गुरुवार, 30 सितंबर 2010

राम्लला जहां हैं, वहीं रहेंगे

भले ही अयोध्या मसले पर न्याय तक पहुंचने में बहुत लंबा समय लग गया हो, लेकिन इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ पीठ ने जो निर्णय दिया है, उससे नहीं  लगता कि किसी को कोई असंतोष होना चाहिए। बहुत सारी आशंकाएं थीं, चारों ओर डर का माहौल पसरा हुआ था, न जाने क्या हो जाये पर जब फैसला आया तो सबने बहुत शांत मन से इसे स्वीकार किया। कई बार आस्था और विश्वास किसी स्थापित सच से भी बड़े हो जाते हैं। हम राम के बारे में जितना कुछ जानते हैं, वह इस देश के महाकाव्यात्मक कृतियों के रचनाकारों के माध्यम से। वाल्मीकि, भवभूति, कंबन और अन्यान्य महाकवियों ने अपने-अपने ढंग से रामकथा लिखी। बाद में तमाम संत कवियों ने भी राम का गुण गाया। कविता और कथा पूर्ण रूप से इतिहास नहीं होता, उसमें कल्पना के लिए पूरी गुंजाइश होती है। यही कारण है कि अलग-अलग रामकथाओं में तमाम विवरण एक-दूसरे से मेल नहीं खाते।

राम के बारे में कोई पुष्ट ऐतिहासिक या पुरातात्विक साक्ष्य भी नहीं है परंतु भारतीय लोक की स्मृति में हजारों साल से राम की एक छवि विराजमान है, उनकी भगवत्ता पर भी यहां कोई संशय नहीं है। इसके लिए किसी भी हिंदू को कभी प्रमाण मांगते नहीं देखा गया। जो उन्हें न मानना चाहे, उसे ऐसा करने की छूट भी है, कोई दबाव नहीं। इसी लोकस्मृति में राम की जन्मस्थली के रूप में अयोध्या भी बसी हुई है। आम हिंदू के लिए अयोध्या एक बड़ा तीर्थ है। आम तौर पर यह भी एक धारणा रही है कि जिस स्थान पर बाबरी ढांचे को खड़ा किया गया था, वह वस्तुत: राम का जन्मस्थल है। अदालत ने इस विश्वास पर अपनी मुहर लगाकर अपने महान पूर्वजों के प्रति हिंदुओं के आदर भाव को प्रतिष्ठित किया है। तीनों न्यायमूर्तियों, एस यू खान, सुधीर अग्रवाल और डी वी शर्मा, में इस बात पर सर्वसहमति रही कि जहां भगवान राम की मूर्तियां प्रतिष्ठित हैं, वह राम का जन्मस्थल है, इसलिए उस पर रामलला का पूर्ण अधिकार है और उस स्थल पर न कोई दावा कर सकता है, न ही वहां से मूर्तियां हटायी जा सकती हैं। न्यायमूर्ति खान का यह कहना बहुत मायने रखता है कि बाबर ने मंदिर तोड़कर नहीं बल्कि ध्वस्त मंदिर के अवशेष पर बाबरी का निर्माण कराया था। इससे यह बात साफ हो जाती है कि उस स्थान पर कभी मंदिर था। इसी नाते बाबरी के मुख्य गुंबद में राम जन्मस्थान पर सुन्नी वक्फ बोर्ड का दावा नामंजूर कर दिया गया। परंतु विवादित जमीन का तर्कसम्मत बंटवारा करके न्यायालय ने मुसलमानों को भी वहां अपनी इबादतगाह बनाने की जगह दे दी है।

मुख्य भाग समेत एक तिहाई भूमि हिंदू महासभा को दी गयी है, जब कि सीता रसोई और राम चबूतरा समेत एक तिहाई निर्मोही अखाड़े को। एक तिहाई हिस्सा मुस्लिमों को दिया गया है। निर्णय इतना सुचिंतित है कि दोनों ही पक्षों को इस पर एतराज नहीं होना चाहिए। फिर भी अगर किसी पक्ष को लगता है कि इस मसले पर और आगे विचार किये जाने की जरूरत है तो वह सुप्रीम कोर्ट जाने को स्वतंत्र है। फिलहाल राम जन्म स्थान पर यथास्थिति बनी रहेगी। जब यह मामला अदालत को सौंप दिया गया है तो किसी को भी लोगों की भावनाएं भड़काकर इसका फायदा उठाने का मौका नहीं मिलना चाहिए और सभी संबंधित पक्षों को हर सूरत में न्यायिक निर्णय को स्वीकार करने के लिए तैयार रहना चाहिए।

फिल्‍म उद्योग में भाईचारा कायम है : अडूर

 
 (अविनाश वाचस्पति )
दादा साहेब फाल्के अवार्ड से सम्मानित  विश्‍व-प्रख्‍यात  फिल्मकार अडूर गोपालकृष्णन ने कहा कि उनके द्वारा निर्देशित फिल्म शैडो किल सत्य घटना पर आधारित है। इस फिल्म में एक जल्लाद की मन:स्थिति को दर्शाया गया है। जिसमें उन्‍होंने एक जल्लाद के इंटरव्यू से प्रेरित होकर फिल्‍म का निर्माण किया।  30 सितम्‍बर की  सांय  वे  डीएवी गर्ल्‍स  कालेज,  यमुनानगर में आयोजित तीसरे हरियाणा अंतर्राष्ट्रीय फिल्‍म समारोह  की पूर्व संध्या पर विशेष प्रेस कांफ्रेंस को संबोधित कर रहे थे।
अपनी फिल्मों के लिए आठ बार राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से नवाजे गए फिल्‍मकार अडूर का मानना है कि हिंदू मुसलमानों के बीच जितना सौहार्द फिल्म इंडस्ट्री के अंदर है, इतना कहीं पर भी नहीं है। सुप्रसिद्ध अभिनेता दिलीप कुमार ने मुसलमान होने के बावजूद भी अपना हिंदू नाम रखा ,  जिससे उन्हें खूब ख्याति मिली। एक प्रश्न के जवाब में अडूर ने कहा कि वे केरल की जिंदगी को मुंबई की भाषा की बनिस्‍वत बेहतर तरीके से जानते हैं मुंबईया फिल्में भारत की  जिंदगी की असलियत नहीं दिखलातीं। फिल्मों में सिर्फ भाषा ही नहीं, अपितु ऐसी बहुत सी चीजें होती हैं, जिन्हें समझने की जरुरत है। उन्होंने बतलाया कि कोई निर्माता स्थानीय होने के बाद ही यूनिवर्सल बनने की ओर कदम बढ़ाता है, जिसके जीवंत उदाहरण सत्यजीत राय श्याम बेनेगल हैं।
ऑस्कर अवार्ड से कान, वेनिस बर्लिन फिल्म समारोह में मिलने पुरस्कारों को बड़ा बतलाते हुए उन्‍होंने कहा कि ऑस्‍कर  सिर्फ अमेरिकन फिल्म इंडस्ट्री की देन है। अडूर ने छोटे फिल्‍म समारोहों की उपयोगिता को सार्थक बतलाते हुए जोड़ा कि बड़े छोटे फिल्मोत्सव दोनों ही समान रुप से महत्वपूर्ण होते हैं। छोटे फिल्मोत्सव में फिल्मों के शिल्प शैली की ओर सदैव अधिक ध्यान दिया जाता है और बड़े उत्सवों में ग्लैमर और चकाचौंध पर फोकस किया जाता है। फिल्मकार को हमेशा असलियत ही दिखानी चाहिए और  किसी को भी इसमें शर्म महसूस नहीं करनी चाहिए। यह लोगों की गलत धारणा है कि कला फिल्में पैसा नहीं कमातीं। इसकी मिसाल उन्होंने सत्यजीत राय की उन फिल्मों से दी, जिन्होंने लागत से अधिक पैसा कमाने का रिकार्ड कायम किया है। प्रेस कांफ्रेंस के दौरान फिल्मकार के. बिक्रम सिंह ने कहा कि आजादी के 60 साल बीत जाने के बाद भी देश में ४० प्रतिशत लोग ऐसे हैं, जिन्हें दो वक्त की रोटी नहीं मिलती। जबकि हम कॉमनवेल्थ गेम्स पर ७० हजार करोड़ रुपए खर्च करने के लिए तैयार हैं।  
अडूर की फीचर फिल्मों की स्क्रिप्ट पुस्‍तक रूप में प्रकाशित हो रही हैं
प्रेस कांफ्रेंस के दौरान अडूर गोपालकृष्णन ने बताया कि उन्होंने जितनी भी फीचर फिल्में बनाई हैं, उनकी फिल्म ट्रांसक्राइब करके स्क्रिप्ट तैयार की जा रही है। यह पुस्तक अंग्रेजी भाषा में प्रकाशित की जा रही है।

