शनिवार, 31 जुलाई 2010

एक बात जो समझनी है

जीवन एक कविता की तरह है। उतना ही सुंदर, उतना ही सुरुचिपूर्ण, उतना ही सुष्ठु, उतना ही मधुर। जिस तरह कविता कवि की रचना होती है और वह उसे भावों, शब्दों, अलंकारों से सजा कर प्रस्तुत करता है, उसी तरह जीवन को भी प्रकृति सुंदर से सुंदर बनाकर प्रस्तुत करती है। जिसे केवल जीवन चाहिए, वह इसे सुंदर बनाये रख सकता है, जिसे जीवन के बदले और भी चीजें चाहिए, उसे जीवन के सौदर्य से वंचित होना पड़ता है। रचना अपने आप में ही फल है। किसी कवि ने एक सुंदर कविता रची, यह उसका पारिश्रमिक है। क्यों नहीं सभी लोग कविता रच लेते हैं, किसी के भी शब्द काव्य में बदल जायं, ऐसा कहां होता है? जिसे काव्य सर्जन का वरदान मिला हुआ हो, जिसके कंठ पर सरस्वती बसती हों, उसी के शब्द काव्य में बदलते हैं, वही रचना कर पाता है। इस तरह उपजी कविता का पारिश्रमिक क्या मांगना?

कवि होना अपने आप में महत्तम नहीं है क्या? ऐसा ही जीवन के बारे में भी समझना चाहिए। जो इसे रचता है, वह कभी इससे कुछ नहीं चाहता। पर जिसे यह मिला है, वह रास्ता भटक जाता है। अपनी रचना से रचनाकार का अटूट रिश्ता होता है, वह इससे अलग हो ही नहीं सकता। जीवन का रचनाकार भी जीवन से अलग नहीं रह सकता, अलग रहता भी नहीं, बिल्कुल पास रहता है, जीवन के भीतर ही समाया हुआ रहता है। जिसके पास जीवन है, उसे समझ में आये या नहीं। जो उसकी उपस्थिति समझ लेते हैं, वे भाग्यशाली होते हैं, वे उसकी महानता को भी जान लेते हैं, वे स्वयं में ही उसे महसूस कर पाते हैं। उसके होने का अहसास इतना जीवंत, इतना मुग्धकारी होता है कि केवल उसकी उपस्थिति के अलावा जीवन धारण करने वाले को कुछ और नहीं चाहिए होता है।

पर जो इस सचाई को नहीं समझ पाते हैं, वे जीवन को अपना अधिकार मान लेते हैं और फिर इससे सब कुछ पा लेना चाहते हैं। वे जीवन के सौंदर्य को बाहर ढूढ़ने लगते हैं। बाहर की दुनिया तो बहुत आकर्षक है, बड़ी वैभवशालिनी है, अत्यंत सम्मोहित करने वाली है। उसके सम्मोहक उपकरणों का अंश मात्र भी किसी एक व्यक्ति को हासिल नहीं हो पाता है। इसीलिए पाने के सिलसिले को कोई अंत होता ही नहीं। इस अंधी दौड़ में आदमी भागता जाता है, भागता जाता है, सारा आसमान मुट्ठी में भर लेना चाहता है। वह समझ ही नहीं पाता कि इस तरह उसे जो मिला हुआ था, वह भी उसके हाथ से निकलता जाता है। उसका विलक्षण सौंदर्य, उसकी अद्भुत सामर्थ्य धीरे-धीरे खोती चली जाती है और एक दिन उसे लगता है कि उसने तो कुछ पाया ही नहीं, जो पाया था, वह भी व्यर्थ चला गया। पर जब तक यह समझ आती है, वापसी के सारे रास्ते बंद हो चुके होते हैं, लौटना संभव नहीं रह जाता है।

एक साधु की कुटिया में आग लग गयी, सब कुछ जलकर भस्म हो गया। परंतु साधु सुरक्षित बच गया। वह उतना ही प्रसन्न था, जितना पहले कुटिया के रहने पर था। उसे देखकर लोगों को आश्चर्य हो रहा था। एक आदमी ने आखिर पूछ ही लिया, महाराज आप को तो इस आग से बहुत क्षति हो गयी, बड़ा दुख हो रहा होगा। साधु मुस्कराया और बोला, नहीं मित्र, दुख किस बात का। कुछ चीजें प्रकृति से मुझे मिली थीं, अब उसने वापस ले लीं, इसमें दुख की क्या बात। मेरा तो कुछ था नहीं, जिसका था, उसने ले लिया। मुझे तो खुशी है कि उसने यह सुंदर जीवन मुझसे वापस नहीं लिया। यह जीवन भी तो उसी का दिया हुआ है, वह चाहती तो इसे भी ले सकती थी, पर उसने ऐसा नहीं किया। उसने मेरे ऊपर यह जो कृपा की, उससे मैं बहुत प्रसन्न हूं। साधु की यह प्रसन्नता बहुत सहज थी पर कितने लोग यह समझ पाते हैं कि कुछ भी उनका नहीं हैं, सब प्रकृति का है और वह एक दिन सब वापस ले सकती है। इतना ही समझ में आ जाय तो जीवन सुधर जाय, सुंदर हो जाय।

शुक्रवार, 30 जुलाई 2010

हाय री महंगाई

 वीरेन्द्र सेंगर की कलम से 
संसद चल नहीं पा रही है, फच्चर फंसा हुआ है। सरकार ने साफ कर दिया है कि वह दोनों सदनों में बहस के लिए तैयार है, लेकिन वोटिंग के लिए नहीं। यहां तक कह दिया गया है कि इस फैसले में अब पुनर्विचार की कोई गुंजाइश नहीं है।वित्त मंत्री, प्रणव मुखर्जी ने भी कहा है कि विपक्ष जानबूझ कर संसद की कार्यवाही नहीं चलने दे रहा है जबकि इस सत्र में कई जरूरी विधेयक पास होने हैं। लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज का कहना है कि सरकार सरासर गलत बयानी पर अमादा है। संसद तो ठप है, सरकार के अड़ियल रवैये के कारण। आखिर विपक्ष के काम रोको प्रस्ताव को स्वीकार करने में क्या दिक्कतें हैं? जबकि, सरकार दावा कर रही है कि उसकी संख्या गणित पूरी है। तो फिर क्या डर है? वैसे, भी ‘काम रोको’ प्रस्ताव के तहत वोटिंग होती है और इसमें पक्ष में बहुमत होता है, तो भी सरकार गिरने का खतरा नहीं है। इसके बावजूद सरकार इसलिए डर रही है कि कहीं उसकी ‘एकता’ की पोल न खुल जाए।

सरकार के रवैये से वाम मोर्चा नेतृत्व खासा नाराज है। सीपीएम के वरिष्ठ नेता, वासुदेव आचार्य का कहना है कि महंगाई के मुद्दे पर सरकार का रवैया कायराना है। वाम मोर्चा ने तो अपनी रणनीति का खुलासा कर दिया है। यही कि वह दबाव बनाने के लिए धरना-प्रदर्शन का रास्ता अपनाएगा। यह कार्रवाई संसद के बाहर भी होगी और संसद के अंदर भी। बसपा, राजद और सपा जैसे दल यूपीए सरकार को बाहर से समर्थन दे रहे हैं। इन दलों का रवैया कुछ-कुछ अलग दिखाई पड़ा। बसपा ने तो मंगलवार को ही स्पष्ट कर दिया था कि वह काम रोको प्रस्ताव के तहत ही बहस कराने के लिए दबाव नहीं बनाएगी।  राजद और सपा का रवैया सरकार के प्रति इतना नर्म नहीं देखा गया। लालू यादव कहते हैं कि इतने गंभीर मुद्दे पर आखिर स्थगन प्रस्ताव पर ही बहस हो   जाएगी, तो कौन सी आफत आ जाएगी?

खास निशाने पर हैं मोदी!
गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी सीबीआई के खास निशाने पर आ गए हैं। सोहराबुद्दीन मुठभेड़ मामले में जांच कर रही टीम को षड्यंत्र के तार उच्च स्तर तक जुड़े लगते हैं।  जांच दल को कुछ ऐसे संकेत मिले हैं, जिनके बारे में मोदी से पूछताछ करना जरूरी हो गया है। विशेष जांच दल ने सुप्रीम कोर्ट को दी गई ‘स्टेटस रिपोर्ट’ में भी इस बात का उल्लेख कर दिया है। सीबीआई ने इस मामले के एक प्रमुख आरोपी पुलिस अधिकारी डीजी बंजारा का जेल में ‘स्टिंग’ आपरेशन करा लिया है। इसमें डीजी बंजारा अपने एक साथी कैदी से कहते हैं कि उन लोगों ने मंत्री अमित शाह के आदेश से सोहराबुद्दीन और उसकी पत्नी कौसर बी का अलग-अलग सफाया करा दिया था।  चर्चा है कि अमित शाह ने यह सब काम ‘बॉस’ के संकेत के बाद ही किया होगा। सीबीआई के सूत्र कहते हैं कि ये ‘बॉस’ मोदी ही हो सकते हैं। उनके पास 2007 से गृह मंत्रालय का प्रभार भी है। वैसे भी यह जग   जाहिर है कि अमित शाह 1980 से मोदी के खास ‘शागिर्द’ रहे हैं। ऐसे में इसकी पूरी संभावना है कि इस षड्यंत्र के तमाम घटनाक्रमों की जानकारी मोदी को रही हो।

 जांच दल  पता करना चाहता है कि आखिर वह कौन शख्स है, जो ‘हत्यारे’ पुलिस अधिकारियों को बचाने के लिए सत्ता का इस्तेमाल कर रहा था। चूंकि, पूर्व गृह राज्य मंत्री ने यह कह दिया है कि उन्हें इस ट्रांसफर की वजह नहीं मालूम है। ऐसे में मोदी से पूछताछ जरूरी बताई गई है। शाह ने रिकार्डेड बयान में ऐसी टिप्पणियां कर दी हैं, जिनके आधार पर जांच दल को मोदी से पूछताछ का पुख्ता आधार भी मिल गया है। सीबीआई एक आरोपी पुलिस अधिकारी एनके अमीन को सरकारी गवाह बनाने जा रही है। अमीन पूर्व डीएसपी हैं। उनके वकील का कहना है कि पूर्व गृह राज्य मंत्री शाह के दबाव में ही सोहराबुद्दीन और उसकी पत्नी का अलग-अलग ‘कत्ल’ किया गया था।  इस मामले में दो अगस्त को निर्णय होना है। अमित शाह के मामले में भाजपा नेतृत्व, केंद्र सरकार को राजनीतिक रूप से कटघरे में खड़ा करने की तैयारी कर रहा था लेकिन सीबीआई ने ऐसी तमाम जानकारियां जुटा ली हैं, जिनसे खुद मोदी सरकार मुसीबतों में फंस सकती है।

अविनाश वाचस्पति की चार प्रतिकविताएं

कैप्शन जोड़ें

मेरे प्रिय भाई अविनाश वाचस्पति एक ब्लॉगर  और व्यंग्यकार ही नहीं एक संवेदनशील कवि, रचनाकार भी हैं. बार-बार उनकी इस प्रतिभा को मैं देखता आया हूँ. आखर कलश में प्रकाशित मेरी कविताओं पर उनकी प्रतिक्रिया देखकर मैं अपने को रोक नहीं पाया. ये सिर्फ प्रतिक्रिया भर नहीं हैं, ये स्वतंत्र रचनाएँ हैं. उन्होंने लिखा भी है, मेरी विवशता है कि मैं प्रतिक्रिया में क्रिया की प्रक्रिया में जूझने लगता हूं। यह क्रिया की प्रक्रिया ही उनकी निधि है. यही उन्हें निरंतर सकारात्मक और रचनात्मक बनाए रखती है. उनकी चार प्रतिकविताएं यहाँ पेश हैं.....



1.
रचने का सच

रचना का सच
सच और सिर्फ सच
कवि की सच्‍चाई है
जो इंसानियत की रोशनाई है।


2.
फूल सदा खिला रहता है
मन की तरह
मन है न
नमन मन को।


3.
रोजाना झुलस रहा है
पर सोचता है पक रहा है
इतना पकना ठीक नहीं
जल्‍दी ही थकेगा
कब यह क्रोध रूकेगा।


4.
भाप को नहीं बनने देंगे बूंद
इस‍के लिए काटेंगे रोज ही
ऐसी फसल जमीन पर
जो इंसानियत को
कर देगी ढेर।

काश, फिर कोई चंडी समाज की आंखें खोल सकती!

बंशीधर मिश्र की कलम से

खता किया, बुरा किया। करके छोड़ा और बुरा किया। कोई अनपढ़ और गंवार ऐसा करे, तो समझ में आता है पर भौतिक चेतना की संगठित रूप मानी जाने वाली सरकारें यदि यह गलती करने लगें, तो तरस आता है। अभी हाल में उत्तर प्रदेश सरकार ने कुछ इसी तरह का काम किया। कई महीने पहले सरकार की तरफ से राजाज्ञा जारी हुई कि स्कूलों में दोपहर का भोजन बनाने का काम दलित वर्ग की महिलाएं ही करेंगी। कुछ महीने ही बीते होंगे कि अब सरकार की तरफ से नए निर्देश जारी कर दिए गए। अब भोजन बनाने में दलितों का आरक्षण नहीं होगा। यह काम जरूरतमंद महिलाओं, विधवा, तलाकशुदा और गरीब महिलाओं यहां तक कि ऐसे ही पुरुषों के हवाले कर देने का आदेश जारी किया गया है। यकीनन यह शासनादेश या तो स्कूलों तक पहुंच गया होगा या पहुंचने वाला होगा। इस तुगलकी बदलाव के पीछे सरकार की क्या मंशा थी और उसने ऐसा क्यों किया, यह विचारणीय प्रश्न है।

दरअसल, यह अदूरदर्शी राजनीति से उपजे भय का परिणाम है। हुआ यूं कि दोनों शासनादेशों के बीच का समय स्कूलों में उठे मौन विद्रोह के घनेरे बादलों ने भर लिया। यह अजीब किस्म का विद्रोह था। इसमें न तो लाठियां थीं, न डंडे। किसी ने न तो किसी को गालियां दीं, न गोलियां मारीं। बस स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों ने यह कहा कि हम नहीं खाएंगे। क्यों नहीं खाएंगे? भूख नहीं है। कुछ दिन बाद पता चला कि ऊंची जाति के इन नन्हें बच्चों की भूख का संबंध स्कूलों के रसोईघरों में हाल ही दाखिल हुईं  दलित महिलाओं से था।

पर भूख और प्यास जाति का भेद नहीं पहचानती। आद्य गुरु शंकर को जब खालिस रेगिस्तान में जोर की प्यास लगी, तो वह बेचैन हो उठे। उसी पगडंडी से सिर पर पानी का घड़ा लिए एक चांडाल कन्या जा रही थी। आद्य गुरु संन्यासी थे। उन्हें प्यास बेचैन कर रही थी। पर सामाजिक मर्यादा के भय से चांडाल कन्या से पानी नहीं मांग पा रहे थे। थोड़ी दूर चलने पर उनकी प्यास और बेचैनी बढ़ने लगी। प्राण हलक में अटक रहे थे। उनका गला सूखने लगा। उन्होंने उससे पानी मांगा। देवि, पानी दे दे। उसने विस्मय से जवाब दिया- ऐ संन्यासी, तू देवता तुल्य, मैं ठहरी चांडाल। तेरा धर्म भ्रष्ट नहीं होगा? आद्य गुरु सहम गए। कुछ दूर चले, तो फिर लगा प्राण निकल जाएंगे। वह याचक बन पानी की भीख मांगने लगे। सारी मर्यादा धरी रह गई। चांडाल कन्या कोई और नहीं साक्षात मां काली थीं। उन्होंने आद्य गुरु को फटकार लगाई कि ब्रह्म सत्यं जगत मिथ्या के दर्शन का प्रतिपादन करने वाला छूत और अछूत का भेद करे, तो दर्शन किस काम का। जो कहा उसको धारण करो। आद्य गुरु की आंखें खुल गर्इं। वह दंडी स्वामी और सनातन धर्म के पुनरुद्धारक थे। पूरे देश में अपने सिद्धांत की प्रतिस्थापना की थी। ब्रह्म सत्य है और माया रूप जगत मिथ्या। यह केवल दीखता है, होता नहीं। पर व्यवहार के धरातल पर वह वर्ण व्यवस्था के जड़ बंधन से बाहर नहीं निकल पाए थे। जब प्यास ने उन्हें बेचैन किया, तो दर्शन और व्यवहार का अंतर मिट गया। यही सत्य है।

यह हैरान करने वाली बात है कि आद्य गुरु के धार्मिक प्रतिपादन की विरासत ढोने वाला भारतीय सनातन समाज डेढ़ हजार साल बाद भी उनकी व्यावहारिक दीक्षा को मिसाल नहीं बना पाया है। इसीलिए तो सवर्ण बच्चों के बैग में घर के बने स्वादिष्ट व्यंजन होते थे, ताकि उनका मन किसी भी हालत में स्कूल में बनने वाले सरकारी दलिये या खिचड़ी पर न ललचाए क्योंकि बच्चे तो बच्चे ठहरे। उनके लिए कौन दलित, कैसा दलित? मगर उनके माँ-बाप नहीं चाहते थे कि किसी भी कीमत पर बच्चे गांव की अछूत महिला के हाथ बना खाना खाएं। इसलिए उनके कोमल मन में भेद पैदा किया गया। इसी की परिणति थी कि बच्चे, फिर बच्चे नहीं रह गये बल्कि सामाजिक जड़ता को ढोने के वाहक बन गये। उन्हें पहले भेदभाव मिटाने की इस सरकारी कोशिश के खिलाफ तलवार की तरह इस्तेमाल किया गया। मीडिया और प्रबुद्धजनों ने हस्तक्षेप किया, तो उन्हें ढाल बना दिया गया। चिंताजनक यह रहा कि लखनऊ में बैठे अफसरों ने हकीकत जाननी ही नहीं चाही, बस खबरों को पढ़ा और निर्णय लिया। वही निर्णय जो सोलहवीं सदी की पंचायतों में लिये जाते थे। यह अछूत है, इसे गांव के बाहर ही रहना होगा। उस समय तो न शिक्षा की नौटंकी थी, न जागरूकता का भ्रम और न ही इक्कीसवीं सदी में पहुंचने का दंभ, इसलिए उसे नजरअंदाज किया जा सकता है। किताबों में लिखा है कि यह अक्षम्य अपराध है। पर यह ऐसा अपराध है जो मानव समाज में कभी वर्ण के रूप में तो कभी वर्ग के रूप में किया जाता रहा है। यह आज भी बार-बार दोहराया जा रहा है। संविधान महज एक किताब सी हो गयी जो अलमारियों में सजा कर रख दी जाती है। वह निर्जीव वस्तु है इसलिए उसकी भावनाओं से किसी को क्या लेना-देना। यहां तो जीवितों की भावनाओं की परवाह नहीं की जाती फिर निर्जीव की क्या बिसात। इससे भी ज्यादा दुखद यह है कि यह उस उत्तर प्रदेश में हुआ है जहां की मुख्यमंत्री सवर्णों को कोस-कोसकर उस पद तक पहुंचीं। गांव से बाहर रहने वाली इस कौम को उनसे बहुत उम्मीद थी कि वह गांव में आ जायेगी। शायद ऐसा इसलिए कि उनके लिए ‘वर्ण’ का अंतर मायने नहीं रखता। क्योंकि उनका ‘वर्ग’ बदल गया है। वह अरबों की मिल्कियत वाली राजाओं की श्रेणी में गिनी जाने लगी हैं। और राजाओं की कोई जाति नहीं होती। इसीलिए उनको जातीय भेदभाव का दंश असर नहीं करता।

अब यह कहने में कुछ भी गलत नहीं है कि स्कूलों में रसोइयों के संबंध में लिए गए दोनों निर्णय जल्दबाजी में थे। पहले समाज को उसके लिए तैयार कर लिया जाता, तो शायद यह सामाजिक फूहड़पन न होता। सरकार इसकी जिम्मेदारी से बच नहीं सकती है। पर समाज भी इसकी जिम्मेदारी से बच नहीं सकता। ऐसा समाज कभी श्रेष्ठ नहीं बन सकता जहां मनुष्य में अंतर सिर्फ इस आधार पर किया जाता है कि वह उसका वर्ण नीचा है या वह गरीब वर्ग से संबंध रखता है। समता प्रकृति का चरित्र है। सूरज की रोशनी सब के लिए होती है। हवाएं समूची धरती को सुख देती हैं। बादल कभी ऊंच-नीच का भेद करके नहीं बरसते। यकीनन यही मां काली ने भी आद्य गुरु को समझाया होगा। तभी उनकी आंखें खुली थीं। काश, फिर कोई चंडी भारतीय समाज की आंखें खोल सकती!

