बुधवार, 30 जून 2010

कश्मीर में आग भड़काने की कोशिश

 कश्मीर में आग लगाने का कोई भी मौका हुर्रियत के नेता गंवाते नहीं। उन्हें अब अपने अस्तित्व पर खतरा मंडराता नजर आ रहा है। सुरक्षा बलों की मुस्तैदी से राज्य में घुसपैठ थोड़ी मुश्किल हो गयी है। हाल के महीनों में आतंकवादी घटनाएं कम हुईं हैं। ऐसे माहौल में हुर्रियत की प्रासंगिकता खत्म होती नजर आ रही है। चूंकि हुर्रियत के नेता चुनावों में भी भाग लेने के खिलाफ रहे हैं और उनके सारे विरोध के बावजूद राज्य में लोकप्रिय सरकार का गठन हो गया, इसलिए उनकी भूमिका ही लगभग खत्म सी हो गयी हैं। इस सूरत में उनकी कोशिश रहती है कि छोटे-छोटे मामलों पर जनता को भड़काकर सरकार को परेशानी में डाला जाये। सोपोर और उसके समीपवर्ती इलाकों में कई हफ्ते से स्थिति गंभीर बनी हुई है। जो माहौल बन रहा है, उसमें राज्य सरकार की मुश्किल बढ़ती जा रही है।  
गिलानी और उमर फारुक लगातार इस कोशिश में हैं कि जो आग उन्होंने लगायी है, वह ठंडी न पड़े। इसके लिए वे जनता को भड़काने में जुटे हैं। अलगाववादी ताकतें इस तरह जनता में अपनी प्रासंगिकता साबित करने में जुटी हुईं हैं। इस सारे मामले की जड़ में अर्धसैनिक बल हैं, उनकी तैनाती को लेकर लोगों में नाराजगी है। अलगाववादियों ने जनता के दिमाग में यह बात भरने में कामयाबी हासिल कर ली है कि इन सैनिकों की वजह से उत्पीड़न की घटनाएं बढ़ी हैं। मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला भी इन बलों की तैनाती के खिलाफ रहे हैं। सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून को वापस लेने की मांग अरसे से चल रही है। अलगाववादियों का कहना है कि इस कानून की आड़ में अर्धसैनिक बल मानवाधिकारों का उल्लंघन करते हैं।
 
इस बार सीआरपीएफ की फायरिंग में दो युवाओं की मौत ने उन्हें और मौका दे दिया है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के आश्वासन के बावजूद ऐसी परिस्थितियां कई बार बन ही जाती हैं, जब हालात पर नियंत्रण के लिए बल प्रयोग करना पड़ता है। ऐसे मामलों को मानवाधिकार उल्लंघन के नाम पर तूल देकर अलगाववादी जनता के मन में अपनी जगह बनाने की कोशिश करते रहते हैं। वे इन मामलों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने में कामयाब होते रहे हैं। केंद्र को बहुत सावधानी से काम लेने की जरूरत है। सशस्त्र बल कानून हटने से अराजकता बढ़ सकती है। राजनीतिक दलों की इसे हटाने की मांग राज्य के हालात देखकर की जा रही मांग कम, सियासी मांग ज्यादा लगती है। और इसका अलगाववादी पूरा लाभ उठायेंगे, इसमें कोई शक नहीं होना चाहिए।

मंगलवार, 29 जून 2010

बाबाजी की खुदकुशी पर इतना बवाल क्यूँ

विवेका बाबाजी ने खुदकुशी क्या कर ली, हंगामा मचा हुआ है। मारीशस से मुंबई आयी एक लड़की देखते-देखते सुपरमाडल बन गयी और कुछ ही वर्षों में अकूत पैसा जमा कर लिया। सारी सुख-सुविधाएं, ठाट-बाट, ऐश्वर्य भोग के बाद भी आखिर क्या करे पैसे का। सो बिजिनेस में लगा दिया। शक की सूई उसके प्रेमी गौतम वोहरा पर है, क्योंकि वही उसके बिजिनेस के मामले देखता था पर उसका कहना है कि वे दोनों सिर्फ दोस्त थे, इससे अधिक कुछ भी नहीं। विवेका की बिसरा रिपोर्ट में खुलासा हुआ है कि आत्महत्या के पहले उसने नींद की गोलियां खाई थी। पुलिस को शक है कि उसने खुदकुशी नहीं की बल्कि उसकी हत्या हुई है। पुलिस इस पहलू पर भी जांच कर रही है कि बाबाजी को मारने के लिए जहर तो नहीं दिया गया था। बिसरा रिपोर्ट में कुछ ऐसे तत्व मिले हैं जो जहर की तरफ इशारा कर रहे हैं। विवेका के शव पर जख्मों के निशान भी मिले हैं।