बुधवार, 29 सितंबर 2010

एक् अक्‍टूबर से अंतर्राष्‍ट्रीय फिल्‍म समारोह

  
(अविनाश वाचस्पति द्वारा )
 डीएवी गर्ल्‍स कॉलेज, यमुनानगर में 1 अक्‍टूबर से आयोजित तीसरे हरियाणा अंतर्राष्‍ट्रीय फिल्‍म समारोह में भारतीय फिल्‍म जगत की कई बड़ी हस्तियां शिरकत करेंगी। समारोह के निदेशक अजित राय ने आज यहां एक प्रेस कांफ्रेंस में बताया कि इसमें भारत और विदेशों की लगभग 50 फिल्‍में दिखाई जायेंगी। उन्‍होंने कहा कि इस फेस्टिवल का उद्घाटन दादा साहेब फाल्‍के अवार्ड से सम्‍मानित सुप्रसिद्ध फिल्‍मकार अडूर गोपालकृष्‍णन करेंगे। अडूर की मलयालम फिल्‍म शेडो किल के प्रदर्शन से फेस्टिवल की शुरूआत होगी। 

यह समारोह 7 अक्‍टूबर तक चलेगा जिसमें फ्रांस, जर्मनी, इटली, ब्रिटेन, अमरीका, पोलैंड, रूस, जापान, चीन, ईरान, स्‍वीडन,‍ फिलीपिन्‍स, हांगकांग, डेनमार्क, हंगरी, नार्वे, अर्जेंटीना, ब्राजील आदि देशों की फिल्‍मों का प्रदर्शन होगा। उन्‍होंने बताया कि इस समारोह में ईरानी सिनेमा का विशेष खंड प्रदर्शित किया जाएगा। इस खंड का शुभारंभ भारत के ईरानी दूतावास में ईरान कल्‍चरल हाऊस के निदेशक अली देहघई करेंगे। 3 अक्‍टूबर को साहित्‍य और सिनेमा खंड का शुभारंभ हंस के संपादक राजेन्‍द्र यादव करेंगे। इस अवसर पर उनके उपन्‍यास सारा आकाश पर इसी नाम से बासु चटर्जी की बनाई फिल्‍म का विशेष प्रदर्शन होगा।

फेस्टिवल  की आयोजक डीएवी गर्ल्‍स कॉलेज की प्रिंसीपल सुषमा आर्य ने बताया कि यह खुशी की बात है कि हरियाणा के मुख्‍यमंत्री भूपिन्‍दर सिंह हुड्डा और गवर्नर जगन्‍नाथ पहाडि़या ने समारोह में आने की स्‍वीकृति दी है। इस फेस्टिवल में हरियाणा में सिनेमा के विकास पर एक राष्‍ट्रीय सेमिनार का आयोजन भी किया जा रहा है जिसकी अध्‍यक्षता  हरियाणा स्‍टेट चाइल्‍ड वेल्‍फेयर सोसायटी की उपाध्‍यक्ष आशा हुड्डा करेंगी। उन्‍होंने बताया कि हरियाणा के गवर्नर जगन्‍नाथ पहाडिया 6 अक्‍टूबर की शाम 4 बजे  सीमा कपूर की राजस्‍थानी फिल्‍म हाट द वीकली बाजार के हरियाणा प्रीमियर पर मुख्‍य अतिथि होंगे।

अजित राय ने बताया कि दादा साहेब फाल्‍के अवार्ड से सम्‍मानित भारत के विश्‍व प्रसिद्ध फिल्‍मकार श्‍याम बेनेगल से दर्शकों की बातचीत का विशेष आयोजन 5 अक्‍टूबर को 2.30 बजे से 5 बजे तक किया जा रहा है। फेस्टिवल में श्‍याम बेनेगल की 2 फिल्‍में समर और सूरज का सातवां घोड़ा दिखाई जा रही हैं। चर्चित युवा फिल्‍मकार अनवर जमाल दर्शकों के सामने श्‍याम बेनेगल से विशेष बातचीत करेंगे। इसी दिन पंजाब में किसानों की आत्‍महत्‍याओं पर अनवर जमाल की फिल्‍म हार्वेस्‍ट ऑफ ग्रीफ का प्रीमियर होगा। उन्‍होंने बताया कि 6 और 7 अक्‍टूबर को भारत के अंतर्राष्‍ट्रीय अभिनेता ओमपुरी फेस्टिवल में मौजूद रहेंगे। फेस्टिवल का अंतिम दिन 7 अक्‍टूबर ओमपुरी की फिल्‍मों को समर्पित किया गया है। ओमपुरी समापन समारोह के मुख्‍य अतिथि भी होंगे। उस दिन उनकी 3 अंतर्राष्‍ट्रीय फिल्‍में ईस्‍ट इज ईस्‍ट, सिटी ऑफ जॉय और माइ सन इज फाइनेटिक दिखाई जायेंगी।

हरियाणा के मुख्‍यमंत्री भूपिन्‍दर सिंह हुड्डा 4 अक्‍टूबर को दिन में 3 बजे ओमपुरी और यशपाल शर्मा की मुख्‍य भूमिकाओं वाली अश्विनी चौधरी की फिल्‍म धूप का विशेष प्रदर्शन देखेंगे। यह फिल्‍म कारगिल युद्ध में शहीद हुए सैनिकों के परिवारों का सघर्ष बयान करती है। इसी दिन अश्विनी चौधरी की राष्‍ट्रीय पुरस्‍कार से सम्‍मानित हरियाणवी फिल्‍म लाडो भी दिखाई जायेगी। हरियाणा मूल के चर्चित फिल्‍म अभिनेता यशपाल शर्मा की 4 फिल्‍में समारोह के दौरान दिखाई जाएंगी

अजित राय और सुषमा आर्य ने बताया कि फेस्टिवल के दौरान छात्र-छात्राओं के लिए एक फिल्‍म एप्रीसिएशन कोर्स भी चलेगा। इसके संयोजक सुप्रिसिद्ध फिल्‍मकार के. बिक्रम सिंह होंगे। इसमें छात्रों का  विश्‍व की महान फिल्‍मों से परिचय कराया जायेगा और फिल्‍म निर्माण से जुड़ी महत्‍वपूर्ण जानकारियों पर चर्चा होगी। इसका उद्घाटन 2 अक्‍टूबर की सुबह  राष्‍ट्रीय फिल्‍म अभिलेखागार, पुणे के निदेशक विजय जाधव करेंगे। भारतीय फिल्‍म एवं टेलीविजन संस्‍थान, पुणे के पूर्व निदेशक त्रिपुरारी शरण मुख्‍य अतिथि होंगे। इसी दिन चिल्‍ड्रन फिल्‍म सोसायटी, इं‍डिया के सहयोग से बच्‍चों की फिल्‍मों का उत्‍सव शुरू होगा। इस दौरान  द ब्‍लू अम्‍ब्रेला फिल्‍म की बाल कलाकार श्रेया शर्मा दो अक्‍टूबर को कालेज में उपस्थित रहेंगी। नाना पाटेकर अभिनीत फिल्‍म अभय का प्रदर्शन भी समारोह में होगा।

