मंगलवार, 31 मई 2011

ढाई आखर प्रेम का

जल में कुंभ, कुंभ में जल है, बाहर भीतर पानी। फुटा कुंभ जल जलहिं समाना, यह तथ कहे गियानी। कबीर के अनेक रूप हैं। कभी बाहर, कभी भीतर, कभी बाहर-भीतर दोनों ही जगह। वे सबमें खुद को ढूढते हैं, सबको अपने जैसा बनाना चाहते हैं। कभी कूता राम का तो कभी जस की तस धर दीनी चदरिया वाले व्यक्तित्व में, कभी ढाई आखर की वकालत करते हुए तो कभी बांग देने वालों और पाहन पूजने वालों, गंगा नहाने वालों को एक साथ लताड़ते हुए। कभी ज्ञानी के रूप में तो कभी अदने बुनकर के रूप में। पर हर रूप में वे कबीर ही बने रहते हैं। कबीर यानी एक समूचा आदमी। आदमी होना बहुत ही कठिन है। कबीर के जमाने में भी कठिन था। उन्होंने पहले खुद को ठीक किया। बहुत पापड़ बेले। गुरु भी किया। नाम नहीं बताते हैं। शायद गुरु की तलाश में उनकी भेंट तमाम गुरु-घंटालों से हुई, इसलिए सजग भी किया। गुरु करना मगर ठोंक-बजाकर, कहीं अंधा मिल गया तो बड़ी दुर्गति होगी। अंधे अंधा ठेलिया दुन्यू कूप पड़ंत। तुम तो अंधे-अज्ञानी हो ही, तभी तो भीतर कोई दीप जलाने वाला ढूढ रहे हो। वह भी अंधा हुआ तो? बहुत सारे अंधे मिले होंगे कबीर को भी लेकिन वे सजग थे, उनकी आंखें खुली हुई थीं, वे अपनी प्रारंभिक यात्रा में ही इतना समझ गये थे कि उजाला बंद आंखों से नहीं मिलेगा, जागते रहना होगा। जो जागेगा सो पावेगा, जो सोवेगा, सो खोवेगा।

उनका यह जागना ही उन्हें रास्ता दिखाता गया। उन्होंने अपने भीतर खुद जागना सीख लिया था। यही समझ उनकी गुरु बनी। वे अपने गुरु,अपने दीप खुद ही बने। कबीर का जागना केवल आंखें खोले रहने भर तक नहीं था। बहुत से लोग खुली आंखों में सोये रहते हैं। कुछ अपने दिवास्वप्न में मग्न तो कुछ अपने स्वार्थस्वप्न को साकार करने में निमग्न। कुछ देख कर भी नहीं देखते तो कुछ उतना ही देखते हैं, जितना देखना चाहते हैं। कुछ प्रतिरोधहीनता से ग्रस्त, मरे हुए तो कुछ हर हाल में अनीतिकारी और पाखंडी ताकतों के आगे बिछ जाने को तत्पर। धूमिल ठीक ही कहते हैं, जिसकी पूंछ उठाकर देखो, मादा ही निकलता है। ऐसे लोगों का जागना क्या और सोना क्या। जो अपने से कमजोर पर हमेशा गुर्राता हो, उसकी हथेली में आते उसके हक को भी छीन लेना चाहता हो और अपने से ताकतवर को देखते ही पूंछ दबाकर निकल जाता हो, वह जगा हुआ कैसे हो सकता है। वह तो ऐसी गहरी नींद में है कि उसने मनुष्यता ही त्याग दी है। उसने अपना एक जंगल रच लिया है और उसी में खुश है। उसे जानवर या जंगली तो कह सकते हैं, पर आदमी नहीं।

कबीर को इसी जंगल में आदमी की तलाश थी, वे जंगलपन के खिलाफ लड़ रहे थे, आज भी  लड़ रहे हैं। कबीर ने कहा, सारा ज्ञान ढाई आखर में है। यह किताबें पढ़कर नहीं समझ में आयेगा, योग करने से भी नहीं समझ में आयेगा, इसके लिए खुद को मिटाना पड़ेगा। प्रेम गली अति सांकरी जामें दो न समाहिं। प्रेम तभी कर सकोगे, जब हरि के लिए खुद को मिटा दो। तुम बने रहोगे तो हरि नहीं होगा और हरि होगा तो तुम्हारा बने रहना संभव नहीं है। यह हरि ही जल सरीखा है। भीतर भी, बाहर भी। प्रेम कर नहीं पाते हो क्योंकि तुम्हारी समझ में आता ही नहीं कि तुम्हारे भीतर, कुंभ में जो जल है, बाहर भी वही जल है। बस कुंभ को फोड़ देना है, आत्ममोह, आत्मरति और अपने लिए खुद के होने से मुक्त हो जाना है। तभी सच में दूसरों की पीड़ा समझने की सामर्थ्य जन्मेगी, तभी दूसरों का दुख समझ में आयेगा, तभी अन्याय, दमन, अत्याचार के अर्थ भी खुलेंगे और उनके प्रतिकार का भाव पैदा होगा। यही दूसरों के लिए जीना है, यही मनुष्य होना है। केवल अपने लिए तो कीड़े-मकोड़े भी जी लेते हैं, अगर कोई मनुज भी ऐसा ही करता है तो वह कीचड़ में बिलबिलाते कीड़ों से बेहतर जिंदगी कहां जी रहा है।