गुरुवार, 29 जुलाई 2010

बच्चे के हाथ में पिस्तौल

देश में एक बार फिर स्कूल में एक बच्चे ने दूसरे बच्चे पर गोली चला दी। हमलावर कक्षा नौ का छात्र है, जिस पर गोली चलायी गयी, वह कक्षा आठ का छात्र है। दिल्ली के एक पब्लिक स्कूल में बच्चों के दो गुटों में मामूली सा झगड़ा हुआ और उसने पिस्तौल निकाली, गोली चला दी। वह तो संयोग अच्छा रहा कि गोली दूसरे बच्चे के जिस्म को खुरचती हुई निकल गयी, अन्यथा उसकी जान चली जाती। बच्चे का कहना है कि उसे पिस्तौल रास्ते में गिरी हुई मिल गयी। निश्चित रूप से वह झूठ बोल रहा है। जो स्कूल में गोली चला सकता है, उससे सच बोलने की उम्मीद नहीं की जा सकती। वह पिस्तौल घर से ले आया होगा, पहले से ही उसका ऐसा इरादा रहा होगा। झगड़ा भी पुराना होगा, इसीलिए तयशुदा तरीके से वह पूरी तैयारी के साथ आया रहा होगा।

इस तरह की घटनाएं यद्यपि विदेशों की तरह हमारे देश में अभी आम नहीं हैं, कभी-कभी हो जाती हैं लेकिन केवल इसलिए इसकी गंभीरता कम करके नहीं आँकी जानी चाहिए। बच्चों में अराजकता, अवज्ञा बढ़ रही है। बच्चे कई बार छोटे-छोटे अपराध करते भी पकड़े जाने लगे हैं। देश के कई इलाकों में इस तरह की घटनाएं हुई हैं, जब बच्चों को मोटरसाइकिलें उठाते पकड़ा गया है, चेनस्नेचिंग करते धरा गया है। इस तरह की प्रवृत्ति आखिर बच्चों में क्यों पैदा हो रही है? क्या यह मात्र संयोग है या कतिपय घरों के माहौल का असर? ये मनोवैज्ञानिक प्रश्न है और इसका अध्ययन बहुत जरूरी है।

स्कूल जाने वाले बच्चों को भी कुछ मां-बाप उनकी जरूरत से ज्यादा पैसे पाकेट खर्च के नाम पर देते हैं। कई बार जब उनकी जेब में किसी कारणवश कम पैसा होता है और उनकी आवश्यकता बड़ी होती है तो वे यह सोचकर दुस्साहस कर बैठते हैं कि एक ही बार तो कर रहे हैं। ऐसे मामलों में अगर वे पकड़े गये तो उनकी जिंदगी गलत दिशा अख्तियार कर लेती है और अगर नहीं पकड़े गये, अपने इरादे में कामयाब हो गये तो वह प्रयोग दुहराने की हिम्मत पैदा हो जाती है। ऐसे अभिभावक, जो केवल अपनी पैसे की ताकत से बच्चों को खुश रखने की कोशिश करते हैं, सचमुच उनके पास अपनी व्यस्तता में से बच्चों के लिए समय निकाल पाना या तो संभव नहीं होता या वे उसकी जरूरत नहीं समझते। यही गलती बच्चों को अपने ढंग से हर मामले में निर्णय करने की प्रवृत्ति पैदा करती है और जब कभी उन्हें किसी दूसरे के फैसले पर चलना होता है, वे उसे स्वीकार नहीं कर पाते।

ऐसे बच्चे उद्दंड हो जाते हैं और यह उद्दंडता अपराध की पहली सीढ़ी है। इस तरह के उद्दंड बच्चे दोस्त बनाने में बहुत माहिर होते हैं और स्कूलों में और बच्चों को भी गंदा करते हैं, गलत रास्ते पर चलने को प्रेरित करते हैं। विदेशों में तो यह अराजकता काफी गंभीर रूप ले चुकी है। अमेरिका में हर महीने स्कूल में गोलीबारी की कोई न कोई घटना हो ही जाती है। उनका जीवन-दर्शन और रहन-सहन का तरीका जिस तरह का है, उसमें इन घटनाओं पर बहुत ध्यान नहीं दिया जाता। वहां बंदूकों की खरीद पर कोई पाबंदी नहीं है। परंतु भारत जैसे देश में, जहां इस तरह के हथियारों पर न केवल लाइसेंस की बंदिश है, बल्कि जहां नैतिकता और शांति का जीवन शैली में खास महत्व है, इस तरह की घटनाएं चिंता पैदा करने वाली हैं।

बुधवार, 28 जुलाई 2010

महंगाई पर राजनीतिक ‘महाभारत’

वीरेन्द्र सेंगर की कलम से 
महाभारत के पात्र ललकारते भी हैं, छल कपट के दांव भी आजमाते हैं। कहीं नैतिकता की दुहाई देते हैं, तो कहीं राजधर्म का मर्म समझाते हैं। कुछ इसी तरह का परिदृश्य इन दिनों संसद में है। महंगाई के मुद्दे पर बचने-बचाने और मरने-मारने के दांव चले जा रहे हैं। वे आम आदमी के एजेंडे की दुहाई देकर सत्ता सिंहासन में बैठे थे। अब विपक्ष उन पर विरोध के तीखे बाण छोड़ रहा है। कह रहा है कि आम आदमी तो महंगाई से तबाह हो रहा है जबकि तुम सत्ता सिंहासन का सुख लूट रहे हो। इसी पर राजनीतिक तलवारें खनक रही हैं। सरकार ने भी राजनीतिक ढीठपन के पैंतरे चलने शुरू कर दिए हैं। ना-ना करते हुए राइट और लेफ्ट विंग एक स्वर में बोलने लगे हैं। वे रणनीतिक दूरियां भले कायम रखें, लेकिन अंदर ही अंदर दोनों धड़ों के बीच एक समझदारी बन गई है। भाजपा नेतृत्व वाला मोर्चा गरम है, तो वाम मोर्चा में सरकार के प्रति खासा उबाल देखने को मिल रहा है। सरकार किसी कीमत पर महंगाई के मुद्दे पर सदन में मत विभाजन  के लिए तैयार नहीं है जबकि दोनों धड़ों ने कह दिया है कि सरकार जिद पर अड़ी तो राजनीतिक महाभारत और तेज होगा। संसद ठप रहेगी।

महंगाई के मुद्दे पर  भाजपा और वाम दलों ने काम रोको प्रस्ताव दिए हैं। सरकार बहस कराने को तो राजी है लेकिन, वोटिंग कराने को नहीं। सीपीएम के वरिष्ठ नेता, सीता राम येचुरी हैरानी का सवाल है कि केंद्र सरकार के पास पर्याप्त बहुमत है, तो वह विपक्ष के ‘काम रोको’ प्रस्ताव से क्यों भाग रही है? वे कहते हैं कि सरकार खुद नहीं चाहती कि संसद की कार्यवाही चले, यदि ऐसा न होता तो वह अड़ियल रुख नहीं अपनाती। वाम मोर्चे और एनडीए ने राज्य सभा में भी नियम 168 के तहत महंगाई पर बहस करने का प्रस्ताव दिया है। इस नियम के तहत बहस के बाद मतविभाजन का प्रावधान होता है। सरकार को यह प्रस्ताव भी मंजूर नहीं है। सरकार के रणनीतिकार इस कोशिश में हैं कि किसी तरह विपक्षी एकता में ‘सेंध’ लगा दी जाए। इसके लिए ये लोग हर तरह के दांव अजमा रहे हैं।

लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने मंगलवार को एक बार फिर कोशिश की कि कुछ सेक्यूलर दलों से ‘समझदारी’ बना ली जाए। इसीलिए उन्होंने बसपा के नेता, दारा सिंह से मुलाकात की। राजद सुप्रीमो लालू यादव से भी बात की। सूत्रों के अनुसार, इन दोनों नेताओं ने दो टूक कह दिया कि वे भाजपा के किसी प्रस्ताव के पक्ष में राजनीतिक कारणों से नहीं खड़े हो सकते। यह जरूर है कि वे लोग महंगाई के मुद्दे पर सरकार का विरोध करेंगे। भाजपा वाम मोर्चे के स्थगन प्रस्ताव को भी  समर्थन देने को तैयार है। यदि सरकार पर दबाव बनाना है, तो यह समय राजनीतिक ‘छुआ-छूत’ का नहीं है। इस ‘प्रस्ताव’ पर वाम नेताओं ने भाजपा नेतृत्व से साफ-साफ कुछ भी नहीं कहा।

कांग्रेस को सबसे पहले बसपा का ‘साथ’ मिल भी गया है। इस दल के सांसद विजय बहादुर सिंह ने कह दिया है कि उनकी पार्टी महंगाई पर संसद में बहस तो चाहती है, लेकिन वोटिंग पर ज्यादा जोर देने की अहमियत नहीं समझती है। सपा सुप्रीमो, मुलायम सिंह ने भी बसपा के रवैये के बाद कुछ दुविधा के संकेत देने शुरू किए हैं। जबकि, लालू यादव के तेवर गरम दिखे। वे बोले कि अब इस सरकार को ‘रियायत’ देने का मन नहीं करता। ऐसा करने से उनकी ‘आत्मा’ पर जोर पड़ने लगा है। महंगाई के महाभारत के बीच सरकारी गेहूं सड़ने का मामला भी तूल पकड़ गया है। इस मामले में कृषि मंत्री शरद पवार जवाब नहीं दे पा रहे हैं। मंगलवार को तो इस मामले में सवालों से भन्ना गए थे। खीझकर वे मीडिया के लोगों से कह रहे थे कि वे केवल संसद के प्रति जवाबदेह हैं।महंगाई की चर्चा के दौरान ‘सड़ा’ हुआ गेहूं भी सरकार के लिए राजनीतिक ‘बदबू’ बनता जा रहा है।

मंगलवार, 27 जुलाई 2010

शाह को ‘राम भरोसे’ छोड़ा!

वीरेन्द्र सेंगर की कलम से
नये  घटनाक्रमों की नजाकत देखते हुए आखिर भाजपा नेतृत्व ने चर्चित अमित शाह को ‘राम भरोसे’ छोड़ने का फैसला कर लिया है। उसने अपनी राजनीतिक जिद छोड़ दी है। अब वह महंगाई के मुद्दे पर पूरे विपक्ष के साथ कदमताल बनाने की कोशिश करेगा। इसके पहले भाजपा नेतृत्व इस बात पर अड़ गया था कि वह पहले अमित शाह के मामले में सरकार के खिलाफ मोर्चा खोलेगा।  रातोंरात अपनी प्राथमिकता बदलने का फैसला करने की खास वजह यह रही कि गुजरात सरकार के गृहराज्य मंत्री रहे अमित शाह के बारे में ऐसे कई खुलासे सामने आए हैं, जिनकी तरफदारी उल्टे गले की घंटी बन सकती है। नवंबर 2005 में सोहराबुद्दीन को आतंकवादी के नाम पर एक कथित पुलिस मुठभेड़ में मार गिराने के मामले में कई वरिष्ठ आईपीएस अफसरों के साथ ही मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के करीबी अमित शाह का भी नाम आया था। सीबीआई ने कानूनी फंदा  कस दिया तो रविवार को उन्होंने एक नाटकीय घटनाक्रम में  गांधी नगर में समर्पण किया।

अमित शाह के बारे में कई नए खुलासे सामने आ चुके हैं। इनमें सबसे गंभीर मामला केतन पारिक से जुड़ा हुआ है। पारिक शेयर मार्केट के एक चर्चित घोटाले के आरोपी हैं। कई साल पहले 1200 करोड़ रुपये के बैंक के घोटाले का उनका मामला चर्चित हुआ था। पारिक ने गुजरात के माधवपुरा बैंक में बड़े स्तर पर हेराफेरी की थी। इससे हजारों जमाकर्ताओं का पैसा डूबा था। शिकायत हुई थी कि इस बैंक के तत्कालीन निदेशक अमित शाह ने पारिक को राहत दिलाने की भूमिका निभाई थी। इसके एवज में उन्होंने पारिक से ढाई करोड़ रुपये की रिश्वत ली थी। सोहराबुद्दीन मामले में गुजरात के अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक कुलदीप शर्मा ने जांच कराई थी।  उन्होंने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि इसमें अमित शाह जैसे बड़े नेताओं का नाम आ रहा है। इसलिए जरूरी है कि इस मामले की जांच सीबीआई से करायी जाए। उन्होंने तीन पेज की सिफारिश   सरकार से की थी। यह रिपोर्ट आने के बाद ही कुलदीप शर्मा को एक गैर महत्वपूर्ण पद पर भेज दिया गया था और रिपोर्ट को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया था। इस मामले का खुलासा सामने आ गया है।

मीडिया में भी इस मामले की चर्चा के बाद भाजपा ने यही ठीक माना कि अमित शाह की ज्यादा पैरवी की गई तो कहीं बाजी उल्टी न पड़ जाए क्योंकि कांग्रेस  पलटवार कर सकती है कि भाजपा एक बड़े घोटालेबाज के ‘संरक्षक’ नेता को बचाने में जुटी है। भाजपा नेतृत्व के सामने एक मुश्किल यह भी आ गई है कि शाह के मामले में सीबीआई  के हाथ काफी पुख्ता सबूत आ गए हैं। उसने अमीन सहित कई उन पुलिस अधिकारियों को पूर्व गृहराज्य मंत्री के खिलाफ सरकारी गवाह बनाने की तैयारी कर ली है। माना जा रहा है कि अपने बचाव के लालच में आरोपी पुलिस अधिकारी पूरा इल्जाम अमित शाह पर डाल सकते हैं। ऐसे में राजनीतिक किरकिरी का खतरा काफी है। शायद इन्हीं अंदेशों के चलते पार्टी ने अपना राजनीतिक पैंतरा बदल दिया है।
 
राजनीकि हल्कों में यह माना जा रहा है कि भाजपा नेतृत्व ने यह समझ लिया है कि उसने गुजरात के मुद्दे पर जिद की तो कहीं न कहीं कांग्रेस को राहत मिल जाएगी। इसके आसार इसलिए भी बढ़ गए थे कि शाह के मामले में विपक्ष के सेक्यूलर दल भाजपा के साथ खड़े होने को तैयार नहीं थे। भाजपा नेतृत्व ने तय किया है कि शाह को राहत दिलाने के लिए लंबी कानूनी लड़ाई लड़ने का विकल्प ही सही है क्योंकि मामला ज्यादा आगे बढ़ा तो इसकी आंच सीधे नरेंद्र मोदी तक पहुंच सकती है। नरेंद्र मोदी भी इस मामले में कोई कोताही नहीं कर रहे। जाने-माने वकील राम जेठमलानी को उन्होंने शाह का वकील बनने के लिए तैयार कर लिया है। अब राम  ही शाह की रक्षा करेंगे।

सोमवार, 26 जुलाई 2010

मोदी के रास्ते पर जाएगी भाजपा!