तीसरें हरियाणा अंतर्राष्‍ट्रीय फिल्‍म समारोह के दौरान कम से कम 9 फिल्‍मों का भव्‍य हरियाणा प्रीमियर आयोजित किया जा रहा है। ये वे फिल्‍में हैं जो अभी व्‍यवसायिक रूप से रिलीज नहीं हुई हैं। ये फिल्‍में हैं कालबेला, (गौतम घोष),  हाट द वीकली बाजार (सीमा कपूर), जब दिन चले न रात चले (त्रिपुरारी शरण) स्ट्रिंग बाउंड विद फेथ (संजय झा), टुन्‍नू की टीना (परेश कामदार), सबको इंतजार है (रंजीत बहादुर), हनन (मकरंद देशपांडे),  बियोंड बॉर्डर (शर्मिला मैती) और हार्वेस्‍ट आफॅ ग्रीफ (अनवर जमाल)।

उन्हें आग लगाने का मौका मत दीजिए

न्याय हमेशा भय की जडेंÞ काटता है। न्याय का अर्थ भयग्रस्तता नहीं बल्कि भय से मुक्ति है। यद्यपि जो निर्णय बहुत पहले आ जाना चाहिए था, उसमें बिलम्ब हुआ है लेकिन देर आयद दुरुस्त आयद। मामला आपस में बातचीत करके सुलझा लिया गया होता तो ज्यादा बेहतर होता, वह पारस्परिक सद्भाव बढ़ाने में मदद करता लेकिन दुर्भाग्य से काफी प्रयासों के बाद भी यह संभव नहीं हो सका। ऐसी स्थिति में अदालत के निर्णय के अलावा कोई और रास्ता नहीं है। अयोध्या की विवादित भूमि के मालिकाना हक के बारे में  आ रहे फैसले को लेकर तनिक भी घबराने की बात नहीं है। इस मामले में शामिल दोनों ही पक्षों को इस बात के लिए तैयार रहना चाहिए कि उनके प्रतिकूल भी फैसला जा सकता है और अनुकूल भी। उन्हें अपने लोगों से यह आग्रह करना चाहिए कि फैसला जो भी हो, वे पूरी सहजता से स्वीकार करें। इस फैसले के बाद उनके लिए न्यायालय के दरवाजे बंद नहीं हो जायेंगे।

जिस किसी पक्ष को अगर लगता है कि फैसला संतोषजनक नहीं है, उसके लिए सुप्रीम कोर्ट में जाने का विकल्प खुला रहेगा। सही बात तो यह है कि न राम को जमीन के किसी छोटे से टुकड़े की चिंता है, न ही रहीम को। यह तो हमारी छोटी समझ राम और रहीम को अलग-अलग करके देखती है। उनके लिए तो पूरी दुनिया, पूरी कायनात ही उनकी है। वे आपस में कभी झगड़ते भी नहीं, यह तो हम हैं जो उन्हें अपने-अपने कुनबे में बांटकर देखते हैं और इसी नासमझी के चलते आपस में लड़ते रहते हैं। और जब हम लड़ते हैं तो उस द्वंद्व की आग पर रोटियां सेंकने वाले अपने उल्लू सीधे करते हैं, उसका फायदा उठाते हैं। वे तैयार बैठे हैं, अपनी योजनाएं बनाने में मशगूल हैं, गोंटियां बिछाने में जुटे हैं। बस इतना करना है कि उन्हें कोई मौका न मिले, वे कामयाब न हो पायें। क्योंकि वे तो अपना काम बना लेंगे, पर लड़ाई में नुकसान किसका होगा? इतिहास उठाकर देखिये जब भी हिंदू, मुसलमान आपस में लड़ता है, तो आम आदमी को सबसे ज्यादा नुकसान उठाना पड़ता है।

यह बात अब सब लोग समझने भी लगे हैं पर जब इस पर अमल का अवसर आता है, तब यह बातें याद नहीं रहतीं। थोड़ी सावधानी की जरूरत है, थोड़ी सजगता की आवश्यकता है, बस झगड़ा कराने और उसका फायदा उठाने वालों को निराशा हाथ लगेगी। न्यायालय जो भी फैसला देगा, वाजिब तर्कों के आधार पर देगा। पहले फैसला आने दीजिए, फिर उसे गौर से समझिये, इसके बाद तय करिये कि क्या करना चाहिए। लड़ कर न हिंदू उस पर अपना अधिकार जमा सकेगा, न मुसलमान। आप सबको ही यह साबित करना है कि यह जाहिलों का देश नहीं है। कई बार ऐसी गलतियां हो चुकीं हैं, हम दूसरों के बहकावे में आ जाते हैं और आपस में एक दूसरे के दुश्मन बन जाते हैं। इस बार ऐसी गलती नहीं दुहरायी जानी चाहिए। वैसे ही हिंदुस्तान के चेहरे पर कम घाव नहीं हैं, और घाव देने की जरूरत आखिर क्या है। 

रविवार, 26 सितंबर 2010

नंदन जी न होकर भी होंगे

मरते वे लोग है जो समाज के लिए कुछ नहीं करते, जो केवल अपने बारे में सोचते रहते हैं, अपने लाभ की चिंता में भागते रहते हैं। मरते वे हैं जो कुछ नहीं सोचते। एक रचनाधर्मी निरंतर दूसरों की पीड़ा में सहभाग करता है, उसे अपनी पीड़ा समझकर जीता है। तभी तो वह रच पाता है। ऐसा शब्द शिल्पी आखिर कैसे मर सकता है। कन्हैया लाल नंदन हमारे बीच नहीं रहे। सबको इस बात का अतिशय दुख रहेगा कि अब  वे बोलते-बतियाते हुए हमारे बीच नहीं होंगे, गोष्ठियों में कविता सुनाते हुए या अपनी बात कहते हुए हमसे सीधे संवाद नहीं कर सकेंगे लेकिन वे तब भी होंगे अपनी रचनाओं में बोलते हुए, संवाद करते हुए।

वे उन विरले लेखकों में से एक थे, जिन्होंने साहित्य और पत्रकारिता को एक साथ साधे रखा। उनका पूरा जीवन एक साधना की तरह था। वे साहित्यकारों और पत्रकारों के बीच एक पुल की तरह थे। पत्रकार भी वही काम करता है, जो साहित्यकार करता है। दोनों ही व्यक्ति के, समाज के, शासन के परिष्कार के लिए लड़ते हैं, दोनों ही नकारात्मक और समाजविरोधी ताकतों को नष्ट करने के लिए कलम उठाते हैं। दोनों में फर्क सिर्फ इतना है कि पत्रकार रोजमर्रा के विषयों पर इस तरह लिखता है कि किसी खास किस्म के अन्याय, शोषण या जुल्म को सीधे पहचाना जा सके और उस तरफ जनता और शासन का ध्यान आकर्षित किया जा  सके। इस अर्थ में उसका लिखा हुआ तात्कालिक महत्व रखता है और अपनी लड़ाई जारी रखने के लिए उसे रोज अपनी कथाओं को आगे बढ़ाना होता है। साहित्यकार किसी व्यक्ति की यातना या पीड़ा या दुख को एक बड़ा फलक दे देता है। उसी तरह का दुख औरों का भी है, वही पीड़ा तमाम लोग झेल रहे हैं। कहानी, कविता या अन्य साहित्यिक विधाएं साधारणीकरण की मदद से किसी एक अनुभव को पूरे समाज के अनुभव से जोड़ देती हैं। इस तरह साहित्य में आकर एक अखबारी खबर भी समय के बंधन से मुक्त हो जाती है, अपनी तात्कालिकता के प्रभाव से अलग हो जाती है और एक स्थायी महत्व ग्रहण कर लेती है। नंदन जी को दोनों में ही महारत हासित थी।

