन से उसे धो-पोंछ कर रखते, संभाल के चलाते। हरदम चमाचम रहती। पर एक दिन वे एक साइकिलवाले से टकरा गये। एक चला रहा था और दूसरा डंडे पर बैठा था। गुरू को पता ही नहीं चला क्या हुआ पर वे दोनों सड़क पर पसर कर खामोश हो गये। गुरू ने पहले तो भागने में ही भलाई समझी पर कुछ दूर जाकर उनकी आत्मा जग गयी। वे लौटे, सोचा बच्चों की मदद कर दें, बेचारे घायल हो गये हैं। वे बच्चों को नादान समझ रहे थे पर जैसे ही बाइक से उतरकर उनके पास आये, समूची करुणा के साथ एक को हिलाने-डुलाने की कोशिश की, दूसरा उनकी बाइक ले उड़ा। वे दौड़े मगर कुछ दूर जाकर मुंह बाकर खड़े हो गये। बाइक गयी सो गयी, यह गुरुआ की बड़ी चिंता नहीं थी, चिंता यह थी कि अगर आत्मा ऐसे ही जगी रही तो न जाने क्या-क्या अनर्थ होगा।

कासी गुरू कोई झूठ नहीं बोल रहे। एक बार मैं भी इसी आत्मा के चक्कर में जेल जाते-जाते बचा, पत्रकार न होता और पुलिस थोड़ा फेवर न करती तो या तो मेरी जमकर कुटाई हुई होती या फिर जेल की यात्रा करनी पड़ती। यह आत्मा सचमुच बहुत अनर्थकारी है। अगर आप को महान और निरापद आसन चाहिए, आप की समाज में अपना डंका पिटवाने की सदिच्छा है, सरस सुख-संपदा अर्जित करनी है, ऐश और परमभोग की आकांक्षा है तो अपनी आत्मा से तत्काल तौबा कर लीजिए, उसे दबाये रहिये या कोई खास तकलीफ न हो तो उसे मार ही दीजिए। थोड़ा कष्ट होगा क्योकि सहजावस्था में आत्मा जगी ही रहती है और किसी को जागते में मारना श्रमसाध्य ही नहीं बहुत दुखदायी भी है। परंतु शास्त्र कहते हैं कि बड़े पुण्य के लिए किंचित पाप भी करना पड़े तो बुरा नहीं है, साधारण दुख से असाधारण सुख की प्राप्ति हो सके, तो किसी भी तरह अस्वीकार्य नहीं है। सभी मानते हैं,इसलिए आप भी यह मान लें कि हर दुख अपने परिणाम में सुख ही होता है। आत्मा के चक्कर में हमारी कई पीढ़ियों ने बहुत समय नष्ट किया है, अपना तो कबाड़ा किया ही, पूरे समाज का, देश का भी कबाड़ा किया।

 यह दिखती नहीं, यह अगम्य है। नयमात्मा प्रवचनेन लभ्य, नहिं बहुश्रुतेन। न प्रवचन से मिलती है, न बहुत सुन कर कंठस्थ कर लेने से, न हठ से मिलती है, न योग से, न बलहीन को मिलती है, न बलशाली को। इतना जानकर भी कुछ लोग आत्मा को पाने के व्यर्थ प्रयास में लगे रहते हैं और कुछ कासी गुरू जैसे कभी-कभी इस दयनीय भ्रम के शिकार हो जाते हैं कि भीतर से आत्मा बोल रही है, उसकी आवाज सुनो। उसकी आवाज सुन ली तो समझो ठगे गये। आजकल जो सबसे ज्यादा आत्मा-परमात्मा की बात करते हैं, वे भीतर से समझ चुके होते हैं कि आत्मा-वात्मा जैसी कोई चीज नहीं है, पर इसे स्वार्थपूर्ति के परमधर्म की प्राप्ति के लिए विकट विराट अस्त्र की तरह इस्तेमाल किया जा सकता है। वे आत्मसाक्षात्कारसंपन्न जीव इस जगत में सबसे सुखी प्राणी हैं। वे सम्मान से बाबा कहे जाते हैं, भले ही वे अवसरानुकूल वाम-दक्षिण हो सकते हों, कभी पुरुष, कभी नारी या किन्नर का वेश धरने में किंचित संकोच न करते हों।

 उनकी योगकाया का आसनाभ्यास और उनकी रोमांच भरी रुदनाल्हादमयी नाट्य प्रस्तुति से लाखों लोगों की जड़ आत्मा थोड़ी देर के लिए जग उठती है। ऐसे बाबाओं के लिए करोड़ क्या, अरब क्या, नौ-दो-ग्यारह अरब क्या। वे निरंतर ठगात्मवत ही रहते हैं इसलिए वे अगर महिलाओं के साथ कोई अभद्रता भी करें तो भी उसे कल्याणकारी मानकर स्वीकार कर लिया जाता है। आप ने अपनी आत्मा मार दी तो किसी को भी मार देना आप के लिए बहुत सहज होगा। फिर आप चोरी, ठगी, बलात्कार, हत्या से भी परे चले जायेंगे। किसी कर्म का परिणाम भुगतने की विवशता से मुक्त हो जायेंगे। हर आदमी की आत्मा अलग-अलग व्यवहार करती है, इसीलिए बड़े राजनीतिकार अक्सर अंतरात्मा की आवाज पर चुनाव की बात करते हैं। कोई जरूरी नहीं कि सबकी अंतरात्मा से एक ही आवाज उठे। अगर आत्मा एक होती तो ऐसा क्यों होता या फिर जिसने आत्मा मार डाली है या जो आत्मा के होने को स्वीकार नहीं करते, क्या वे ऐसे वक्त में निर्णय नहीं करते? इससे यह अनुमान सहज ही सही लगने लगता है कि आत्मा भी अपने अर्थ का, अपने लाभ का ध्यान रखती है। जो आत्मार्थ है, वही स्वार्थ है। अगर कासी गुरू यह अर्थ लगाते तो उनकी बाइक बच गयी होती। आप भी अगर निपट संन्यासी नहीं हैं तो जीवन में कुछ लाभ-लोभ रखना ठीक रहेगा। आत्मा के अर्थ को यानि उसकी व्यर्थता को जितना जल्दी समझ लेंगे, परमात्मा आप की उतनी ही मदद करेगा। शुभमस्तु।

रविवार, 12 जून 2011

मैं नाच्यो बहुत गुपाल

सुषमा जी नाची तो मेरा मन भी नाचने को हुआ। पता नहीं वे जानती कि नहीं पर मैं जानता हूं कि सबहिं नचावत राम गुसाई। समूचा जगत एक विशाल रंग-मंच की तरह है। हम सभी नाच रहे हैं। एक अदृश्य धागे में बंधे हुए, जिसका सूत्र किसी और के हाथ में है। एक झीने पर्दे के पीछे खड़ा वह सबको नचा रहा है। अक्सर हमें पता ही नहीं चलता कि हमें कोई नचा रहा है। अलग-अलग हर कोई सोचता है कि वह अपने ताल पर नाच रहा है, कभी-कभी कई लोगों के मन में यह भी गुमान होता है कि वे औरों को भी नचा रहे हैं। हर कोई दूसरों को अपने इशारे पर नचाना चाहता है। यह सहज नहीं है, पर इसमें खुशी मिलती है। अगर आप लोगों को अपनी उंगली पर नचा सकें तो आप बड़े होने का भ्रम पैदा कर सकते हैं। कभी-कभी लोग अपना काम निकालने के लिए भी प्रभावशाली लोगों के लय-ताल पर नाचते रहते हैं। जब अनायास बहुत खुशी मिल जाये तब भी आदमी नाच उठता है। इसके विपरीत कई बार गुस्से में भी, किसी की कड़वी बात से भी आदमी नाच उठता है।