दूसरों के लिए जीना ही प्रेम है, दूसरों के लिए मिट जाना ही ढाई आखर की समझ है। पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ, पंड़ित भया न कोय, ढाई आखर प्रेम का पढ़ै सो पंडित होय। जिसने दुनिया भर का दर्शन पढ़ लिया, मोटे-मोटे ग्रंथ रट लिये, अच्छा प्रवचन करना सीख लिया, वही पंडित है, यह समझ थोथी है। जिसने प्रेम का अर्थ जान लिया, प्रेम करना सीख लिया, जिसे ढाई अक्षर की समझ आ गयी, वह पंडित है। कबीर को समझना इसी प्रेम को समझना है। प्रेम का उनसे बड़ा मर्मज्ञ कोई और नहीं दिखता। वे लोगों को ललकारते हैं, डांटते-डपटते हैं तो केवल इसीलिए कि वे शर्म से ही सही अपने भीतर झांके तो सही। शायद अपने ही अनेक चेहरे एक साथ देख सकें। कबीर को इसमें कितनी सफलता मिली, इसका मूल्यांकन होता रहा है, आगे भी होता रहेगा लेकिन इतना सच तो कोई भी अस्वीकार नहीं कर सकता कि वे जिंदा हैं, उनका प्रेम भी जिंदा है।         

रविवार, 29 मई 2011

मलिन मीडिया में संजीवनी जैसे सहाय साहब

 निरंजन परिहार की कलम से
अम्बिकानंद सहाय
प्रभु चावला, वीर संघवी, बरखा दत्त और ऐसे ही कुछ और दलाल दोषित हो चुके दोहरे चेहरों की वजह से मीडिया की छवि भले मलीन हुई हो। लेकिन इस घनघोर और घटाटोप परिदृश्य में अंबिकानंद सहाय नाम का  एक आदमी ऐसा भी निकला, जो मलीन होते मीडिया की भीड़ में हम सबके बीच रहते हुए भी बहुत अलग और बाकियों से आज कई गुना ज्यादा ऊंचा खड़ा दिखाई दे रहा है। प्रभु चावला मीडिया में अपने आपको बहुत तुर्रमखां के रूप में पेश करते नहीं थकते थे। लेकिन रसूखदार, रंगीन और रसीले अमरसिंह के उनके सामने गें-गैं, फैं-फैं करते, लाचार, बेबस और दीन-हीन स्वरूप में करीब-करीब पूंछ हिलाते हुए नजर आते हैं। अमरसिंह धमकाते हैं, और प्रभु चावला अमरसिंह से करबद्ध स्वरूप में दंडवत होकर माफ करने की प्रार्थना करते नजर आते हैं। वही अमर सिंह अपने इन्हीं टेप में सहारा समय के तत्कालीन मुखिया अंबिकानंद सहाय और सुधीर कुमार श्रीवास्तव के नाम पर खुद को बेबस और लाचार महसूस करते नजर आते हैं। वह भी उन दिनों जब अमर सिंह की सहारा परिवीर में तूती बोलती थी।

हर सुबह मीडिया के किसी आदमी के दलाल हो जाने की खबरों के माहौल बीच यह एक बेहद अच्छी और सुकून भरी खबर है। यह साफ लगता है कि माहौल भले ही ऐसा बन गया हो कि मीडिया सिर्फ दलालों की मंड़ी बन कर रह गया है। लेकिन अंबिकानंद सहाय के रूप में दूर कहीं कोई एक मशाल अब भी जल रही है, जिसे मीडिया में मर्दानगी की बाकी बची मिसाल के तौर पर पेश किया जा सकता है।
अमर सिंह के टेप से टपकती बातों और नीरा राडिया के नजरानों के राज खुलने के बाद कइयों की भरपूर मट्टी पलीद हुई है। प्रभु चावला, वीर संघवी, बरखा दत्त और ऐसे ही कुछ और नाम इसके सबसे बड़े सबूत हैं। इन टेप के सार्वजनिक हो जाने के बाद अमरसिंह और राड़िया ने मीड़िया की इन मरी हुई ‘महान’ आत्माओं को सबके सामने नंगा करके खड़ा होने को मजबूर कर दिया है। लेकिन कोई जब औरों को नंगा करता है, तो उसके अपने शरीर पर भी कपड़े कहां बचे रहते हैं ! इसीलिए प्रभु चावला को गिड़गिड़ाने पर मजबूर करनेवाले और रजत शर्मा को अपना बुलडॉग कहनेवाले अमरसिंह सहारा समय के तत्कालीन मुखिया अंबिकानंद सहाय और सुधीर कुमार श्रीवास्तव के बारे में बात करते हुए खुद लाचारी और बेबसी के साथ हांफते हुए नजर आते हैं।