साहित्यकार को कच्चा माल तो पत्रकार ही उपलब्ध कराता है। इस नाते उसका महत्व भी कम करके नहीं आंका जा सकता। नंदन जी जैसा व्यक्ति इस सच से पूरी तरह वाकिफ था। व्यक्तित्व से एकदम सरल, मिलनसार, मित्रों के बीच में अपने ठहाकों से सबको मोह लेने वाले नंदन एक संपादक के रूप में अत्यंत कुशल और सफल साबित हुए। चाहे पराग रही हो या सारिका या नवभारत टाइम्स, वे जिस भी पत्रिका या पत्र के संपादक रहे, वह अपने समय में ज्यादा से ज्यादा पाठकों को आकर्षित करने में कामयाब रहा। विषय और रचना के चयन में वे सिद्धहस्त थे। वे साहित्य के नाम पर जितना छोड़ गये हैं, वह उन्हें हमेशा हमारी स्मृति में बनाये रखने के लिए पर्याप्त है। नंदन जी हमारे बीच न होकर भी सदा हमारे बीच बने रहेंगे।

सोमवार, 20 सितंबर 2010

ऐसे नहीं निकलेगा कश्मीर का हल

ऐसे कश्मीर का हल नहीं निकलेगा। जो साजिश कर रहे हैं, जो उपद्रव करा रहे हैं, वे समाधान का क्या तरीका बतायेंगे? जो कश्मीर की आजादी की मांग कर रहे हैं, क्या आप उनसे समस्या के हल का उपाय पूछेंगे? जो लोग पाकिस्तान के हाथों में खेल रहे हैं, क्या वे हल करायेंगे कश्मीर की समस्या को? हमारी सबसे बड़ी कठिनाई है कि हमारी सरकारें डर-डर कर फैसले करती हैं। हमारे राजनेता साहस का परिचय कभी नहीं देते, उनमें साहस बचा ही नहीं है। क्या हम सैयद गिलानी के विचारों से परिचित नहीं हैं, क्या हम नहीं जानते कि यासीन मलिक क्या कहेंगे, क्या हमें पता नहीं है कि मीरवाइज फारुक का क्या सोचना है?

ये उन आतंकवादियों से कम खतरनाक नहीं हैं, जो छिपकर आते हैं और हमले करके भाग जाते हैं, जो बंदूकों से बात करते हैं। उनमें और हुर्रियत के नेताओं में फर्क बस इतना है कि  हुर्रियत के लोगों को हमारी सरकारों ने खुलेआम अलगाव के बीज बोते रहने की छूट दे रखी है। वे आलीशान कोठियों में रहते हैं, हमारा भेजा हुआ अनाज खाते हैं और पाकिस्तान के मंसूबों को पूरा करने का काम करते हैं। इन्हीं लोगों की शह पर श्रीनगर में पाकिस्तानी झंडा तक फहराया गया, इन्हीं के संकेतों पर कुछ पैसों पर बिके हुए बच्चे पथराव करते हैं, आगजनी करते हैं, लूट-पाट मचाते हैं। पूरा देश जानता है कि इन कार्रवाइयों के बदले इन अलगाववादी नेताओं को पाकिस्तान में बैठे दोस्तों से बड़ी रकम इनाम के रूप में मिलती है। ऐसे लोगों से क्या पूछने की जरूरत है, उनकी राय लेने की क्या आवश्यकता है। अगर आप इसे लोकतंत्रवादी तरीका कहते हो, तो फिर तो आतंकवादियों से भी उनके विचार जानने पड़ेंगे। जो लोग देश को तोड़ने का उपक्रम कर रहे हैं, उनके साथ देश के कानूनों के तहत कड़ाई से पेश आने की जरूरत है।

हमारी व्यवस्था की इसी कमजोरी की वजह से कश्मीरी पंडितों को अपने घर, अपनी संपत्ति और अपनी मिट्टी से प्यार तक को तिलांजलि देनी पड़ी। अभी तक उनका दर्द कम करने में किसी सरकार को कोई कामयाबी नहीं मिली है। पहले उन्होंने कश्मीर से पंडितों को खदेड़ा, फिर देश के अन्य हिस्सों से काम के लिए आने वाले मजदूरों को भगाया, सिखों को घाटी छोड़ देने की चेतावनी दी और अब वे कश्मीर से हिंदुस्तान को भी खदेड़ देने के इरादे से काम कर रहे हैं। कितना हास्यास्पद है कि वे केंद्र सरकार द्वारा भेजे गये प्रतिनिधियों से नहीं मिलना चाहते हैं, पर हमारे प्रतिनिधि उनसे मिलने को बेताब हैं, बिन बुलाये मेहमान की तरह उनकी सांकल खटखटा रहे हैं। जैसे वे पसीज जायेंगे और तुरंत भारत सरकार पर रहम खाकर उस पर कृपा कर देंगे। खेद की बात है कि महबूबा मुफ्ती जैसे मुख्य धारा के कुछ नेता भी अपना जनाधार बनाने के चक्कर में उन्हीं अलगाववादियों के पपेट बनकर काम कर रहे हैं। महबूबा का यह चरित्र बार-बार दिखायी पड़ता रहा है। वे खुलकर हुर्रियत नेताओं की मदद करती दिखायी पड़ती हैं।

कश्मीर का समाधान राज्य के विकास में है, बेरोजगारों को काम देने में है। इसके लिए शांति की जरूरत होगी। अतिलोकतांत्रिकता और उदारता भी कभी-कभी शांति का अपहरण कर लेती है, जैसा इस बार हुआ है। ऐसे तत्व जो इस उदारता को कमजोरी की तरह ले रहे हैं, उनके साथ पूरी सख्ती बरती जानी चाहिए, उन्हें अपनी विभाजक कूटनीति पर काम करने का कोई मौका नहीं दिया जाना चाहिए। इन्हीं के खैरख्वाह कुछ लोग, जो सेना को दंतहीन बनाने की जोर-शोर से मांग कर रहे हैं, उनको भी साफ-साफ बता दिया जाना चाहिए कि सेना आतंकवादियों से निपटने के लिए है और वह अपने अधिकारों के साथ ही अपना  काम कर पायेगी। हमें कोई मुगालता नहीं होना चाहिए कि हुर्रियत के नेताओं से बात करके हम इस समस्या का हल निकाल लेंगे।

रविवार, 19 सितंबर 2010

दुश्मन चुप नहीं बैठा है

जामा  मसजिद के सामने विदेशी पर्यटकों की बस को निशाना बनाकर जो हमला किया गया, उसमें कोई बड़ा नुकसान तो नहीं हुआ पर यह एक चेतावनी है कि जो लोग दिल्ली में राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन से प्रसन्न नहीं हैं या जो नहीं चाहते कि दुनिया में भारत का मान-सम्मान बढ़े, वे चुपचाप बैठे नहीं हैं, वे दिन-रात कुछ न कुछ ऐसा सोच रहे हैं, जिससे विदेशियों के मन में घबराहट पैदा की जा सके, उन्हें खेलों में शामिल होने या उन्हें देख्नने के लिए विदेशों से आने की योजना बनाने से रोका जा सके। इसमें उन्हें कितनी कामयाबी मिलेगी, मिलेगी भी या नहीं, यह निर्भर है हमारी पुलिस और दिल्ली की जनता की सजगता पर।

यह बात बहुत साफ है कि किसी भी हमलावर को अपने काम को अंजाम देने से रोक पाना मुश्किल काम है क्योंकि यह किसी को पता नहीं होता कि हमलावर कहां घात  लगाये बैठा है और वह कब किस पर हमला करने वाला है। आतंकवादी हमले अनिश्चित होते हैं। किसी भी देश के पास इतने सुरक्षा बल नहीं होते कि वह हर आदमी के पीछे एक बंदूकधारी लगा दे, यह व्यावहारिक रूप से असंभव है  पर जब आम नागरिक भी अपनी जिम्मेदारियां समझता है तब किसी बाहरी या उपद्रवी मानसिकता वाले व्यक्ति के लिए छिपना, सामान खरीदना या बंदूक और विस्फोटकों के साथ सड़कों पर चलना कठिन हो जाता है। हमारे देश की पुलिस और उसके अधिकारी न तो इस तरफ ध्यान देते हैं, न ही सरकारें सुरक्षा और सतर्कता की प्रक्रिया में जनता की भागीदारी के लिए कभी गंभीर पहल करती हैं। इसके अभाव में आम आदमी भी यह समझे बैठा रहता है कि सुरक्षा तो पुलिस का काम है, आतंकवादियों और अपराधियों से जनता की हिफाजत तो पुलिस का काम है। यह एक बड़ी कमी हमारी व्यवस्था में है। क्या हम स्वयं सुरक्षित रहना चाहते हैं, क्या हम चाहते हैं कि हमारे मित्र, सगे-संबंधी और हमारा समाज सुरक्षित रहे? अगर हम चाहते हैं तो क्या कभी इस बात पर विचार करते हैं कि इसमें हमारी अपनी क्या भूमिका हो सकती है? शायद नहीं, कभी नहीं सोचते, क्यों कि सरकार और पुलिस विभाग की तरफ से इस मामले में कभी जनता को भरोसे में लेने की कोई कोशिश नहीं की जाती है।