गुरुवार रात को विवेका और गौतम के बीच काफी ज्यादा झगड़ा हुआ था और बाद में गौतम उसे छोड़कर चला गया था। इस नजरिए से भी मामले की पड़ताल की जा रही है कि खुदकुशी के पीछे वित्तीय कारण तो नहीं है। उसके फ्लैट से पेनकिलर दवाई की कई स्ट्रिप्स के अलावा बड़ी संख्या में अधजले सिगरेट के टुकड़े भी मिले हैं। उसकी डायरी में एक जगह लिखा मिला है, मेरी बिल्लियों को बचा लेना। मैं किसी दूसरी दुनिया में जा रही हूं। तुम मुझे समझ क्यों नहीं पा रहे हो गौतम। क्या इसके लिए मुझे दूसरा जन्म लेना पड़ेगा। अपनी जिंदगी में क्या तुम मुझे थोड़ी सी जगह भी नहीं दे सकते। मैं तुम्हें कैसे समझाऊं कि इतने कम समय में तुम मेरे कितने करीब आ गए हो। तुम हमारे बिजनेस को क्यों बरबाद करने पर तुले हो, जिसे तुम्हीं ने मेरे लिए खड़ा किया था।

यह सब कुछ ध्यान से देखें तो एक लिजलिजी कहानी की ओर संकेत जाता है। ऐसी कहानियां जिस हाई-फाई अंदाज में शुरू होती हैं, उसी तरह खत्म हो जाती हैं। जहां जीवन का मतलब केवल पैसा कमाना हो, अनहद भोग करना हो, वहां लालची निगाहें पहुंच ही जाती हैं। और पैसे के लिए जिस तरह की छीना-झपटी, बेहयाई और अपराध हमारे समाज में चारों ओर दिखायी पड़ रहा है, उसके खतरे से कोई भी मुक्त नहीं है। राहचलते महिलाओं के गले से चेन खींच लेना, शादी के घर पर धावा बोलकर सब कुछ उठा ले जाना, मामूली पैसों के लिए हत्या कर देना जिस समाज में सामान्य सी बात रह गयी हो, वहां अगर किसी अकेली युवती के पास करोड़ों रुपये हों तो उससे दोस्ती करने वाले सैकड़ों लोग होंगे।

विवेका के भी कई दोस्त थे। पुलिस अब उन सबका इतिहास खंगालने में जुटी है। हो सकता है कल पुलिस सब कुछ पता कर ले और असली हत्यारा पकड़ में भी आ जाय लेकिन जिस तरह सरकार इस मामले को लेकर सक्रिय है, पुलिस मुस्तैद है और मीडिया रोज नयी-नयी सूचनाएं जुटाने में लगा हुआ है, क्या वह एक ऐसे देश में निरर्थक सी बात नहीं  है, जहां हर साल सैकड़ों बच्चे मानसिक दबाव में खुदकुशी कर लेते हैं और हजारों किसान कर्ज में डूबकर अपनी जान दे देते हैं। दरअसल बाबाजी की खुदकुशी भी बिकाऊ माल बन गयी है। बच्चों और किसानों की खुदकुशी में वैसा गलैमर कहां? उसे बेचना भी संभव नहीं है क्योंकि ऐसा करने पर मानसिक दिवालियेपन का आरोप लग सकता है। परंतु इस गंभीर समस्या की ओर हमारा अगर ध्यान नहीं है तो यह भी तो एक तरह का मानसिक दिवालियापन ही है।