वीरेन्द्र  सेंगर की कलम से 
सालों के लंबे ऊहापोह के बाद भाजपा नेतृत्व ने एक तरह से मान लिया है कि ‘हार्ड लाइन’ ही पार्टी के लिए राजनीतिक ‘संजीवनी’ बन सकती है। लोकसभा के चुनाव में लगातार दो करारी हार के बाद राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का भी दबाव बढ़ गया है। दूसरी तरफ, कद्दावर नेता अटल बिहारी वाजपेयी खराब सेहत के कारण हाशिए पर चले गए हैं। उनके बाद पार्टी में दूसरे बड़े नेता लाल कृष्ण आडवाणी रहे हैं। उन्हें भी संघ के दबाव में हाशिए पर ला खड़ा किया गया है।  संघ ने दबाव बनाकर नितिन गडकरी को राष्ट्रीय अध्यक्ष पद पर बैठवा दिया है। गडकरी की सबसे बड़ी पूंजी यही मानी जाती है कि वे संघ नेतृत्व के सबसे भरोसे के नेता हैं। संघ परिवार का दबाव रहा है कि पार्टी अपनी मूल दशा और दिशा से भटके नहीं। वरना न घर की रहेगी, न घाट की । संघ नेतृत्व के लिए गुजरात के मुख्यमंत्री, नरेंद्र मोदी एक बड़े आइकॉन हैं। महीनों से दबाव है कि केंद्रीय नेतृत्व दुविधा छोड़कर नरेंद्र मोदी के खांटी रास्ते पर चल पड़े। कहा तो यह जा रहा है कि संघ ने आगे की रणनीति का जो रोडमैप बनाया है, उसमें अगले तीन साल बाद मोदी को राष्ट्रीय राजनीति में लाया जाएगा। यहां तक कि 2014 के चुनाव में उन्हीं के हाथ में पार्टी की पूरी कमान होगी। संभावना है कि मोदी ही 2014 के लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री पद के चेहरे होंगे।
पार्टी की इस रणनीति की झलक नई कार्यशैली से झलकने लगी है।  नरेंद्र मोदी के विश्वस्नीय सिपहसालार रहे अमित शाह इस्तीफा देने के बाद गुजरात में भाजपा के नए ‘नायक’ बनकर उभरे हैं।  मोदी ने ऐलान कर दिया है कि शाह का मामला कांग्रेस नेतृत्व को महंगा पड़ेगा। जरूरत पड़ेगी तो अहमदाबाद से लेकर दिल्ली तक पार्टी के लाखों कार्यकर्ता सड़कों पर आएंगे। मजेदार बात है कि इस राजनीतिक बवाल में पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व पूरी तौर पर मोदी की ही ‘बोली’ बोलता नजर आ रहा है। सीबीआई को जांच के दौरान यह जानकारी मिली थी कि सोहराबुद्दीन को एक उच्च स्तरीय साजिश के तहत मारा गया था। इसमें पुलिस के आला अफसरों के साथ गृह राज्य मंत्री, अमित शाह की भूमिका रही है। एक नाटकीय घटनाक्रम में अमित शाह ने  रविवार की दोपहर में अहमदाबाद में मीडिया के सामने अपने गुरु, मोदी की तरह कांग्रेस को जमकर कोसा। उन्होंने अपने को निर्दोष बताया। कांग्रेस को राजनीतिक चुनौती दी। कहा कि वे लोग जनता के बीच यह बताएंगे कि अल्पसंख्यक वोटों के लिए कैसे उन जैसे देशभक्त को फंसाया गया है? परोक्ष रूप से धमकी यही दी गई कि पार्टी इस मामले में खांटी हिन्दुत्ववादी राजनीति करके कांग्रेस पर निशाना साधेगी। अपना गुबार निकालने के बाद शहीदाना अंदाज में अमित शाह ने सीबीआई के सामने देश के कानून में अपनी आस्था बताकर समर्पण किया।

अमित शाह के मामले को देखते  हुए  माना जा रहा है कि पार्टी के अंदर मोदी संस्कृति का दबाव बढ़ गया है। यूं तो पार्टी के अध्यक्ष गडकरी हैं, लेकिन माना जा रहा है कि पर्दे के पीछे मोदी की लॉबी ‘ड्राइविंग’ सीट पर बैठ गई है।  इस घटनाक्रम ने  जाने-अनजाने केंद्र सरकार को कुछ राहत दे दी है। सरकार के रणनीतिकार इस बात से सहमे थे कि पूरे विपक्ष ने महंगाई पर मिलकर हल्ला बोल दिया, तो दिक्कतें बढ़ जाएंगी। पर इस मुद्दे की वजह से सरकार के खिलाफ एनडीए का तय फोकस बदल गया है। भाजपा के अंदर मोदी के राजनीतिक रुतबे के कमाल के चलते पार्टी ने तय किया है कि वह अपनी पूरी ऊर्जा इसी मुद्दे पर सरकार को घेरने में लगाएगी। रणनीति बनाई गई है कि संसद में और संसद के बाहर गुजरात के प्रकरण में सरकार पर दबाव बढ़ाया जाएगा। भाजपा प्रवक्ता, प्रकाश जावडेकर कहते हैं कि कांग्रेस नेतृत्व ने सीबीआई को अपना हथियार बना लिया है। एक खास वोट बैंक को खुश करने के लिए अमित शाह को फंसाया जा रहा है। देश के कई और हिस्सों में कांग्रेस इसी तरह सीबीआई का इस्तेमाल अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को निपटाने   में करती आई है। इस मामले में संसद के अंदर सरकार की जमकर पोल खोलना जरूरी हो गया है। अनौपचारिक बातचीत में एनडीए के कई और घटकों के नेता इस बात को लेकर हैरान हैं कि भाजपा ने मोदी के रुतबे के दबाव में अपना फोकस ही बदल डाला है। इससे कहीं न कहीं सरकार को जरूर सहूलियत होने वाली है।

शुक्रवार, 23 जुलाई 2010

बिना कमेन्ट की इच्छा किए, गज़ल आपकी खिदमत में पेश है.

एक शायर हैं सरवत जमाल| क्या बताऊ मेरे दोस्त भी हैं| तूफानी मिजाज है| पर दोस्ती तो दोस्ती, निभानी पड़ती है| उन्होंने अपने ब्लॉग में ताजा गजल डाली है, पर टिप्पड़ी  बाक्स बंद कर दिया है| क्यों, बहुत पूछने पर भी नहीं बताया, कहा कि मिलेंगे तब बताऊंगा| पर बताइए जो लोग उनकी ग़ज़ल की तारीफ़ करना चाहते हैं, वे बिचारे क्या करे| या तो फोन नंबर तलाशें या मेल पता| और जिन्हें यह भी न मिले वो? इसीलिए मैंने सोचा, उन सबके लिए यहाँ गुंजाइश बना दूं| उन्होंने जैसे अपने ब्लाग पर पोस्ट किया है, वैसे ही मैं यहाँ दे रहा हूँ| सरवत से क्षमा याचना के साथ|
बहुत दिनों के बाद आना मुमकिन हो सका है. कुछ काम की व्यस्तता, कुछ हालात, इन सभी ने कुछ ऐसा किया कि लगा जैसे नेट से मोह भंग हो गया हो. चाहते हुए भी कुछ नहीं हो सका. कुछ मित्रों से राय ली-क्या ब्लॉग बंद कर दूं....जवाब मिला, ऐसा होता रहता है. लगे रहो. फिर भी मन को चैन नहीं था. फिर सोचा यह कमेन्ट वगैरह का चक्कर खत्म कर दिया जाए. यह पॉइंट कुछ जचा, कमेन्ट का ऑप्शन खत्म कर दिया. जिन्हें मुझे पढना है, पढ़ लें. प्रशंसा लेकर करूंगा भी क्या. हाँ, जो दोष हों उनके लिए मेल बॉक्स तो है ही. फिलहाल, बिना कमेन्ट की इच्छा किए,  गज़ल आपकी खिदमत में पेश है.

पता चलता नहीं दस्तूर क्या है
यहाँ मंज़ूर, नामंजूर क्या है


कभी खादी, कभी खाकी के चर्चे
हमारे दौर में तैमूर क्या है


गुलामी बन गयी है जिनकी आदत
उन्हें चित्तौड़ क्या, मैसूर क्या है


नहीं है जिसकी आँखों में उजाला
वही बतला रहा है नूर क्या है


बताओ रेत है, पत्थर कि शीशा
किया है तुम ने जिस को चूर, क्या है


यही दिल्ली, जिसे दिल कह रहे हो
अगर नजदीक है तो दूर क्या है


वतन सोने की चिड़िया था, ये सच है
मगर अब सोचिए मशहूर क्या है.

.------मैं अपनी टिप्पडी यहीं दे रहा हूँ----आदरणीय दुष्यंत ने गज़लों को जो दिशा दी, उसने पूरे समाज में एक हलचल मचा दी. वह वक्त गुजर गया, पर दुष्यंत आज भी लोगों के दिलों में, लोगों की जुबान पर ज़िंदा हैं, ज़िंदा रहेंगे. यद्यपि इस तरह की गज़लें पहले भी कही गयी, जिस दौर को इश्किया ग़ज़लों का दौर कहा जाता है, उस दौर में भी कुछ शायर समय की धार को पहचान कर शायरी कर रहे थे पर भीड़ में उनकी अलग पहचान न तो की गयी, न  ही उन पर विस्तार से बातें की गयीं. दुष्यंत के साथ ही इस नयी पहचान के निशाँ लोगों के जेहन में उतरे. पर आज कई शायर उनसे आगे की बात कह रहे हैं. दुष्यंत के वक्त का घात-प्रतिघात और गहरा हो गया है, पाखंड और बढ़ा है, धूर्तता और आडम्बर के अँधेरे और जालिम हो गये हैं, इसलिए शायर के सामने साजिश और गलीज के इस कवच को भेदने की चुनौती भी गहरी हुई है. कुछ ऐसे शायर हैं जो यह काम बखूबी कर रहे हैं,  उनमें मैं सरवत जमाल को भी गिनता हूँ. मन में बातें तो बहुत ज्यादा है. पर इस बात को और आगे बढ़ाने का काम मैं आप पर छोड़ता हूँ.

टकराव के रास्ते पर एनडीए!

वीरेंद्र सेंगर की कलम से
एनडीए का नेतृत्व राजनीतिक टकराव के रास्ते पर तेजी से बढ़ने लगा है। बिहार में विपक्ष के मुकाबले उसने अपना आक्रामक मोर्चा खोल दिया है। यहां एक वित्तीय ‘घोटाले’ को लेकर सरकार, विपक्ष और न्यायपालिका के बीच टकराव बढ़ने लगा है। गुरुवार को भी सत्ता पक्ष ने आक्रामक तेवर दिखाए। विधानसभा के स्पीकर ने इस प्रकरण को विधायिका बनाम न्यायपालिका बनाने की पहल तेज कर दी है। गुजरात में गृह राज्य मंत्री पर सीबीआई ने गिरफ्तारी की ‘तलवार’ लटका दी है। इन दोनों मुद्दों पर एनडीए का नेतृत्व आक्रामक मुद्रा में आ गया है। पटना विधानसभा पिछले तीन दिनों से राजनीतिक टकराव का अखाड़ा बनी हुई है। गुरुवार को राजद के आंदोलनकारियों पर पुलिस ने बेरहमी से लाठियां चलाई। इसमें छात्र विंग के कई नेता लहूलुहान नजर आए। ये आंदोलनकारी मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का इस्तीफा मांग रहे थे। अपने घायल ‘योद्धाओं’ को अस्पताल में देखने पहुंचे राजद सुप्रीमो, लालू यादव ने कहा है कि अब पटना की सड़कों पर टकराव का लंबा दौर चलने वाला है।

विधानसभा के अध्यक्ष, उदय नारायण चौधरी ने एलान किया है कि विधानसभा, हाईकोर्ट के उस आदेश को नहीं मानेगी, जिसमें ट्रेजरी मामले की जांच सीबीआई से कराने के निर्देश दिए गए हैं। अध्यक्ष ने साफ-साफ कहा कि इस प्रकरण की लोक लेखा समिति समीक्षा कर रही है, ऐसे में न्यायपालिका सीबीआई को जांच आदेश नहीं दे सकती। अध्यक्ष के इस ऐलान के बाद मामला विधायिका बनाम न्यायपालिका का बन गया है। पूर्व केंद्रीय मंत्री, राम विलास पासवान का कहना है कि बिहार में एनडीए नेतृत्व पूरी तौर पर राजनीतिक बेशर्मी पर उतर आया है। यदि सरकार ने अरबों रुपये का घोटाला नहीं किया है, तो वह सीबीआई जांच से क्यों भाग रही है? बिहार में जदयू और भाजपा की साझा सरकार के बचाव में एनडीए का पूरा नेतृत्व खड़ा हो गया है। एनडीए के कार्यकारी संयोजक, शरद यादव का कहना है कि राजद जैसे दल नीतीश सरकार की अच्छी छवि खराब करना चाहते हैं।

एक तरफ बिहार का मोर्चा बहुकोणीय बन गया है तो दूसरी तरफ, गुजरात में भी एक मामले को लेकर कांग्रेस और एनडीए के बीच टकराव की नौबत आ गई है। यह मामला है नरेंद्र मोदी सरकार के गृह राज्य मंत्री, अमित शाह का। सीबीआई ने 2005 में सोहराबुद्दीन के बहुचर्चित फर्जी मुठभेड़ के मामले में शाह को लपेट लिया है जबकि, अमित शाह मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के खास सिपहसालार माने जाते हैं। सीबीआई का दावा है कि उसके पास पक्के सबूत हैं कि गृह राज्य मंत्री ने उन पुलिसवालों का भरपूर सहयोग किया था, जो कि सोहराबुद्दीन की ‘मुठभेड़’ में शामिल थे। इस मामले में भी एनडीए का टकराव सीबीआई, केंद्रीय गृह मंत्रालय और परोक्ष रूप से सर्वोच्चय न्यायपालिका से हो गया है। इस तरह से बिहार और गुजरात के मोर्चे पर एनडीए टकराव की रणनीति पर बढ़ चला है। 26 जुलाई से यहां संसद का सत्र शुरू हो रहा है। इन दोनों राज्यों की राजनीतिक टकराहट की तल्खी का असर अब जल्द ही संसद परिसर में दिखाई पड़ सकता है।

गुरुवार, 22 जुलाई 2010

विधानसभाएं बन रही हैं जंग- ए- मैदान!

इस बार ‘परचम’ पटना ने लहराया है। यहां विधायिका खुलकर बेशर्मी पर उतर आई। यहां तक कि विधानसभा के माननीय स्पीकर पर चप्पल फेंकी गई। कई ‘माननीयों’ को घसीट-घसीटकर मार्शलों को विधानभवन से बाहर करना पड़ा क्योंकि ये लोग विरोध के नशे में आपा खो बैठे थे। सत्ता पक्ष के लोगों का सिर तोड़ने पर उतारू थे। जवाब में सत्ताधारी भी कानून हाथ में लेने से हिचके नहीं। सबने मिलकर खूब नंगा नाच किया।  इस खेल में सबसे ज्यादा आक्रामक राजद के विधायक रहे। इन लोगों ने विरोध के नाम पर विधायिका की मर्यादाओं को जमकर ठेंगा दिखाया। तंग आकर विधानसभा अध्यक्ष उदय नारायण चौधरी ने 66 विधायकों को तीन दिन के लिए निलंबित कर दिया है। राजद प्रमुख लालू यादव का कहना है कि नीतीश सरकार अरबों रुपये के घोटाले को दबा रही है। इसी से उनके विधायक गुस्से में हैं। पूरे देश ने टीवी चैनलों की तस्वीरों में यह देखा है कि कैसे ‘माननीय’ एक-दूसरे पर माइक चलाते रहे और सदन में कुर्सी-मेजों को हथियार बनाते रहे। ऐसा भी नहीं है कि पहली बार विधायिका के इतिहास में मर्यादा का ‘चीर हरण’ हुआ हो। पिछले दो दशकों से देश के कई राज्यों में कई बार ऐसे शर्मनाक तमाशे खड़े हो चुके हैं।

उत्तर प्रदेश विधानसभा में 1998 में विधानभवन के अंदर तत्कालीन स्पीकर केसरी नाथ त्रिपाठी का सिर फोड़ दिया गया था। विधायकों ने सदन को जंग-ए-मैदान बना दिया था।  इसके पहले भी 1993 में सपा-बसपा की सरकार के दौर में भाजपा विधायकों ने सदन के अंदर ‘बाहुबल’ दिखाया था। इसी साल उत्तर प्रदेश में बजट सत्र की शुरुआत के  पहले दिन ही सपा के ‘बांके’ विधायकों ने  राज्यपाल के अभिभाषण के दौरान उन पर कागज की गेंदें फेंकी थीं। इन विधायकों ने चिल्ला-चिल्लाकर महामहिम राज्यपाल को मुख्यमंत्री का एजेंट कहा था। पिछले दिनों कर्नाटक विधानसभा में भी अलग तरह का राजनीतिक ड्रामा देखने को मिला। यहां पूर्व प्रधानमंत्री, एचडी देवगौड़ा की पार्टी जेडीएस के विधायकों ने विरोध के नाम पर जमकर ड्रामेबाजी की। ये लोग सदन के अंदर पीले हेलमेट लगाकर आए थे। वही हेलमेट जो खनन मजदूर काम करते वक्त लगाते हैं। स्पीकर ने कहा था कि वे तमाशा न करें और हेलमेट उतारें लेकिन बात बिगड़ गई थी। दोनों पक्षों में जमकर छीना झपटी हुई थी। विधायकों का निलंबन हुआ।  स्पीकर केजी बोपइया ने दुखी होकर कहा था कि कुछ तो शर्म करो, वोट देने वाली जनता सब देख रही है। आन्ध्र के विधान भवन में भी पिछले वर्ष फरवरी में सदन के अंदर मारपीट की नौबत आ गई थी। बहुचर्चित सत्यम कंपनी के घोटाले को लेकर सदन के अंदर विधायकों ने एक-दूसरे पर माइक और कुर्सियां चलायीं।

पिछले दिनों महालेखाकार (कैग) की रिपोर्ट में बिहार सरकार के खातों को लेकर गंभीर ऐतराज दर्ज कराया गया। रिपोर्ट में कहा गया है कि सरकार ने 2002 से 2008 के बीच भुगतान तो लिए, लेकिन इसके खर्च ब्यौरे दाखिल नहीं किए। इस तरह से 11,412 करोड़ की रकम संदेह के घेरे में है। इसी मामले को लेकर विपक्ष ने हंगामा खड़ा किया है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की सफाई है कि यह घोटाले का मामला नहीं है।  इस मामले की वे जांच वित्तीय लेखा समिति से करा रहे हैं।  लोक जनशक्ति पार्टी के नेता, राम विलास पासवान का कहना है कि यदि सरकार के मन में कोई चोर नहीं है, तो वह सीबीआई जांच से क्यों भाग रही है? दो दिन से विधानसभा में नारे लग रहे हैं ‘खजाना चोर, गद्दी छोड़’।  सत्ता पक्ष के विधायक कांग्रेस पर निशाना लगा रहे हैं। वे नारे लगाते रहे, ‘ये देखो कांग्रेस का खेल, खा गई चीनी, पी गई तेल’। पहले दिन ही सदन के अंदर कुर्सियां चलीं। टेबल उलटे गए। किसी का कुर्ता फाड़ा गया, तो किया माननीय का पैजामा उतार दिया गया। अगले दिन भी इस हंगामे ने और उग्र रूप धारण किया। कांग्रेस की एक महिला विधायक कुमारी ज्योति तो साक्षात ‘रणचंडी’ की भूमिका में दिखाई पड़ी। उन्होंने सदन के बाहर गमलों से मार्शलों पर हमला किया। 26 जुलाई से संसद का वर्षाकालीन सत्र शुरू होने जा रहा है। विपक्ष महंगाई जैसे मुद्दों को लेकर बेहद उत्तेजित मुद्रा में है। खतरा  है कि किसी भी दिन पटना-लखनऊ की तरह संसद के अंदर भी माननीय कोई भोंडा तमाशा न खड़ा कर दें।

बुधवार, 21 जुलाई 2010

सरकार को भी डराने लगी महंगाई

सेंगर की कलम से 
संसद के  वर्षाकालीन सत्र में भले ही यूपीए सरकार के अस्तित्व के लिए कोई गंभीर खतरा न हो, लेकिन महंगाई ‘डायन’ उसे बुरी तरह सताने लगी है।   वीरेन्द्र इस मोर्चे पर उसके सारे वायदे झूठ की पोटली साबित हो रहे हैं।   इस मुद्दे पर सरकार संसद में ही नहीं, पूरे देश के सामने कटघरे में आ गई है। यूपीए के कई घटक भी सरकार की मासूम सफाई को अपने गले नहीं उतार पा रहे हैं। महंगाई के मुद्दे पर लामबंद विपक्ष कई और मोर्चो पर सरकार की मुसीबत बढ़ाने को तैयार हो रहा है। बढ़ती महंगाई ने आम आदमी की कमर तोड़कर रख दी है।  यूपीए की दूसरी पारी की सरकार को 14 महीने हो गए हैं। सरकार ने गठन के दौर से ही संकल्प जताया था कि सबसे पहले वह बढ़ती महंगाई पर अंकुश लगाएगी ताकि आम आदमी को राहत मिल सके। सरकार हर महीने-दो महीने में राहत आने का भरोसा दिलाती रही, लेकिन महंगाई नए-नए रिकॉर्ड बनाती गई। हालत यह है कि खाद्यान्नों में करीब 17 प्रतिशत की रिकॉर्ड महंगाई दर्ज हो चुकी है।कैबिनेट सचिव ने  कह दिया है कि खाद्यान्नों की महंगाई रोक पाना तत्काल संभव नहीं है।