अंबिकानंद सहाय की पत्रकारीय क्षमताओं और सुधीर कुमार श्रीवास्तव की प्रबंधकीय ताकत का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि सहारा समय के ये दोनों कर्ताधर्ता अमरसिंह के सामने बिल्कुल नहीं झुके। वह भी ऐसे में जब अमरसिंह सहारा इंडिया परिवार के डायरेक्टर हुआ करते थे।
आज की तारीख में तो अंबिकानंद सहाय संभवतया एकमात्र ऐसे पत्रकार हैं, जिनके बारे में बात करते हुए अमर सिंह अपने ही टेप में मान रहे हैं कि ‘सहाय साहब’ को मैनेज नहीं किया जा सकता। पूरी बातचीत में यह संकेत साफ है कि सहारा समय के संचालन और खबरों के सहित अपने कामकाज के मामले में अंबिकानंद सहाय अपनी कंपनी के डायरेक्टर अमर सिंह को किसी भी तरह के हस्तक्षेप की कोई इजाजत नहीं दे रहे थे। अंबिकानंद सहाय ने कभी भी अमरसिंह को कतई नहीं गांठा। अमरसिंह सहारा मीडिया में अपनी एक ना चल पाने की वजह से कितने परेशान थे, इसका अंदाज इसी से लगाया जा सकता है कि सबके सामने सहाय साहब कहनेवाले अमरसिंह शिकायती लहजे में अभिजीत सरकार के साथ बातचीत में झुझलाहट में अंबिका सहाय कहकर अपनी भड़ास निकालते नजर आते हैं। जबकि सभी जानते हैं कि सहारा इंडिया परिवार के मुखिया सहाराश्री सुब्रता रॉय सहारा तक अंबिकानंद सहाय को सम्मान के साथ अकेले में भी सहाय साहब कहकर बुलाते हैं।

बाद में तो खैर, यह विवाद बहुत आगे बढ़ गया। अमरसिंह खुद इस टेप में कह रहे हैं कि अगर हमारी इतनी भी नहीं चलती है तो, मैंने तो चिट्ठी भेज दी है और अब मैं रहूंगा भी नहीं। इस पूरे वाकये के अपन चश्मदीद हैं। अपन अच्छी तरह जानते है कि, सहाय साहब ने सहारा से अचानक अपने आपको अलग कर लिया। क्योंकि वे नहीं चाहते थे कि सहाराश्री और अमरसिंह के साथ संबंधों में खराबी की वजह उनको नहीं माना जाएं। वैसे संबंधों के समीकरण का भी अपनी अलग संसार हुआ करता है। सहारा मीडिया के मुखिया से हटने के बाद भी अंबिकानंद सहाय आज भी सहाराश्री के बहुत अंतरंग लोगों में हैं। और अमरसिंह की आज सहारा परिवार में क्या औकात हैं, यह पूरी दुनिया को पता है।
सहाय साहब, आपको हजारों हजार सलाम। इसलिए कि आप दलालों के सामने कतई झुके नहीं। लेकिन मीडिया की मंडी में अंबिकानंद सहाय जैसे और कितने लोग हैं, उनको भी ढूंढ़ – ढूंढकर सामने लाने की जरूरत है। ताकि यह साबित किया जा सके कि मीडिया में अब भी मजबूत लोगों की एक पूरी पीढ़ी मौजूद है। वरना प्रभु चावला, वीर संघवी, बरखा दत्त और ऐसे ही कुछ और दलाल साबित हो चुके लोगों ने तो मीडिया की इज्जत का दिवाला निकाल ही दिया है। बात गलत तो नहीं?

पेश है सहाराश्री सुब्रत राय के करीबी रिश्तेदार अभिजीत सरकार से फोन पर हुई अमर सिंह की शिकायती बातचीत के अंश.....

अभिजीत---हलो..
अमर सिंह—हां अभिजीत..
अभिजीत—जी जी जी सर, सर...
अमर सिंह—वो असल में ...वो दूसरे लाइन पर कोई आ गया था। (ये सब कहते हुए अमर सिंह जोर जोर से हांफ रहे हैं)
अभिजीत—जी सर जी सर
अमर सिंह---हां क्या पूछ रहे थे तुम
अभिजीत—मैं बोल रहा था, कोई प्रॉब्लम हो गया था क्या शैलेन्द्र वगैरह के साथ
अमर सिंह—नहीं शैलेन्द्र वगैरह से ज्यादा प्रॉब्लम अंबिका (नंद) सहाय के साथ है और सुधीर श्रीवास्तव के साथ है।
अभिजीत—क्या हुआ है सर
अमर सिंह--- प्रोब्लम ही प्रोब्लम है। बात ये है कि कोई ......नहीं है। मने कोई कुछ भी करना चाहे करे, उसमें हमें कोई आपत्ति नहीं है। लेकिन, अगर दादा ने बोला है तो ये लोग कुछ भी करें बता दें। हमारी जानकारी में रहे।
अभिजीत--- डू यू वॉण्ट मी टू इनिसिएट समथिंग।
अमर सिंह—नहीं नहीं कुछ नहीं। मैंने तो चिट्ठी भेज दी कि मैं रहूंगा नहीं इसमें और मैं रहने वाला भी नहीं हूं। इनिसिएशन क्या करना है।
अभिजीत—नहीं, फिर उनलोग को बोलें जा के कि आपसे मिलें और क्या।
अमर सिंह--- नहीं नहीं मुझे जरूरत नहीं है। हलो।
अभिजीत—जी सर।
अमर सिंह—मेरा काम तो चल जाएगा।
अभिजीत—नहीं, आपका तो चल ही जाएगा सर। उनलोगों को तो मिलना चाहिए न। दे शुड पे रेस्पेक्ट टू यू न सर।