इस तरह की कार्यशालाएं व्यापक स्तर पर की जानी चाहिए, जिनमें मुहल्ला स्तर पर लोगों की भागीदारी हो और उन्हें समाज और देश के प्रति, अपने शहर के प्रति, उसकी प्रतिष्ठा के प्रति उनकी जिम्मेदारियों से अवगत कराया जाये, उन्हें बताया जाये कि किसी भी संदिग्ध आदमी को वे कैसे पहचान सकते हैं, बिना अतिरिक्त समय दिये वे किस तरह पुलिस की मदद कर सकते हैं। इससे बहुत सारी अवांछित घटनाएं  टाली जा सकती हैं। कोई भी आतंकवादी अकेला अपने बूते पर कुछ भी करने में सफल नहीं हो सकता। वह अपने काम में आने वाली   चीजें यहीं के बाजार से खरीदता है, कोई वारदात करने से पहले वह यहीं रुकता है, किसी न किसी की मदद जरूर लेता है। अगर हर नागरिक अपने आस-पास के लोगों के प्रति सजग रहे तो ऐसे लोग बहुत जल्द पहचाने जा सकेंगे|

शुक्रवार, 17 सितंबर 2010

विज्ञान का भगवान से क्या मतलब

विश्वप्रसिद्ध वैज्ञानिक स्टीफन हाकिंग ने ब्रह्मांड के निर्माण की प्रक्रिया में भगवान की किसी भूमिका से इनकार किया है। उनका कहना है कि भौतिक विज्ञान के सिद्धांत यह साबित करते हैं कि प्रारंभ में जब कुछ नहीं था, तब भी गुरुत्व था और वही कारक हो सकता है ब्रह्मांड के निर्माण का। शून्य में से ब्रह्मांड के प्रस्फुटन के लिए लगता नहीं कि किसी भगवान को चाभी घुमाने की जरूरत रही होगी।   पर वे ब्रह्मांड की उत्पत्ति शून्य से नथिंगनेस से नहीं मानते। कुछ था और उस कुछ में से बहुत कुछ या सब कुछ निकला। किसी भी वैज्ञानिक ने पहली बार भगवान के वजूद को इस तरह चुनौती दी है।  उनकी इस घारणा के बीज उनके प्रारंभिक जीवन में ही पड़ गये थे। उनकी मां इसाबेला 1930 में कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्य रही थीं और साम्यवादी चिंतन को लगभग नास्तिक चिंतन माना जाता है पर अपने शुरुआती विचारों में हाकिंग न तो नास्तिक दिखते हैं, न आस्तिक। वे न तो भगवान की संभावना में विश्वास करते हैं, न ही उसकी असंभावना में।
विज्ञान को भगवान से कोई मतलब होना भी नहीं चाहिए क्योंकि यह बहस दर्शन के क्षेत्र की है। मूल्य, चरित्र, धर्म और नैतिकता तय करने का काम दर्शन करता है, विज्ञान नहीं। विज्ञान तो प्रायोगिक सत्यों का उद्घाटन करता है और उन्हें जीवन की उपयोगिता से जोड़ता है। विज्ञान के कदम जहां-जहां पड़ते जाते हैं, भगवान स्वयं ही वह इलाके छोड़कर हट जाता है। कल तक जो बहुत सी चीजें असंभव मानी जाती थीं, विज्ञान ने आज उन्हें संभव कर दिया है। अब वहां भगवान की कोई जरूरत नहीं रह गयी। पर जहां विज्ञान का उजाला अभी तक नहीं पहुंच सका है, उस अंधेरे में टिकने का कोई सहारा तो चाहिए। आदमी ने अपनी निरुपायता में भगवान को गढ़ा है, जब उसकी शक्ति, उसका संकल्प, उसकी मेधा पराजित हो जाती है तब वह भगवान को याद करता है। भगवान उसकी मदद के लिए आये या न आये पर उसकी अमूर्त और काल्पनिक उपस्थिति से मनुष्य को शक्ति मिलती रही है। वैज्ञानिक के जीवन में भी ऐसे क्षण आते हैं। वह कभी यह कह सकने की स्थिति में नहीं हुआ, न ही शायद होगा कि कुछ भी ऐसा नहीं, जो वह न कर पाये। इसीलिए  वैज्ञानिकों ने भगवान के होने, न होने पर ज्यादा बहस नहीं की। बल्कि कइयों ने तो यह स्वीकार किया कि कोई न कोई ब्रह्मांड मेधा तो है, जो अगणित ग्रह, तारा, नक्षत्र मंडलों को संतुलित रखती है, जो फूलों को खिलाती है, महकाती है, जो सृजन और ध्वंस का भी नियमन करती है। उसे बेशक भगवान न कहो, कोई भी नाम दे दो क्या फर्क पड़ता है।

अनेक वैज्ञानिकों को हाकिंग की घोषणा पर आपत्ति है। उनका कहना है कि विज्ञान को सांप्रदायिक नहीं होना चाहिए। उसे आने वाली नस्लों को यह मौका नहीं देना चाहिए कि वह विज्ञान का सहारा लेकर अपने नास्तिवाद को मजबूत कर सके।   यह विज्ञान का न तो धर्म है, न ही उसके काम करने का तरीका। इससे विज्ञान की प्रामाणिकता पर भी लोग ऊंगलियां उठायेंगे क्योंकि विज्ञान कभी भी कोई ऐसी बात नहीं कहता, जिसे वह प्रमाणित न कर सके। यह सच है कि विज्ञान के पास कोई ऐसा साधन नहीं है, जिसके माध्यम से वह यह साबित कर सके कि भगवान है। इसी तरह वह यह भी सिद्ध नहीं कर सकता कि भगवान नहीं है। फिर तो किसी भी वैज्ञानिक का यह कहना नितांत अवैज्ञानिक होगा कि भगवान की ब्रह्मांड में कोई भूमिका नहीं है।

रविवार, 12 सितंबर 2010

ये कहां का धर्म है जनाब?

धर्म वह नहीं है, जो हम जानते हैं। वह भी नहीं, जो हम मानते हैं। वह इस जानने और मानने से बहुत दूर है। हम समझते हैं कि थोड़ा पूजा-पाठ कर लिया, मंदिर हो आये, किसी भिखारी के हाथ पर एक रुपये का सिक्का डाल दिया, बस हो गया धर्म। मिल गयी जीवन में कुछ भी करने की छूट, बेईमानी की रियायत। हम मानते हैं कि महीने में एक बार राम चरित मानस का पाठ करा दिया, सुबह उठे तो गीता का एक श्लोक बांच लिया और हो गया धर्म, सारे पाप हो गये माफ और नये सिरे से पाप करने का रास्ता खुल गया। अब महीने भर चाहे जितने पीड़ितों को सताओ, चाहे जितने लोगों से पैसा वसूलो। हम जानते हैं कि भगवान बड़ा दयालु है और कुछ पत्र-पुष्प से या मामूली लड्डुओं से खुश हो जाता है, वह बहुत सीधा है, चाहे जितनी उल्टी-सीधी करते रहो पर जैसे ही उसके चरणों में नतमस्तक हो जाओगे, जैसे ही उसके सामने जाकर गिरोगे, वह अपनी बांहों में उठा लेगा और सारे अधम कर्मों से मुक्त कर देगा।