पांच जुलाई को विपक्ष के  ‘भारत बंद’ के दौरान  पूरे देश में यूपीए सरकार के खिलाफ गुस्से का उबाल दिखाई पड़ा था। इस सत्र में यूपीए के समर्थक दल भी महंगाई के मुद्दे पर सरकार को ‘आंख’ दिखाने लगे हैं। यूपीए की अध्यक्ष, सोनिया गांधी ने सोमवार को घटकों से विमर्श किया था। इस विमर्श के दौरान कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता ने सुझाव दिया था कि विपक्ष की संभावित लामबंदी को तोड़ने के लिए महिला आरक्षण मुद्दा कारगर ‘कवच’ बन सकता है। प्रणव मुखर्जी की राय रही कि महंगाई की राजनीतिक तपिश  दूसरे विकल्पों से ठंडी की जाए। जल्दबाजी में महिला आरक्षण विधेयक को लोकसभा में लाने की रार की गई तो सपा, बसपा और राजद खुलकर विपक्ष की मुहिम में शामिल हो जाएंगे। ऐसे में सरकार का संख्या गणित भी खतरे के जोन के नजदीक पहुंच जाएगा।

सरकार के सामने रेल मंत्री ममता बनर्जी की क्षमता का ताजा सवाल उठ खड़ा हुआ है । ममता के कार्यकाल में रेल दुर्घटनाओं में करीब 428 लोग मारे गए हैं और 600 से अधिक घायल हुए हैं। इस मामले में सरकार की फजीहत इसलिए और ज्यादा हो रही है, क्योंकि यह प्रचारित हो गया है कि रेल मंत्री के पास मंत्रालय का कामकाज देखने का समय ही नहीं है। यूपीए के कई घटक भी चाहते हैं कि प्रधानमंत्री पहल करके इस मामले में ममता से साफ-साफ बात करें। यदि उनसे सीधे-सीधे रेल मंत्रालय हटाना संभव न हो, तो उन्हें समझाया जाए कि वे ‘भरत खड़ांऊ ’ की तरह यह अहम मंत्रालय अपने किसी सांसद को दिला दें ताकि हर दुर्घटना के बाद सरकार पर सवालों की ‘बमबारी’ न होने पाए।


संघ की ‘जोर अजमाइश’

संघ नेतृत्व भाजपा में अपने एजेंडे लागू कराने के लिए ज्यादा लंबा इंतजार नहीं कर सकता।  उसकी कोशिश है कि भाजपा के अध्यक्ष नितिन गडकरी इतने पावर फुल हो जाएं कि सहज ही उनके तमाम एजेंडे लागू हो जाएं। संघ परिवार के कुछ बिछडे हुए चेहरों को भाजपा में फिर से समाहित करने के  संकेत दिए गए थे। इन संकेतों के बाद गडकरी ने भी उमा भारती, केएन गोविंदाचार्य व संजय जोशी जैसे नेताओं को पार्टी में वापस लेने की खुली तरफदारी की थी। पार्टी प्रमुख की इस इच्छा के बावजूद एक मजबूत लॉबी गडकरी के इस एजेंडे में तरह-तरह की रुकावटें लगा रही है। इस स्थिति के चलते अब खुल्लम-खुल्ला संघ नेतृत्व ही दबाव बनाने पर उतारू हो गया है। संघ के चर्चित विचारक  एमजी वैद्य ने मराठी दैनिक तरुण भारत में एक लेख में भाजपा को फटकारने के अंदाज में सवाल किया कि पार्टी उमा भारती जैसे ऊर्जावान नेताओं को वापस क्यों नहीं ले रही है? वैद्य ने यह भी कहा कि हो सकता है कि उमा भारती, केएन गोविंदाचार्य व संजय जोशी से कुछ गलतियां हुई हों। लेकिन इन्होंने तो ‘लंबा वनवास’ झेल लिया जबकि इनका ‘अपराध’ जसवंत सिंह के मुकाबले काफी हल्का रहा होगा।

मंगलवार, 20 जुलाई 2010

इतनी निर्मम क्यों हो गयीं ममता ?

ममता जी, आखिर इस तरह कैसे चलेगा। आप को अपने मंत्रालय की चिंता हो न हो, पर उन लोगों की क्या गलती है, जो ट्रेनों से सफर करते हैं। रेलों को आरामदेह, तेज और सुरक्षित बनाने का आप ने वायदा किया था। जब आप ने बजट पेश किया था, तब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने आप को शाबासी दी थी। कहा था, बहुत बढ़िया, शानदार बजट है। क्या वह दिखावे के लिए था, बस जनता को बेवकूफ बनाने के लिए या उन आश्वासनों पर अमल भी होना था। बजट पेश किया और फाइल बंद करके रख दी, ऐसे कैसे बात बनेगी। आये दिन बेचारे मुसाफिर मारे जा रहे हैं, ट्रेनें पटरी से नीचे चल रहीं हैं, एक-दूसरे से टकरा रही हैं और मंत्री महोदया पश्चिम बंगाल की सत्ता पर नजर गड़ाये हुए हैं। आंदोलन, सभाएं और भाषण कर रही हैं। केंद्र में सत्तारूढ़ कांग्रेस की क्या मजाल कि वह ममता के कान उमेठे। ममता के बिना तो सत्ता ही खिसक जायेगी। पर क्या ममता को स्वयं क्या इस बारे में नहीं सोचना चाहिए।

 आम तौर पर विपक्ष के बारे में यह धारणा बनी हुई है कि वे केवल आलोचना के लिए आलोचना करते हैं पर कभी-कभी उनकी बातें भी ठीक लगती हैं। अगर ममता के पास रेलों को संभाल कर चलाने की फुरसत नहीं है तो बेहतर हो कि वे यह मंत्रालय छोड़ दें। और अगर पश्चिम बंगाल की राजनीति ठीक से करने के लिए उनका मंत्री बने रहना बहुत जरूरी हो तो उन्हें बिना विभाग के मंत्री बना दिया जाय। क्या रेल मंत्रालय हासिल करने के लिए जो नाटक उन्होंने सरकार के गठन के समय किया था, वह इसीलिए किया था। अपने राज्य के लिए, अपनी राजनीति के लिए रेलें दौड़ाना भर ही रेलमंत्री का दायित्व है या इससे आगे भी उन्हें कुछ करना है। अभी कुछ ही दिनों पहले ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस दुर्घटनाग्रस्त हुई थी। डेढ़ सौ से ज्यादा लोग मारे गये थे और अब यह दुर्घटना। यह तो बेहद गंभीर मामला है। एक खड़ी ट्रेन को पीछे से पूरी गति से आ रही ट्रेन टक्कर मार दे, कैसे हो सकता है। इसका मतलब साफ है कि न केवल मंत्राणी नींद में हैं बल्कि उनका पूरा विभाग खर्राटे ले रहा है।

जब नेता को ही समय नहीं है तो अनुयायी क्या करें। सभी परम स्वतंत्र न सिर पर कोऊ वाली हालत में काम कर रहे हैं। परंतु उनकी परम स्वतंत्रता से अगर लोगों की जान जाती है तो उस पर अंकुश तो लगाना पड़ेगा। मनमोहन सिंह भी कुछ देख रहे हैं क्या? अगर देख रहे हैं तो ममता से इतना डर क्यों? खुलकर उनसे भी क्यों नहीं कहते कि अपने काम-काज पर भी थोड़ा ध्यान दें। अब उन परिवारों का क्या होगा, जिनके सदस्य इस दुर्घटना में मारे गये हैं। ममता के पांच लाख से उनकी जिंदगियां तो नहीं चलेंगी। जिस परिवार का कमाने वाला सदस्य मारा गया हो, उसका तो भविष्य ही पगलायी ट्रेन के नीचे कुचल गया। ट्रेनों को आधुनिक बनाना तो दूर, उनमें नयी तकनीक का समावेश तो दूर, जो ट्रेनें चल रही हैं, उनमें सफर तो सुरक्षित रहे। इतनी व्यवस्था तो करो महारानी। नाम की ही ममता हो या कुछ ममता है मुसाफिरों के लिए। है तो अपने काम पर ध्यान दो दीदी, बेचारे निरपराध, निर्दोष लोगों पर रहम करो।

सोमवार, 19 जुलाई 2010

कुरैशी का दिमाग ख़राब तो नहीं

पाकिस्तान के विदेशमंत्री शाह महमूद कुरेशी न केवल अंतरराष्ट्रीय राजनय की मर्यादाओं का उल्लंघन कर रहे हैं बल्कि हिंदुस्तान का अपमान भी कर रहे हैं। पहले उन्होंने हमारे विदेशमंत्री एस एम कृष्णा के बारे में अनर्गल टिप्पणियां कीं और अब अपनी हैसियत से बढ़कर बातें कर रहे हैं। कृष्णा के साथ बातचीत के बाद उनके निरर्थक प्रलाप को असरहीन करने की कोशिश उनके प्रधानमंत्री युसुफ रजा गिलानी ने जरूर की लेकिन उसका कोई असर होता, इसके पहले ही एक बार फिर कुरैशी ने जिस तरह की बात कही है, वह भारत के लिए अपमानजनक है। जब एक पाकिस्तानी पत्रकार ने उनसे कृष्णा द्वारा उन्हें दिये गये भारत आने के निमंत्रण के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि वे घूमने-फिरने या आराम फरमाने के लिए दिल्ली नहीं जा रहे। यह घोर आपत्तिजनक बात है। कृष्णा ने उन्हें आगे की बातचीत के लिए दिल्ली आने का न्योता दिया है, न कि यहां आकर आराम फरमाने के लिए।  

क्या वे समझते हैं कि बातचीत के लिए भारत जाना घूमने-फिरने या आराम फरमाने जैसा है? उन्हें हिंदुस्तान आराम फरमाने का न्योता क्यों देगा? वे जिस तरह की भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं, उससे तो यही लगता है कि उन्हें सचमुच आराम की जरूरत है। आराम की ही नहीं इलाज की भी जरूरत है। इस मामले में भी भारत ने कई पाकिस्तानी परिवारों की मदद की है। बेहतर हो कि पहले वे किसी चिकित्सक की सलाह लें और अगर उन्हें लगता है कि इस संदर्भ में भारत की सहायता चाहिए तो उन्हें मिल सकती है। भारत अपनी उदारता बार-बार दिखा चुका है पर पाकिस्तानी नेता अपनी चालबाजी से बाज नहीं आते। कुरैशी साहब का यह कहना कि कृष्णा बिना तैयारी के बातचीत करने पाकिस्तान चले आये थे, निहायत आपत्तिजनक है और इस तरह की बकवास का भारत सरकार को सख्त जवाब देना चाहिए। कुरैशी ने यह जो कुछ किया है, बहुत सोच-समझकर किया है। वे पहले से ही तैयार थे कि बातचीत नाकाम कर देनी है।
 
वे शायद यह समझ रहे हैं कि इस तरह की व्यर्थ की बातें करके वे अपनी जिम्मेदारी से बच निकलेंगे या इससे मुंबई हमले के मामले में पाकिस्तान की तमाम झूठबयानियों को छिपाने का बहाना मिल जायेगा तो वे गलत समझते हैं। पूरी दुनिया देख रही है यह तमाशा। एक तो आतंकवादियों को प्रोत्साहित करो, उनके भारत में घुसने की व्यवस्था करो, उपद्रव कराओ और उल्टे गैर-जिम्मेदारी का ठीकरा भारत के सिर पर ही फोड़ दो। इस नीति को हिंदुस्तान को ठीक से समझना होगा और पाकिस्तान के बातचीत के ऐसे फरेब से बचना होगा। नासमझ और धूर्त पाकिस्तानी राजनेताओं से तब तक बातचीत नहीं की जानी चाहिए, जब तक वे रिश्तों को दुरुस्त कराने के प्रति गंभीरता नहीं दिखाते।

रविवार, 18 जुलाई 2010

बरात आने को है, अभी झाड़ू भी नहीं लगा

वीरेन्द्र सेंगर के कलम से
पूरे उत्तर भारत में अभी पहली करारी बरसात का इंतजार है। लेकिन, दिल्ली सरकार के आला अधिकारी बूंदाबांदी को लेकर ही मौसम को कोसने लगे हैं। बरसात का मौसम उनके लिए अपनी काहिली छिपाने का एक हथियार भी बनता जा रहा है। कॉमनवेल्थ गेम्स की उल्टी गिनती शुरू हो गई है। खेलों से जुड़े तमाम प्रोजेक्ट अधूरे पड़े हैं। ऐसे में सरकार की सांसें फूलने लगी हैं। सरकार यही कहकर अपनी पीठ ठोक रही है कि कुछ भी हो गेम्स तो होने ही हैं जबकि विपक्ष के नेता विजय कुमार मल्होत्रा कहते हैं कि आधी-अधूरी तैयारियों के चलते देश की प्रतिष्ठा दांव पर लग गई है। ऐसे में दिल्ली सरकार को गैर जिम्मेदारी पर एक ‘गोल्ड मेडल’ मिलना जरूर तय है।  मुख्यमंत्री शीला दीक्षित विपक्ष के इस तरह के कटाक्षों से आजिज आ गई हैं। उनका कहना है कि गेम्स से जुडे निर्माण कार्यों में सबसे बड़ी दिक्कत यह रही कि इसमें कई एजेंसियों की भूमिका है। इन सभी के बीच समय से समन्वय स्थापित नहीं हो पाया। 

शीला दीक्षित ने अब अधूरे पड़े कामों के लिए 31 अगस्त की नई डेड लाइन तय की है। दिल्ली सरकार के मुख्य सचिव राकेश मेहता ने स्वीकार कर लिया है कि राजधानी की साज-सज्जा के कुछ प्रोजेक्ट गेम्स तक पूरे नहीं हो पाएंगे। आला अधिकारियों ने अपनी लापरवाही छिपाने के लिए तरह-तरह के बहाने बनाने शुरू कर दिये हैं। सरकार की तरफ से कहा जा रहा है कि गेम्स निर्माण कार्य पूरा करने में मानसून बाधा बन रहा है। भाजपा नेता हर्षवर्धन का कहना है कि गेम्स की तैयारियों को लेकर कई ऐसे प्रमुख प्रोजेक्ट हैं, जिनमें अभी तक आधे से ज्यादा काम बाकी हैं। उनका सवाल है कि भला किस जादू की छड़ी से एक महीने के अंदर सब काम पूरे हो जाएंगे।  इस मसले पर कांग्रेस और भाजपा के बीच राजनीति का गेम भी ज्यादा तेज हो गया है। विपक्ष के नेता विजय कुमार मल्होत्रा कहते हैं कि मुख्यमंत्री अपनी शाबाशी में झूठ पर झूठ बोले जा रही हैं। जबकि, हकीकत यह है कि पूरी राजधानी खुदी हुई पड़ी है। कनॉट प्लेस में चल रहा सौंदर्यीकरण का काम पूरा नहीं हो पाया है। जगह-जगह ‘मलवे के पहाड़’ लगे हैं।
खेल मंत्री एमएस गिल कहते हैं कि केंद्र ने तो समय से पूरा बजट दे दिया था, लेकिन ढंग की निगरानी न होने के कारण काम में काफी देरी हुई है। वे इस बात से जरूर संतुष्ट हैं कि अक्टूबर में कॉमनवेल्थ गेम्स तो हो ही जाएंगे। जबकि पहले संशय किया जा रहा था कि ये गेम्स हो पाएंगे या नहीं? वे हंसोड़ लहजे में कहते हैं कि यहां की मानसिकता तो वो है, जहां बारात आने पर झाड़ू लगाई जाती है लेकिन किसी न किसी तरह शुभ काम संपन्न ही हो जाता है। देख लीजिएगा, खींचतान कर गेम्स से जुड़े सभी काम सितंबर तक पूरे ही हो जाएंगे। उन्हें तो भरोसा है कि दिल्ली के गेम्स शानदार यादगार बनेंगे।

शुक्रवार, 16 जुलाई 2010

क्यों माफ कर दें आप को?