अमर सिंह—नहीं नहीं, वो नहीं करेंगे। अंबिका (नंद) सहाय वगैरह नहीं करेंगे। उनकी ज्यादा जरूरत है परिवार (सहारा परिवार) को।


रविवार, 22 मई 2011

अविश्वास के साये में

कभी-कभी सोचता हूं क्या कुछ लोग ऐसे मिल सकते हैं, जिन पर भरोसा कर सकूं, पूरा भरोसा कि वे जो कह रहे हैं, वैसा कर दिखायेंगे, कि वे विश्वास पर खरा न उतरने की जगह मिट जाना पसंद करेंगे, कि वे कभी अविश्वास का कोई मौका नहीं आने देंगे, कि वे ऐसी किसी भी परीक्षा में धैर्य नहीं खोयेंगे और अंतिम दम तक लड़ेंगे अपनी पहचान के लिए, अपने वादे के लिए, अपने संकल्प के लिए। कई बार यह सवाल मैं खुद से भी करता हूं कि क्या मैं स्वयं ऐसा हो पाया हूं, क्या मैं दूसरों के विश्वास पर खरा उतरने लायक बन सका हूं, क्या मुझमें इतना दम है कि मैं लड़ सकूं दूसरों के विश्वास को सच साबित करने के लिए? इन सवालों के उत्तर दे पाना इतना आसान नहीं है।

विश्वास का संकट इस सदी के सबसे बड़े संकट के रूप में उभरा है। लालच ने आदमी को धूर्त और पाखंडी बना दिया है। अक्सर लोग दूसरों के सामने पहेलियों की तरह प्रस्तुत होते हैं। बूझ सको तो बूझ। जिसकी वाणी से मानस के उपदेश झर रहे हों, मर्यादा और मानवता के मंत्रों से जिसके शब्द दीप्त लगते हों, जो रावणी ताकतों के विनाश का संकल्प घोष कर रहा हो, जरूरी नहीं कि वह अपने असली रूप में वैसा ही हो। हो सकता है कि इस तरह वह अपने विरोधियों की पहचान करने की कोशिश कर रहा हो, ताकि उनसे सजग रह सके, बच सके। हो सकता है, इस तरह वह मनुष्यता के समर्थक, उसे धारण करने वालों से छल कर उनका इस्तेमाल करना चाह रहा हो, उनका शोषण करने को उद्यत हो। किसी आदमी के भाल पर टंगे त्रिपुंड, जिह्वा से निसृत होते परमार्थ छंद और शरीर पर धवल वस्त्रों की सादगी से यह समझना भूल होगी कि  वह समाज का, देश का भला करना चाहता है, वह धोखा नहीं देगा या वह ठग नहीं होगा। हाल के कुछ महीनों में सवा अरब जनता को ठगने वाले कुछ बड़े वंचक लोगों के सामने आये हैं, सबने देखा कि वे अपने हाव-भाव से, अपनी वेश-भूषा से, अपने बात-व्यवहार से कितने महान तपस्वी दिख रहे थे लेकिन अपने कर्म से कितने छली, कितने थेथर, कितने उचक्के-बदमाश।

कबीर ने अपने जमाने में ऐसे लोगों की जमकर धज्जियां उड़ायी, अति समर्थ ढोंगियों के चेहरे से नकाब खींचने में तनिक संकोच नहीं किया, शक्तिशाली साम्प्रदायिक रुढ़ियों और प्रवंचनाओं को भी अपने मजबूत, सतर्क और कठोर प्रहार से ढहा देने की कोशिश की पर जब वे नहीं रहे तो उन्हीं के नाम पर वही सब होने लगा, जिसका उन्होंने जीवन भर विरोध किया। कबीर आज भी वैसे ही चमकते दिखायी पड़ते हैं,वैसे ही बोलते, चीखते नजर आते हैं पर कौन सुनता है। सैकड़ों वर्षों से जिन लोगों को वे ललकारते रहे हैं, आज वही लोग बिना खुद को बदले उनकी आवाज में आवाज मिला रहे हैं। क्या करें कबीर? अक्सर आप भी देखते होंगे, बेईमान और भ्रष्ट नेताओं को जनता के सामने अपने प्रवचनों में दुष्यंत के चमकदार शेर उछालते हुए। सिर्फ हंगामा ख़ड़ा करना मेरा मकसद नही, मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए या कौन कहता है कि आसमां में सूराख हो नहीं सकता, एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारों या इसी तरह का कुछ और। वे थोड़ी देर के लिए अपने मरे और सड़ते हुए इरादों को बदलाव की चमकीली गूंज से ढंक लेना चाहते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि उनका अपना चेहरा विश्वसनीय नहीं है, गंदा है, उसके पहचाने जाने का डर है। कभी-कभी यह ओढ़ी हुई चमक भी काम आ जाती है। 