यह हमारी गलती नहीं है, यही हमें जन्म से बताया गया है, सिखाया गया है। यही हमारे धार्मिक कहे जाने वाले अग्रजों ने भी हमें सिखाया है। वे खुद इसी रास्ते पर चलते आये हैं। इतना ही करके वे मानते हैं कि वे मुक्त हो गये हैं। भगवान ने उन्हें माफ कर दिया है। माफ ही नहीं किया है बल्कि कुछ भी करने का अभयदान भी दे दिया है। अब उनको न पाप छू सकेगा, न अपराध और न ही देश का कानून। यह हमारी भी नासमझी है और उनकी भी जो खुद को धर्म का ठेकेदार समझते आ रहे हैं। इसी नासमझी का वे फायदा भी उठा रहे हैं। उनके प्रवचनों में लाखों लोग जुटते हैं, इसे वे अपने ऊ पर भगवान की कृपा और अपनी ताकत मानने लगे हैं। इसी भ्रम में वे कुछ भी करने लगे हैं। इसी भ्रम में वे खुद को कानून और संविधान से भी परे मानने लगे हैं। धार्मिक अड्डों पर अब वह सब कुछ होने लगा है, जिसे आम, अदना और अनपढ़ आदमी भी कभी धर्म मानने को तैयार नहीं होगा।

क्या किसी साधु-संत को अपने आश्रम में किसी अपराधी को शरण देने का आश्वासन देना चाहिए? क्या रोज लोगों को नेकी और ईमानदारी का उपदेश देने वाले धर्मज्ञ को काले धन को सफेद करने का किसी को भी भरोसा देना चाहिए? क्या खुद को ईश्वर का प्रतिनिधि कहने वाले किसी भी व्यक्ति को ठगी, धूर्तता और हत्या के प्रयास में कहीं से भी संलग्न होना चाहिए? पर यह सब वे लोग कर रहे हैं, जिन्हें इस देश के लोग साधु कह कर पुकारते हैं। वे दूसरों को धर्म की क्या शिक्षा देंगे, जो खुद ही धर्म से च्युत हैं। वे गलत नहीं हैं क्योंकि वे जिस इरादे से इस क्षेत्र में आये थे, सिर्फ वही कर रहे हैं। भूल तो वे कर रहे हैं जो अपनी मेहनत, अपनी लगन और अपनी सामर्थ्य के बूते अपना रास्ता तय करने की जगह भगवान, भाग्य और भगवान के तथाकथित प्रतिनिधियों के सहारे पर बैठे रहते हैं। कहते हैं कि भगवान अगर है तो वह भी उन्हीं की मदद करता है, जो खुद की मदद करते हैं। वह नहीं चाहता कि कोई उस तक पहुंचने के लिए बिचौलिया पकड़े और उसे कमीशन खिलाये। कानून के राज्य में किसी को भी चाहे वह कितना भी जनास्था का पात्र क्यों न हो, अपराध करके भी बचे रहने की छूट नहीं मिल सकती।

बुधवार, 8 सितंबर 2010

गद्यकाव्य के आचार्य रावी जी की याद में

यह मेरा सौभाग्य है कि मुझे आगरा की एक विशिष्ट विभूति, एक प्रखर रचनाकार और एक स्वाभिमानी व्यक्तित्व से मुलाकात का अवसर मिला है। रावी जी को आगरा भले ही भुला चुका हो पर हिंदी साहित्य उन्हें और उनके योगदान को कभी विस्मृत नहीं कर पायेगा। मैं तब आज अखबार में था। उन्होंने मुझे फोन किया और पूछा कि अगर आप चाहें तो मैं आप के समाचारपत्र के लिये कुछ रोचक कथायें लिख सकता हूं। मैंने तत्काल हां कर दी और वे दो दिन के भीतर ही मेरे दफ्तर में प्रकट हो गये, अपनी कहानियों के साथ। चमत्कृत कर देने वाली भाषा, अद्भुत कल्पना शक्ति। मैंने उनकी कुछ कहानियां छापीं। तब मैं नहीं जानता था कि यह कोई साधारण व्यक्ति नहीं, यह पूरे कथाजगत में अपने प्रयोगों के लिये विख्यात साहित्यकार रावी जी हैं। धीरे-धीरे उनके बारे में और जानकारियां हुईं। वे साहित्य में तो प्रयोग कर ही रहे थे, उन्होंने जीवन में भी कई प्रयोग किये। वे  कैलास के पास जंगलों में नयानगर नाम से एक मुक्तग्राम बसाना चाहते थे, जिसकी शुरुआत भी उन्होंने अपने जीवनकाल में कर दी थी, पर उनका यह सपना पूरा नहीं हो पाया। नयानगर है तो मगर रावी की कल्पना वाला नहीं। वे कुछ समय और रह पाते तो शायद अपना सोचा कर पाते।

सोलह वर्ष बीत गये लेकिन उनकी आत्मा उनके साहित्य-शरीर में आज भी है। लघुकथा को एक स्वतंत्र विधा के रूप में स्थापित करने का श्रेय रावी जी को ही है। गद्यकाव्य को वे अलग विधा मानते थे और इस दिशा में उन्होंने बहुत ही उल्लेखनीय काम किया। उन्होंने गद्य की हर विधा में लिखा और बेजोड़ लिखा। उन जैसा सुगठित गद्य लिखने वाला दिखता नहीं, शायद कोई है भी नहीं। उनके किसी पैराग्राफ में एक शब्द भी कम करना किसी कुशल संपादक के लिए भी असंभव सी बात है। आगरा के लेखक सत्य प्रकाश गोस्वामी बताते हैं कि  एक बार उन्हें गद्यकाव्य की परिभाषा लिखने की जरूरत पड़ी। कई  बड़े-बड़े गद्य काव्यकारों से   सम्पर्क किया गया। किसी ने एक पृष्ठ तो किसी ने  एक पैराग्राफ की परिभाषा लिखकर दी। रावी जी ने जो परिभाषा लिखकर दी, वह अद्भुत थी। इससे उनके रचनाकार की सामर्थ्य समझी जा सकती है। उन्होंने लिखा....पद्य की गतिमयता से मुक्त ओर उसकी रसमयता से युक्त शब्दीकरण गद्यकाव्य है।

रावी ने गद्य की एक नई विधा गोष्ठी को भी जन्म दिया है। उनकी पुस्तक वीरभद्र की गोष्ठी भारतीय ज्ञानपीठ ने प्रकाशित की है। शुभ्रा उनका उत्कृष्ट गद्यकाव्य है। ज्ञान मंडल काशी से प्रकाशित साहित्य कोश में भी रावीजी का परिचय छपा है। उनके लिखे नाटक प्रबुद्ध सिद्धार्थ के संवादों में देशकाल का विशेष ध्यान रखा गया है। इस नाटक का एक पात्र आंखों पर पट्टी बांधने के लिए परकीय शब्द रूमाल की जगह करचीर शब्द का प्रयोग करता है। सिर के नीचे तकिया न लगाकर शिरोधान लगाता है। बलात्कार की तरह नया शब्द छलात्कार रावी जी ने दिया है। इसी तरह प्रतीतिका शब्द भी रावीजी ने दिया है। वे साहित्यिक शब्दों के निर्माता भी थे। रावी जी का लिखा  नाटक प्रबुद्ध सिद्धार्थ 16-17 वर्ष तक यूपी बोर्ड इलाहाबाद की इंटरमीडिएट कक्षाओं में पढ़ाया जाता रहा। विडम्बना यह कि इस नाटक की पाण्डुलिपि उन्होंने मात्र 500 रुपये में बेची थी।