गलतियां न हों तो आदमी आदमी न रह जाय। मनुष्य से सहज ही गलतियां हो जाती हैं। यह उसके स्वभाव में है। वह जानवर नहीं है, इसलिए अपनी हर गलती पर सोचता है। कुछ गलतियां ऐसी होती हैं, जो किसी और को नुकसान नहीं पहुंचाती हैं, पर कुछ गलतियों से दूसरे लोग प्रभावित हो सकते हैं, समाज प्रभावित हो सकता है। जिस पर जितनी बड़ी जिम्मेदारी होती है, उसकी छोटी से छोटी गलती भी उतना ही बड़ा प्रभाव पैदा करती है। इसीलिए लोग नहीं चाहते कि समाज या देश के प्रति जवाबदेह कोई भी व्यकित गलती करे। भले ही कोई फैसला करने में उसे देर लगे, लेकिन गलती न हो। ऐसी गलतियों के पहचाने जाने और परिमार्जित किये जाने तक इतनी क्षति हो चुकी होती है कि उसका कोई प्रायश्चित नहीं हो सकता। जिनसे गलतियां होती हैं, अगर वे मनुष्य हैं तो निश्चित ही उन्हें पीड़ा होती है, पश्चाताप होता है। गलती हो जाना कोई असहज बात नहीं है लेकिन इतना तो होना ही चाहिए कि जैसे ही उसका पता चल जाय, उसे ठीक कर लिया जाय। जो आदमी नहीं रह गये हैं, उनसे ऐसी अपेक्षा नहीं की जा सकती। वे अपनी गलती का औचित्य साबित करने के पाशविक पागलपन में जुट जाते हैं। यानि और बड़ी गलती की तैयारी में लग जाते हैं।

कभी-कभी अनजाने में गलतियां हो जाती हैं। दुविधा में, थकान में, अनिश्चय में और नासमझी में। कोई इरादा नहीं होता, कोई लाभ लेने या किसी को लाभ पहुंचाने की भी मंशा नहीं होती। ऐसी गलतियों के लिए अगर गलती करने वाले को पीड़ा है, पश्चाताप है और वह सरलता से गलती को स्वीकार करने और उसके लिए माफी मांगने का साहस करता है तो कोई भी उसे निराश नहीं करेगा, कोई उसे माफ करने से मना नहीं करेगा। पर जो गलती करके उसे छिपाने या उसे सही ठहराने की कोशिश करता है, वह समाज के प्रति अपराध करता है, उसे न माफ किया जा सकता है, न ही मुक्त किया जा सकता है। उसे अपने अपराध की सजा मिलनी ही चाहिए। अब एक कठिनाई है कि यह कैसे तय हो कि कोई आदमी निश्छलतापूर्वक माफी की याचना कर रहा है या उसकी याचना में भी कोई दांव है, कोई चाल है? यह बेशक बड़ा महत्वपूर्ण और गूढ़ प्रश्न है। इसका जवाब वक्त देता है। या तो इतिहास इसका जवाब पहले ही दे चुका होगा या भविष्य बहुत जल्द दे देगा। देखना होगा कि क्या अतीत में भी संबंधित व्यक्ति ने इसी तरह का कोई दांव चला है? अगर चला है तो उसकी मंशा क्या रही, उसका फायदा किसने उठाया? बस इतने से ही पता चल जायेगा कि याचना के पीछे कोई पाखंड है या अतिशय सहजता में माफी मांगी गयी है। अगर अतीत कोई जवाब नहीं देता तो प्रतीक्षा करनी पड़ेगी।

माफी भी अब एक राजनीतिक हथियार बन गया है। पता नहीं लोग समझ पाते हैं या नहीं, पर राजनेता बहुत चालाकी, धूर्तता और परम नाटकीयता के साथ इस शब्द की सामर्थ्य को नष्ट करने में लगे हैं। वे अनजाने में बहुत कम गलतियां करते हैं और अगर ऐसी गलतियां करते भी हैं तो उन्हें सार्वजनिक रूप से स्वीकार करने की जरूरत तब तक नहीं समझते, जब तक उसका रहस्य जनता के सामने नहीं आ जाता है। अक्सर वे सोची-समझी, नियोजित गलतियां करते हैं। असल में वे उनकी नजर में गलतियां नहीं होती। वे उसे अपना राजनीतिक कौशल मानते हैं। ज्यादा से ज्यादा वोट हथियाने का कोई भी रास्ता राजनीतिक दलों के लिए एक अवसर की तरह होता है और उसे चूकना उनके लिए बुद्धिमानी नहीं। जिसे जनता अतार्किक, असंगत और अनैतिक समझती है, वह भी राजनीति के लिए उज्ज्वल भविष्य और सत्ता तक पहुंचने में सहायक हो सकता है। सत्ता ही उनका लक्ष्य होती है और उसे प्राप्त करने का कोई भी उपाय उनके लिए अनैतिक नहीं होता। इस देश ने देखा है, लोगों को सत्ता तक पहुंचने के लिए मसजिद ढहाते हुए, खून बहाते हुए, इसी देश में दो लोगों के पागलपन के जवाब में उनकी कौम के हजारों लोगों को मौत के घाट उतारे जाते देखा है। इतनी बड़ी गलतियां, जिलके लिए जनता तो क्या देश और इतिहास भी माफी नहीं दे सकता।

बगैर सिद्धांत की राजनीति भी धोखा ही है। ऐसे ही राजनेता देश में सबसे भयंकर गलतियों के लिए जिम्मेदार होते हैं। क्योंकि यही अवसरवाद के पुरोधा बनते हैं। सत्ता हासिल करने के लिए इनका चरित्र हमेशा ही बदलता रहता है। ये कई तरह के चेहरों के साथ सड़कों पर आते हैं, जब जिसकी जरूरत होती है, लगा लेते हैं। कभी सांप्रदायिकता को प्रगतिशीलता ठहराने में अपने कौशल का उपयोग करते हैं तो कभी प्रगतिशीलता को सांप्रदायिक घोषित करके उसके पुतले पर गोलियां बरसाते हैं। यही लोग राजनीति को सस्ती और बिकाऊ बनाने के लिए जिम्मेदार हैं। राजनीति में जितनी मूल्यहीनता है, जितनी गैर-जिम्मेदारी है, जितना अवसरवाद है, सब इन्हीं की देन है। पर इनकी सफलता ने बड़े दलों को भी इन्हीं के रास्ते पर आने के लिए मजबूर कर दिया है। इस परिस्थिति में अगर कोई राजनेता गलती स्वीकारने की बात करता है और माफी मांगता है तो उसके पीछे उसका कोई सोचता-समझा नाटक जरूर होगा। चाहे अयोध्या कांड के लिए भाजपा का खेद व्यक्त करना हो या सिख नरसंहार के लिए मनमोहन का पश्चाताप या कल्याण लिंह से दोस्ती के लिए मुलायम सिंह का माफी मांगना। ये सब राजनीतिक मजबूरियों का नतीजा है, शुद्ध मन की स्वीकारोक्ति नहीं। लोगों को पसीजने की जगह बहुत सावधानी से इन मामलों पर गौर करना होगा।

हमका माफी दै दो, हमसे गलती ह्वै गयी

वीरेंद्र सेंगर की कलम से 
उत्तर प्रदेश में सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव ने अपने खास ‘वोट बैंक’ की राजनीतिक कवायद तेज कर दी है। ठीक उसी तरह जैसे कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने मुस्लिम वोट बैंक को बांधे रखने के लिए ‘बलिदानी’ तेवर दिखाने शुरू कर दिए हैं। इन दोनों राज्यों में कांग्रेस नए सिरे से अपना जनाधार बढ़ाने में लगी है। उसकी खास उम्मीद मुस्लिम वोटों पर टिकी है। मुलायम यह अच्छी तरह समझ रहे हैं कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस वाकई में ‘सेहतमंद’ हुई तो इसकी सबसे ज्यादा कीमत उनकी पार्टी को ही चुकानी पड़ सकती है। उन्हें सबसे ज्यादा खतरा मुस्लिम वोट बैंक से हो गया है। मुसलमानों को रिझाने के लिये ही उन्होंने ‘माफीनामे’ का दांव चला है। उन्होंने मुसलमान भाइयों से सवा साल पीछे की गई ‘गलती’ के लिए माफी चाही है। ‘माफीनामे’ में सपा सुप्रीमो ने कहा है कि पिछले वर्ष लोकसभा के चुनाव में उन्होंने कुछ गलत तत्वों (कल्याण सिंह) का साथ ले लिया था। इससे आपको जो मानसिक कष्ट पहुंचा, उसका दुख है। माफ कर दो। आगे से ऐसी भूल नहीं होगी।

अनौपचारिक चर्चा में मुलायम ने ये संकेत भी दे दिए हैं कि कल्याण सिंह से ‘दोस्ती’ अमर सिंह के चक्कर में आकर हो गई थी। ये उनके जीवन की सबसे बड़ी राजनीतिक गलती हुई है। अब वे अल्पसंख्यकों के हितों के लिए ज्यादा जुझारू बन जाएंगे। आखिर सपा प्रमुख को अचानक इस माफीनामे की जरूरत क्या पड़ गई? इस सवाल पर पार्टी नेतृत्व यही कह रहा है कि गलती को स्वीकार (वह भी लिखकर) करना, बड़े दिल की निशानी है। पार्टी उम्मीद कर रही है कि इस माफीनामे से मुसलमानों के तमाम गिले-शिकवे दूर हो जाएंगे। लेकिन कांग्रेस नेतृत्व सपा के इस कदम को महज एक ‘शिगूफा’ मान रहा है। पार्टी के महासचिव दिग्विजय सिंह ने अनौपचारिक रूप से पार्टी कार्यकर्ताओं से यही कहा है कि दो लाइन के माफीनामे से ही जघन्य राजनीतिक ‘पाप’ नहीं धुला करते। कांग्रेस का जनाधार बढ़ते देखकर अभी कई और ‘माफीनामे’ आ सकते हैं। आम जनता काफी समझदार है। उसे एकदम नादान समझने की नादानी नहीं होनी चाहिए। उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह सरकार में ‘राज्य मंत्री’ रहे डॉ. सीपी राय अब कांग्रेस में हैं। एक दौर में वे सपा प्रमुख के करीबी भी रहे हैं। उनका कहना है कि आखिर मुलायम सिंह किस-किस से माफी मांगेंगे? अभी वे कल्याण सिंह से दोस्ती के लिए मुसलमान भाइयों से माफी मांग रहे हैं। उन्हें बडे उद्योगपतियों का साथ देने के लिए किसानों से माफी मांगनी पड़ेगी। यहां तक कि उन्हें अपने परिवार के कुछ लोगों व बेहद करीबियों से माफी मांगनी पड़ेगी क्योंकि सरकार में रहते हुए उन्होंने इनके साथ भारी गैर इंसाफी की थी।

 चर्चा चली थी कि यह ‘कवायद’ विद्रोही नेता आजम खान को मनाने की कोशिश का एक हिस्सा हो सकती है। ये अटकलें चली ही थीं कि आजम खान ने खुद अपने ‘पत्ते’ खोल दिए। मुलायम के ‘माफीनामे’ की खबर आने के बाद रामपुर में उन्होंने जो प्रतिक्रिया दी, उससे यही लगा कि उनकी नाराजगी में कोई अंतर नहीं आया। उन्होंने कटाक्ष करते हुए कहा कि इतनी देर से आए ‘माफीनामे’ पर वे जरा इत्मिनान से गौर करेंगे। तब समझने की कोशिश करेंगे कि आखिर इसके पीछे उनकी मंशा क्या है? लंबे समय से चर्चा रही है कि कांग्रेस उन्हें अपने साथ जोड़कर यूपी में अपना ‘हाथ’ मजबूत करना चाहती है लेकिन कांग्रेस का एक तबका कह रहा है कि अक्खड़ आजम खान को पार्टी अनुशासन में बनाए रखना एक बड़ी चुनौती होगी।कांग्रेस के कई बड़े मुस्लिम नेता, आजम की ‘इंट्री’ नहीं चाहते।  कांग्रेस में आजम की ‘इंट्री’ को लेकर दुविधा का आलम है जबकि सपा नेतृत्व भी समझ नहीं पा रहा है कि आजम खान ‘माफीनामे’ के बाद भी लौटैंगे या नहीं? उत्तर प्रदेश में मुस्लिम आबादी 16 प्रतिशत के आसपास मानी जाती है। एक दौर में कांग्रेस के लिए अल्पसंख्यक वोट बैंक सबसे भरोसे का था लेकिन पिछले दो दशकों से यहां कांग्रेस हासिए पर पहुंच गई है। मुस्लिम वोट बैंक भी सपा व बसपा के बीच बंटता रहा है। इस वोट बैंक की प्रबल दावेदार मायावती भी हैं। मुस्लिम, दलित व ब्राह्मण वोट बैंक के समीकरण से उन्होंने सबको शिकस्त दी थी। अब स्थितियां कुछ बदल रही हैं। लोकसभा चुनाव के  बाद कांग्रेस भी यहां ‘बड़ी’ खिलाड़ी हो गई है। दो वर्ष बाद विधानसभा चुनाव होने हैं। कांग्रेस, राहुल गांधी के नेतृत्व में इस चुनाव में अपने बूते पर सरकार बनाने का सपना देखने लगी है। यही है राहुल का ‘यूपी मिशन’।

बिहार में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अपनी सरकार की छवि ‘सेक्यूलर’ रखना चाहते हैं ताकि मुस्लिम वोटर एकदम दूर न भागे। इसीलिए उन्होंने धुर हिंदुत्ववादी छवि वाले गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी से ‘तकरार’ले ली है। राजद प्रमुख लालू यादव कहते हैं कि मुसलमान भाइयों को धोखे में रखने के लिए नीतीश यह राजनीतिक ड्रामा कर रहे हैं। कुछ इसी तरह की टिप्पणी पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने मुलायम को लेकर की है। उन्होंने माफीनामे को एक पाखंड बताया है। कहा है कि गलती तो उनसे हुई थी, जो मुलायम का साथ पकड़ा था। राजनीतिक ‘श्राप’ देने के अंदाज में वे बोले कि अब मुलायम पर न हिंदू विश्वास करेगा और न मुसलमान। वे कभी भी सत्ता में नहीं लौटेंगे। जबकि, मुलायम भरोसा जता रहे हैं कि अल्पसंख्यकों में उनकी इस उदार पहल का अच्छा संदेश जाएगा क्योंकि वे लोग जानते हैं कि मुलायम ही उनके हितों के लिए बड़ी से बड़ी ‘कुर्बानी’ देने का जज्बा रखते हैं।

गुरुवार, 15 जुलाई 2010

झगडा नहीं क्रिएटिव टेंशन

वीरेंद्र सेंगर की कलम से
केंद्र सरकार के कई मंत्रियों के बीच टकराहट बढ़ी है। मंत्रियों की इस कार्यशैली से पीएमओ खुश नहीं हैं। यह जरूर है कि वह हस्तक्षेप तभी करता है, जब बात काफी बढ़ जाती है और सरकार की फजीहत शुरू हो जाती है। टकराहट का ताजा मामला कमलनाथ और मोंटेक सिंह आहलूवालिया के बीच का है। कई मंत्रियों की पिछले महीनों में आयोग में जमकर खिंचाई हो चुकी है। आयोग के इस आक्रामक रवैये से कमलनाथ खासे नाराज हुए हैं। इसी नाराजगी में उन्होंने हाईप्रोफाइल मोंटेक की खबर ले ली थी। कह दिया था कि एसी कमरे में बैठकर योजनाएं बनाना अलग बात है, लेकिन जमीन पर सड़कें बनाना दूसरी बात है। अपने रौ में आकर उन्होंने मोंटेक को इंगित करते हुए यहां तक कह डाला था कि इधर-उधर से टीपटॉप कर किताब  लिख लेवा आसान है| उन्होंने खुलकर कह दिया था कि योजना आयोग के अड़ंगे के कारण वे प्रतिदिन 20 किलोमीटर सड़क बना लेने का लक्ष्य पूरा नहीं कर पा रहे हैं।  सरकार ने लक्ष्य पूरा करने के लिए प्रतिदिन 20 किलोमीटर राजमार्ग बनाने का लक्ष्य रखा था। यह लक्ष्य यूपीए सरकार की पहली पारी में ही रख दिया गया था लेकिन मंत्रालय इस काम में काफी पीछे चल रहा है। अब मंत्री ने इसकी जिम्मेदारी योजना आयोग के खाते में डाल दी है।

आहलूवालिया ने एक सप्ताह की चुप्पी के बाद अब कमलनाथ पर जमकर पलटवार की है। उन्होंने रविवार को एक टीवी इंटरव्यू में सड़क परिवहन मंत्री पर जमकर कटाक्ष किए। उन्होंने कमलनाथ का नाम लिए बगैर बहुत कुछ कह डाला। वे बोले कि सड़कें बना लेने से ही देश नहीं चल जाता। ये  समझते हैं कि उन्हें योजनागत सलाह की जरूरत नहीं है। नियोजित योजनाओं के बिना देश सही ढंग से नहीं चलता। कमलनाथ की उस शिकायत पर कि आयोग मंत्रालय के बजट से छेड़छाड़ कर देता है,  मोंटेक ने कहा कि योजना आयोग को देखना पड़ता है कि सड़क से भी जरूरी और क्या मद है। संतुलन बनाकर चलने से ही समुचित विकास की गाड़ी बढ़ती है। माना जा रहा है कि यह टिप्पणी कर के आहलूवालिया ने अपनी ऊंची राजनीतिक पहुंच का अहसास कमलनाथ को करा दिया है। मोंटेक ने कहा कि उनके और कमलनाथ के बीच झगडा नहीं क्रिएटिव टेंशन है| देख लीजिएगा, अब कई नेता सच छिपाने के लिए धड़ल्ले से ‘क्रिएटिव टेंशन’ की आड़ लेते नजर आएंगे।

बन्दूक और विकास

नक्सलवादियों से निपटने के लिए केंद्र सरकार ने रायफलों के साथ विकास का रोलर चलवाने की भी योजना बना ली है। बुधवार को प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह को नक्सल प्रभावित राज्यों के मुख्यमंत्रियों आश्वस्त किया है कि वे अपने राज्यों में नक्सल विरोधी रणनीति को नए जज्बे के साथ लागू करवाएंगे। सबसे अहम फैसला चार राज्यों के बीच यूनीफाइड कमान के लिए सहमति बन जाना माना जा रहा है। झारखंड, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल व उड़ीसा के बीच यह सहमति बन गई है जबकि अगले दौर में तीन और राज्यों के बीच भी इसके लिए सहमति बना ली जायेगी । केंद्रीय योजना आयोग ने प्रस्ताव किया है कि एक हजार करोड़ रुपये के बजट से नक्सल प्रभावित सभी जिलों में विकास के काम तेज किए जाएं। कैबिनेट की सुरक्षा मामलों की समिति ने इन सभी प्रस्तावों को मंजूरी दे दी है। सूत्रों के अनुसार, राय बनी कि यह विशेष कार्ययोजना लागू कराने के लिए नौकरशाहों के भरोसे न छोड़ी जाए। बल्कि इसकी निगरानी की जिम्मेदारी स्थानीय नागरिक संगठनों को सौंपी जाए, ताकि विकास सही ढंग से हो पाए और भ्रष्टाचार की गुंजाइश न रह पाए। जिन 400 नए थानों का प्रस्ताव किया गया है, वे पूरी तौर पर आधुनिक शस्त्रों से लैस होंगे। ये सभी थाने दो साल के अंदर तैयार कर लिए जाएंगे।

बुधवार, 14 जुलाई 2010

खुशखबरी है, चीयर्स वुमेन

अब महिलाएं बिशप भी बन सकेंगी। चर्च आफ इंग्लैंड ने यह फैसला सुनाया है। इस फैसले से ब्रिटेन के परंपरावादी खेमे में निराशा और नाराजगी का माहौल है। दुनिया भर की महिलाओँ के लिए यह सुकून की खबर है। सेवा के सारे काम महिलाओँ द्वारा संपन्न किये जाने के बाद भी चर्च अभी तक उनके साथ भेदभाव करता चला आ रहा था। आखिर क्यों? ईश्वर के दरबार में इस तरह की बातें किसी को भी अच्छी नहीं लगती। केवल चर्च ही नहीं बल्कि सारी दुनिया में महिलाओं को लंबे समय तक लगातार लैंगिक भेदभाव का शिकार होना पड़ा है। कबीलाई समाजों में सामान्य तौर पर यह माना जाता रहा है कि महिला की जिम्मेदारी बच्चे पैदा करना और उन्हें पालना-पोसना है। ऐसी परंपराएं भारतीय समाज में भी रहीं हैं लेकिन भारत दुनिया के अन्य मुल्कों से काफी पहले जाग उठा। आदिम युग और प्रागैतिहासिक काल के खत्म होने पर भी महिलाओं को ईश्वरीय मानी जाने वाली किताबों को पढ़ने के अधिकार नहीं थे। उनके साथ बर्बर बर्ताव किये जाते थे। इस्लाम के भारत में आने के बाद तो उन पर और कठोर अनुशासन लाद दिये गये। यवनों में पर्दा प्रथा थी और देश की आक्रांत जातियां अपनी महिलाओं को इसलिए पर्दे में रखने लगीं क्योंकि उन्हें उनकी असुरक्षा का भय था। यह प्रथा इतनी रूढ़ हो गयी थी कि कई बार तो पूरे जीवन साथ रहने के बाद भी पति-पत्नी एक दूसरे को पहचान पाने की हालत में नहीं होते थे।