ध्यान से देखें तो बुरा और बेईमान भी भला, नेक और ईमानदार दिखना चाहता है। इसलिए कि अभी भी जनता ऐसे चेहरे पसंद करती है। आमतौर पर कोई भी आदमी सही रास्ता छोड़ना नहीं चाहता, जब तक कोई बड़ी मजबूरी न हो। घटिया तरीकों से समाज में समर्थ हैसियत बना चुके लोग और गिनती के लोगों के स्वार्थसाधन में जुटी व्यवस्था आमजन को मजबूर करती है, बेईमान बनाती है। और एक बार इसका लाभ मिल गया तो लोभ बढ़ता जाता है। आदमी भटकता है और फिर भ्रष्टाचार के गहरे दलदल में डूबता चला जाता है। विश्वास अब भी अमूल्य है। आप अगर लोगों को इस बात का विश्वास दिला सकें कि आप भरोसे लायक हैं, तो आप अकेले नहीं होंगे। अपने-आप कारवां बनता जायेगा। परंतु यह एक दिन का काम नहीं है, यह लंबी लड़ाई है, इसमें बार-बार परीक्षाएं देनी पड़ सकती हैं, संदेह की सूली पर चढ़ना पड़ सकता है। आप में धैर्य होगा, साहस होगा, ऊर्जा होगी, सहज और सकारात्मक सोच होगी तो कामयाबी जरूर मिलेगी। देश के, समाज के, साथियों के भरोसे पर खरे उतरने के लिए अग्निपरीक्षाएं तो देनी ही पड़ेंगी। कोई ममता सहज ही नहीं पैदा होती, कोई बदलाव आसानी से नहीं आता। पहले विश्वास दिलाना होता है, खुद को मिटाना होता है तब लोग आप के लिए मिटने को तैयार होते हैं।           

सोमवार, 16 मई 2011

भविष्य की भाषा

  हिंदी का भाषा के रूप में भविष्य क्या है? कहीं कुछ दशकों में यह केवल कुलीन लेखकों और साहित्यकारों की भाषा भर तो नहीं रह जायेगी? यह सवाल इसलिए भी प्रासंगिक हो गया है कि इंटरनेट के तीव्र प्रसार और अंग्रेजी के बिना रोजगार न मिलने की लाचारी के चलते धीरे-धीरे हमारे बीच एक ऐसे समुदाय का जन्म हो रहा है, जो न ठीक से हिंदी बोल पाता है, न ही अंग्रेजी। वह अंग्रेजियत का दीवाना तो है पर उसे अंग्रेजी आती नहीं। पिछले कुछ दशकों से बच्चों में अंग्रेजी स्कूलों का आकर्षण तेजी से बढ़ा है। उन लोगों की संख्या भी तेजी से बढ़ी है, जो अपने बच्चों के सुखद भविष्य के लिए उन्हें अंग्रेजी की कैद में डाल कर घर के भीतर और कई बार घर के बाहर भी हाऊ आर यू, वेल डन, बाय-बाय, गुडनाइट और गुड मार्निंग बोलने में अपना मस्तक ऊंचा हुआ सा देख रहे हैं।

दरअसल हम एक ऐसे अहमन्य और दिखावापरस्त समाज में रह रहे हैं, जहां अपनी भाषा, अपनी संस्कृति पर गर्व करना बेवकूफी समझा जाने लगा है। अंग्रेजी नहीं आती लेकिन ड्राइंग रूम में एक अंग्रेजी अखबार या पत्रिका पड़ी रहनी चाहिए। घर में दोनों वक्त भर पेट खाने का इंतजाम भले न हो, बच्चों की फीस भरने के लिए पैसा भले न हो, रोज पेट्रोल खरीदने की औकात भले न हो, लेकिन लोग बैंक से कर्ज लेकर एक चौपहिया खड़ी करने में पीछे नहीं रहते। वह रोज घर से बाहर निकालकर पानी में नहलायी जायेगी और फिर भीतर खड़ी कर दी जायेगी। बर्थडे, पार्टी में शान दिखाना और नामचीन लोगों के साथ बैठकर दारू उड़ाना भी इसी दिखावे के हिस्से हैं।

मध्यवर्गीय  समाज को यह रोग घुन की तरह लग चुका है। यही लोग हैं जो लंगड़ी अंग्रेजी बोलकर अपना रुतबा जताने में भी पीछे नहीं रहते। एबीसीडी और कखगघ की मिक्स चटनी इनकी जुबान पर अकसर देखी जा सकती है। यह धीरे-धीरे फैशन और दिखावे के साथ ही एक मजबूरी भी बनती जा रही है। मजाक-मजाक में ही इन लोगों ने आपसी संवाद की एक नयी भाषा गढ़नी शुरू कर दी है। ऐसे लोगों को खुशी होगी कि तंज में ही सही उसे हिंगलिश कहा जाने लगा है। जल्दबाजी में हिंदी मीडिया का एक तबका, जो अपने को शायद भविष्यद्रष्टा मानता है, इस सुचिंतन के वशीभूत हो गया कि अगर वह हिंगलिश का प्रयोग करता है तो मिश्रित भाषा के प्रयोग की तरफ बढ़ रहे युवा और उनके अभिभावक उन्हें हाथों-हाथ लेंगे। इस तरह के हिंगलिशवादियों को यद्यपि कामयाबी नहीं मिली लेकिन इससे यह निष्कर्ष नहीं निकाला जाना चाहिए कि लोग  भाषा में मिलावट के खिलाफ खड़े हो सकते हैं।

