बुधवार, 8 सितंबर 2010

ऐसी हड़ताल का औचित्य क्या?

 बढ़ती महंगाई, श्रम कानूनों का उल्लंघन और सरकारी कंपनियों से विनिवेश जैसे मुद्दों को लेकर देश भर में आठ ट्रेड यूनियनों की हड़ताल का व्यापक असर देखा गया। खबर है कि कई इलाकों में हड़्ताल की वजह से 50 से भी ज्यादा मरीजों की सही समय पर इलाज न मिलने की वजह से मौत हो गयी। वामपंथी गढ़ों में सरकारें भी  एक तरह से हड़ताल में शामिल रही। जाहिर है जैसा कि होता आया है, इस हड़ताल से भी बहुत नुकसान हुआ। बैंकों में काम-काज लगभग ठप हो जाने से अरबों के लेन-देन पर असर पड़ा। ट्रेनों के परिचालन और उड़ानों पर भी प्रभाव पड़ा। यह ठीक बात है कि हड़ताल किसी भी नीतिगत गलती के विरोध का एक मान्य तरीका है और संविधान ने भी मजदूरों को हड़ताल करने का अधिकार दे रखा है लेकिन क्या कोई अपने अधिकार  के प्रयोग में दूसरों के अधिकार का अतिक्रमण करे, इसकी छूट भी कानून और संविधान ने दे रखी है।

इसमें कोई दो राय नहीं कि सरकार की उदासीनता से महंगाई बहुत बढ़ गयी है, गरीब जनता को भारी परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। इसके लिए सरकार पूरी तरह जिम्मेदार है। सरकार से उम्मीद की जाती है कि वह जनता की परेशानियां कम करेगी, उसकी दिक्कतें सुलझायेगी, बढ़ायेगी नहीं। इसका विरोध होना ही चाहिए पर क्या ऐसे विरोध की इजाजत होनी चाहिए जो लोगों को कठिनाइयों में डाल दे, जो लोगों की परेशानियां और बढ़ा दे, जो देश को नुकसान पहुंचाये। यह मुद्दा कई बार जेरे-बहस रहा है। काम-काज बंद कराने वाली हड़तालों पर देश के सर्वोच्च न्यायालय ने रोक भी लगायी है। जिससे दूसरों के हक बाधित होते हों, उस रास्ते का समर्थन कोई भी नहीं कर सकता। किसी को पैसे की जरूरत है, नितांत संकट की स्थिति है, पैसा नहीं मिलने पर उसको बड़ी क्षति हो सकती है, पर हड़ताल हो गयी है, बैंक बंद हैं, वह क्या करे। किसी के परिवार का कोई सदस्य गंभीर रूप से बीमार है, अगर वह समय से अस्पताल नहीं पहुंचा तो उसकी जान जा सकती है, परिजन बेचैन हैं, बसें रुकी पड़ीं हैं, ट्रेनें भी प्रभावित हैं, कैसे ले जायें, क्या करें, हड़ताल के कारण वे विवश हैं।

हड़ताल करने वालों को ऐसे लोगों की पीड़ा से क्या कोई मतलब नहीं है? यह हड़ताल अगर उनके दुख को  बढ़ाती है तो इसकी जिम्मेदारी कौन लेगा? क्या नैतिक रूप से हड़ताली संगठनों और उनके नेताओं को इन बातों पर भी गौर करने का दायित्व नहीं आ जाता है? अगर आता है तो उन्हें विरोध का ऐसा वैकल्पिक रास्ता तलाशना चाहिए, जो उनकी आवाज तो बुलंद तरीके से सरकार तक पहुंचाये लेकिन किसी भी दूसरे नागरिक के लिए परेशानी का सबब न बने। इन बातों पर गहराई से गौर किया जाना चाहिए।  हड़ताल का असर सबसे ज्यादा वामपंथियों के गढ़ पश्चिम बंगाल और केरल में देखा गया। कर्नाटक और तमिलनाडु में कोई असर नहीं दिखा। बैंकिंग सेक्टर में कामकाज नहीं हुआ।  हड़ताल में करीब 6 करोड़ कर्मचारी शामिल हुए। यह नुकसान कौन भरे?

2 टिप्‍पणियां:

  1. सही कहा आपने, पर इन बिन्दुओं के बारे में सोचता कौन है?
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    साँप काटने पर क्या करें, क्या न करें?

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  2. नपुंसक सरकार और हरामखोर कर्मचारी, नतीजा देश की भूखी-नंगी जनता झेले. किसी भी राजनैतिक दल, सरकारी संगठन, सरकारी-अर्ध सरकारी मुलाज़िम, अपने, केवल अपने स्वार्थ के लिए जब चाहें रेल रोक दें, बसें रोक दें, अस्पताल बन्द करा दें और फिर मूंछों पतर ताव दे कर, सीना फुलाते हुए घूमें, किस में दम है जो विरोध करे. निरीह, निह्त्थे लोगों पर अपनी धौंस जमाने वाली पुलिस भी इनके समक्ष भीगी बिल्ली बनी रहती है.
    इस शानदार पोस्ट के लिए साधुवाद.

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