रविवार, 26 सितंबर 2010

नंदन जी न होकर भी होंगे

मरते वे लोग है जो समाज के लिए कुछ नहीं करते, जो केवल अपने बारे में सोचते रहते हैं, अपने लाभ की चिंता में भागते रहते हैं। मरते वे हैं जो कुछ नहीं सोचते। एक रचनाधर्मी निरंतर दूसरों की पीड़ा में सहभाग करता है, उसे अपनी पीड़ा समझकर जीता है। तभी तो वह रच पाता है। ऐसा शब्द शिल्पी आखिर कैसे मर सकता है। कन्हैया लाल नंदन हमारे बीच नहीं रहे। सबको इस बात का अतिशय दुख रहेगा कि अब  वे बोलते-बतियाते हुए हमारे बीच नहीं होंगे, गोष्ठियों में कविता सुनाते हुए या अपनी बात कहते हुए हमसे सीधे संवाद नहीं कर सकेंगे लेकिन वे तब भी होंगे अपनी रचनाओं में बोलते हुए, संवाद करते हुए।

वे उन विरले लेखकों में से एक थे, जिन्होंने साहित्य और पत्रकारिता को एक साथ साधे रखा। उनका पूरा जीवन एक साधना की तरह था। वे साहित्यकारों और पत्रकारों के बीच एक पुल की तरह थे। पत्रकार भी वही काम करता है, जो साहित्यकार करता है। दोनों ही व्यक्ति के, समाज के, शासन के परिष्कार के लिए लड़ते हैं, दोनों ही नकारात्मक और समाजविरोधी ताकतों को नष्ट करने के लिए कलम उठाते हैं। दोनों में फर्क सिर्फ इतना है कि पत्रकार रोजमर्रा के विषयों पर इस तरह लिखता है कि किसी खास किस्म के अन्याय, शोषण या जुल्म को सीधे पहचाना जा सके और उस तरफ जनता और शासन का ध्यान आकर्षित किया जा  सके। इस अर्थ में उसका लिखा हुआ तात्कालिक महत्व रखता है और अपनी लड़ाई जारी रखने के लिए उसे रोज अपनी कथाओं को आगे बढ़ाना होता है। साहित्यकार किसी व्यक्ति की यातना या पीड़ा या दुख को एक बड़ा फलक दे देता है। उसी तरह का दुख औरों का भी है, वही पीड़ा तमाम लोग झेल रहे हैं। कहानी, कविता या अन्य साहित्यिक विधाएं साधारणीकरण की मदद से किसी एक अनुभव को पूरे समाज के अनुभव से जोड़ देती हैं। इस तरह साहित्य में आकर एक अखबारी खबर भी समय के बंधन से मुक्त हो जाती है, अपनी तात्कालिकता के प्रभाव से अलग हो जाती है और एक स्थायी महत्व ग्रहण कर लेती है। नंदन जी को दोनों में ही महारत हासित थी।

साहित्यकार को कच्चा माल तो पत्रकार ही उपलब्ध कराता है। इस नाते उसका महत्व भी कम करके नहीं आंका जा सकता। नंदन जी जैसा व्यक्ति इस सच से पूरी तरह वाकिफ था। व्यक्तित्व से एकदम सरल, मिलनसार, मित्रों के बीच में अपने ठहाकों से सबको मोह लेने वाले नंदन एक संपादक के रूप में अत्यंत कुशल और सफल साबित हुए। चाहे पराग रही हो या सारिका या नवभारत टाइम्स, वे जिस भी पत्रिका या पत्र के संपादक रहे, वह अपने समय में ज्यादा से ज्यादा पाठकों को आकर्षित करने में कामयाब रहा। विषय और रचना के चयन में वे सिद्धहस्त थे। वे साहित्य के नाम पर जितना छोड़ गये हैं, वह उन्हें हमेशा हमारी स्मृति में बनाये रखने के लिए पर्याप्त है। नंदन जी हमारे बीच न होकर भी सदा हमारे बीच बने रहेंगे।

2 टिप्‍पणियां:

  1. mujhe bhi nandan ji ka sneh mila. yah mera saubhagy thaa. nbt mey mere anek vyangya unhone chhape they. aaj ve nahi hai,lekin unka poora lekhan hamare samane hai. unko bhoolana mushkil hai. aapne theek kaha- ki. ve na ho kar bhi rahenge...

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  2. नन्दन जी अपनी तरह के एक ही साहित्यकार हुए है । मेरी विनम्र श्रद्धांजलि

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