संचार के नये साधनों के प्रसार और समय के अभाव के चलते मोबाइल, मेल और इंटरनेट पर संवाद का एक नया माध्यम विकसित हो रहा है, जिसमें प्रयुक्त होने वाले शब्द या वर्ण उच्चारण में तो मूल शब्दों की ध्वनि देते हैं परंतु अपनी संक्षिप्ति के कारण भिन्न वर्तनी में प्रस्तुत होते हैं। यू के लिए वाई ओ यू की जगह सिर्फ यू या सी के लिए एस ई ई की जगह सिर्फ सी। इंटरनेट ने बेशक ज्ञान-विज्ञान के नये दरवाजे खोले हैं लेकिन वह दुनिया भर कें महान कचरा चिंतन का डंपिंग ग्राउंड भी बन गया है। ऐसे में जो लोग साहित्य, संस्कृति और रचनात्मक अनुशासनों से संबंधित सामग्री के लिए इंटरनेट से उम्मीद लगाये बैठे  हैं, वे निराश हो रहे होंगे।

आदमी की रफ्तार जैसै-जैसे तेज होगी, संवाद और संचार के और कारगर, तीव्र माध्यम ईजाद होंगे। जाहिर है इन माध्यमों की भाषा अंग्रेजी होगी और जिनमें इस होड़ में बने रहने की लालसा होगी, वे अंग्रेजी का सहारा लेने को विवश होंगे। ऐसे में 50 साल बाद जब लंदन, न्यूयार्क, मास्को, बीजिंग या टोकियो जाना हमारे लिए दिल्ली के एक छोर से दूसरे छोर तक जाने जैसा होगा, दुनिया बहुत छोटी हो जायेगी, अलग-अलग भाषाभाषियों के बीच बातचीत की जरूरत और बढ़ेगी, तब अंग्रेजी के साथ विभिन्न भाषाओं के शब्द मिश्रित होते जायेंगे और अंग्रेजी के शब्द अपनी मूल वर्तनी से कटकर अपने संक्षिप्त और इंटरनेटी रूप में प्रयोग होने लगेंगे। भविष्य में शायद ऐसी ही कोई एक भाषा दुनिया भर में व्यापक संवाद का माध्यम बने। यह तकनीकी ज्ञान-विज्ञान की भाषा होगी।

चूंकि धन, संपदा, ऐश्वर्य और बड़ी-बड़ी नौकरियों की संभावनाएं तकनीकी क्षेत्रों में ही दिख रही हैं और लंबे समय से अंग्रेजी भौतिक विज्ञानों की भाषा रही है, इसलिए यही नयी भाषा सारी दुनिया को जोड़ने में कारगर होगी। नहीं कहा जा सकता कि गैर-आंग्ल भाषाओं में तब साहित्य और चिंतन के लिए कितना अवकाश होगा और भविष्य के विश्व समाज के लिए इसकी कितनी जरूरत होगी लेकिन इतना तो साफ है कि कला, भाषा, संस्कृति और साहित्य पर संकट कुछ ज्यादा ही होगा।       

रविवार, 8 मई 2011

समय की शिला पर

  समय की शिला पर मधुर चित्र कितने, किसी ने बनाये, किसी ने बिगाड़े। कवि और चिंतक कई तरह से समय की सत्ता को समझते रहे हैं, उसे व्याख्यायित करते रहे हैं। समय एक अखंड और अनंत सत्ता है। इसका आरंभ कल्पनातीत है। पृथ्वी के भीतर खोजा-अनखोजा जितना इतिहास दबा हुआ है, उसका बहुत कम हिस्सा हम जान सके हैं। पृथ्वी पर जीवन के प्रादुर्भाव की कहानी करोड़ों वर्ष पुरानी है। जीवन उगने से पहले भी पृथ्वी रही होगी। एक ग्रह के रूप में पृथ्वी के उत्पन्न होने से पहले भी अनेक ग्रह, तारे रहे होंगे। इनमें से सबसे प्राचीन भी अगर खोज लिया जाय तो भी यह नहीं कहा जा सकता कि सुदूर अतीत में वह समय का प्रस्थान बिंदु है। ब्रह्मांड के भीतर पहली घटना अगर स्वयं ब्रह्मांड के उत्पन्न होने को ही मान लिया जाय तो भी अतीत में समय का कोई छोर पक़ ड़ पाना संभव नहीं होगा क्योंकि हमारे ब्रह्मांड से बाहर इससे भी पुराने अनेक  ब्रह्मांडों का पता लगाया जा चुका है। इनमें से कोई सबसे पुराना है, यह घोषणा कर पाना विज्ञान के वश में नहीं है क्योंकि किसी भी क्षण विशाल अंतरिक्ष में और गहराई तक देखने की कियी नयी तकनीक के आविष्कार की संभावना बनी हुई है, इसलिए इस बात की संभावना कभी खत्म नहीं होगी कि कल कोई और नया तारामंडल या ब्रह्मांड खोज लिया जाय। ऐसी हर खोज के बाद समय में और भी पीछे जाने की संभावना बनी रहेगी।

