गुरुवार, 8 जुलाई 2010

धधकते कश्मीर में सेना की ‘झप्पी’!

(वीरेंद्र सेंगर की कलम से)
कश्मीर की गाड़ी एक बार फिर पटरी से उतरती नजर आ रही है। घाटी को फिर से अशांति और अराजकता की भट्ठी में झोंकने की कोशिशें शुरू हो गई हैं। श्रीनगर से 11 जून को हिंसक वारदातों का सिलसिला शुरू हुआ था। करीब एक महीने के अंदर ही सुरक्षाबलों के खिलाफ पूरी घाटी में आक्रोश और नफरत की आग भड़का दी गई है। हालात बेकाबू होते देखकर श्रीनगर सहित घाटी के कई संवेदनशील इलाकों में सेना की तैनाती कर दी गई है। सीआरपीएफ के खिलाफ लोगों में बहुत गुस्सा है। गृह मंत्रालय की एक उच्च स्तरीय बैठक में सीआरपीएफ के आला अफसरों को तलब किया गया था। सूत्रों के अनुसार, मंत्रालय ने निर्देश दे दिया है कि सुरक्षाबल उत्तेजित होकर गोलीबारी करने से परहेज करें। घाटी के भड़के लोगों पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने के लिए सीआरपीएफ की भूमिका ‘एक कदम’ पीछे खींच ली गई है। कोशिश की जा रही है कि घाटी के आम लोगों को एक बार फिर विश्वास में ले लिया जाए। एक तरह से सेना का इस्तेमाल विश्वास की ‘झप्पी’ के तौर पर करने की रणनीति बनी है। 

फिलहाल, सेना को यही लक्ष्य दिया गया है कि वह एक सप्ताह के अंदर अराजकता फैलाने वाले तत्वों को धर दबोचें। हिंसा के ताजा दौरे से ‘राजनीतिक संवाद’ की शुरुआती कोशिशों को भारी झटका लगा है। मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने भी स्वीकार कर लिया है कि घाटी के हालात नाजुक हैं लेकिन वे यह मानने को तैयार नहीं हैं कि इस स्थिति के लिए एक हद तक उनके प्रशासन की असफलता रही है। उनका कहना है कि घाटी की ताजा घटनाओं की जड़ में राजनीतिक समस्या है। जब तक इस मुद्दे को ‘संवाद’ के जरिए नहीं सुलझाया जाएगा, तब तक ‘कैंसर ग्रस्त’ कोशिकाएं विषवमन करतीं रहेंगी। उन्होंने केंद्र सरकार से एक बार फिर अपील की है कि वह राजनीतिक  ‘संवाद’ बढ़ाने के लिए सक्रिय रहे क्योंकि अलगाववादी तत्व लोगों के जज्बातों से खेलने में लग गए हैं।

घाटी में हिंसा के तांडव की शुरुआत श्रीनगर से ही 11 जून को हुई  और धीरे-धीरे उसने विकराल रूप धारण कर लिया। गोलीकांडों से कई जगह हालात नाजुक होते गए। कर्फ्यू भी लगाया गया। लेकिन उत्तेजित लोगों ने कई जगह कर्फ्यू तोड़ डाला। पिछले एक महीने में सुरक्षाबलों की गोलियों से 16 लोग मारे जा चुके हैं। इसी के चलते अलगाववादी तत्वों ने सरकार के खिलाफ माहौल बना दिया है। वे ‘आजादी-आजादी’ के नारे लगवाकर लोगों को ‘जेहाद’ के लिए तैयार कर रहे हैं। पिछले दो सालों से यहां शांति का वातावरण बन रहा था। इससे उम्मीद बढ़ी थी कि घाटी के लोग देश की मुख्यधारा से जुड़ने के लिए उत्सुक हो गए हैं। डेढ़ साल पहले यहां विधानसभा के चुनाव हुए थे। अलगाववादियों की तमाम धमकियों के बावजूद 60 प्रतिशत का रिकॉर्ड मतदान हुआ था। चुनाव के बाद नेशनल कांफ्रेंस व कांग्रेस की साझा सरकार बनी थी। उमर अब्दुल्ला के नेतृत्व में सरकार माहौल ठीक करने में जुटी रही है।

मुख्यमंत्री की खास पहल के चलते केंद्र सरकार अलगाववादी गुटों से भी कश्मीर के मुद्दे पर ‘संवाद’ करने का संकल्प जता चुकी है। गृह मंत्री, पी. चिदंबरम इस पहल की शुरुआत भी कर चुके हैं। माना जा रहा है कि सीमा पार की ताकतें नहीं चाहतीं कि कश्मीर के लोग भारत की मुख्यधारा से जुड़ें। ऐसे में वे संवाद को आगे नहीं बढ़ने देना चाहते। गृह मंत्री भी कह चुके हैं कि घाटी की ताजा हिंसक वारदातों के पीछे पाकिस्तानी आतंकी संगठनों की बड़ी भूमिका है। वे उपद्रव कराने के लिए लोगों को पैसे भिजवा रहे हैं। लेकिन, पीडीपी की नेता महबूबा मुफ्ती कहती हैं कि केंद्र सरकार अपनी कमजोरियां छिपाने के लिए सारी जिम्मेदारी पाकिस्तान पर डालकर बरी नहीं हो सकती। वे कहती हैं कि गृह मंत्रालय, सीआरपीएफ को निर्देश क्यों नहीं देता कि सुरक्षाबल रक्षक की भूमिका में रहें, वे हत्यारों की टोली में न बदलें?  गृह मंत्रालय के सूत्रों का कहना है कि सीआरपीएफ को घाटी से हटाने की फिलहाल कोई योजना नहीं है। मुख्यमंत्री को समझदारी से काम करने की सलाह दी गई है।

1 टिप्पणी:

  1. ऐसे राजनीतिक और कूटनीतिक मामलों में बिना बात को समझे कुछ भी कहने से डर लगता है। ऐसे विषयों पर ज्‍यादातर समाचार या टिप्‍पणियां एक तरफा लगती हैं। पर वीरेन्‍्द्र सेंगर जी की रपट पढ़कर लगता है कि वे एक संतुलन कायम रखते हैं। मेरे हिसाब से रपट का काम यही होना चाहिए कि वह सारी बात सामने रखे। कश्‍मीर की वर्तमान परि‍स्थिति को समझने में यह रपट मदद करती है। शुक्रिया वीरेन्‍द्र जी और सुभाष भाई।

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