असल समस्या यह है कि हम इतने स्वार्थी और वंचक हो गये हैं कि ज्यादातर पैसों के बारे में सोचते हैं, अपने सुख के बारे में सोचते हैं। अगर इसके लिए हमें समाज का, देश का नुकसान भी करना पड़े तो कोई बात नहीं। यह राष्ट्रीय समस्या बनती जा रही है। नेता, व्यापारी, अफसर, पत्रकार सभी इस रोग से ग्रस्त हैं। यह ऐसी बीमारी है जो चिंतन की शक्ति को मार देती है। आदमी सोचना बंद कर देता है। वह सोचता भी है तो केवल इस बारे में कि उसका फायदा कैसे हो सकता है। हेरा-फेरी से, रिश्वत से, मिलावट से या ब्लैकमेलिंग से। समाज, देश और दुनिया जाय भाड़ में। इसी सोच से अपराध जन्म लेता है। अब आप समझ सकते हैं कि अपराध क्यों बढ़ रहे हैं। जो लोग इस दशा-दिशा को समझ रहे हैं, जो इसे बदलना चाहते हैं, उन पर बड़ी जिम्मेदारी है। कैसे लोगों को सही रास्ते पर ले जायें, कैसे इस तरह की परिस्थिति बने कि हम सब एक दूसरे की चिंता करें। अगर आज इस पर विचार नहीं किया गया, कोई रास्ता नहीं निकाला गया तो कल का चेहरा और भी भयानक होने वाला है।

सोमवार, 28 जून 2010

व्यर्थ वार्ताओं से क्या लाभ

भारत व्यर्थ के आशावाद में उलझा हुआ है। हिंदुस्तान के नेता यहां जिस तीखे अंदाज में बोलते हैं, पाकिस्तान की जमीन पर पहुंचते ही उनकी आवाज ठंडी हो जाती है। पता नहीं कौन सा अपनापन उमड़ आता है, किस तरह का दया भाव पैदा हो जाता है कि वे नरम पड़ जाते हैं। गृहमंत्री पी चिदंबरम ने कहा है कि मुंबई हमले की जांच को लेकर पाकिस्तान की मंशा पर भारत को कतई संदेह नहीं है परंतु परिणाम तो आना चाहिए। शायद उन्हें यह भय सताता रहता है कि ज्यादा सख्त हुए तो बातचीत टूट जायेगी। क्या बातचीत जारी रखने की जिम्मेदारी केवल भारत की है? पाकिस्तान चाहे जितना ऐंठता रहे, हम उसकी मनौवल करते रहेंगे, यह कौन सी बात है?

उसकी मंशा सही होती तो सीमाओं पर गोलियां नहीं चलतीं, कोई आतंकवादी सीमा पार करके भारत में घुसने का साहस नहीं कर पाता। पिछले दिनों पाक अधिकृत कश्मीर में आतंकवादियों ने सभा की और खुलेआम भारत के खिलाफ जंग का एलान किया। अगर पाकिस्तान की मंशा ठीक होती तो उन बदमाशों की हिम्मत इस तरह आसमान नहीं छूती। जिस हाफिज सईद को भारत मुंबई हमले का सरगना सूत्रधार समझता है, वह पाकिस्तान के शहरों में घूम-घूमकर भारत के खिलाफ आग उगलता रहता है, क्या इससे लगता है कि पाकिस्तान के इरादे ठीक हैं। फिर किस आधार पर चिदंबरम यह कह रहे हैं कि उसकी मंशा पर भारत को संदेह नहीं है? वह तो एक पाकिस्तानी आतंकवादी जिंदा हमारे कब्जे में है और तमाम ऐसे अकाट्य सुबूत हैं, जिनके कारण पाकिस्तान को आंख में धूल झोंकने का मौका नहीं मिल पा रहा है अन्यथा वह कब का इस पूरे मामले से हाथ खींच चुका होता। एक पाकिस्तानी मंत्री दोषियों को दंडित करने में हो रहे विलंब के बारे में कहता है कि घटना किसी और देश में हुई है, कार्रवाई किसी और देश में होनी हैं, सूचनाएं मिलने में विलंब होता है।