अगर कल्पना से समय के आरंभ के छोर को पकड़ने की कोशिश करें तो वह पकड़ में आकर भी शायद पकड़ में नहीं होगा। स्मृति भी इतिहास, पुरातत्व से होकर मिथकीय कल्पनाओं में खो जाती है। उससे आगे कोई रास्ता नहीं मिलता, कोई ऐसी मजबूत डोर नहीं होती, जिसे थामकर अतीत के गहन गह्वर में उतरा जाय। इसी तरह भविष्य के बारे में भी कहा जा सकता है। समूची भौतिक-अभौतिक सत्ता विनष्ट हो जाने पर भी भविष्य अशेंष नहीं होगा। जब कुछ नहीं होगा, तब भी उस कुछ नहीं से कुछ या बहुत कुछ के प्रकट होने की संभावना बची रहेगी। आधुनिक विज्ञान जो तर्क ब्रह्मांड के पैदा होने के बारे में देता है, अगर वह सही है तो नथिंगनेस पूरी तरह निष्क्रिय शून्य नहीं है, वहां भी गुरुत्व है। जैसे असित छिद्र, ब्लैकहोल के प्रबल आकर्षण से खिंचकर उसमें असंख्य तारे समाते रहते हैं, उसी तरह नथिंगनेस से भी असंख्य तारों, ब्रह्मांडों के पैदा होने की संभावना बनी रहती है। हर संभावना भविष्य की रचना करती है, समय में आगे कभी, कुछ भी घटित होने का अवकाश रचती है। इस तरह भविष्य में भी समय का कोई तट देख पाना नामुमकिन है।

अगर कहें कि समय ब्रह्मांड की ही तरह प्रकाश की गति से लगातार फैल रहा है तो भी समय के ओर-छोर को छू पाना तभी संभव हो सकेगा, जब हम प्रकाश की गति से यानि तीन लाख किलोमीटर प्रति सेकेंड की गति से उड़ने की सामर्थ्य हासिल कर लें। अगर आदमी ऐसा कर पाया तो वह समय से तेज भी उड़ने की सोच सकता है। तो शायद वह समय के बाहर घटित होती कुछ अकल्पनीय घटनाओं से रू-ब-रू हो सके या फिर समय के आरंभ पर जाकर खड़ा हो सके। अभी यह बातें कल्पनातिरेक के अलावा कुछ और नहीं लगतीं पर विज्ञान इस दिशा में काम कर रहा है। एक रचनाकार समय को स्मृति के गत्यात्मक विकास के रूप में देखता है। वह विज्ञान की तरह किसी नयी भौतिक प्रमेय को हल करने में यकीन नहीं करता बल्कि अतीत से संश्लिष्ट वर्तमान को  अपनी कल्पना से सजाने-संवारने का प्रयास करता है। वह अतीत की समीक्षा करता है, वर्तमान में पड़े उसके अपशिष्ट को हटाकर एक ऐसे नूतन भविष्य की ओर देखता है, जिसमें अतीत और वर्तमान के सकारात्मक संस्कारों के साथ उसके आदर्श भी झिलमिला रहे हों।

इस प्रक्रिया में वह वर्तमान के अस्वीकार्य हिस्सों को दर्ज करता है और अपनी स्वीकृतियों से उन्हें विस्थापित करने की कोशिश करता है। वह न अतीतजीवी होकर रहना चाहता है, न स्वप्नजीवी। वह ऐसे सपने रचना चाहता है, जो सच हो सकें। कई बार इस तरह वह अनायास भविष्य में झांकने की कोशिश भी करता है और कई बार वह भविष्य को शब्दों और रेखाओं में हू-ब-हू दर्ज करने में भी कामयाब हो जाता है। इन्हीं अर्थों में साहित्य कई बार अनायास विज्ञान का मार्गदर्शक बन कर खड़ा हो जाता है। सबने देखा है, कल की फंतासियों को सच होते हुए। आज की फंतासियां भी कल सच हो सकती हैं। यह अनायास नहीं है कि विज्ञान भी कल्पना के पंखों पर उड़कर ही अपने असल पंख विकसित करता रहा है। वह पहले एक परिकल्पना रचता है और फिर उसे सच करने में जुट जाता है। कई बार प्रकृति के स्फुलिंग उसे रास्ता देते हैं तो कई बार मिथ और साहित्य। इस मायने  में साहित्य और विज्ञान दोनों ही जीवन को बेहतर बनाने की प्रक्रिया में एक दूसरे के पूरक हैं, विरोधी नहीं।         

मंगलवार, 3 मई 2011

क्या सचमुच भय से प्रीति होती है?