आदिम काल से सौंदर्य पर रीझकर आदमी नाचता रहा है, सुंदरता किसी को भी नचा सकती है। इसीलिए हर काल में सुंदर स्त्रियां सबको नचाती रही हैं। इसी गुण के कारण वे बहुत आसानी से न केवल सत्ता के पास  बने रहने में कामयाब रही हैं, बल्कि सत्ता का पहिया घुमा देने में भी। आज भी दुनिया में अनेक मजबूत इरादों वाली चालाक, बुद्धिमान या खूबसूरत महिलाएं हैं, जिनके इशारे पर तमाम बड़े-बड़े लोग नाच रहे हैं। नाच के मूल में जायें तो यह नाट्य का ही रूपांतर है। भगवान शंकर आदि नट माने जाते हैं। वे जगत के कल्याण में लगे रहते हैं। वे आसानी से नहीं नाचते। पर वे जब नाचते हैं तो समूचा ब्रह्मांड नाच उठता है, धरती, सूर्य, तारे नाच उठते हैं, समुद्र अपनी फेनिल लहरों पर सवार होकर नाचने लगता है। शिव के इस नृत्य से तांडव मच जाता है।

भरत के नाट्यशस्त्र के अनुसार नाट्य शब्द में संगीत, नाटक, नृत्य, वाद्य सब कुछ शामिल है। नौटंकी भी नाट्य का ही एक रूप है। पर नाच केवल नाच है। जिसे नाचना आता है, वह भाग्यशली है। वह सबको लुभा सकता है, सम्मोहित कर सकता है। जिसे नहीं आता है, उसके लिए तो आंगन टेढ़ा है। कोई तो बहाना चाहिए। हिंदी के संत काव्य में नाच का बड़ा महत्व है। मीरा हों या सूरदास या कोई और भक्त कवि, वे अपने आराध्य के सामने नाचने में कतई संकोच नहीं करते पर वे इस तरह नाचते-नाचते अपने प्रिय को नचाने भी लगते हैं। मीरा कहती हैं, वृन्दावन में रास रचायो, नाचत बाल मुकुन्दा। मीरा के प्रभु गिरधर नागर, काटे जम का फन्दा। भक्त नाचता है तो भगवान भी नाचने लगते हैं। रास है क्या? एक ही समय में सबके साथ कृष्ण का नाचना। असल में भक्त खुद को मिटाना नहीं चाहता। उसे भगवान का सामने होना रोमांचित करता है। इस रोमांच को वह बनाये रखना चाहता है। वह अपना कृष्ण खुद ही बन जाता है और अपने ही साथ नाचने लगता है। वही कृष्ण होता है, वही राधा। उसे समझ में नहीं आता है कि यह सब कैसे हुआ लेकिन उत्कट प्रेम में वह अपनी संपूर्ण संभावना के साथ अपने ही शरीर से बाहर खड़ा हो जाता है, खुद को ही कृष्ण के रूप में रच लेता है, अपनी कल्पना के साथ नाच उठता है।

लेकिन इस नाच के पहले भी एक नाच देखना पड़ता है। जब तक वह अपनी सत्ता से अपरिचित रहता है, कुछ पाने की होड़ में नाचता रहता है। काम-क्रोध का चोला पहनकर, विषयों की माला से लदा हुआ, निंदा की रसमयता में निमग्न, मोह के घुंघरू बांधे वह एक अलग तरह के नृत्य में मगन रहता है। लालच के ताल पर, माया का वसन पहने, लोभ का तिलक लगाये वह एक ऐसी दुनिया में नाचता रहता है, जो होती ही नहीं। भ्रम की दुनिया, अज्ञान की दुनिया। जब कभी खुद पर अपनी कृपा होती है, वह इस अंधकार से बाहर आ पाता है। जब सच समझ में आता है, वह चिल्ला पड़ता है, बहुत नाच लिया भगवान, अब इस अज्ञान से बाहर करो। जैसे ही भावात्मक गहराई से ऐसा निवेदन उभरता है, वह महारास में शामिल हो जाता है। कृष्ण के साथ नाचने लगता है, कृष्णमय हो जाता है।

यह नाचना बड़ा ही अद्भुत है। जिसे अपने ताल पर, अपने लय पर नाचना आ जाता है, जिसे अपनी सत्ता का बोध हो जाता है, जो अपने ही आईने के सामने खड़ा होकर खुद को देखने का साहस कर लेता है, उसे और नाचने की जरूरत नहीं रह जाती। जो दुनिया की सुख-सुविधाएं हासिल करने के लिए नाचते-नाचते थक गया, जिसे अहसास हो गया कि अब सिर्फ नाचना है, इस तरह नाचना है कि जीवन नृत्य में ही बदल जाये, वही इस रंग-मंच का असली नट साबित होता है, वही नटवर की शरण हासिल कर पाता है। नाचते-नाचते जब हृदय बेचैन हो जाय, मन थक जाय और बोल पड़े, अब मैं नाच्यो बहुत गुपाल तो समझो काम बन गया।

मंगलवार, 31 मई 2011

ढाई आखर प्रेम का

जल में कुंभ, कुंभ में जल है, बाहर भीतर पानी। फुटा कुंभ जल जलहिं समाना, यह तथ कहे गियानी। कबीर के अनेक रूप हैं। कभी बाहर, कभी भीतर, कभी बाहर-भीतर दोनों ही जगह। वे सबमें खुद को ढूढते हैं, सबको अपने जैसा बनाना चाहते हैं। कभी कूता राम का तो कभी जस की तस धर दीनी चदरिया वाले व्यक्तित्व में, कभी ढाई आखर की वकालत करते हुए तो कभी बांग देने वालों और पाहन पूजने वालों, गंगा नहाने वालों को एक साथ लताड़ते हुए। कभी ज्ञानी के रूप में तो कभी अदने बुनकर के रूप में। पर हर रूप में वे कबीर ही बने रहते हैं। कबीर यानी एक समूचा आदमी। आदमी होना बहुत ही कठिन है। कबीर के जमाने में भी कठिन था। उन्होंने पहले खुद को ठीक किया। बहुत पापड़ बेले। गुरु भी किया। नाम नहीं बताते हैं। शायद गुरु की तलाश में उनकी भेंट तमाम गुरु-घंटालों से हुई, इसलिए सजग भी किया। गुरु करना मगर ठोंक-बजाकर, कहीं अंधा मिल गया तो बड़ी दुर्गति होगी। अंधे अंधा ठेलिया दुन्यू कूप पड़ंत। तुम तो अंधे-अज्ञानी हो ही, तभी तो भीतर कोई दीप जलाने वाला ढूढ रहे हो। वह भी अंधा हुआ तो? बहुत सारे अंधे मिले होंगे कबीर को भी लेकिन वे सजग थे, उनकी आंखें खुली हुई थीं, वे अपनी प्रारंभिक यात्रा में ही इतना समझ गये थे कि उजाला बंद आंखों से नहीं मिलेगा, जागते रहना होगा। जो जागेगा सो पावेगा, जो सोवेगा, सो खोवेगा।