रावीजी साहित्यिक संत थे। उनके जीवन में पैसे का उपयोग था, पर उसका मूल्य नहीं था। उन जैसा संतोषी साहित्यकार मुश्किल से ही मिलेगा। उनके जीवन में बाहर विकट अभाव और भीतर आनन्द ही आनन्द था। उनमें ऊपर तक इतना प्रेम भरा था कि उनके विरोधी को भी उनसे मिले बिना चैन नहीं पड़ता था। रावीजी लघुकथाओं के पितामह हैं। कहानी का बाना पहनाकर वे अपनी लघुकथाओं में एक विशिष्ट जीवन संदेश देते हैं। मेरे कथागुरु का कहना है- इस शीर्षक से उनकी लघुकथाएं भारतीय ज्ञान पीठ ने दो भागों में प्रकाशित की हैं।  रावीजी सन् 47 से ही कैलास में रहने लगे थे। उन्हीं के कारण विख्यात साहित्यकार केएम मुंशी, गवर्नर सत्य नारायण रेड्डी, महापंडित राहुल सांकृत्यायन, विष्णु प्रभाकर आदि कई लोग कैलास आये थे। रावीजी कैलास में कुछ दिन श्यामकुटी में रहे थे, फिर स्वनिर्मित आवास नया नगर कैलास में। वहीं  रहते हुए हिन्दी जगत को अपना साहित्य शरीर सौंप कर 1994 में उन्होंने अपना भौतिक शरीर छोड़ा।

मैत्रीक्लब के माध्यम से उन्होंने भारत भर के साहित्यकारों और सामान्य जनों का एक वृहत परिवार बनाया। इतना ही नहीं, हृदयों की हाट वार्ता के द्वारा उन्होंने भारत की यात्रा की और टूटे हृदयों को जोड़ा। नये विज्ञापन मासिक पत्र द्वारा मन के विज्ञापनों को प्रकाशित कर रावीजी ने पत्रकारिता जगत को भी एक अनूठी देन सौंपी है। इतना ही नहीं, पूर्णत: अशुद्ध नाम कैलाश का बहिष्कार कर उन्होंने शुद्ध नाम कैलास का बोध पढ़े-लिखों को भी कराया।  

(सत्यप्रकाश गोस्वामी, 31/69 कटघर, आगरा  द्वारा उपलब्ध करायी गयी जानकारी को समाहित करते हुए, गोस्वामी जी का फोन नम्बर है.08006386473)

ऐसी हड़ताल का औचित्य क्या?

 बढ़ती महंगाई, श्रम कानूनों का उल्लंघन और सरकारी कंपनियों से विनिवेश जैसे मुद्दों को लेकर देश भर में आठ ट्रेड यूनियनों की हड़ताल का व्यापक असर देखा गया। खबर है कि कई इलाकों में हड़्ताल की वजह से 50 से भी ज्यादा मरीजों की सही समय पर इलाज न मिलने की वजह से मौत हो गयी। वामपंथी गढ़ों में सरकारें भी  एक तरह से हड़ताल में शामिल रही। जाहिर है जैसा कि होता आया है, इस हड़ताल से भी बहुत नुकसान हुआ। बैंकों में काम-काज लगभग ठप हो जाने से अरबों के लेन-देन पर असर पड़ा। ट्रेनों के परिचालन और उड़ानों पर भी प्रभाव पड़ा। यह ठीक बात है कि हड़ताल किसी भी नीतिगत गलती के विरोध का एक मान्य तरीका है और संविधान ने भी मजदूरों को हड़ताल करने का अधिकार दे रखा है लेकिन क्या कोई अपने अधिकार  के प्रयोग में दूसरों के अधिकार का अतिक्रमण करे, इसकी छूट भी कानून और संविधान ने दे रखी है।

इसमें कोई दो राय नहीं कि सरकार की उदासीनता से महंगाई बहुत बढ़ गयी है, गरीब जनता को भारी परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। इसके लिए सरकार पूरी तरह जिम्मेदार है। सरकार से उम्मीद की जाती है कि वह जनता की परेशानियां कम करेगी, उसकी दिक्कतें सुलझायेगी, बढ़ायेगी नहीं। इसका विरोध होना ही चाहिए पर क्या ऐसे विरोध की इजाजत होनी चाहिए जो लोगों को कठिनाइयों में डाल दे, जो लोगों की परेशानियां और बढ़ा दे, जो देश को नुकसान पहुंचाये। यह मुद्दा कई बार जेरे-बहस रहा है। काम-काज बंद कराने वाली हड़तालों पर देश के सर्वोच्च न्यायालय ने रोक भी लगायी है। जिससे दूसरों के हक बाधित होते हों, उस रास्ते का समर्थन कोई भी नहीं कर सकता। किसी को पैसे की जरूरत है, नितांत संकट की स्थिति है, पैसा नहीं मिलने पर उसको बड़ी क्षति हो सकती है, पर हड़ताल हो गयी है, बैंक बंद हैं, वह क्या करे। किसी के परिवार का कोई सदस्य गंभीर रूप से बीमार है, अगर वह समय से अस्पताल नहीं पहुंचा तो उसकी जान जा सकती है, परिजन बेचैन हैं, बसें रुकी पड़ीं हैं, ट्रेनें भी प्रभावित हैं, कैसे ले जायें, क्या करें, हड़ताल के कारण वे विवश हैं।

हड़ताल करने वालों को ऐसे लोगों की पीड़ा से क्या कोई मतलब नहीं है? यह हड़ताल अगर उनके दुख को  बढ़ाती है तो इसकी जिम्मेदारी कौन लेगा? क्या नैतिक रूप से हड़ताली संगठनों और उनके नेताओं को इन बातों पर भी गौर करने का दायित्व नहीं आ जाता है? अगर आता है तो उन्हें विरोध का ऐसा वैकल्पिक रास्ता तलाशना चाहिए, जो उनकी आवाज तो बुलंद तरीके से सरकार तक पहुंचाये लेकिन किसी भी दूसरे नागरिक के लिए परेशानी का सबब न बने। इन बातों पर गहराई से गौर किया जाना चाहिए।  हड़ताल का असर सबसे ज्यादा वामपंथियों के गढ़ पश्चिम बंगाल और केरल में देखा गया। कर्नाटक और तमिलनाडु में कोई असर नहीं दिखा। बैंकिंग सेक्टर में कामकाज नहीं हुआ।  हड़ताल में करीब 6 करोड़ कर्मचारी शामिल हुए। यह नुकसान कौन भरे?

रविवार, 5 सितंबर 2010

‘ग्रीन हंट’ के बजाए डेवलपमेंट की तोप

वीरेन्द्र सेंगर की कलम से नक्सली हिंसा केंद्र सरकार के लिए बड़ी चुनौती बन गई है। इस चुनौती से मुकाबले के लिए ‘ग्रीन हंट’ जैसे आपरेशन जरूरी हैं या पिछड़े और आदिवासी बाहुल्य इलाकों में डेवलमेंट की ‘डोज’? इस मुद्दे पर उच्चस्तर पर सरकार में मंथन तेज हो गया है। इसी राजनीतिक ऊहापोह में पांच राज्यों में चल रहा नक्सल विरोधी आपरेशन ‘ग्रीन हंट’ भी आधे अधूरे मन से चलाया जा रहा है। ऐसे में जाहिर है इसके परिणाम बहुत कारगर नहीं हुए। सरकार ने भी मान लिया है कि गोली का जवाब, गोली से देने के बजाए नक्सलियों की मजबूत जड़ें कमजोर करना ज्यादा जरूरी है। इसीलिए सरकार 35 जिलों के लिए 13,742 करोड़ रुपये का विशेष आर्थिक विकास पैकेज लाने जा रही है।
केंद्रीय योजना आयोग ने नक्सल प्रभावित राज्यों के चुनिंदा 35 जिलों में खास विकास की योजना तैयार कर ली है। आयोग ने अपनी रिपोर्ट सरकार को दे दी है। उम्मीद की जा रही है कि 15 सितंबर के आसपास इस पर कैबिनेट की मुहर लग जाएगी। अभी यह तय नहीं हो पाया कि इस योजना के लिए 35 जिलों का चुनाव किस आधार पर हो? आयोग ने इसके लिए एक गाइडलाइन बनाकर दी है। लेकिन, मुश्किल यह है कि छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री दबाव बढ़ाए हुए हैं कि उनके राज्यों के ज्यादा से ज्यादा अदिवासी बाहुल्य जिले आईएपी (एकीकृत कार्ययोजना) के तहत ले लिए जाएं।