कितनी भौंड़ी बात है। भारत एक दर्जन डोजियर उसे सौंप चुका है। उसने जो भी जानकारी जब चाही, उसे दी गयी। उसकी ओर से हर डोजियर के बाद यही कहा गया कि इसमें कोई खास सुबूत नहीं दिये गये, यह सूचनाएं मात्र हैं। यहां तक कि इन्हीं चिदंबरम साहब को आजिज आकर कहना पड़ा कि पाकिस्तान की दिक्कत यह है कि वह कोई कार्रवाई नहीं करना चाहता। लेकिन आज की सरकार में लौहपुरुष की तरह देखे जाने वाले चिदंबरम का हृदय परिवर्तन समझ में नहीं आता। जो सचाई है, उसे बयान करने में क्या कठिनाई है? चाहे वह दिल्ली हो या इस्लामाबाद, सच तो बदल नहीं जाता। पाकिस्तान को साफ-साफ कहा जाना चाहिए कि वह जानबूझकर इस मामले में न्याय तक पहुंचने में देरी कर रहा है और यह बात भारत को कतई स्वीकार नहीं है। हमें यह भी सोचना चाहिए कि इस तरह की व्यर्थ वार्ताओं से क्या लाभ है?

शनिवार, 26 जून 2010

कलम की सूली पर क्यों चढ़े

जसवंत सिंह की भाजपा में वापसी हो गयी है। पर उन्हें निकाला ही क्यों गया? क्या वे कारण अब समाप्त हो गये हैं, जिनकी वजह से उन्हें भाजपा के कूचे से बेआबरू होकर बाहर जाना पड़ा था? क्या अब इस पार्टी को उन सिद्धांतों और मूल्यों की परवाह नहीं रही, जिनके उल्लंघन की सजा जसवंत जैसे नेता को सुनायी गयी थी? इन सब सवालों का पार्टी कोई उत्तर देने नहीं जा रही, न ही कोई उससे कोई पूछने जा रहा है परंतु कोई भी सचेष्ट व्यक्ति इस पर विचार करे तो एक बात समझ में आती है कि राजनीति में उन खास तरह के विचारों को राष्ट्रहित, जनहित और चेतनास्वातंत्र्य के मूल्यों से ज्यादा महत्वपूर्ण समझा जाता है, जो राजनीतिकसंगठनों की संकीर्ण और कठोर दीवार को मजबूत बनाये रखने में सहायक होते हैं।

अब राजनीति ने अपना चेहरा बदल लिया है। सब कुछ पहले जैसा नहीं रहा। ईमानदारी, कर्तव्यनिष्ठा, जनपक्षधरता और राष्ट्रभक्ति अब राजनीति के मूल्य नहीं रहे। अगर आप को राजनीति करनी है तो यह बात ठीक से समझ लेनी होगी कि दलगत हित में अनेक अवसरों पर आप सहर्ष युधिष्ठिर और धृतराष्ट्र की भूमिका का निर्वाह करेंगे। कभी अर्धसत्य बोलना पार्टी के लिए फायदेमंद होगा, तो आप को नरो वा कुंजरो की शैली अख्तियार करनी होगी, भले ही आप सच जानते हों। कई बार ऐसे मौके भी आयेंगे, जब आप को झूठ बोलना होगा क्योंकि उस समय वही पार्टी का भला करने वाला होगा। इतना ही नहीं उन हालातों से भी आप रूबरू होंगे, जब आंखें खुली होते हुए भी आप को कुछ नहीं दिखायी पड़ने का नाटक करना होगा। अगर आप ऐसे वीर-बांकुरे हैं, ऐसे उस्ताद हैं, ऐसे छैल-छबीले हैं, तो आप राजनीति के लिए एक निपुण और योग्य नायक हैं और ऐसे में बेशक सफलता आप के चरण चूमेगी।

अगर आप को राजनेता बनना है तो सच से तो बिल्कुल ही परहेज करना पड़ेगा। राजनीति में सच मधुमेह के रोगी को गुड़ खिलाने जैसा है। वह मीठा खायेगा तो मरेगा। इसी तरह नेता अगर सच बोलने की राह पर चलता है तो उसकी राजनीतिक मृत्यु निश्चित है। महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू, राम मनोहर लोहिया और जय प्रकाश नारायण का जमाना गया। इस झूठ की दुनिया में अब किसी नेहरू, गांधी, लोहिया या जेपी के जिंदा बचे रहने की कोई संभावना नहीं है। फिर कोई राजनेता लेखक बन जाय, यह तो असहनीय है। क्योंकि ऐसा माना जाता है कि कलम उठाते ही व्यक्ति के सच्चे बन जाने की संभावना बढ़ जाती है। सच ही किसी को भी बड़ा लेखक बनाता है। जीवन के सच का बयान करना बहुत ही कठिन काम है। सच अक्सर कड़वा होता है और कड़वी बात किसे पसंद आयेगी।