उनका यह जागना ही उन्हें रास्ता दिखाता गया। उन्होंने अपने भीतर खुद जागना सीख लिया था। यही समझ उनकी गुरु बनी। वे अपने गुरु,अपने दीप खुद ही बने। कबीर का जागना केवल आंखें खोले रहने भर तक नहीं था। बहुत से लोग खुली आंखों में सोये रहते हैं। कुछ अपने दिवास्वप्न में मग्न तो कुछ अपने स्वार्थस्वप्न को साकार करने में निमग्न। कुछ देख कर भी नहीं देखते तो कुछ उतना ही देखते हैं, जितना देखना चाहते हैं। कुछ प्रतिरोधहीनता से ग्रस्त, मरे हुए तो कुछ हर हाल में अनीतिकारी और पाखंडी ताकतों के आगे बिछ जाने को तत्पर। धूमिल ठीक ही कहते हैं, जिसकी पूंछ उठाकर देखो, मादा ही निकलता है। ऐसे लोगों का जागना क्या और सोना क्या। जो अपने से कमजोर पर हमेशा गुर्राता हो, उसकी हथेली में आते उसके हक को भी छीन लेना चाहता हो और अपने से ताकतवर को देखते ही पूंछ दबाकर निकल जाता हो, वह जगा हुआ कैसे हो सकता है। वह तो ऐसी गहरी नींद में है कि उसने मनुष्यता ही त्याग दी है। उसने अपना एक जंगल रच लिया है और उसी में खुश है। उसे जानवर या जंगली तो कह सकते हैं, पर आदमी नहीं।

कबीर को इसी जंगल में आदमी की तलाश थी, वे जंगलपन के खिलाफ लड़ रहे थे, आज भी  लड़ रहे हैं। कबीर ने कहा, सारा ज्ञान ढाई आखर में है। यह किताबें पढ़कर नहीं समझ में आयेगा, योग करने से भी नहीं समझ में आयेगा, इसके लिए खुद को मिटाना पड़ेगा। प्रेम गली अति सांकरी जामें दो न समाहिं। प्रेम तभी कर सकोगे, जब हरि के लिए खुद को मिटा दो। तुम बने रहोगे तो हरि नहीं होगा और हरि होगा तो तुम्हारा बने रहना संभव नहीं है। यह हरि ही जल सरीखा है। भीतर भी, बाहर भी। प्रेम कर नहीं पाते हो क्योंकि तुम्हारी समझ में आता ही नहीं कि तुम्हारे भीतर, कुंभ में जो जल है, बाहर भी वही जल है। बस कुंभ को फोड़ देना है, आत्ममोह, आत्मरति और अपने लिए खुद के होने से मुक्त हो जाना है। तभी सच में दूसरों की पीड़ा समझने की सामर्थ्य जन्मेगी, तभी दूसरों का दुख समझ में आयेगा, तभी अन्याय, दमन, अत्याचार के अर्थ भी खुलेंगे और उनके प्रतिकार का भाव पैदा होगा। यही दूसरों के लिए जीना है, यही मनुष्य होना है। केवल अपने लिए तो कीड़े-मकोड़े भी जी लेते हैं, अगर कोई मनुज भी ऐसा ही करता है तो वह कीचड़ में बिलबिलाते कीड़ों से बेहतर जिंदगी कहां जी रहा है।

दूसरों के लिए जीना ही प्रेम है, दूसरों के लिए मिट जाना ही ढाई आखर की समझ है। पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ, पंड़ित भया न कोय, ढाई आखर प्रेम का पढ़ै सो पंडित होय। जिसने दुनिया भर का दर्शन पढ़ लिया, मोटे-मोटे ग्रंथ रट लिये, अच्छा प्रवचन करना सीख लिया, वही पंडित है, यह समझ थोथी है। जिसने प्रेम का अर्थ जान लिया, प्रेम करना सीख लिया, जिसे ढाई अक्षर की समझ आ गयी, वह पंडित है। कबीर को समझना इसी प्रेम को समझना है। प्रेम का उनसे बड़ा मर्मज्ञ कोई और नहीं दिखता। वे लोगों को ललकारते हैं, डांटते-डपटते हैं तो केवल इसीलिए कि वे शर्म से ही सही अपने भीतर झांके तो सही। शायद अपने ही अनेक चेहरे एक साथ देख सकें। कबीर को इसमें कितनी सफलता मिली, इसका मूल्यांकन होता रहा है, आगे भी होता रहेगा लेकिन इतना सच तो कोई भी अस्वीकार नहीं कर सकता कि वे जिंदा हैं, उनका प्रेम भी जिंदा है।         

रविवार, 29 मई 2011

मलिन मीडिया में संजीवनी जैसे सहाय साहब

 निरंजन परिहार की कलम से
अम्बिकानंद सहाय
प्रभु चावला, वीर संघवी, बरखा दत्त और ऐसे ही कुछ और दलाल दोषित हो चुके दोहरे चेहरों की वजह से मीडिया की छवि भले मलीन हुई हो। लेकिन इस घनघोर और घटाटोप परिदृश्य में अंबिकानंद सहाय नाम का  एक आदमी ऐसा भी निकला, जो मलीन होते मीडिया की भीड़ में हम सबके बीच रहते हुए भी बहुत अलग और बाकियों से आज कई गुना ज्यादा ऊंचा खड़ा दिखाई दे रहा है। प्रभु चावला मीडिया में अपने आपको बहुत तुर्रमखां के रूप में पेश करते नहीं थकते थे। लेकिन रसूखदार, रंगीन और रसीले अमरसिंह के उनके सामने गें-गैं, फैं-फैं करते, लाचार, बेबस और दीन-हीन स्वरूप में करीब-करीब पूंछ हिलाते हुए नजर आते हैं। अमरसिंह धमकाते हैं, और प्रभु चावला अमरसिंह से करबद्ध स्वरूप में दंडवत होकर माफ करने की प्रार्थना करते नजर आते हैं। वही अमर सिंह अपने इन्हीं टेप में सहारा समय के तत्कालीन मुखिया अंबिकानंद सहाय और सुधीर कुमार श्रीवास्तव के नाम पर खुद को बेबस और लाचार महसूस करते नजर आते हैं। वह भी उन दिनों जब अमर सिंह की सहारा परिवीर में तूती बोलती थी।

हर सुबह मीडिया के किसी आदमी के दलाल हो जाने की खबरों के माहौल बीच यह एक बेहद अच्छी और सुकून भरी खबर है। यह साफ लगता है कि माहौल भले ही ऐसा बन गया हो कि मीडिया सिर्फ दलालों की मंड़ी बन कर रह गया है। लेकिन अंबिकानंद सहाय के रूप में दूर कहीं कोई एक मशाल अब भी जल रही है, जिसे मीडिया में मर्दानगी की बाकी बची मिसाल के तौर पर पेश किया जा सकता है।
अमर सिंह के टेप से टपकती बातों और नीरा राडिया के नजरानों के राज खुलने के बाद कइयों की भरपूर मट्टी पलीद हुई है। प्रभु चावला, वीर संघवी, बरखा दत्त और ऐसे ही कुछ और नाम इसके सबसे बड़े सबूत हैं। इन टेप के सार्वजनिक हो जाने के बाद अमरसिंह और राड़िया ने मीड़िया की इन मरी हुई ‘महान’ आत्माओं को सबके सामने नंगा करके खड़ा होने को मजबूर कर दिया है। लेकिन कोई जब औरों को नंगा करता है, तो उसके अपने शरीर पर भी कपड़े कहां बचे रहते हैं ! इसीलिए प्रभु चावला को गिड़गिड़ाने पर मजबूर करनेवाले और रजत शर्मा को अपना बुलडॉग कहनेवाले अमरसिंह सहारा समय के तत्कालीन मुखिया अंबिकानंद सहाय और सुधीर कुमार श्रीवास्तव के बारे में बात करते हुए खुद लाचारी और बेबसी के साथ हांफते हुए नजर आते हैं।