केंद्रीय योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया इस योजना के लिए खास दिलचस्पी ले रहे हैं। उन्हीं की पहल के चलते योजना आयोग की एक विशेष समिति ने आईएपी की पूरी रूपरेखा तैयार की है। इसके तहत योजना में शामिल किए गए जिलों में सड़क, बिजली, स्कूल व अस्पतालों जैसी योजनाओं में विशेष ध्यान दिया जाएगा। मोंटेक सिंह ने यह सिफारिश की है कि इस कार्ययोजना की निगरानी दो स्तरों पर हो। राज्य भी निगरानी करें और केंद्र की एक अधिकार प्राप्त संस्था भी, इस पर खास नजर रखे। इसी के साथ व्यवस्था बनाई जाए कि ब्लाक और ग्राम स्तर पर चुने हुए प्रतिनिधि भी इसमें हिस्सेदारी करें।

योजना आयोग के सूत्रों के अनुसार, यह योजना चार सालों के लिए होगी। पहले दो सालों में जोर इस बात पर रहेगा कि कई स्तरों पर जन जागरूकता और विश्वास बहाली का अभियान चले। आदिवासी इलाकों में स्कूल और अस्पताल खोले जाएं। यह भी ध्यान रहे कि अस्पतालों में दवाएं भी पहुंचे और कर्मचारी भी तैनात रहें। रणनीति यह रहे कि हर स्तर पर स्थानीय लोगों की भागीदारी सुनिश्चित की जाए। केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री, कपिल सिब्बल ने यहां शनिवार को कहा है कि उनका मंत्रालय सुदूर पिछड़े इलाकों में 100 केंद्रीय विद्यालय खोलने की योजना बना रहा है। उन्होंने अनौपचारिक बातचीत में कहा है कि इस बारे में वे प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह से विस्तृत चर्चा करने वाले हैं।

पिछले दिनों यहां राष्ट्रीय विकास परिषद की बैठक में नक्सल प्रभावित राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने आर्थिक पैकेज पर खास जोर दिया था। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह का कहना है कि एकीकृत कार्य योजना के तहत केंद्र की भी निगरानी रहे, इसमें कोई ऐतराज नहीं हो सकता है। लेकिन, इतना जरूर हो कि कहीं राजनीतिक श्रेय लेने की होड़ में राज्य सरकारों की भूमिका को नकार न दिया जाए। ऐसी कोशिश की गई, तो योजना की सफलता पर कई शंकाएं खड़ी जा जाएंगी।

आपरेशन ‘ग्रीन हंट’ में तमाम आधुनिक सशस्त्र संसाधन झोंक देने के बाद भी नक्सली गुट पस्त नहीं हुए हैं। ऐसे में यह बहस तेज हुई है कि नक्सली हिंसा से निपटने का तरीका क्या गोली-बारूद और फौज ही है? कांग्रेस नेतृत्व में भी शीर्ष स्तर पर इस मुद्दे पर मतभेद गहराए हैं। कई वरिष्ठ नेताओं ने चिदंबरम की रणनीति की खिलाफत शुरू कर दी है। ऐसे नेताओं में सबसे अग्रणी पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव, दिग्विजय सिंह हैं। उन्होंने तो मीडिया में एक लेख लिखकर चिदंबरम के आपरेशन ‘ग्रीन हंट’ की तीखी आलोचना कर डाली थी। इसके बाद मणिशंकर अय्यर से लेकर जयराम रमेश जैसे कई चर्चित नेताओं ने गृहमंत्री की रणनीति पर शंकाएं जाहिर कीं। यहां तक कि प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने हाल में कहा है कि नक्सली भी हमारे भाई-बहन हैं। सरकार उनसे हर तरह का संवाद करने के लिए तैयार है। प्रधानमंत्री की इस ताजा टिप्पणी के बाद चिदंबरम ने भी अपने रुख में नरमी के संकेत दिए हैं। यहां राजनीतिक हल्कों में जाना जा रहा है कि आदिवासियों को विश्वास में लेने के लिए केंद्र ने अब वाकई में रणनीति बदल दी है।

गुरुवार, 2 सितंबर 2010

जन्माष्ट्मी शाम पांच बजे तक मना लीजिये

 बांग्लादेश का बेतुका फरमान
बांग्लादेश भी अब सयाना होता दिखने लगा है। कुछ-कुछ पाकिस्तान की तरह। हालांकि अभी वहां हिंदुओं की वैसी दुर्दशा नहीं है, जैसी पाकिस्तान में है लेकिन वह भी उसी दिशा में कदम बढ़ा रहा है। उसे तनिक भी इस बात का खयाल नहीं है कि अगर हिंदुस्तान ने मदद न की होती तो उसका वजूद भी नहीं होता। इस छोटे से देश में कुल आबादी का दस फीसदी हिंदू है। यह बहुत ही प्रसन्नता की बात रही है कि अब तक बांग्लादेशी हिंदू अपने त्योहार भारी उल्लास से मनाते आ रहे हैं। कोई रोक-टोक नहीं, कोई व्यवधान नहीं। वहां हिंदुओं और मुसलमानों के बीच बांग्ला भाषा एक मजबूत पुल का काम करती आयी है। बातचीत और व्यवहार से कोई इन दोनों को अलग-अलग पहचान नहीं सकता। मुसलमान हिंदुओं के त्योहारों में और हिंदू मुसलमानों के पर्वों में पूरे उत्साह से शिरकत करते रहे हैं। इस सांप्रदायिक सौमनस्य को पलीता लगाने की कई बार कोशिशें की गयीं, मगर कामयाब नहीं हुईं।

पर पहली बार बांग्लादेश के हिंदुओं के दिल को ठेस पहुंचायी गयी है। यह काम किसी कट्टरवादी तंजीम ने किया होता तो ज्यादा परेशानी नहीं होती क्योंकि तब हिंदू-मुस्लिम दोनों मिलकर उसका मुकाबला कर लेते पर दुर्भाग्य यह है कि यह काम सरकार के बड़े ओहदे पर बैठी एक महिला मंत्री ने किया है।  बांग्लादेश की गृह मंत्री सहारा खातून ने देश के अल्पसंख्यक हिंदू समुदाय से कहा है कि वे भगवान कृष्ण के जन्मोत्सव को 'शांतिपूर्वक' मनायें और रोजा खुलने के समय, यानी शाम पांच बजे तक जन्माष्टमी मना लें। अब बताइये, जब भगवान का जन्म ही 12 बजे रात को होता है तो पांच बजे शाम तक हिंदू अपना उत्सव कैसे मना लेंगे। क्या ये तथ्य मोहतरमा खातून को नहीं मालूम है। कोई पहली बार तो बांग्लादेश में जन्माष्टमी मनायी नहीं जा रही है और ऐसा भी नहीं है कि रमजान के महीने में यह त्योहार पहली बार पड़ा हो।

पहले भी कई बार रोजे के दिनों में कृष्ण जनमोत्सव मनाया जा चुका है। वह भी पूरे उत्साह से, गाजे-बाजे के साथ। वहां के किसी नागरिक को कभी बुरा नहीं लगा, किसी ने कभी  किसी तरह का एतराज नहीं किया। फिर अचानक इस बार क्या हो गया, कौन सी आफत आ पड़ी कि सरकार को निहायत बेतुका फरमान जारी करना पड़ा। इस आदेश पर भारत में नाराजगी है, बांग्लादेश में भी लोग खुश नहीं हैं।  गृह मंत्री की सलाह मानना हिंदुओं के लिए आसान नहीं होगा। गृह मंत्री के बयान की हर ओर आलोचना हो रही है। बांग्ला मीडिया ने इसे भेदभाव भरा बयान कहा है। 'न्यू एज' अखबार ने भी इस मुद्दे पर सहारा खातून की खिंचाई की है। अख़बार के मुताबिक बांग्लादेश में हिंदुओं पर यह पाबंदी भेदभावपूर्ण कार्रवाई है। इसे रद्द किया जाना चाहिए।