लेखक कड़वी बात इसलिए कहता है कि उसका असर तुरंत होता है। जैसे कड़वी दवा तुरंत अपना काम करती है, वैसे ही कड़वी बात प्रभावित होने वालों के दिलों में तत्काल हलचल पैदा कर देती है। इसी हलचल से बदलाव की शुरुआत होती है। लेखक नेता नहीं होता, इसलिए उसे अपने सच की संभावित प्रतिक्रिया की कोई चिंता नहीं होती। वह उस प्रतिक्रिया को और तेज करने की कोशिश करता है। दुष्यंत ने कहा है कि तबियत से एक पत्थर उछाल कर देखो, आसमान में सूराख क्यों नहीं हो सकता। हर लेखक या कवि इसी इरादे से लिखता है। वह आसमान में सूराख करना चाहता है, कुछ तोड़ना चाहता है, बदलना चाहता है। पर राजनीति न कुछ तोड़ना चाहती है, न बदलना चाहती है। वह तो उन रुढ़ियों, विश्वासों और नकारात्मक मूल्यों को और मजबूत बनाये रखना चाहती है, जो उसे ताकत दे सकें। कोई सांप्रदायिक चेतना को हवा देता है, कोई जातीय स्वाभिमान को जगाये रखने का काम करता है और कोई क्षेत्रीय, भाषायी उन्माद को उग्र होते देखना चाहता है।

यह काम प्रगति और परिवर्तनकामी चेतना से संपन्न नहीं होते, यह बात तय है, इसीलिए राजनेता को प्रगति, परिवर्तन और आधुनिकता का केवल छद्म ओढ़ना होता है, सच नहीं। पर जसवंत सिंह यह सब जानते नहीं थे या शायद इतना सोचा नहीं था। उन्होंने साधारण तर्कबुद्धि से काम लिया। जब लालकृष्ण आडवाणी जिन्ना की तारीफ कर सकते हैं और उनका कुछ भी नहीं बिगड़ता तो वे भी अगर थोड़ा हाथ आजमा लेंगे तो कौन सा आसमान टूट पड़ेगा। पर राजनीति का यही कमाल है, वही राजनीतिक अपराध करके आडवाणी बच निकले मगर जसवंत फंस गये। चलिये अब आशा की जानी चाहिए कि वे दुबारा कलम की सूली को आजमाने की कोशिश नहीं करेंगे।

शुक्रवार, 25 जून 2010

मुनव्वर राणा की एक गजल

साथियों मुनव्वर राणा की एक गजल आप सबके लिए. मुझे नहीं लगता की शायर की पहचान  कराने की जरूरत है. इसलिए सीधे ग़ज़ल पर आते हैं....

इस पेड़ में एक बार तो आ जाये समर भी
जो आग इधर है कभी लग जाय उधर भी

कुछ मेरी अना भी मुझे झुकने नहीं देती
कुछ इसकी इजाजत नहीं देती है कमर भी

पहले मुझे बाजार में मिल जाती थी अक्सर
रुसवाई ने अब देख लिया है मेरा घर भी

इस वास्ते जी भर के उसे देख न पाए
सुनते हैं कि लग जाती है अपनों की नजर भी

कुछ उसकी तवज्जो भी नहीं होती है मुझ पर
इस खेल से कुछ लगने लगा   है मुझे डर भी

उस शहर में जीने   की सजा काट रहा हूँ
महफूज नहीं है जहाँ अल्लाह का घर भी

गुरुवार, 24 जून 2010

चीन की हरकतों से सावधान रहें

चीन ने भारत के खिलाफ हमेशा पाकिस्तान को उकसाने का काम किया है। भारत कभी उसकी इन हरकतों का खुलकर विरोध नहीं करता। लगता है कि इतने वर्षों बाद भी अभी हमारे मनोमस्तिष्क से 62 का डर निकला नहीं है। चीन के आक्रामक रवैये को हम चुपचाप बर्दाश्त कर जाते हैं। यह बात भारत-चीन के रिश्तों को लेकर तो देखी ही जाती है, पर जब वह हमारे पड़ोसी शत्रु देश को ऐसी मदद करता है, जो हमारे लिए बहुत खतरनाक हो सकती है, तब भी हम खामोश रह जाते हैं। चीन ने पाकिस्तान को चोरी-छिपे मिसाइल तकनीक दी, सारी दुनिया यह बात जानती है, लेकिन भारत ने उस पर खुलकर एतराज नहीं जताया। भारत ने जब परमाणु धमाका किया, तब सारी दुनिया उठ खड़ी हुई। किसी ने पाबंदी लगाई, किसी ने कड़े शब्दों का इस्तेमाल किया।