अंबिकानंद सहाय की पत्रकारीय क्षमताओं और सुधीर कुमार श्रीवास्तव की प्रबंधकीय ताकत का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि सहारा समय के ये दोनों कर्ताधर्ता अमरसिंह के सामने बिल्कुल नहीं झुके। वह भी ऐसे में जब अमरसिंह सहारा इंडिया परिवार के डायरेक्टर हुआ करते थे।
आज की तारीख में तो अंबिकानंद सहाय संभवतया एकमात्र ऐसे पत्रकार हैं, जिनके बारे में बात करते हुए अमर सिंह अपने ही टेप में मान रहे हैं कि ‘सहाय साहब’ को मैनेज नहीं किया जा सकता। पूरी बातचीत में यह संकेत साफ है कि सहारा समय के संचालन और खबरों के सहित अपने कामकाज के मामले में अंबिकानंद सहाय अपनी कंपनी के डायरेक्टर अमर सिंह को किसी भी तरह के हस्तक्षेप की कोई इजाजत नहीं दे रहे थे। अंबिकानंद सहाय ने कभी भी अमरसिंह को कतई नहीं गांठा। अमरसिंह सहारा मीडिया में अपनी एक ना चल पाने की वजह से कितने परेशान थे, इसका अंदाज इसी से लगाया जा सकता है कि सबके सामने सहाय साहब कहनेवाले अमरसिंह शिकायती लहजे में अभिजीत सरकार के साथ बातचीत में झुझलाहट में अंबिका सहाय कहकर अपनी भड़ास निकालते नजर आते हैं। जबकि सभी जानते हैं कि सहारा इंडिया परिवार के मुखिया सहाराश्री सुब्रता रॉय सहारा तक अंबिकानंद सहाय को सम्मान के साथ अकेले में भी सहाय साहब कहकर बुलाते हैं।

बाद में तो खैर, यह विवाद बहुत आगे बढ़ गया। अमरसिंह खुद इस टेप में कह रहे हैं कि अगर हमारी इतनी भी नहीं चलती है तो, मैंने तो चिट्ठी भेज दी है और अब मैं रहूंगा भी नहीं। इस पूरे वाकये के अपन चश्मदीद हैं। अपन अच्छी तरह जानते है कि, सहाय साहब ने सहारा से अचानक अपने आपको अलग कर लिया। क्योंकि वे नहीं चाहते थे कि सहाराश्री और अमरसिंह के साथ संबंधों में खराबी की वजह उनको नहीं माना जाएं। वैसे संबंधों के समीकरण का भी अपनी अलग संसार हुआ करता है। सहारा मीडिया के मुखिया से हटने के बाद भी अंबिकानंद सहाय आज भी सहाराश्री के बहुत अंतरंग लोगों में हैं। और अमरसिंह की आज सहारा परिवार में क्या औकात हैं, यह पूरी दुनिया को पता है।
सहाय साहब, आपको हजारों हजार सलाम। इसलिए कि आप दलालों के सामने कतई झुके नहीं। लेकिन मीडिया की मंडी में अंबिकानंद सहाय जैसे और कितने लोग हैं, उनको भी ढूंढ़ – ढूंढकर सामने लाने की जरूरत है। ताकि यह साबित किया जा सके कि मीडिया में अब भी मजबूत लोगों की एक पूरी पीढ़ी मौजूद है। वरना प्रभु चावला, वीर संघवी, बरखा दत्त और ऐसे ही कुछ और दलाल साबित हो चुके लोगों ने तो मीडिया की इज्जत का दिवाला निकाल ही दिया है। बात गलत तो नहीं?

पेश है सहाराश्री सुब्रत राय के करीबी रिश्तेदार अभिजीत सरकार से फोन पर हुई अमर सिंह की शिकायती बातचीत के अंश.....

अभिजीत---हलो..
अमर सिंह—हां अभिजीत..
अभिजीत—जी जी जी सर, सर...
अमर सिंह—वो असल में ...वो दूसरे लाइन पर कोई आ गया था। (ये सब कहते हुए अमर सिंह जोर जोर से हांफ रहे हैं)
अभिजीत—जी सर जी सर
अमर सिंह---हां क्या पूछ रहे थे तुम
अभिजीत—मैं बोल रहा था, कोई प्रॉब्लम हो गया था क्या शैलेन्द्र वगैरह के साथ
अमर सिंह—नहीं शैलेन्द्र वगैरह से ज्यादा प्रॉब्लम अंबिका (नंद) सहाय के साथ है और सुधीर श्रीवास्तव के साथ है।
अभिजीत—क्या हुआ है सर
अमर सिंह--- प्रोब्लम ही प्रोब्लम है। बात ये है कि कोई ......नहीं है। मने कोई कुछ भी करना चाहे करे, उसमें हमें कोई आपत्ति नहीं है। लेकिन, अगर दादा ने बोला है तो ये लोग कुछ भी करें बता दें। हमारी जानकारी में रहे।
अभिजीत--- डू यू वॉण्ट मी टू इनिसिएट समथिंग।
अमर सिंह—नहीं नहीं कुछ नहीं। मैंने तो चिट्ठी भेज दी कि मैं रहूंगा नहीं इसमें और मैं रहने वाला भी नहीं हूं। इनिसिएशन क्या करना है।
अभिजीत—नहीं, फिर उनलोग को बोलें जा के कि आपसे मिलें और क्या।
अमर सिंह--- नहीं नहीं मुझे जरूरत नहीं है। हलो।
अभिजीत—जी सर।
अमर सिंह—मेरा काम तो चल जाएगा।
अभिजीत—नहीं, आपका तो चल ही जाएगा सर। उनलोगों को तो मिलना चाहिए न। दे शुड पे रेस्पेक्ट टू यू न सर।

अमर सिंह—नहीं नहीं, वो नहीं करेंगे। अंबिका (नंद) सहाय वगैरह नहीं करेंगे। उनकी ज्यादा जरूरत है परिवार (सहारा परिवार) को।


रविवार, 22 मई 2011

अविश्वास के साये में

कभी-कभी सोचता हूं क्या कुछ लोग ऐसे मिल सकते हैं, जिन पर भरोसा कर सकूं, पूरा भरोसा कि वे जो कह रहे हैं, वैसा कर दिखायेंगे, कि वे विश्वास पर खरा न उतरने की जगह मिट जाना पसंद करेंगे, कि वे कभी अविश्वास का कोई मौका नहीं आने देंगे, कि वे ऐसी किसी भी परीक्षा में धैर्य नहीं खोयेंगे और अंतिम दम तक लड़ेंगे अपनी पहचान के लिए, अपने वादे के लिए, अपने संकल्प के लिए। कई बार यह सवाल मैं खुद से भी करता हूं कि क्या मैं स्वयं ऐसा हो पाया हूं, क्या मैं दूसरों के विश्वास पर खरा उतरने लायक बन सका हूं, क्या मुझमें इतना दम है कि मैं लड़ सकूं दूसरों के विश्वास को सच साबित करने के लिए? इन सवालों के उत्तर दे पाना इतना आसान नहीं है।