  कभी-कभी मुझे डर लगता है, आप को भी लगता होगा, शायद सबको लगता होगा। कई बार मैं कई वजहों से डरता हूं, लेकिन इस पर सोचता नहीं, कई बार सोचता हूं मगर बहुत गहराई तक नहीं जा पाता लेकिनं जब डर बहुत गहरा होता है तो उस पर सोचे बगैर नहीं रह पाता। जब समुद्र के सामने विनयावनत भाव में खड़े-खड़े राम को कई दिन बीत गये और समुद्र ने उनकी याचना पर ध्यान नहीं दिया तो उन्हें उसकी अहमन्यता पर क्रोध आया। तुलसीदास ने लिखा कि राम ने छोटे भाई से कहा, अब वाण उठाओ और इसे सुखा दो, क्योंकि बिना भय के प्रीति नहीं होती है। बिनु भय होहि न प्रीति।

क्या सचमुच भय से प्रीति होती है? मुझे महाकवि की इस स्थापना पर थोड़ा शक है। भय हो सकता है तात्कालिक दृष्टि से उपयोगी साबित हो और कोई रुका हुआ काम बन जाय परंतु उसका समग्र परिणाम तो प्रतिक्रिया के रूप में ही सामने आयेगा। किसी को भयग्रस्त करके भय पैदा करने वाला सुरक्षित नहीं रह सकता। सहज ही हर प्राणी भय से मुक्त होना चाहता है। वह जानवर हो या आदमी अगर किसी कारण उसे भय है तो वह भय को खत्म करने के लिए उसके कारण को ही नष्ट करना चाहेगा। यह बिल्कुल सही नहीं है कि भयग्रस्तता व्यक्ति को भय के कारण के प्रति प्रीति या राग पैदा करेगी।

कई बार आदमी अपने डर का कारण स्वयं होता है। हालांकि उसे इसका पता नहीं होता। किसी ने बहुत ज्यादा धन-वैभव के साधन संचित कर लिये तो उसे चोरों से भय लगा रहता है, किसी ने अवैध ढंग से अपने अधिकार से परे जाकर अपने आस-पास ऐश्वर्य की चमक पैदा कर ली तो उसे कानून का डर लगा रहता है। जिसके पास भी खोने के लिए कुछ है, उसे कभी न कभी डर जरूर घेरता है। जो पाना चाहता है, वह भी भयग्रस्त रहता है। उसे डर रहता है कि कहीं वह उससे वंचित न कर दिया जाये, जो वह पाना चाहता है। सहजता निर्भय होने में है लेकिन निर्भय होने के लिए एक कठिन शर्त पूरी करनी पड़ती है।

आप में कुछ पाने की चाह न हो तो आप के पास कुछ खोने के लिए भी नहीं बचता है। किसी संत कवि ने कहा है कि चाह गयी, चिंता मिटी मनुआ बेपरवाह, जिनको कछू न चाहिए, वो साहन के साह। सारा संकट चाह का है, इच्छाओं का है। अपने लिए इच्छाएं हैं तो डर भी बना रहेगा। फिर रास्ता क्या है? या तो इच्छाओं से मुक्ति पा ली जाय या फिर स्वार्थ का सामाजिक विस्तार कर लिया जाय। अपने पास जो है, वह अपने ही लिए नहीं है। अपनी जरूरत के बाद जो बचा हुआ है, उस पर दूसरों का हक बनता है। अगर उससे दूसरे जरूरतमंदों की मदद हो सकती है, उनकी पीड़ा कम हो सकती है, उनकी भूख मिट सकती है तो इसमें क्या बुराई है, इसमें जाता क्या है। जो मिला था, वह समाज से ही मिला था, अगर वह समाज के लिए खर्च हो गया तो परेशानी क्या। पर ऐसा लोग सोचते कहां हैं?

आवश्यकता  का तर्क बड़ा अजीब है। आज की, कल की, परसों की, बरसों की या जीवन भर की, कई पीढ़ियों की आवश्यकता का तर्क आदमी को संग्रह की दुर्दम्य लालसा तक ले जाता है। और यही संग्रह उसके भीतर भय के बीज रोपता है। एक साधु अपने शिष्य के साथ रात में जगल पार कर रहा था। कुछ भीतर जाने के बाद उसने अपने चेले से कहा, रात बहुत गहरी है, डर लग रहा है। चेले ने कहा, गुरुवर चलें डरने की जरूरत नहीं है। गुरुवर का झोला चेले के कं धे पर टंगा था। कुछ और दूरी तय करने के बाद गुरु ने फिर अपना डर जाहिर किया। चेले को शक हुआ। उसने झोला देखा तो उसमें अशर्फियां पड़ी हुई थीं। उसने झोला जंगल के एक घने कोने में फेंक दिया। कुछ और आगे बढ़ने पर जब गुरुवर ने फिर अपना भय जाहिर किया तो चेले ने कहा, गुरुदेव अब निर्भय होकर आगे बढ़ें, डर को मैंने पीछे फेंक दिया है। गुरु ने देखा चेले के कंधे पर झोला नहीं था. वे एक मिनट के लिए ठिठके लेकिन भीतर झांककर देखा तो वहां डर नहीं था।

जो अपने लिए नहीं जीता है, जिसके संकल्प समाज की बेहतरी के लिए होते हैं, जिसकी समूची सक्रियता समाज के लिए होती है, जो अपने खोने-पाने का मूल्यांकन समाज के लाभ-हानि के नजरिये से करता है, उसे कभी डर नहीं लगता, वह कभी मोहग्रस्त नहीं होता, वह कभी संशय में नहीं रहता। निर्भय होने का एकमात्र रास्ता है, अपना समूची शक्ति, सम्पूर्ण ऊर्जा, सारा वैभव, रचनात्मकता समाज के लिए होम कर दें, उसकी बेहतरी के लिए लगा दें। यह कठिन है, पर जो सर्जक हैं, जो रचनाशील हैं, उनकी ताकत इसी आचरण में छिपी है। करके तो देखें।