भारत का परमाणु ताकत बन जाना सबसे ज्यादा अगर किसी देश को खला तो वह पाकिस्तान था। उसने तनिक देर नहीं की और चीन की ही मदद से परमाणु बम की तकनीक हासिल कर ली। कालांतर में परमाणु ताकत के बावजूद अप्रसार के मामले में भारत की प्रामाणिकता असंदिग्ध साबित हुई लेकिन पाकिस्तान के वैज्ञानिकों द्वारा कई देशों को परमाणु तकनीक बेचे जाने के मामले सामने आये। यहां तक बातें उठीं कि पाकिस्तानी परमाणु बम के जनक कादिर साहब ने अल-कायदा के लोगों से भी इस बारे में बात की थी पर बात बनी नहीं। बात इतनी ही होती तो गनीमत थी। आज पूरी दुनिया जानती है कि पाकिस्तान आतंकवादियों के स्वर्ग के रूप में तबदील हो चुका है। दुनिया के किसी भी हिस्से में कोई आतंकवादी घटना होती है तो उसका कोई न कोई सूत्र पाकिस्तान से जुड़ा हुआ जरूर मिल जाता है।

पाकिस्तान के बड़े भूभाग पर आतंकवादियों का शासन चलता है। ऐसा पाकिस्तान परमाणु सामग्री बेचने वाले देशों से मांग करता है कि जो दर्जा भारत को दिया गया है, वह उसे भी क्यों नहीं दिया जाना चाहिए। भारत को परमाणु ईंधन निर्यात करने वाले देशों के समूह ने हरी झंडी दे रखी है। इस संबंध में अमेरिका समेत कई देशों से भारत का समझौता भी हो चुका है। परमाणु ऊर्जा के शांतिपूर्ण इस्तेमाल के लिए एनएसजी की शर्तें भारत पूरी करता है। वह एक विश्वसनीय ताकत के रूप में उभरा है। पाकिस्तान चाहता है कि उसे भी एनएसजी परमाणु सामग्री के आयात की इजाजत दे। पर वहां की राजनीतिक अस्थिरता को देखते हुए लगता नहीं कि उसकी मांग पूरी हो पायेगी।

चीन को इससे कोई मतलब नहीं। उसने पाकिस्तान में दो और परमाणु संयंत्र बनाने का उसे आश्वासन दे दिया है। अमेरिका के एतराज पर गौर करने के लिए चीनी नेता तैयार नहीं है और भारत आश्चर्यजनक तरीके से चुप्पी साधे हुए है। चीन की यह रणनीति भारत की सुरक्षा को चुनौती जैसी है। चीन पहले भी वहां दो परमाणु बिजलीघर बना चुका है। पाकिस्तान जिस हाल में है, वह परमाणु ईंधन की सुरक्षा की गारंटी नहीं दे सकता, अगर वह देता भी है तो उस पर भरोसा नहीं किया जाना चाहिए। अगर आतंकवादियों के हाथ में ये सामान पड़ते हैं तो सबसे ज्यादा खतरा भारत को ही होगा। ऐसे में भारत की खामोशी समझ में नहीं आती। इतना बड़ा देश, इतना ताकतवर देश और इतना कायराना अंदाज, आख्रिर क्यों? सरकार खुल कर सामने क्यों नहीं आती? चीन कोई भारत को निगल थोड़े ही जायेगा।