विश्वास का संकट इस सदी के सबसे बड़े संकट के रूप में उभरा है। लालच ने आदमी को धूर्त और पाखंडी बना दिया है। अक्सर लोग दूसरों के सामने पहेलियों की तरह प्रस्तुत होते हैं। बूझ सको तो बूझ। जिसकी वाणी से मानस के उपदेश झर रहे हों, मर्यादा और मानवता के मंत्रों से जिसके शब्द दीप्त लगते हों, जो रावणी ताकतों के विनाश का संकल्प घोष कर रहा हो, जरूरी नहीं कि वह अपने असली रूप में वैसा ही हो। हो सकता है कि इस तरह वह अपने विरोधियों की पहचान करने की कोशिश कर रहा हो, ताकि उनसे सजग रह सके, बच सके। हो सकता है, इस तरह वह मनुष्यता के समर्थक, उसे धारण करने वालों से छल कर उनका इस्तेमाल करना चाह रहा हो, उनका शोषण करने को उद्यत हो। किसी आदमी के भाल पर टंगे त्रिपुंड, जिह्वा से निसृत होते परमार्थ छंद और शरीर पर धवल वस्त्रों की सादगी से यह समझना भूल होगी कि  वह समाज का, देश का भला करना चाहता है, वह धोखा नहीं देगा या वह ठग नहीं होगा। हाल के कुछ महीनों में सवा अरब जनता को ठगने वाले कुछ बड़े वंचक लोगों के सामने आये हैं, सबने देखा कि वे अपने हाव-भाव से, अपनी वेश-भूषा से, अपने बात-व्यवहार से कितने महान तपस्वी दिख रहे थे लेकिन अपने कर्म से कितने छली, कितने थेथर, कितने उचक्के-बदमाश।

कबीर ने अपने जमाने में ऐसे लोगों की जमकर धज्जियां उड़ायी, अति समर्थ ढोंगियों के चेहरे से नकाब खींचने में तनिक संकोच नहीं किया, शक्तिशाली साम्प्रदायिक रुढ़ियों और प्रवंचनाओं को भी अपने मजबूत, सतर्क और कठोर प्रहार से ढहा देने की कोशिश की पर जब वे नहीं रहे तो उन्हीं के नाम पर वही सब होने लगा, जिसका उन्होंने जीवन भर विरोध किया। कबीर आज भी वैसे ही चमकते दिखायी पड़ते हैं,वैसे ही बोलते, चीखते नजर आते हैं पर कौन सुनता है। सैकड़ों वर्षों से जिन लोगों को वे ललकारते रहे हैं, आज वही लोग बिना खुद को बदले उनकी आवाज में आवाज मिला रहे हैं। क्या करें कबीर? अक्सर आप भी देखते होंगे, बेईमान और भ्रष्ट नेताओं को जनता के सामने अपने प्रवचनों में दुष्यंत के चमकदार शेर उछालते हुए। सिर्फ हंगामा ख़ड़ा करना मेरा मकसद नही, मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए या कौन कहता है कि आसमां में सूराख हो नहीं सकता, एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारों या इसी तरह का कुछ और। वे थोड़ी देर के लिए अपने मरे और सड़ते हुए इरादों को बदलाव की चमकीली गूंज से ढंक लेना चाहते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि उनका अपना चेहरा विश्वसनीय नहीं है, गंदा है, उसके पहचाने जाने का डर है। कभी-कभी यह ओढ़ी हुई चमक भी काम आ जाती है। 

ध्यान से देखें तो बुरा और बेईमान भी भला, नेक और ईमानदार दिखना चाहता है। इसलिए कि अभी भी जनता ऐसे चेहरे पसंद करती है। आमतौर पर कोई भी आदमी सही रास्ता छोड़ना नहीं चाहता, जब तक कोई बड़ी मजबूरी न हो। घटिया तरीकों से समाज में समर्थ हैसियत बना चुके लोग और गिनती के लोगों के स्वार्थसाधन में जुटी व्यवस्था आमजन को मजबूर करती है, बेईमान बनाती है। और एक बार इसका लाभ मिल गया तो लोभ बढ़ता जाता है। आदमी भटकता है और फिर भ्रष्टाचार के गहरे दलदल में डूबता चला जाता है। विश्वास अब भी अमूल्य है। आप अगर लोगों को इस बात का विश्वास दिला सकें कि आप भरोसे लायक हैं, तो आप अकेले नहीं होंगे। अपने-आप कारवां बनता जायेगा। परंतु यह एक दिन का काम नहीं है, यह लंबी लड़ाई है, इसमें बार-बार परीक्षाएं देनी पड़ सकती हैं, संदेह की सूली पर चढ़ना पड़ सकता है। आप में धैर्य होगा, साहस होगा, ऊर्जा होगी, सहज और सकारात्मक सोच होगी तो कामयाबी जरूर मिलेगी। देश के, समाज के, साथियों के भरोसे पर खरे उतरने के लिए अग्निपरीक्षाएं तो देनी ही पड़ेंगी। कोई ममता सहज ही नहीं पैदा होती, कोई बदलाव आसानी से नहीं आता। पहले विश्वास दिलाना होता है, खुद को मिटाना होता है तब लोग आप के लिए मिटने को तैयार होते हैं।           

सोमवार, 16 मई 2011

भविष्य की भाषा

  हिंदी का भाषा के रूप में भविष्य क्या है? कहीं कुछ दशकों में यह केवल कुलीन लेखकों और साहित्यकारों की भाषा भर तो नहीं रह जायेगी? यह सवाल इसलिए भी प्रासंगिक हो गया है कि इंटरनेट के तीव्र प्रसार और अंग्रेजी के बिना रोजगार न मिलने की लाचारी के चलते धीरे-धीरे हमारे बीच एक ऐसे समुदाय का जन्म हो रहा है, जो न ठीक से हिंदी बोल पाता है, न ही अंग्रेजी। वह अंग्रेजियत का दीवाना तो है पर उसे अंग्रेजी आती नहीं। पिछले कुछ दशकों से बच्चों में अंग्रेजी स्कूलों का आकर्षण तेजी से बढ़ा है। उन लोगों की संख्या भी तेजी से बढ़ी है, जो अपने बच्चों के सुखद भविष्य के लिए उन्हें अंग्रेजी की कैद में डाल कर घर के भीतर और कई बार घर के बाहर भी हाऊ आर यू, वेल डन, बाय-बाय, गुडनाइट और गुड मार्निंग बोलने में अपना मस्तक ऊंचा हुआ सा देख रहे हैं।

दरअसल हम एक ऐसे अहमन्य और दिखावापरस्त समाज में रह रहे हैं, जहां अपनी भाषा, अपनी संस्कृति पर गर्व करना बेवकूफी समझा जाने लगा है। अंग्रेजी नहीं आती लेकिन ड्राइंग रूम में एक अंग्रेजी अखबार या पत्रिका पड़ी रहनी चाहिए। घर में दोनों वक्त भर पेट खाने का इंतजाम भले न हो, बच्चों की फीस भरने के लिए पैसा भले न हो, रोज पेट्रोल खरीदने की औकात भले न हो, लेकिन लोग बैंक से कर्ज लेकर एक चौपहिया खड़ी करने में पीछे नहीं रहते। वह रोज घर से बाहर निकालकर पानी में नहलायी जायेगी और फिर भीतर खड़ी कर दी जायेगी। बर्थडे, पार्टी में शान दिखाना और नामचीन लोगों के साथ बैठकर दारू उड़ाना भी इसी दिखावे के हिस्से हैं।

मध्यवर्गीय  समाज को यह रोग घुन की तरह लग चुका है। यही लोग हैं जो लंगड़ी अंग्रेजी बोलकर अपना रुतबा जताने में भी पीछे नहीं रहते। एबीसीडी और कखगघ की मिक्स चटनी इनकी जुबान पर अकसर देखी जा सकती है। यह धीरे-धीरे फैशन और दिखावे के साथ ही एक मजबूरी भी बनती जा रही है। मजाक-मजाक में ही इन लोगों ने आपसी संवाद की एक नयी भाषा गढ़नी शुरू कर दी है। ऐसे लोगों को खुशी होगी कि तंज में ही सही उसे हिंगलिश कहा जाने लगा है। जल्दबाजी में हिंदी मीडिया का एक तबका, जो अपने को शायद भविष्यद्रष्टा मानता है, इस सुचिंतन के वशीभूत हो गया कि अगर वह हिंगलिश का प्रयोग करता है तो मिश्रित भाषा के प्रयोग की तरफ बढ़ रहे युवा और उनके अभिभावक उन्हें हाथों-हाथ लेंगे। इस तरह के हिंगलिशवादियों को यद्यपि कामयाबी नहीं मिली लेकिन इससे यह निष्कर्ष नहीं निकाला जाना चाहिए कि लोग  भाषा में मिलावट के खिलाफ खड़े हो सकते हैं।

