गुरुवार, 7 अक्तूबर 2010

युवराज का वामपंथ, हकीकत या फसाना!

 वीरेन्द्र सेंगर की कलम से 
क्या कांग्रेसी संस्कृति में कायापलट होने वाली है? पार्टी के युवराज की बातों में कुछ दम है, तो यह शुरुआत होने वाली है। वे कह रहे हैं, लगातार दोहरा रहे हैं। यही कि पार्टी में अब चापलूसों के लिए कोई जगह नहीं है। उन्होंने यहां तक कह डाला है कि जिन्हें चमचागीरी ही करनी हो, वे किसी और पार्टी में अपनी जगह ढूंढ लें। कार्यकर्ताओं के बीच उन्होंने यह ‘कबीरवाणी’ निकाली, तो जमकर तालियां बजीं। वे यहीं नहीं रुके। बता डाला कि अब पार्टी की संस्कृति पवित्र होकर ही रहेगी। ऐसे में चापलूसी के भरोसे रहने वाले संभल जाएं। या तो अपने को बदल डालें या फिर नया घर ढूंढ लें। वह भी वक्त रहते। कांग्रेस के राष्ट्रीय  महासचिव राहुल गांधी पूरे फार्म में हैं।  जिन प्रदशों में गैरकांग्रेसी सरकारें होती हैं, प्राय: वहां राहुल के तेवर किसी खांटी कामरेड जैसे हो जाते हैं। उन्हें दलित और आदिवासियों की पीड़ा कुछ ज्यादा ही सताती है। वे एकदम करुणा भाव से ओत-प्रोत हो जाते हैं। पार्टी में वे युवक कांग्रेस और कांग्रेस छात्रसंगठन के प्रभारी हैं। इन संगठनों में नयी ऊर्जा पैदा करने के लिए वे जुटे हैं। देशव्यापी दौरे कर रहे हैं।

मध्य प्रदेश के टीकमगढ़ में उन्होंने दो टूक नसीहत दे डाली। हजारों लोगों के बीच हिदायत दे दी कि अब पार्टी में चापलूसी से काम नहीं चलने वाला। जो सच्ची सेवा करेगा, वही आगे बढ़ेगा। उन्होंने अपना नजरिया भी बता डाला कि उन्हें चापलूसी संस्कृति से सख्त नफरत है। पार्टी के ‘युवराज’ ने नयी संस्कृति पर जोर डाला, तो अभिभूत कार्यकर्ताओं नें राहुल गांधी जिंदाबाद के नारों की झड़ी लगा डाली। इशारा करने पर भी नारेबाजी नहीं थमीं, तो उन्हें कुछ क्षणों के लिए धीरज रखना पड़ा।ऐसा नहीं है कि इस युवा नेता ने पहली बार चमचा संस्कृति के खिलाफ आवाज उठायी हो। वे छ: साल से सक्रिय राजनीति के केंद्र में हैं। उनकी कोशिश है कि संगठन में अंदरूनी लोकतंत्र ज्यादा से ज्यादा फले-फूले। इसलिए वे कह रहे हैं कि संगठन में पदाधिकारियों को मनोनीत करने वाली संस्कृति खत्म हो। लोग चुनकर पदों पर आयें। दरअसल, उन्हें यह भी समझ में आ गया है कि दशकों से संगठन में फर्जीवाड़े का बोलबाला बढ़ा है। संगठन में जो सदस्यता अभियान चलता है, उसमें खानापूर्ति का काम ज्यादा होता है। इसी का परिणाम रहा कि तमाम मजबूत गढ़ों में पार्टी का राजनीतिक किला जर्जर हुआ है।
वे कमजोर जड़ों  को खाद पानी देने निकले हैं। महीनों की मेहनत कई राज्यों में रंग भी लायी है। माना जा रहा है कि युवा संगठन में कई स्तर पर सार्थक पहल शुरू हुई है। बोगस सदस्यता थामने के लिए फोटोयुक्त सूचियां बनी हैं। वंचित वर्गों  को भी आगे बढ़ने के अवसर मिल रहे हैं।