परंतु आजादी की लड़ाई जब छिड़ी तो सामाजिक सुधारों के अभियान भी चले। पर्दा प्रथा के खिलाफ भी कुछ लोग सामने आये। स्वाधीनता संग्राम में कई भारतीय महिलाएं सामने आयीं, जिससे महिलाओँ में देश के साथ अपने स्वत्व और अघिकार की चेतना का भी जागरण हुआ। आजादी के बाद तो यह चेतना द्रुत गति से फैली और अनेक क्षेत्रों में आगे बढ़कर काम करने के लिए अपने-आप महिलाएँ सामने आयीं। कानूनों में परिवर्तन हुए और महिलाओं को ज्यादा से ज्यादा आजादी और सुरक्षा मिली। इतना सब होने के बावजूद आज भी यह नहीं कहा जा सकता कि अब भारतीय समाज में कोई भेदभाव नहीं है। महिलाएं आज भी अत्याचार सह रही हैं, उनके साथ बलात्कार की घटनाएं होती हैं, उनकी हत्याएं होती हैं। यहां तक कि भ्रूण में ही बच्चियों को मार देने की भी घटनाएँ सुनने को मिलती रहती हैं। कुछ पुरातनपंथी पोंगा पंडित अभी भी प्रेम विवाह करने वाली लड़कियों की सामाजिक अपमान के नाम पर हत्याएं कर रहे हैं लेकिन फिर भी भारत में उन्हें अन्य तमाम देशों से ज्यादा सुरक्षा प्राप्त है, देश के विकास में उनकी बड़ी हिस्सेदारी है।

यहां कम से कम पाकिस्तान की तरह सरेआम महिलाओं को कोड़े लगाने की घटनाएं तो नहीं होती, पर्दे से बाहर झांक लेने पर मुंह पर तेजाब तो नहीं फेंके जाते। चर्च ने जो फैसला किया है, उससे महिलाओं में और साहस पैदा होगा, वे बड़ी से बड़ी जिम्मेदारियां उठाने के लिए आगे आने की हिम्मत कर सकेंगी। इसी फैसले की कड़ी में फ्रांस की भी चर्चा की जानी चाहिए. जहां सरकार ने बुर्के पर पाबंदी लगा दी है। इस मामले पर लंबे समय से विचार चल रहा था। फ्रांस के लोग मानते हैं कि बुर्का महिलाओं की प्रतिष्ठा का हनन है। संसद के एक सदन ने देश की इस भावना को समर्थन दे दिया है। अब यह मामला सीनेट में जायेगा और ज्यादा संभावना है कि सीनेट भी इसे मंजूर कर लेगा। अल्पसंख्यक इस फैसले का विरोध कर रहे हैं। उनका कहना है कि यह उनका धार्मिक और निजी मामला है और इसमें सरकार को दखल नहीं देना चाहिए। सरकार ने केवल सार्वजनिक स्थानों पर बुर्का पहनकर जाने पर रोक लगायी है, घरों मे वे अपने ढंग से रहने और जीने को आजाद हैं। बदलते समय के साथ इस सामाजिक रुढ़ि को खत्म  करने की कोशिशों के प्रति अल्पसंख्यक समुदाय को लचीला रुख अपनाना चाहिये क्योंकि लगता नहीं कि किसी विरोध के आगे फ्रांस सरकार झुकने वाली है।

कि ये गूंगी सदी होने न पाये

साखी के पहले अंक में आगरा के युवा कवि और शायर संजीव गौतम की गज़लों पर खुलकर बातचीत हुई। अनेक सहित्यप्रेमियों, कवियों,शायरों और उर्दू साहित्य के पारखियों ने जहाँ संजीव के तेवर की तारीफ की, वहीं उनकी गज़लों के बहाने गज़ल के व्याकरण पर भी चर्चा हुई। 
विस्तार से देखें साखी पर 

उमा की ‘इंट्री’ को लेकर भाजपा में धमाल!

वीरेंद्र सेंगर की कलम से
उमा भारती को लेकर एक बार फिर भाजपा के अंदर धमाल शुरू हो गया है। लाल कृष्ण आडवाणी सहित कई वरिष्ठ नेता अब उमा को लेकर सॉफ्ट हो गए हैं लेकिन मध्य प्रदेश में पार्टी के अंदर उमा की इंट्री का सवाल जोरदार खींचतान में  उलझ गया है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और उनके सिपहसालार मंत्रियों ने उमा के मामले में अड़ियल रुख अपना लिया है। इस मुद्दे पर मध्य प्रदेश में कई मंत्रियों के बीच ‘सिर फुटव्वल’ की नौबत आ गई है। कैबिनेट बैठक में  बुजुर्ग नेता बाबू लाल गौड़ ने जोर देकर पार्टीहित में उमा जैसी प्रखर नेता की वापसी को जरूरी बताया, जिस पर मुख्यमंत्री के चहेते कुछ मंत्रियों ने कड़ी आपत्ति की| एक मंत्री ने तो गौड़ को यह कह कर चिढ़ा दिया कि उन पर उम्र हावी हो गई है। इसको लेकर बैठक में बवाल  बढ़ा था। वरिष्ठ मंत्री कौशल विजय वर्गीज  भी गौड़ की तरह से उमा की तरफदारी में खड़े हो गए हैं। भाजपा सूत्रों के अनुसार गौड़ ने तो काफी कड़ा रुख अपना लिया है। नेतृत्व से कह दिया है कि वे अपने अभियान को बंद नहीं करेंगे, चाहे उन्हें मंत्री पद से इस्तीफा देना पड़े। पिछले दिनों ही पार्टी की वरिष्ठ सांसद सुमित्रा महाजन ने उमा की पैरवी में बयान जारी किया था। सुमित्रा ने आडवाणी से कहा है कि राजनीतिक रूप से उमा की काफी उपयोगिता है। ऐसे में उन्हें वापस लेने में कोई हर्ज नहीं है। मध्य प्रदेश के एक और वरिष्ठ नेता  जयभान सिंह पवैया भी उमा की तरफदारी में जुट गये हैं । इन नेताओं ने यह कहना शुरू कर दिया है कि उमा की वापसी से पार्टी को उत्तर प्रदेश में खासतौर पर नई राजनीतिक ऊर्जा मिल जाएगी।

 इस अभियान से मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान खासे बेचैन समझे जा रहे हैं। आखिर उमा भारती को लेकर अभियान एकाएक इतना गर्म क्यों हो गया? भाजपा के अंदर यह सवाल पूछा जा रहा है। हुआ यह कि पिछले दिनों आडवाणी के खास जोर पर जसवंत सिंह को पार्टी में फिर से बहाल कर दिया गया है। पार्टी में दोबारा वापस आने के बाद भी जसवंत सिंह ने खुले तौर पर जिन्ना के बारे में अपने नजरिए को वापस नहीं लिया। इस मामले में खेद भी नहीं व्यक्त किया। जसवंत की इंट्री के बाद ही उमा भारती की वापसी की मुहिम तेज कर दी गई है। पार्टी में एक लॉबी कोशिश कर रही है कि उन तमाम नेताओं को वापस ले आया जाए, जो किन्हीं कारणों से बाहर हो गए हैं। इसी मुहिम के चलते पार्टी ने चर्चित नेता एमके अन्ना पाटिल को दोबारा शामिल कर लिया है। पाटिल को सांसद के   तौर पर पैसे के बदले सवाल पूछने के घोटाले में रगे हाथ ‘स्टिंग’ आपरेशन में धरा गया था। पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय महासचिव, केएन गोविंदाचार्य को भी वापस लाने की मुहिम शुरू हुई है। एक दौर में गोविंदाचार्य को भाजपा का ‘चाणक्य’ कहा जाता था। वे कई सालों से राजनीतिक ‘वनवास’ भोग रहे हैं। गोविंदाचार्य कह रहे हैं कि भाजपा में लौटने का उनका कोई एजेंडा नहीं है।

मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के करीबी नेता कहते हैं कि उमा की इंट्री के बाद उनके लिए समस्या पैदा हो सकती है| उमा चाहे जितने वादे करके आएं कि वे मध्य प्रदेश की राजनीति में ज्यादा दिलचस्पी नहीं लेंगी, लेकिन व्यावहारिक रूप से ऐसा संभव नहीं है।वे  लोध समुदाय से संबंध रखती हैं।  उमा खांटी ईमानदार तो हैं, लेकिन अक्खड़ भी बहुत हैं। partee से निकाले जाने के बाद उन्होंने भारतीय जनशक्ति पार्टी बना ली थी लेकिन इस पार्टी का प्रदर्शन ‘फ्लॉप शो’ जैसा ही रहा है। मुख्यमंत्री चौहान के लिए सुकून की बात यह मानी जा रही है कि संघ के वरिष्ठ नेता सुरेश सोनी भी उमा की इंट्री के खिलाफ हैं। मध्य प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष प्रभात झा, भाजपा के वरिष्ठ नेता अरुण जेटली और सुषमा स्वराज अलग-अलग कारणों से उमा भारती की वापसी के विरोध में हैं। जबकि, पार्टी का एक तबका यह तर्क दे रहा है कि उमा वापस आ गयीं  तो इस ‘कंगाली’ के दौर में उत्तर प्रदेश में पार्टी को लोध वोटों का फिर सहारा मिल जाएगा।

सोमवार, 12 जुलाई 2010

जय हो पाल बाबा की

पाल बाबा, पाल द आक्टोपस, आक्टोपस पाल एलेन और इस तरह के अनेक नाम उसे मिल गये हैं। वह फुटबाल का मसीहा है। कुछ लोग तो उसे फुटबाल का क्राइस्ट कहने में संकोच नहीं कर रहे। दुनिया भर में उसके नाम के चर्चे हैं। जो आदमियों के बूते का काम नहींं, वह एक समुद्री जानवर ने कर दिखाया। दुनिया भर के ज्योतिषियों के लिए एक चुनौती है। अक्सर लोग ज्योतिष को झूठा कह देते हैं। कई बार उनकी भविष्यवाणियां गलत हो जाती हैं, इसलिए उन पर सौ प्रतिशत यकीन नहीं किया जा सकता। अक्सर दो-टूक भविष्यकथन करने में ज्योतिषी डरते भी हैं। कहीं उल्टे बांस बरेली वाली कहावत चरितार्थ न हो जाय। कुछ गड़बड़ हुई तो अंजाम भी भुगतना पड़ सकता है। इसलिए भविष्यवाणी करने के लिए काफी बुद्धिमत्ता की जरूरत होती है।
कुछ ऐसा कहना पड़ता है, जो अमूमन हर आदमी की जिंदगी में घट सकता है। कुछ बुरा होने वाला है तो भी सीधे वैसा कहना ठीक नहीं समझा जाता है। भविष्यवाणी को कुछ मीठी-मीठी बातों के साथ मिलाकर चूरन की तरह पेश करना पड़ता है। मसलन आप के भाग्य में बहुत धन का योग है, वह आता भी है, मगर टिकता नहीं। इसलिए हमेशा आप कठिनाइयों में बने रहते हैं। अथवा आप हमेशा दूसरों के भले की बात सोचते हैं, उनके लिए करते भी हैं, मगर जब आप की जरूरत पड़ती है तो बहुत कम लोग मदद के लिए आते हैं। पर पाल बाबा को इस तरह की बात पसंद नहीं। वे दो टूक बात करते हैं। जो होना है सिर्फ वही कहते हैं। चाहे कोई नाराज हो या खुश। उन्हें परवाह नहीं कि उनकी बात से किसी को मिर्ची लग जायेगी, कोई उनके खिलाफ प्रदर्शन करेगा, नारे लगायेगा, पुतला फूंकेगा। बुरी लगे तो लगे, पर सच तो सच ही है। पाल बाबा पर जर्मनी के लोग बहुत नाराज हुए। उनका कहना है कि जर्मनी की हार का कारण पाल बाबा हैं। पर स्पेन में पाल बाबा की जयजयकार हो रही है, उनके मसीहाई अंदाज पर लोग बेतरह फिदा हैं, उनके लिए कुर्बान होने को भी तैयार हैं। स्पेन के एक व्यापारी का तो दिल ही पाल बाबा पर आ गया है। उसने उन्हें खरीदने की इच्छा जतायी है। 38 हजार डालर की बोली भी लगा दी है। यह राशि भविष्य में और बढ़ सकती है।

अब तक ज्योतिष की वैज्ञानिकता पर ऊंगली उठाने वाले, उसे अवैज्ञानिक और अनुुमान मात्र करार देने वालों को कोई तर्क नहीं सूझ रहा है। वे मनुष्य रूपधारी ज्योतिषियों से पंगा लेने में तनिक नहीं घबराते थे पर एक पशु-ज्योतिर्विज्ञानी के हाथों उन््हें करारी मात मिली है, कड़ी चुनौती मिली है। टुटपुंजिये तर्कविज्ञानी मुंह छिपाये फिर रहे हैं। कैसे गलत ठहरायें पाल बाबा को। एक भी तो गलती नहीं की उन्होंने। जो कह दिया, पत्थर की लकीर बन गयी। बाबा बोला तो किसी की तकदीर फूट गयी और किसी की संवर गयी। सोचें तो एक तरह से पाल बाबा ने ज्योतिषियों का मान बढ़ाया है, ज्योतिष पर संदेह करने वालों को सच्चा और खरा जवाब दिया है। इसका लाभ आगे ज्योतिषियों की जमात को जरूर मिलेगा। पाल बाबा सोशल वेबसाइटों पर छा गये हैं, फेसबुक पर लोग उनसे दोस्ती के लिए झपट रहे हैं। अब स्पेन भले ही खुशी मनाये, फीफा विश्वकप का जुलूस निकाले पर असली जीत तो पाल बाबा के नाम गयी है। जय हो पाल बाबा की। सुना है बाबा संकट में है| कोई बात नहीं, बाबा ने इतिहास रच दिया है| वे रहें न रहें, उनका नाम तो रहेगा ही|

जातीय जनगणना में ‘फंसी’ सरकार

वीरेंद्र सेंगर के कलम से
जातीय जनगणना के मुद्दे पर सरकार को ऐसा कोई रास्ता  नहीं मिल रहा, जिससे सभी पक्षों को संतुष्ट किया जा सके। जीओएम अभी तक यह भी तय नहीं कर पाया कि आखिर किस मुद्दे पर बात ज्यादा उलझ रही है। अब  मुख्यमंत्रियों की राय जानने के बाद ही जीओएम आगे कार्रवाई करेगा।  जद (यू) के प्रमुख शरद यादव हैरानी जताते हैं कि जीओएम महीनों बाद भी इस जरूरी मुद्दे पर अपनी राय क्यों नहीं बना पाया? उनका आरोप है कि सरकार जानबूझ कर इस मुद्दे को टालने की कोशिश कर रही है। सवर्णवादी मानसिकता को इस सच्चाई से डर है कि अगर पिछड़े वर्ग का आधिकारिक आंकड़ा आ गया, तो वे अपने हक की लड़ाई ज्यादा तेज कर देंगे। वे कहते हैं कि यदि सरकार ने इस फैसले में और देर लगाई, तो पिछड़े वर्गों के अंदर असंतोष का भारी उबाल आ जाएगा।

गौरतलब है कि संसद के पिछले सत्र में लोकसभा में बहस के बाद प्रधानमंत्री की पहल पर प्रणव मुखर्जी की अध्यक्षता में गठित जीओएम को एक महीने के अंदर ही रिपोर्ट देनी थी लेकिन ऐसा नहीं हो पाया। जीओएम की दो बैठकों में मतभेद के स्वर उभरने के बाद जीओएम ने सभी मुख्यमंत्रियों से इस बारे में राय मांगी है| इस संवेदनशील मुद्दे पर कांग्रेस के भीतर भी तीखे मतभेद बने हुए हैं। पिछड़े वर्ग के सांसद लगभग लामबंद हो गए हैं। इन लोगों ने सरकार पर दबाव बनाया है कि पाखंडी तर्कों को दरकिनार कर जातीय आधार पर जनगणना के आदेश गृह मंत्रालय को दे दिए जाएं। जबकि कांग्रेसियों का एक हिस्सा नहीं चाहता कि दबाव में जातीय गणना कराई जाए। इस तबके का तर्क है कि इस एक फैसले से जातिवाद को नए सिरे से बढ़ावा मिल जाएगा।

इस मुद्दे पर भाजपा के अंदर भी अंतरविरोधी स्वर तेज हुए हैं। आधिकारिक रूप से भाजपा ने जातीय जनगणना का समर्थन किया है जबकि खुले तौर पर पार्टी के मुरली मनोहर जोशी जैसे नेता कह रहे हैं कि जातीय जनगणना कराना देश के लिए आत्मघाती होगा। संघ प्रमुख, मोहन भागवत भी कह चुके हैं कि जातीय जनगणना कराना किसी तरह से उचित नहीं होगा। उनके स्वयं सेवक देशभर में ऐसे किसी फैसले का विरोध करेंगे।  जाने माने पत्रकार, वेद प्रताप वैदिक की अगुवाई में बुद्धिजीवियों का एक बड़ा दस्ता तैयार हुआ है, जो जातीय जनगणना के खिलाफ अभियान शुरू कर रहा है। वैदिक कहते हैं कि जातीय जनगणना कराने का मतलब होगा कि सरकार जातिवाद को वैधानिक लाइसेंस दे देगी। शरद यादव ऐसे तर्कों को पाखंड करार करते हैं। वे कहते हैं कि जाति इस देश की हकीकत है। यदि सही आंकड़ा आ गया, तो कौन सी आफत आ जाएगी?