संचार के नये साधनों के प्रसार और समय के अभाव के चलते मोबाइल, मेल और इंटरनेट पर संवाद का एक नया माध्यम विकसित हो रहा है, जिसमें प्रयुक्त होने वाले शब्द या वर्ण उच्चारण में तो मूल शब्दों की ध्वनि देते हैं परंतु अपनी संक्षिप्ति के कारण भिन्न वर्तनी में प्रस्तुत होते हैं। यू के लिए वाई ओ यू की जगह सिर्फ यू या सी के लिए एस ई ई की जगह सिर्फ सी। इंटरनेट ने बेशक ज्ञान-विज्ञान के नये दरवाजे खोले हैं लेकिन वह दुनिया भर कें महान कचरा चिंतन का डंपिंग ग्राउंड भी बन गया है। ऐसे में जो लोग साहित्य, संस्कृति और रचनात्मक अनुशासनों से संबंधित सामग्री के लिए इंटरनेट से उम्मीद लगाये बैठे  हैं, वे निराश हो रहे होंगे।

आदमी की रफ्तार जैसै-जैसे तेज होगी, संवाद और संचार के और कारगर, तीव्र माध्यम ईजाद होंगे। जाहिर है इन माध्यमों की भाषा अंग्रेजी होगी और जिनमें इस होड़ में बने रहने की लालसा होगी, वे अंग्रेजी का सहारा लेने को विवश होंगे। ऐसे में 50 साल बाद जब लंदन, न्यूयार्क, मास्को, बीजिंग या टोकियो जाना हमारे लिए दिल्ली के एक छोर से दूसरे छोर तक जाने जैसा होगा, दुनिया बहुत छोटी हो जायेगी, अलग-अलग भाषाभाषियों के बीच बातचीत की जरूरत और बढ़ेगी, तब अंग्रेजी के साथ विभिन्न भाषाओं के शब्द मिश्रित होते जायेंगे और अंग्रेजी के शब्द अपनी मूल वर्तनी से कटकर अपने संक्षिप्त और इंटरनेटी रूप में प्रयोग होने लगेंगे। भविष्य में शायद ऐसी ही कोई एक भाषा दुनिया भर में व्यापक संवाद का माध्यम बने। यह तकनीकी ज्ञान-विज्ञान की भाषा होगी।

चूंकि धन, संपदा, ऐश्वर्य और बड़ी-बड़ी नौकरियों की संभावनाएं तकनीकी क्षेत्रों में ही दिख रही हैं और लंबे समय से अंग्रेजी भौतिक विज्ञानों की भाषा रही है, इसलिए यही नयी भाषा सारी दुनिया को जोड़ने में कारगर होगी। नहीं कहा जा सकता कि गैर-आंग्ल भाषाओं में तब साहित्य और चिंतन के लिए कितना अवकाश होगा और भविष्य के विश्व समाज के लिए इसकी कितनी जरूरत होगी लेकिन इतना तो साफ है कि कला, भाषा, संस्कृति और साहित्य पर संकट कुछ ज्यादा ही होगा।       

रविवार, 8 मई 2011

समय की शिला पर

  समय की शिला पर मधुर चित्र कितने, किसी ने बनाये, किसी ने बिगाड़े। कवि और चिंतक कई तरह से समय की सत्ता को समझते रहे हैं, उसे व्याख्यायित करते रहे हैं। समय एक अखंड और अनंत सत्ता है। इसका आरंभ कल्पनातीत है। पृथ्वी के भीतर खोजा-अनखोजा जितना इतिहास दबा हुआ है, उसका बहुत कम हिस्सा हम जान सके हैं। पृथ्वी पर जीवन के प्रादुर्भाव की कहानी करोड़ों वर्ष पुरानी है। जीवन उगने से पहले भी पृथ्वी रही होगी। एक ग्रह के रूप में पृथ्वी के उत्पन्न होने से पहले भी अनेक ग्रह, तारे रहे होंगे। इनमें से सबसे प्राचीन भी अगर खोज लिया जाय तो भी यह नहीं कहा जा सकता कि सुदूर अतीत में वह समय का प्रस्थान बिंदु है। ब्रह्मांड के भीतर पहली घटना अगर स्वयं ब्रह्मांड के उत्पन्न होने को ही मान लिया जाय तो भी अतीत में समय का कोई छोर पक़ ड़ पाना संभव नहीं होगा क्योंकि हमारे ब्रह्मांड से बाहर इससे भी पुराने अनेक  ब्रह्मांडों का पता लगाया जा चुका है। इनमें से कोई सबसे पुराना है, यह घोषणा कर पाना विज्ञान के वश में नहीं है क्योंकि किसी भी क्षण विशाल अंतरिक्ष में और गहराई तक देखने की कियी नयी तकनीक के आविष्कार की संभावना बनी हुई है, इसलिए इस बात की संभावना कभी खत्म नहीं होगी कि कल कोई और नया तारामंडल या ब्रह्मांड खोज लिया जाय। ऐसी हर खोज के बाद समय में और भी पीछे जाने की संभावना बनी रहेगी।

अगर कल्पना से समय के आरंभ के छोर को पकड़ने की कोशिश करें तो वह पकड़ में आकर भी शायद पकड़ में नहीं होगा। स्मृति भी इतिहास, पुरातत्व से होकर मिथकीय कल्पनाओं में खो जाती है। उससे आगे कोई रास्ता नहीं मिलता, कोई ऐसी मजबूत डोर नहीं होती, जिसे थामकर अतीत के गहन गह्वर में उतरा जाय। इसी तरह भविष्य के बारे में भी कहा जा सकता है। समूची भौतिक-अभौतिक सत्ता विनष्ट हो जाने पर भी भविष्य अशेंष नहीं होगा। जब कुछ नहीं होगा, तब भी उस कुछ नहीं से कुछ या बहुत कुछ के प्रकट होने की संभावना बची रहेगी। आधुनिक विज्ञान जो तर्क ब्रह्मांड के पैदा होने के बारे में देता है, अगर वह सही है तो नथिंगनेस पूरी तरह निष्क्रिय शून्य नहीं है, वहां भी गुरुत्व है। जैसे असित छिद्र, ब्लैकहोल के प्रबल आकर्षण से खिंचकर उसमें असंख्य तारे समाते रहते हैं, उसी तरह नथिंगनेस से भी असंख्य तारों, ब्रह्मांडों के पैदा होने की संभावना बनी रहती है। हर संभावना भविष्य की रचना करती है, समय में आगे कभी, कुछ भी घटित होने का अवकाश रचती है। इस तरह भविष्य में भी समय का कोई तट देख पाना नामुमकिन है।