राहुल जोर लगाकर कहते हैं कि भाई-भतीजा और परिवार की संस्कृति रोकें। वरना पार्टी का ग्राफ गिरेगा। बात में पूरा दम है। लेकिन विडंबना यही है कि राहुल खुद एक खास परिवार की उपज भर हैं। अच्छा यही है कि वे ईमानदारी से यह हकीकत खुले तौर पर स्वीकार कर चुके हैं। उनकी इस स्वीकारोक्ति से ही लोग गदगद हो जाते हैं। कांग्रेसी तो अपने युवराज के इस ‘सूफीपन’ के दीवाने हो जाते हैं। राहुल कह चुके हैं कि एक खास(नेहरू-गांधी) परिवार में जन्म लेने की वजह से उन्हें लाभ मिला है। लेकिन वे चाहेंगे कि पार्टी में परिवारवाद की संस्कृति खत्म करने में अपना योगदान दें। वे अभी इतनी खांटी बात कर रहे हैं, तो इसमें अविश्वास करने का कोई तुक भी नहीं है।  इतना जरूर है कि यह ‘टास्क’ बहुत कठिन है। खास तौर पर इसलिए, क्योंकि कांग्रेस में चमचागीरी और गणेश परिक्रमा की संस्कृति बहुत पुरातन है।

आपमें से बहुत लोगों को याद होगा ‘इमरजेंसी’ का जमाना। बात उसी कालखण्ड से है। कुछ समय के लिए पार्टी के अध्यक्ष हुए थे देवकांत बरुआ। इंदिरा जी की कृपा से इतनी बड़ी कुर्सी मिली थी। सो, खुशामदी में बोल गये थे, ‘इंदिरा इज इंडिया-इंडिया इज इंदिरा।’ यह जुमला खूब चर्चित रहा था। कांग्रेस के राजनीतिक इतिहास में इसी जुमले से बरुआ ‘अमर’ हुए हैं। क्यों कि सालों तक वे इस जुमले के जरिये चापलूसी संस्कृति के ‘शलाका’ पुरुष बने रहे थे। इंदिरा जी संजय गांधी को ही अपनी राजनीतिक विरासत देना चाहती थीं। ‘इमरजेंसी’ के दौर में संजय गांधी की तूती बोलती थी। उस जमाने में तरह-तरह के किस्से चलते थे। यही कि किसी राज्य के माननीय मुख्यमंत्री ने हवाई अड्डे में उनकी चप्पलें उठायी थीं। यह अलग बात है कि बाद में वे नेता जी पार्टी में बहुत ऊं चाई पर गये। ऐसा करने वाले वे अकेले भी नहीं थे। कांग्रेस की नयी पीढ़ी के लिए वह जमात भी ‘आदर्श’ बन गयी है।

राहुल की दिक्कत यह है कि वे चमचा संस्कृति से आये एक बड़ी जमात के नेता हैं। जिस ‘दस जनपथ’ में पले-बढ़े हैं, वहां दिन-रात चापलूसों का जमावड़ा रहता है। हो सकता है कि उन्हें यहीं से ‘बोधिसत्व’ मिला हो। पिछले चार-पांच सालों से वे वंचित वर्गों  के पास जा रहे हैं। दलितों के घर ‘रैन बसेरा’ करके वे चर्चित हो गये हैं। इन दौरों से वे गरीबी को नजदीकी से देख-समझ रहे हैं। वे कभी बुंदेलखण्ड के अकालग्रस्त क्षेत्र के लिए पीड़ा जताते हैं, तो कभी उड़ीसा में आदिवासियों के हितों के योद्धा बन जाते हैं। गैर कांग्रेसी सरकार वाले प्रदेशों में ही ‘युवराज’ दरिद्र नारायण क्यों बनते हैं? यहां राजनीतिक विरोधी उनकी नीयत पर सवाल उठाते हैं। इसका जवाब यही होगा कि वे कांग्रेसी सत्ता वाले राज्यों में जाएं और वहां भी इसी ‘कबीरवाणी’ का संचार करें। इन कसौटियों पर उन्हें खरा उतरना है। शायद तभी युवा कांग्रेसी समझेंगे कि
अब पार्टी में चापलूसी संस्कृ ति का जमाना हवा-हवाई होने वाला है।

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