सरकार को डर है कि अगले सत्र में उसकी खिंचाई हो सकती है, शायद इसी लिए पीएमओ ने प्रणव के नेतृत्व वाले जीओएम से कहा है कि वह इस मामले में हर हाल में अगस्त के पहले सप्ताह तक अपनी रिपोर्ट दे दे।  वाम मोर्चा खुलकर दबाव बनाए है कि  जाति आधारित जनगणना नहीं होनी चाहिए क्योंकि इससे समाज में नए तरीके की जटिलताएं फैलेंगी। कांग्रेस में खींचतान जारी है। शीर्ष नेतृत्व ने इस पर फैसला सरकार के ‘संकट मोचक’ माने जाने वाले प्रणव दा पर छोड़ दिया है।

रविवार, 11 जुलाई 2010

हम गहरी नींद में

कितना अजीब है कि हर आदमी पैसे के लिए पगलाया घूम रहा है। कुछ भी कर गुज़रने को तत्पर, नीचे से नीचे गिरने को सन्नद्ध, गलीज से गलीज काम करने को कटिबद्ध। छोटे से दुकानदार से लेकर व्यवसायी, अफ़सर, नेता और वे भी जो त्याग का प्रवचन देकर पेट भरते हैं, जिन्होंने भगवान को पाने के लिए घर छोड़ दिया, जो कंचन, कामिनी और कीर्ति के त्रिमोह से बचने की सलाह देते फिर रहे हैं। सबको पैसा चाहिए। कितना चाहिए, किसी को पता नहीं। बस इतना पता है कि जितना मिल गया, उससे ज़्यादा चाहिए। इस खेल के बीच में ही जीवन के रंग-मंच से साँसों का पर्दा गिर जाय तो गिर जाय, इस मोहांधता में कारागार तक पहुंचने का रास्ता खुल जाय तो खुल जाय। कोई चिंता नहीं, मौत का क्या पता, पैसा आ रहा है, आने दो। कोई मिलावट करके अपनी तिजोरी भर रहा है तो कोई उत्कोच के नंग नाच में शामिल होकर, कोई दलाली से पैसे झटक रहा है तो कोई लंपटता, धूर्तता और पाखंड से।

अपने देश में तो ऐसा नहीं था। इसीलिए हमारा सम्मान था। हमारे साधुओं ने गाया, चाह गयी चिंता मिटी, मनुआ बेपरवाह, जिनको कछू न चाहिए, वे साहन के साह। बादशाहों का भी बादशाह वह है, जिसको किसी से कुछ नहीं चाहिए, जिसकी कुछ भी पाने की आकांक्षा नहीं है। जब कोई कुछ नहीं चाहने वाला होता है तो उसके पास जो कुछ भी आता है, वह दूसरों को दे देता है। हो सकता है किसी को उसकी ज़्यादा ज़रूरत हो, किसी के जीवन का सूत्र उससे संभल जाय, किसी की टूटती सांस उससे थम जाय। यह त्याग हमारे परम पुरुषार्थ का संकेत था। यह इस बात का भी संकेत था कि दूसरों के लिए जीना अपने लिए जीने से श्रेष्ठतर है। यह श्रेष्ठता अचानक मूर्खता में बदल गयी है। जिसके पास पैसा है, वही सम्मान का पात्र है, वही महान है, आदरणीय है। व्यक्तिगत जीवन में वह चाहे कितना ही भ्रष्ट, कदाचारी और बेईमान क्यों न हो। सभी गुण धन में निवास करते हैं, यह कहावत अब एक विकट सचाई की तरह सबके सामने है।

जिनके पास धन है, लक्ष्मी है, माना जाने लगा है कि उनके पास सरस्वती भी होंगी ही। वही विद्वत्जनों की गोष्ठियों का शुभारंभ करते हैं, वही इस युग के महान तपसपुत्रों के प्रवचन का प्रारंभ कराते हैं, वही विद्यालयों, विश्वविद्यालयों के कार्यक्रमों के प्रमुख अतिथि बनकर सुभाषित वचन कहते हैं। और आश्चर्य ज्ञान के महारथी, अपने विषय के पंडितों की जमात उनके बकवाद पर हर्षोन्मत्त हो तालियाँ बजाती है। पैसा हमारे जीवन को निगलता जा रहा है, हम लालच के भंवर में उघ-चुघ कर रहे हैं, हमारा स्वाभिमान तिरोहित होता जा रहा है और हम हैं कि मुंगेरीलाल बने अपनी सपन-सजीली नींद में मस्त हैं। हमने न जागने की ठान ली है। हम धन-संपदा की इस मदिरा के नशे में और गहरी, बेहोशी भरी नींद में जाने को तैयार हैं।

पैसा है तो सारा सुख है, सारी सुविधाएँ हैं, पैसा है तो सौंदर्य है, मद भरा चषक है, पैसा है तो वैभव के अथाह और नंग अंतरंग में उतरने की सामर्थ्य है, पैसा है तो किसी को भी ख़रीद लेने की ताक़त है। इसलिए पैसा आना चाहिए। इसी पैसे ने पहले पश्चिम को बेहोश किया और अब जब वे थोड़े जगे हैं तो सब कुछ लुट चुका है, बैंकें ख़ाली हो गयी हैं, दिवालिया हो गयी हैं, मंदी की घनी और डरावनी छाया बिगड़ैल भूत की तरह सामने खड़ी है। अब वही हमें बेहोशी में डालकर हमारा सब कुछ लूटना चाहते हैं और हम समझ नहीं पा रहे हैं। हम लुट जाने को तैयार हैं, मिट जाने को तैयार हैं।

चाहे बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ हों या दूरदर्शन या मीडिया, सभी अनजाने या जानबूझकर पश्चिमी लुटेरों की ओर से लोगों पर लालच के जाल फेंक रहे हैं। लाखों लोगों ने शेयरों में पैसा लगाया और फिर इंतजार करते रहे कि जो लगा है, उतना ही मिल जाय, तड़पते रहे कि कहीं डूब न जाय। और भी खेल हैं। किसी सुंदरी के साथ हाथ मिलाने की चाह हो या उसके साथ भोजन करने की या उससे स्वयंवर रचाने की, कौन फेंक रहा है ये लुभावने पाशे? कौन चल रहा है कुछ सवालों के जवाब के बदले करोड़पति बना देने का दाँव? पहचान नहीं पाये तो आप के भीतर जो लालच का समुद्र जगाया जा रहा है, वही एक दिन आप को निगल जायेगा। बचने का एक मौक़ा तो वक़्त सबको देता है, हमारे पास भी है, पर हम उसका लाभ उठा सकें तब तो।

शनिवार, 10 जुलाई 2010

वोट बैंक ‘किलिंग’ के डर से खापों को राहत

वीरेंद्र सेंगर की कलम से
जाति, धर्म व खापों की संकीर्ण लक्ष्मण रेखाएं तोड़ने वाले युवा जोड़ों को इधर लगातार मौत के घाट उतारा जा रहा है। राष्ट्रीय राजधानी में भी खापों का खौफ दस्तक दे चुका है। हाल के महीनों में दर्जनों खापों की दरिंदगी की दास्तानें सामने आ चुकी हैं। झूठी शान के नाम पर इन मदमस्त जाति समूहों ने उकसावा देकर कई भाइयों के हाथों से ही बहनों का खून करा दिया। कई जगह आदिम युग की बर्बरता को मात देते हुए दिन दहाड़े पत्थरों से युवा जोड़े को तिल-तिलकर मरवा डाला गया। कसूर, यही कि उन्होंने खाप की ‘मर्यादाओं’ को तोड़ा था। और प्रेम करने की जुर्रत की थी। मौजूदा कानूनी प्रावधानों में इसकी पूरी गुंजाइश है कि जातीय स्वाभिमान के नाम पर मौत का खेल रचाने वाले बच जाएं। ऐसे में दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) और भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) में व्यापक संशोधनों का प्रस्ताव गृह मंत्रालय ने तैयार किया है लेकिन कैबिनेट के अंदर कुछ मंत्रियों ने इतने कड़े कानूनी प्रावधानों पर तरह-तरह के सवाल उठाए।

नए कानूनी प्रावधानों को लेकर मानव संसाधन मंत्री, कपिल सिब्बल ने सबसे पहले सवाल खड़े किए।  उनका कहना था कि ‘आनर किलिंग’ जैसे जघन्य अपराध सामाजिक अपराधों के दायरे में आते हैं। ऐसे में कारगर तरीका यही होगा कि सामान्य कानून में छेड़छाड़ न करके, विशेष कानून बना दिया जाए। उन्होंने यह सवाल भी किया था कि कानून व व्यवस्था से जुड़े इस कानूनी संशोधनों में राज्य सरकारों से मशविरा क्यों नहीं हुआ? युवा मामलों के  मंत्री, एमएस गिल ने सवाल किया  कि प्रस्तावित संशोधन से वह पूरी खाप पंचायत ‘हत्यारी’ मान ली जाएगी, जिसके फरमान पर कोई ‘आनर किलिंग’ हो जाएगी। ऐसे में क्या पूरे गांव को फांसी पर चढ़ा दिया जाएगा?  कहीं ऐसा न हो कि सख्त कानून बनाने के चक्कर में सरकार सामाजिक पंचायती व्यवस्था में ‘विलेन’ की भूमिका में आ जाए।  सड़क परिवहन मंत्री, कमलनाथ ने भी गिल की आशंका का समर्थन कर दिया। इस तरह कई मंत्रियों ने इशारे-इशारे में बता दिया कि खापों को बड़ी चुनौती देने का मतलब है कि मजबूत वोट बैंक   से राजनीतिक खिलवाड़।

बात आगे बढ़ी, तो सरकार के ‘संकट मोचक’ प्रणव मुखर्जी ने कह दिया कि इस मामले में भी ‘जीओएम’ गठित करना ठीक रहेगा। इस सुझाव पर प्रधानमंत्री ने अपनी सहमति दे दी। 26 जुलाई से संसद का सत्र शुरू होने जा रहा है। यह करीब एक महीने तक चलेगा। क्या, राज्यों से विमर्श की प्रकिया ‘जीओएम’ दो-तीन सप्ताह में ही पूरा कर लेगा? इस सवाल पर कई मंत्री अनौपचारिक तौर पर मानते हैं कि पैनल को इस मामले में देर लगने के पूरे आसार हैं। क्योंकि, हरियाणा और पंजाब के कई प्रभावशाली सांसद दबाव बनाए हुए हैं कि खाप पंचायतों के खिलाफ इतना बड़ा कदम नहीं उठाया जाना चाहिए।हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपिंदर सिंह हुड्डा खुले तौर पर खाप पंचायतों की तरफदारी करते रहे हैं।पिछले दिनों हरियाणा के चर्चित उद्योगपति सांसद नवीन जिंदल ने तो करनाल की एक खाप रैली में शिरकत भी की थी।
 
गृह मंत्रालय के सूत्रों के अनुसार प्रस्तावित संशोधन मान लिया गया तो, ‘आनर किलिंग’ के मामले में वे सभी हत्या के दोषी माने जाएंगे, जो फैसले के वक्त पंचायत में रहे होंगे। यह कानून बन जाने से खापों की मनमानी पर प्रभावी अंकुश लग सकता है। प्रस्ताव है कि अपनी बेगुनाही भी खापों को ही सिद्ध करनी पड़ेगी। सीपीएम की वरिष्ठ सांसद, वृंदा करात कहती हैं कि वोट बैंक खिसकने के डर से सरकार ने जरूरी कानूनी संशोधन का फैसला नहीं लिया। ‘जीओएम’ तो फैसला टालने का एक राजनीतिक हथियार जैसा बन गया। पिछले महीनों में 50 से ज्यादा ऐसे मामले सामने आ चुके हैं। फिर भी सरकार ने ‘विमर्श’ के लिए आगे बढ़े कदम रोक लिए हैं।

शुक्रवार, 9 जुलाई 2010

हो सकती है कई ‘माननीयों’ की छुट्टी

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वीरेंद्र सेंगर की कलम से

 अगर मंत्रिमंडल फेरबदल में मंत्रियों के ‘रिपोर्ट कार्ड’ की कसौटी बनी तो कई स्वनामधन्य ‘माननीयों’ का कैबिनेट में टिके रहना मुश्किल हो जाएगा। शरद पवार ने खुद प्रधानमंत्री से कह दिया है कि उनका ‘बोझ’ कुछ हल्का कर दें। वे अपने पास केवल कृषि मंत्रालय रखना चाहते हैं। पवार के करीबी सूत्रों का दावा है कि इस पेशकश के पीछे कोई राजनीतिक ‘उस्तादी’ नहीं है। इतना जरूर है कि वे इतनी उदारता दिखाकर अपने दो खास सिपहसालारों की पावर बढ़वाना चाहते हैं। कोशिश है कि प्रफुल्ल पटेल का दर्जा कैबिनेट का करा दिया जाए और तारिक अनवर को स्वतंत्र प्रभार वाला राज्य मंत्री बना दिया जाए। महंगाई के मुद्दे पर पवार के कुछ बयानों से प्रधानमंत्री तक की किरकिरी हो चुकी है।

पीएमओ ने सभी मंत्रालयों के एक साल के कामकाज की एक गोपनीय समीक्षा रिपोर्ट तैयार कराई है। पीएमओ सूत्रों के अनुसार, केवल मंत्रालयों की ‘रिपोर्ट कार्ड’ ही मंत्रियों की राजनीतिक कसौटी नहीं बन सकती। वजह यह है कि उम्दा काम करने वाले कई मंत्री भी प्रधानमंत्री के लिए कम सिरदर्द नहीं बने। मसलन पर्यावरण राज्य मंत्री जयराम रमेश अपने काम में दक्ष हैं, ईमानदार हैं और प्रधानमंत्री के विश्वसनीय भी पर अपनी इन खूबियों के बावजूद वे कई तरह के विवादों में हैं। कोयला राज्य मंत्री, श्रीप्रकाश जयसवाल के तमाम अनुरोध के बावजूद रमेश कोयला खदानों के खनन मामलों में आपत्तियां लगा चुके हैं। सड़क परिवहन मंत्री, कमल नाथ भी पिछले तीन महीने से शिकायत कर रहे हैं कि उनकी नई योजनाओं में पर्यावरण मंत्री अड़ंगा लगा देते हैं।
‘दस जनपथ’ के करीबी नेताओं में शुमार स्वास्थ्य मंत्री, गुलाम नबी आजाद की  कार्यशैली बहुत प्रभावी नहीं समझी गई है। पीएमओ के तमाम दबावों के बावजूद स्वास्थ्य मंत्रालय ने राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन को कभी गंभीरता से नहीं लिया। ग्रामीण विकास मंत्री हैं, सीपी जोशी प्रधानमंत्री के करीबियों में माने जाते हैं। उनके मंत्रालय का कामकाज लगातार आलोचनाओं का शिकार रहा है। पिछले दिनों वे मनरेगा की मजदूरी के मामले में छत्तीसगढ़ सरकार से भिड़ गए थे। पर उनकी पकड़ इतनी मजबूत है कि शायद ही उनका बाल बांका हो पाए| कांति लाल भूरिया  के आदिवासी कल्याण मंत्रालय की उदासीनता के चलते जनजातीय बहुल इलाकों में कई कारणों से नाराजगी बढ़ी है, लोगों का झुकाव  नक्सलवादियों के प्रति बढ़ा हैं। पीएमओ को लगता है कि यदि जनजातीय मामलों का मंत्रालय ढंग से कामकाज करता तो आदिवासी इलाकों में नक्सलवादियों का प्रभाव इतने खतरनाक स्तर पर नहीं पहुंचता।

रेल मंत्री, ममता बनर्जी अपने मंत्रालय को बहुत कम समय दे पाती हैं। अधिसंख्य कैबिनेट बैठकों से भी गायब रहती हैं। यूपीए  में कांग्रेस के बाद ममता की तृणमूल कांग्रेस के  सबसे ज्यादा सांसद हैं। ऐसे में कांग्रेस नेतृत्व ममता पर कोई दबाव बनाने की स्थिति में भी नहीं है। रेल जैसे भारी भरकम मंत्रालय के तमाम जरूरी फैसले महीनों लंबित पड़े रहते हैं। पीएमओ ने अपनी कसौटी में इस मंत्रालय के कामकाज को भी संतोषजनक नहीं माना। लेकिन, शायद ही कोई ममता बनर्जी की तरफ अंगुली उठाने की हिम्मत कर पाए| डीएमके कोटे से एम. अलागिरी रसायन एवं उर्वरक मंत्री हैं। वे  डीएमके सुप्रीमो के. करुणानिधि के पुत्र हैं। उनके मंत्रालय का ‘रिपोर्ट कार्ड’ संतोषजनक नहीं बताया जा रहा। केंद्रीय संचार मंत्री ए. राजा पर अरबों के घोटाले के आक्षेप हैं।  प्रधानमंत्री कोशिश कर रहे हैं कि सरकार से ए. राजा की विदाई हो जाए। लेकिन, यह तब तक संभव नहीं है, जब तक इसके लिए करुणानिधि राजी न हो जाएं।

गजानन माधव मुक्तिबोध की धर्मपत्नी श्रीमती शांता मुक्तिबोध का निधन

हिंदी के जाने माने साहित्यकार और कवि गजानन माधव मुक्तिबोध की धर्मपत्नी श्रीमती शांता मुक्तिबोध का निधन  गुरूवार रात रायपुर में हो गया।  वे दैनिक भास्कर रायपुर के पूर्व संपादक और वरिष्ठ पत्रकार दिवाकर मुक्तिबोध की माँ थीं।दिवाकर मुक्तिबोध का फोन नंबर है - 09826122289 । सृजनगाथा परिवार,  बात-बेबात, नुक्कड़ और तमाम साहित्यानुरागियों  की ओर से मृतात्मा को हार्दिक श्रद्धांजलि ।
सृजनगाथा के सौजन्य से 

गुरुवार, 8 जुलाई 2010

धधकते कश्मीर में सेना की ‘झप्पी’!