अगर कहें कि समय ब्रह्मांड की ही तरह प्रकाश की गति से लगातार फैल रहा है तो भी समय के ओर-छोर को छू पाना तभी संभव हो सकेगा, जब हम प्रकाश की गति से यानि तीन लाख किलोमीटर प्रति सेकेंड की गति से उड़ने की सामर्थ्य हासिल कर लें। अगर आदमी ऐसा कर पाया तो वह समय से तेज भी उड़ने की सोच सकता है। तो शायद वह समय के बाहर घटित होती कुछ अकल्पनीय घटनाओं से रू-ब-रू हो सके या फिर समय के आरंभ पर जाकर खड़ा हो सके। अभी यह बातें कल्पनातिरेक के अलावा कुछ और नहीं लगतीं पर विज्ञान इस दिशा में काम कर रहा है। एक रचनाकार समय को स्मृति के गत्यात्मक विकास के रूप में देखता है। वह विज्ञान की तरह किसी नयी भौतिक प्रमेय को हल करने में यकीन नहीं करता बल्कि अतीत से संश्लिष्ट वर्तमान को  अपनी कल्पना से सजाने-संवारने का प्रयास करता है। वह अतीत की समीक्षा करता है, वर्तमान में पड़े उसके अपशिष्ट को हटाकर एक ऐसे नूतन भविष्य की ओर देखता है, जिसमें अतीत और वर्तमान के सकारात्मक संस्कारों के साथ उसके आदर्श भी झिलमिला रहे हों।

इस प्रक्रिया में वह वर्तमान के अस्वीकार्य हिस्सों को दर्ज करता है और अपनी स्वीकृतियों से उन्हें विस्थापित करने की कोशिश करता है। वह न अतीतजीवी होकर रहना चाहता है, न स्वप्नजीवी। वह ऐसे सपने रचना चाहता है, जो सच हो सकें। कई बार इस तरह वह अनायास भविष्य में झांकने की कोशिश भी करता है और कई बार वह भविष्य को शब्दों और रेखाओं में हू-ब-हू दर्ज करने में भी कामयाब हो जाता है। इन्हीं अर्थों में साहित्य कई बार अनायास विज्ञान का मार्गदर्शक बन कर खड़ा हो जाता है। सबने देखा है, कल की फंतासियों को सच होते हुए। आज की फंतासियां भी कल सच हो सकती हैं। यह अनायास नहीं है कि विज्ञान भी कल्पना के पंखों पर उड़कर ही अपने असल पंख विकसित करता रहा है। वह पहले एक परिकल्पना रचता है और फिर उसे सच करने में जुट जाता है। कई बार प्रकृति के स्फुलिंग उसे रास्ता देते हैं तो कई बार मिथ और साहित्य। इस मायने  में साहित्य और विज्ञान दोनों ही जीवन को बेहतर बनाने की प्रक्रिया में एक दूसरे के पूरक हैं, विरोधी नहीं।         

मंगलवार, 3 मई 2011

क्या सचमुच भय से प्रीति होती है?

  कभी-कभी मुझे डर लगता है, आप को भी लगता होगा, शायद सबको लगता होगा। कई बार मैं कई वजहों से डरता हूं, लेकिन इस पर सोचता नहीं, कई बार सोचता हूं मगर बहुत गहराई तक नहीं जा पाता लेकिनं जब डर बहुत गहरा होता है तो उस पर सोचे बगैर नहीं रह पाता। जब समुद्र के सामने विनयावनत भाव में खड़े-खड़े राम को कई दिन बीत गये और समुद्र ने उनकी याचना पर ध्यान नहीं दिया तो उन्हें उसकी अहमन्यता पर क्रोध आया। तुलसीदास ने लिखा कि राम ने छोटे भाई से कहा, अब वाण उठाओ और इसे सुखा दो, क्योंकि बिना भय के प्रीति नहीं होती है। बिनु भय होहि न प्रीति।

क्या सचमुच भय से प्रीति होती है? मुझे महाकवि की इस स्थापना पर थोड़ा शक है। भय हो सकता है तात्कालिक दृष्टि से उपयोगी साबित हो और कोई रुका हुआ काम बन जाय परंतु उसका समग्र परिणाम तो प्रतिक्रिया के रूप में ही सामने आयेगा। किसी को भयग्रस्त करके भय पैदा करने वाला सुरक्षित नहीं रह सकता। सहज ही हर प्राणी भय से मुक्त होना चाहता है। वह जानवर हो या आदमी अगर किसी कारण उसे भय है तो वह भय को खत्म करने के लिए उसके कारण को ही नष्ट करना चाहेगा। यह बिल्कुल सही नहीं है कि भयग्रस्तता व्यक्ति को भय के कारण के प्रति प्रीति या राग पैदा करेगी।

कई बार आदमी अपने डर का कारण स्वयं होता है। हालांकि उसे इसका पता नहीं होता। किसी ने बहुत ज्यादा धन-वैभव के साधन संचित कर लिये तो उसे चोरों से भय लगा रहता है, किसी ने अवैध ढंग से अपने अधिकार से परे जाकर अपने आस-पास ऐश्वर्य की चमक पैदा कर ली तो उसे कानून का डर लगा रहता है। जिसके पास भी खोने के लिए कुछ है, उसे कभी न कभी डर जरूर घेरता है। जो पाना चाहता है, वह भी भयग्रस्त रहता है। उसे डर रहता है कि कहीं वह उससे वंचित न कर दिया जाये, जो वह पाना चाहता है। सहजता निर्भय होने में है लेकिन निर्भय होने के लिए एक कठिन शर्त पूरी करनी पड़ती है।

आप में कुछ पाने की चाह न हो तो आप के पास कुछ खोने के लिए भी नहीं बचता है। किसी संत कवि ने कहा है कि चाह गयी, चिंता मिटी मनुआ बेपरवाह, जिनको कछू न चाहिए, वो साहन के साह। सारा संकट चाह का है, इच्छाओं का है। अपने लिए इच्छाएं हैं तो डर भी बना रहेगा। फिर रास्ता क्या है? या तो इच्छाओं से मुक्ति पा ली जाय या फिर स्वार्थ का सामाजिक विस्तार कर लिया जाय। अपने पास जो है, वह अपने ही लिए नहीं है। अपनी जरूरत के बाद जो बचा हुआ है, उस पर दूसरों का हक बनता है। अगर उससे दूसरे जरूरतमंदों की मदद हो सकती है, उनकी पीड़ा कम हो सकती है, उनकी भूख मिट सकती है तो इसमें क्या बुराई है, इसमें जाता क्या है। जो मिला था, वह समाज से ही मिला था, अगर वह समाज के लिए खर्च हो गया तो परेशानी क्या। पर ऐसा लोग सोचते कहां हैं?

आवश्यकता  का तर्क बड़ा अजीब है। आज की, कल की, परसों की, बरसों की या जीवन भर की, कई पीढ़ियों की आवश्यकता का तर्क आदमी को संग्रह की दुर्दम्य लालसा तक ले जाता है। और यही संग्रह उसके भीतर भय के बीज रोपता है। एक साधु अपने शिष्य के साथ रात में जगल पार कर रहा था। कुछ भीतर जाने के बाद उसने अपने चेले से कहा, रात बहुत गहरी है, डर लग रहा है। चेले ने कहा, गुरुवर चलें डरने की जरूरत नहीं है। गुरुवर का झोला चेले के कं धे पर टंगा था। कुछ और दूरी तय करने के बाद गुरु ने फिर अपना डर जाहिर किया। चेले को शक हुआ। उसने झोला देखा तो उसमें अशर्फियां पड़ी हुई थीं। उसने झोला जंगल के एक घने कोने में फेंक दिया। कुछ और आगे बढ़ने पर जब गुरुवर ने फिर अपना भय जाहिर किया तो चेले ने कहा, गुरुदेव अब निर्भय होकर आगे बढ़ें, डर को मैंने पीछे फेंक दिया है। गुरु ने देखा चेले के कंधे पर झोला नहीं था. वे एक मिनट के लिए ठिठके लेकिन भीतर झांककर देखा तो वहां डर नहीं था।

जो अपने लिए नहीं जीता है, जिसके संकल्प समाज की बेहतरी के लिए होते हैं, जिसकी समूची सक्रियता समाज के लिए होती है, जो अपने खोने-पाने का मूल्यांकन समाज के लाभ-हानि के नजरिये से करता है, उसे कभी डर नहीं लगता, वह कभी मोहग्रस्त नहीं होता, वह कभी संशय में नहीं रहता। निर्भय होने का एकमात्र रास्ता है, अपना समूची शक्ति, सम्पूर्ण ऊर्जा, सारा वैभव, रचनात्मकता समाज के लिए होम कर दें, उसकी बेहतरी के लिए लगा दें। यह कठिन है, पर जो सर्जक हैं, जो रचनाशील हैं, उनकी ताकत इसी आचरण में छिपी है। करके तो देखें।           

सोमवार, 18 अप्रैल 2011

शब्दों के आगे


 मित्रों ८ अक्टूबर २०१० के बाद अपने ब्लाग पर यह मेरी पहली उपस्थिति है. हिन्दी दैनिक जन सन्देश टाइम्स के संपादक के रूप में लखनऊ आ जाने के बाद व्यस्तता काफी बढ़ जाने से ब्लॉग पर नहीं आ सका. यह पिछले रविवार के साहित्य परिशिष्ट के लिए लिखा गया सम्पादकीय है, जो यथावत आप के सामने प्रस्तुत है. आशा है आप इस विचार प्रवाह को आगे बढ़ाएंगे. 
 
नहीं लगता कि कलाकारों और रचनाकारों में अब इस बात पर कोई विवाद है कि कला जीवन के लिए होनी चाहिए. आनंद उसका एक मूल्य हो सकता है पर केवल आनंद ही उसका अंतिम मूल्य है, यह स्वीकार करने योग्य बात नहीं है. कोई भी रचना मनुष्य का, उसके जीवन क़ा, उससे रू-ब-रू परिस्थितियों क़ा विश्लेषण करती है और यथार्थ के साथ रचनाकार के आदर्श और उसकी कल्पना क़ा एक संसार रचती है. समाज और जीवन में ऐसा बहुत कुछ होता है, जो अन्यायपूर्ण, अमानवीय और अवांछित होता है. एक सच्चा रचनाकार इसे स्वीकार नहीं कर पाता, वह उस ढांचे को तोड़ना चाहता है, जिसके कारण इस तरह की सामाजिक विसंगतियां पैदा होती हैं. इसी प्रक्रिया में वह अपनी कल्पना के एक ऐसे समाज क़ा, एक ऐसे ढांचे क़ा निर्माण भी करता है, जो इन असंगत और मनुष्यविरोधी परिस्थितियों से मुक्त हो. वह आदमी की पीड़ा से उसे मुक्त करना चाहता है. ऐसे में निरंतर वह ऐसी संभाव्य परिस्थितियों और मूल्यों की तलाश करता रहता है, जो ज्यादा से ज्यादा मानवीय संसार की रचना कर सकें. इस खोज में वह खुद से लड़ता है, बाहर की दुनिया से भी लड़ता है. हर घटना क़ा, हर बदलाव क़ा गहराई से निरीक्षण करता है. 

 वह नहीं जनता कि  उसकी रचना क़ा समाज कभी सच होगा या नहीं, पर यह संभाव्य असम्भाव्यता उसे अपना काम करने से रोक नहीं पाती. मतलब यह नहीं कि वह किसी आदर्श में या निरी कल्पना में जीता है. वह जानता है कि जो अवांछित है, उसका टूटना जरूरी है. इसलिए कोई  भी बेहतर रचना समाज के संक्रमित, विगलित और सड़े-गले हिस्से पर सांघातिक प्रहार करती है. एक रचना इस काम में जितनी सफल हो पाती है, वही उसकी शक्ति है, उसकी श्रेष्ठता भी. बेशक वह इसके आगे भी जाती है, नवनिर्माण क़ा संकेत भी करती है, पर इस प्रक्रिया में सीधे कोई दखल देने की जगह सामाजिक ताकतों को अपना कम करने देती है.

 कला या रचना केवल विचार नहीं है, नारा या भाषण भी नहीं. अपनी प्रभविष्णुता को बढ़ाने के लिए रचनाकार कला और शिल्प के उपकरणों क़ा इस्तेमाल करता है, कइÊ बार पुराने औजारों की जड़ता या प्रभावहीनता उसे नए शिल्प गढ़ने को भी मजबूर करती है. यह कलात्मकता ही उसे दर्शकों, पाठकों या श्रोताओं के बीच ले जाती है. यह सब कला के सिद्धांत और दर्शन की बातें हैं, अगर आप इन पर बहस कर सकते हैं तो केवल पेट और तिजोरी के खेल में प्राणपण से जुटे लोगों की भीड़ से अलग नजर आ सकते हैं पर क्या आप इस मान-प्रतिष्ठा से संतुष्ट होकर उपदेशक की भूमिका अख्तियार करना चाहेंगे या एक जरूरी सवाल से जूझने क़ा साहस करेंगे. क्या सचमुच आज के समाज में रचना या कला अपनी कोई भूमिका निभा पा रही है, क्या उसका कोई सार्थक हस्तक्षेप कहीं दिखाई पड़ता है?

स्वयं रचनाकारों और आलोचकों में अक्सर इस बात पर मतभेद दिखाई पड़ता रहता है कि कोई कहानी, कोई कविता या कोई रचना श्रेष्ठ है या नहीं. सबके अपने-अपने मानक हैं, अपनी-अपनी चौहद्दियां.जो रचना एक महंत आलोचक की नजर में सर्वश्रेष्ठ हो सकती है, उसे हो सकता है, दूसरा साहित्य पीठाधीश्वर सिरे से खारिज कर दे. रचना अपनी ताकत से लोगों तक पहुंचे, इसका कोई माध्यम नहीं है. जो गिने-चुने श्रेष्ठ परीक्षक समझे जाते हैं, उनकी बातें भी कितनी दूर तक जाती हैं, यह किसी से छिपा नहीं है. जो  लिखते हैं या  रचते हैं और जो उसका मूल्यांकन करते हैं, सारी बातें उ³हीं के बीच रह जाती हैं. जिसे लोक कहा जाता है, वहां तक इनकी पहुँच नहीं के बराबर है। फिर किसी बदलाव में इनकी भूमिका आखिर क्या हो सकती है? यह भी एक  महत्वपूर्ण प्रश्न है कि क्या रचनाकार की जिम्मेदारी रचना के पूर्ण होते ही खत्म हो जाती है  या उसे शब्द से आगे जाकर भौतिक स्तर पर भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराने की जरूरत है? कलाकार और रचनाकार इस सवाल क़ा उत्तर अक्सर नकार में देते हैं और यह कहकर पल्ला झाड़ लेते हैं कि यह  काम तो सामाजिक और राजनीतिक एक्टिविस्ट का है, उनका नहीं. कोई भी रचनाकार हमेशा अपने रचनाकार व्यक्तित्व के साथ जीता रहेगा, ऐसा सोचना गलत होगा. वह औरो की ही तरह समाज की एक इकाई है और अगर वह असामाजिक नहीं है तो उसे अपने सामाजिक दायित्व के प्रति भी सजग रहना होगा. अपनी रचना के संसार की स्थापना के लिए जूझने क़ा साहस अगर उसमें नहीं है तो यह माना जाना चाहिए कि वह कला और रचना के नाम पर केवल आत्मप्रतिष्ठा के रास्ते पर अग्रसर है। हर सूरत में उसे शब्दों के बाहर की दुनिया में सक्रिय रहना होगा, शब्दों का नेतृत्व करना होगा, उनसे आगे जाना होगा.