(वीरेंद्र सेंगर की कलम से)
कश्मीर की गाड़ी एक बार फिर पटरी से उतरती नजर आ रही है। घाटी को फिर से अशांति और अराजकता की भट्ठी में झोंकने की कोशिशें शुरू हो गई हैं। श्रीनगर से 11 जून को हिंसक वारदातों का सिलसिला शुरू हुआ था। करीब एक महीने के अंदर ही सुरक्षाबलों के खिलाफ पूरी घाटी में आक्रोश और नफरत की आग भड़का दी गई है। हालात बेकाबू होते देखकर श्रीनगर सहित घाटी के कई संवेदनशील इलाकों में सेना की तैनाती कर दी गई है। सीआरपीएफ के खिलाफ लोगों में बहुत गुस्सा है। गृह मंत्रालय की एक उच्च स्तरीय बैठक में सीआरपीएफ के आला अफसरों को तलब किया गया था। सूत्रों के अनुसार, मंत्रालय ने निर्देश दे दिया है कि सुरक्षाबल उत्तेजित होकर गोलीबारी करने से परहेज करें। घाटी के भड़के लोगों पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने के लिए सीआरपीएफ की भूमिका ‘एक कदम’ पीछे खींच ली गई है। कोशिश की जा रही है कि घाटी के आम लोगों को एक बार फिर विश्वास में ले लिया जाए। एक तरह से सेना का इस्तेमाल विश्वास की ‘झप्पी’ के तौर पर करने की रणनीति बनी है। 

फिलहाल, सेना को यही लक्ष्य दिया गया है कि वह एक सप्ताह के अंदर अराजकता फैलाने वाले तत्वों को धर दबोचें। हिंसा के ताजा दौरे से ‘राजनीतिक संवाद’ की शुरुआती कोशिशों को भारी झटका लगा है। मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने भी स्वीकार कर लिया है कि घाटी के हालात नाजुक हैं लेकिन वे यह मानने को तैयार नहीं हैं कि इस स्थिति के लिए एक हद तक उनके प्रशासन की असफलता रही है। उनका कहना है कि घाटी की ताजा घटनाओं की जड़ में राजनीतिक समस्या है। जब तक इस मुद्दे को ‘संवाद’ के जरिए नहीं सुलझाया जाएगा, तब तक ‘कैंसर ग्रस्त’ कोशिकाएं विषवमन करतीं रहेंगी। उन्होंने केंद्र सरकार से एक बार फिर अपील की है कि वह राजनीतिक  ‘संवाद’ बढ़ाने के लिए सक्रिय रहे क्योंकि अलगाववादी तत्व लोगों के जज्बातों से खेलने में लग गए हैं।

घाटी में हिंसा के तांडव की शुरुआत श्रीनगर से ही 11 जून को हुई  और धीरे-धीरे उसने विकराल रूप धारण कर लिया। गोलीकांडों से कई जगह हालात नाजुक होते गए। कर्फ्यू भी लगाया गया। लेकिन उत्तेजित लोगों ने कई जगह कर्फ्यू तोड़ डाला। पिछले एक महीने में सुरक्षाबलों की गोलियों से 16 लोग मारे जा चुके हैं। इसी के चलते अलगाववादी तत्वों ने सरकार के खिलाफ माहौल बना दिया है। वे ‘आजादी-आजादी’ के नारे लगवाकर लोगों को ‘जेहाद’ के लिए तैयार कर रहे हैं। पिछले दो सालों से यहां शांति का वातावरण बन रहा था। इससे उम्मीद बढ़ी थी कि घाटी के लोग देश की मुख्यधारा से जुड़ने के लिए उत्सुक हो गए हैं। डेढ़ साल पहले यहां विधानसभा के चुनाव हुए थे। अलगाववादियों की तमाम धमकियों के बावजूद 60 प्रतिशत का रिकॉर्ड मतदान हुआ था। चुनाव के बाद नेशनल कांफ्रेंस व कांग्रेस की साझा सरकार बनी थी। उमर अब्दुल्ला के नेतृत्व में सरकार माहौल ठीक करने में जुटी रही है।

मुख्यमंत्री की खास पहल के चलते केंद्र सरकार अलगाववादी गुटों से भी कश्मीर के मुद्दे पर ‘संवाद’ करने का संकल्प जता चुकी है। गृह मंत्री, पी. चिदंबरम इस पहल की शुरुआत भी कर चुके हैं। माना जा रहा है कि सीमा पार की ताकतें नहीं चाहतीं कि कश्मीर के लोग भारत की मुख्यधारा से जुड़ें। ऐसे में वे संवाद को आगे नहीं बढ़ने देना चाहते। गृह मंत्री भी कह चुके हैं कि घाटी की ताजा हिंसक वारदातों के पीछे पाकिस्तानी आतंकी संगठनों की बड़ी भूमिका है। वे उपद्रव कराने के लिए लोगों को पैसे भिजवा रहे हैं। लेकिन, पीडीपी की नेता महबूबा मुफ्ती कहती हैं कि केंद्र सरकार अपनी कमजोरियां छिपाने के लिए सारी जिम्मेदारी पाकिस्तान पर डालकर बरी नहीं हो सकती। वे कहती हैं कि गृह मंत्रालय, सीआरपीएफ को निर्देश क्यों नहीं देता कि सुरक्षाबल रक्षक की भूमिका में रहें, वे हत्यारों की टोली में न बदलें?  गृह मंत्रालय के सूत्रों का कहना है कि सीआरपीएफ को घाटी से हटाने की फिलहाल कोई योजना नहीं है। मुख्यमंत्री को समझदारी से काम करने की सलाह दी गई है।

मंगलवार, 6 जुलाई 2010

शुभकामनाएं कविता कोश

 कविता कोश की स्थापना का चौथा वर्ष पूरा हो गया। हिन्दी काव्य का यह ऑनलाइन कोश इस बात का एक बेहतरीन उदाहरण है सामूहिक प्रयासों द्वारा किसी भी कठिन और विशाल लक्ष्य को पाया जा सकता है। कविता कोश साहित्य के भविष्य का भी दर्पण है। इस कोश में संकलन के द्वारा न केवल दुर्लभ और लुप्त होती कृतियों को बचाया जा रहा है बल्कि ये कृतियाँ सर्व-सुलभ भी हो रही हैं। रचनाकार कविता कोश में अपनी रचनाओं के संकलन के बाद संतुष्टि का अनुभव करते है कि उनकी रचनाएँ समस्त विश्व में पढी़ जा सकती हैं और सुरक्षित व सुसंकलित हैं। इस तीसरे वर्ष में भी कोश तीव्र गति से आगे बढा़। अभी तक कोश में 32000 पन्ने जुड़  चुके हैं.
इस वर्ष कविता कोश टीम में संपादक श्री अनिल जनविजय ने सर्वाधिक योगदान करते हुए कोश में 10,000 पन्नें बनाने का आंकडा पार कर लिया। कोश से नए जुड़े कर्मठ योगदानकर्ता धर्मेंद्र कुमार सिंह ने तेज़ी से योगदान करते हुए 3000 से अधिक पन्नों का निर्माण किया। कविता कोश टीम के सदस्य श्री द्विजेन्द्र 'द्विज' ने ग़ज़ल और नज़्म विधा की रचनाओं को जोड़ने और उर्दू के कठिन शब्दों के अर्थ कोश में शामिल करने का महत्वपूर्ण कार्य किया। प्रसिद्ध ग़ज़लकारा श्रद्धा जैन अपने पिछले वर्ष के सक्रिय योगदान को आगे बढ़ाते हुए कोश में 1000 पन्नें जोड़ने वाली सातवीं योगदानकर्ता बनीं। अन्य प्रमुख योगदानकर्ताओं में प्रदीप जिलवाने, विभा झलानी, हिमांशु पाण्डेय, राजीव रंजन प्रसाद, अजय यादव, संदीप कौर सेठी, मुकेश मानस, नीरज दइया और वीनस केशरी के नाम शामिल हैं। इन सभी योगदानकर्ताओं के श्रम के कारण ही आज कविता कोश अपने वर्तमान स्वरूप को पा सका है। इस वर्ष कविता कोश टीम ने कोश को और अधिक उन्नत और सुरुचिपूर्ण बनाने के उद्देश्य से कई नए प्रयास आरंभ किए हैं। प्रादेशिक कविता कोशों का निर्माण कार्य भी आरम्भ कर दिया गया है। सोशल नेटवर्किंग साइट फ़ेसबुक पर भी कविता कोश का अकाउंट खोला गया है. इस समय करीब 3900 व्यक्ति फ़ेसबुक के ज़रिये कविता कोश से जुड़े हैं। हिन्दी के अलावा अन्य भाषाओं के काव्य को कविता कोश में समेटने की योजना को पाँचवे वर्ष में अमली जामा पहनाने का प्रयास किया जाएगा। (कविता क़ोश से )

यह कोई नया झूठ तो नहीं?

क्या सचमुच पाकिस्तान को होश आ गया है? वह अपनी लंबी और गहरी नींद से उठ गया है? या यह भी एक चाल है, एक बहाना है सारी दुनिया को दिखाने का कि वह आतंकवाद के खिलाफ कितना सचेष्ट है, कितना आक्रामक है? उसने जमात-उद-दावा समेत 23 आतंकवादी संगठनों पर पाबंदी लगा दी है। जिन संगठनों पर पाबंदी लगायी गयी है, उनमें जैशे-मुहम्मद, लश्करे-जांघवी और तश्करे-तैयबा भी शामिल हैं। जमात के मुखिया हाफिज सईद और अन्य प्रतिबंधित संगठनों के सदस्यों पर पाकिस्तान से बाहर जाने पर रोक लगा दी गई है। इस आदेश की एक विडंबना है कि सईद के पाकिस्तान में आने-जाने पर कोई रोक नहीं है। उनके कुछ खातों को जब्त कर लिया गया है। उन्हें हथियारों के लाइसेंस भी नहीं मिलेंगे। भारत अरसे से जमात पर कार्रवाई करने की मांग कर रहा था। इसी जमात के मुखिया मुंबई में हुए प्राणघातक हमले के मुख्य सूत्रधार माने जाते हैं।

पाकिस्तान की नीयत पर कभी पूरी तरह भरोसा कर पाना मुश्किल होता है क्योंकि वह अक्सर कहता कुछ है और करता कुछ है। भारत के तमाम आग्रहों के बावजूद उसने लंबे अरसे से हाफिज सईद को मुक्त छोड़ रखा था। वह पूरे पाकिस्तान में भारत-विरोधी आग उगलने में जुटा रहता है। जब इन बातों की ओर पाकिस्तान का ध्यान दिलाया जाता है तो या तो वह सईद के खिलाफ सुबूत की मांग करता है या कहता है कि जिस तरह भारत में तमाम लोग तरह-तरह के बयान देते रहते हैं, उसी तरह पाकिस्तान में भी। मुल्क में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है और किसी को भी अपनी बात कहने से रोका नहीं जा सकता। इस गलीज तर्क के आगे कोई भी क्या कर सकता है? जहां तक सुबूत की बात है, पाकिस्तानी नेताओँ ने मुंबई हमले के बाद जिस तरह इस हत्याकांड में पहले पाकिस्तान का हाथ होने से इंकार किया और फिर स्वीकार किया, वह किसी से छिपा नहीं है। पहले तो उन्होंने यह भी मानने से इंकार कर दिया था कि कसाब पाकिस्तान के फरीदकोट का रहने वाला है लेकिन उन्हीं के एक टीवी चैनल द्वारा उसके पिता का साक्षात्कार प्रसारित किये जाने के बाद पाकिस्तान यह मानने को मजबूर हुआ कि कसाब पाकिस्तानी नागरिक है। झूठ बोलने में पाकिस्तानी नेताओं, मंत्रियों का कोई सानी नहीं है।

प्रतिबंध की यह कार्रवाई भी तब अंजाम दी गयी है जब पाकिस्तान की एक मस्जिद में हाल में एक जबरदस्त धमाका हुआ और 40 लोग मारे गये। तर्क दिया गया है कि इस हमले के बाद जनता में बहुत गुस्सा है, बड़ी नाराजगी है, इसलिए सरकार को यह कदम उठाना पड़ा है। पर गौर करें तो पाकिस्तान की जमीन पर किसी मस्जिद में यह कोई पहला हमला नहीं है। इस तरह के हमले तो वहां आम तौर पर होते ही रहते हैं। जनता की नाराजगी का खयाल पाकिस्तान सरकार को इससे पहले तो कभी नहीं आया। यह अचानक जनता के दर्द की समझ पाक हुक्मरान में कहां से पैदा हो गयी। जब स्वात घाटी में पूरी तरह तालिबान का कब्जा हो गया था, जब महिलाओं की सरेआम पिटाई हो रही थी, जब सिखों से जजिया वसूला जा रहा था, तब यह सरकार कहां सो रही थी? तब जनता के दुख-दर्द खई उसे परवाह क्यों नहीं हुई? यह सब झूठी बातें लगती हैं।

दिलचस्प बात यह है कि जिस अमेरिका को भारत अपना सहयोगी देश मानता है, वह अमेरिका भी आतंकवादियों के मामले में दोगली भूमिका में दिखायी पड़ता रहा है। भारत ने तमाम प्रयास कर लिये लेकिन अमेरिका ने तालिबान की तरह उन आतंकवादी संगठनों की नकेल कसने की बात कभी पाकिस्तान से नहीं की, जो कश्मीर में अस्थिरता फैलाने के षड्यंत्र करते रहते हैं। शायद अमेरिका को ये लगता रहा हो कि ये आतंकवादी संगठन पाकिस्तान सरकार की सरपरस्ती में काम करते हैं, पाक सरकार के दोस्त की तरह केवल भारत का सरदर्द हैं, अमेरिका को इससे क्या लेना-देना। लेकिन लगता है कि अमेरिका की इस सोच में थोड़ी तबदीली आयी है। हाल के दिनों में कुछ आतंकवादी विदेशी जमीनों पर पकड़े गये, जो लश्कर से संबद्ध मिले। इसी क्रम में अमेरिका में आतंकवाद के शीर्ष विशेषज्ञ और काउंसिल आॅन फॉरेन रिलेशंस के डेनियल मार्की ने जो चेतावनी दी है, उसे एक गंभीर घटनाक्रम के रूप में लिया जाना चाहिए।

मुंबई हमले के बाद भी लश्कर और जैश पर पाबंदी लगायी गयी थी लेकिन तब लश्कर ने अपना चेहरा बदल लिया। लश्कर का सैनिक संगठन अपने ढंग से आतंकवादी कार्रवाइयों में लगा रहा लेकिन उसके शीर्ष नेताओँ ने जमात-उद-दावा के नये चेहरे के साथ अपने को खुलेआम घूमने और कश्मीर की तथाकथित आजादी की लड़ाई के लिए भाषण देने एवं वसूली जारी रखने को आजाद कर लिया। धीरे-धीरे वह पाबंदी निरर्थक हो गयी। अब जब मार्की ने 26/11 के मुंबई हमले के लिए कसूरवार आतंकवादी संगठन लश्कर-ए-तैयबा को 'टिक टिक करता टाइम बम' बताने का साहस किया है तब अमेरिका की नींद टूटी है। मार्की ने ओबामा प्रशासन से कहा है कि वह इस पर अपना ध्यान केंद्रित करे, क्योंकि पाकिस्तान इसके खिलाफ कोई ठोस कदम उठाने में नाकाम रहा है। उन्होंने लश्कर को पाकिस्तानी तालिबान से ज्यादा खतरनाक बताया है। असल सच यह है कि पाकिस्तान ने यह कदम भी अमेरिका के दबाव में ही उठाया है। यह अच्छी बात है कि अमेरिका का एक ऐसे बड़े खतरे पर ध्यान गया है, जिसे वह केवल भारत की समस्या मानकर नजरंदाज कर रहा था। लेकिन पाकिस्तान सरकार इस मामले में कुछ कदम उठाये, इसके लिए उसकी नकेल कसे रहनी पड़ेगी।

अगर सचमुच पाकिस्तान इस फैसले पर अमल के लिए मजबूर होता है तो इससे भारत को राहत मिलेगी। पहले से ही कश्मीर में सुरक्षा बलों के अभियान से आतंकवादी संगठन हिज्बुल मुजाहिदीन के कर्ता-धर्ता मुश्किल में हैं। बौखलाहट में उन्होंने पाक अधिकृत कश्मीर में मौजूद अपने नेताओं से कहा है कि भारत में जल्द घुसो और कुछ बड़ा करो। आतंकवादियों ने भारी दबाव के कारण अपनी रणनीति भी बदली है। अब वे किसी एक जगह तीन घंटे से ज्यादा नहीं रुकते। वे स्थानीय जनता पर विश्वास भी नहीं करते, चाहे वह मुसलमान ही क्यों न हो। 2009 में लश्कर, जैश और हरकत के 53 आतंकवादी कमांडर मुठभेड़ में मार गिराए गए थे जबकि इस साल 15 मई तक 37 आतंकवादी ढेर कर दिये गये हैं। अगर पाकिस्तान को सद्बुद्धि आ जाय तो कश्मीर में शांति बहाल करने में मदद मिल सकती है। पर एक झूठे पर तुरंत यकीन कर लेना थोड़ा कठिन लगता है।

सोमवार, 5 जुलाई 2010

नक्सलियों की हताशा

नक्सलवादियों में बड़ी बेचैनी है। उनके दूसरे नंबर के नेता आजाद के एक मुठभेड़ में मारे जाने के बाद नक्सल नेतृत्व में खलबली मची हुई है। वे पुलिस पर आरोप लगा रहे हैं कि उसने आजाद को मुठभेड़ में नहीं मारा, बल्कि उनकी हत्या की गयी है। नक्सलवादियों की एक शीर्ष बैठक में भाग लेने जाते हुए उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया था और बाद में उन्हें शहर से दूर ले जाकर मार दिया गया। इसके विरोध में वे बुधवार से देशव्यापी बंद का आह्वान भी कर रहे हैं। नक्सलियों की सैनिक विंग के नेता किशनजी ने इस घटना पर क्षोभ और गुस्सा व्यक्त किया है। परंतु क्या उनके इस गुस्से का कोई मतलब है? क्या उनके आह्वान पर देश ध्यान देगा? क्या उनके आरोपों पर किंचित भी गौर करने की जरूरत है? किसी से भी ये सवाल किये जायें तो वह नहीं में जवाब देगा।

 जब नक्सली गरीबों के नाम पर लोगों को डराने, दहशतजदा करने और निर्दोष लोगों की हत्याएं करने में जुटे हैं, तब यह माना जाना चाहिए कि उन्होंने इस तरह की बात कहने का अधिकार खो दिया है। जिन लोगों ने सैकड़ों सिपाहियों को धोखे से मार डाला हो, वे इस तरह सुरक्षा बलों पर आरोप लगायें, यह उचित नहीं जान पड़ता। बंदूक की भाषा में बात करने वालोंं को आखिर किस तरह जवाब दिया जाना चाहिए। केंद्र सरकार की ओर से कई बार यह प्रस्ताव भेजा जा चुका है कि हथियार डालिए और बात करिये। यह कोई नहीं कहता कि सरकारों से गलतियां नहीं हुईं हैं पर उन गलतियों को दुरुस्त किया जाना चाहिए।

अगर सचमुच नक्सलियों को अपने इलाकों में जन समर्थन हासिल है तो वे उसके सहारे ऐसी परिस्थिति पैदा कर सकते हैं कि सरकार अपनी गलतियों को ठीक करने के लिए मजबूर हो जाय। सारा देश चाहता है कि जिन लोगों की आजादी के बाद से लगातार उपेक्षा हुई है, उन्हें भी अपनी खुशी का थोड़ा ही सही, आकाश मिले पर अगर कुछ लोग बंदूकें लिए खड़े रहेंगे और किसी को उन तक पहुंचने ही नहीं देंगे तो परिणाम क्या होगा। तब तो यही कहा जायेगा कि पहले सरकारों ने गरीबों को पीड़ा पहुंचाई और अब नक्सली वही काम कर रहे हैं। कितनी विडंबना है कि किशनजी भारतीय वायुसेना से भावुक अपील कर रहे हैं कि वे गरीब नागरिकों पर गोलियां चलाने से मना कर दें। हालांकि अभी इस बारे में कोई फैसला नहीं हुआ है कि नक्सल ताकतों के खिलाफ सेना का इस्तेमाल किया जाय या नहीं लेकिन अगर नक्सली इसी तरह नरसंहार की कुटिल और वीभत्स नीति पर चलते रहे तो सरकार के सामने अपने नागरिकों, जवानों को मरने देने या हत्यारों से कठोरता से निपटने के अलावा क्या विकल्प रह जायेगा।

शनिवार, 3 जुलाई 2010

मित्रों उत्तर  प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने अमेठी को नया जिला बनाया है और उसका नाम बदल दिया है. इसी तरह कुछ और जनपदों के भी नाम परिवर्तन किये गये हैं. यह राजनीतिक फैसला लगता है. इस फैसले पर नीचे दो टिप्पड़ियां  दी जा रहीं हैं. एक सुभाष राय और दूसरी वरिष्ठ पत्रकार वीरेन्द्र सेंगर जी की.