बुधवार, 23 जून 2010

झूठी प्रतिष्ठा के लिए बच्चों का खून

यह हमारे समाज का, हमारे देश का दुर्भाग्य है कि इतनी आधुनिकता, प्रगति और खुलेपन के दावे के बावजूद अब भी हमारे दिमाग की खिड़कियां बंद हैं। जिस देश ने सारी दुनिया को सभ्यता के मानक दिये, जिसने सबको समय-समय पर ज्ञान दिया, वह स्वयं इतने गहरे अंधेरे में नीमबेहोश पड़ा है, यह देखकर आश्चर्य होता है। पहले समझा जाता था कि बच्चे पढ़ेंगे-लिखेंगे तो बहुत सारी सामाजिक बुराइयां अपने-आप खत्म हो जायेंगी, लेकिन यह धारणा सही नहीं निकली। पढ़े-लिखों में स्वार्थ, संकीर्णता, अलगाव और अंधविश्वास और ज्यादा घर कर गया है। हम पढ़-लिख गये तो मां-बाप का निरादर बढ़ गया, भगवान और भाग्यवाद की जय-जयकार करने वाले तथाकथित संतों की सभाओं में भीड़ बढ़ गयी, जिम्मेदारी और कर्तव्य की भावना तिरोहित हो गयी, अपने समाज और देश से प्यार खत्म हो गया, दहेज की वेदी पर मरने वाली लड़कियों की संख्या में इजाफा हो गया, मिलावटखोरी, रिश्वत और बेईमानी का साम्राज्य और विस्तृत हो गया, अपनी जाति-संप्रदाय का दर्प इतना कठोर हो गया कि किसी दूसरी जाति और संप्रदाय के प्रति सहनशीलता खत्म हो गयी।


हरियाणा और पश्चिम उत्तर प्रदेश में पंचायतों के आतंक की जो दिल दहला देने वाली कथाएं अक्सर सुनने को मिलती रहती हैं, वैसी कहानी देश की राजधानी से सुनने को मिलेगी, कोई कल्पना भी नहीं कर सकता। लेकिन यह सच है। मोनिका और कुलदीप की हत्या इसलिए कर दी गयी कि उनके घर वालों को उनके द्वारा किया गया शादी का फैसला उनकी जातिगत पहचान को चुनौती की तरह लगा, उनके सम्मान के खिलाफ लगा। हमारी जाति हमें अपने बच्चों से भी प्यारी है, अपनी जाति के लोगों की नजरों में सम्माननीय बने रहने के लिए हम बच्चों की खुशियां छीन लेने में भी तनिक संकोच नहीं करते। इतना भयानक तो जंगल का कानून भी नहीं होता। हिंसक जानवर भी अपने बच्चों के प्रति इतने क्रूर नहीं होते। आखिर आदमी को क्या हो गया है। जातियों के नाम पर दंगे, मार-काट करना आम बात है पर अब तो हम अपने सपनों के गले घोटने में भी देर नहीं करते। यह जो कुछ हो रहा है, इसे बनाये रखने में हमारी व्यवस्था, सत्ता और सरकारों का फायदा है।

लोग जातियों में बंटे रहेंगे, तो उनको लड़ाने और वोट हासिल करने में सुविधा रहेगी, लोग संप्रदायों की दीवारों में कैद रहेंगे तो उन्हें बरगलाने में आसानी रहेगी। हिंदू-मुस्लिम, जाट-गुज्जर, ब्राह्मण-हरिजन का द्वंद्व बना रहेगा तो सियासी रोटियां सिंकती रहेंगी। इसीलिए सरकारें जाति के नाम पर आरक्षण, संप्रदाय के नाम पर पैकेज की घोषणा करती रहती हैं, राजनीतिक पार्टियां जातियों के आधार पर जनगणना की मांग करती हैं। ये सब जातियां बनाये रखने का गहरा षडयंत्र है, जिसे आम लोग नहीं समझ पाते। इस देश में जाति-पांति की बुराई को खत्म करने के लिए अनेक आंदोलन चले। नीची जातियों में पैदा हुए दर्जनों संतों ने उत्तर से दक्षिण तक घूम-घूम कर अलख जगाया। उन्होंने जाति व्यवस्था की पीड़ा झेली थी, उसकी यातना से गुजरे थे। उन्होंने इस भयानक बुराई के जिरह-बख्तर को अपने समय में छलनी कर दिया। लेकिन इस देश की इस कमजोरी को फिर अंग्रेजों ने पहचाना, उसे हवा दी और उसका लाभ उठाया। आजादी के लिए लड़ने वाले देशभक्तों को आक्रांताओं की इस साजिश का पता था, इसीलिए वे जाति-संप्रदाय से ऊपर उठकर अंग्रेजों को खदेड़ने में कामयाब रहे। पर आजादी के बाद उन्हीं गोरों की काली संतानों ने अपने स्वार्थ में उन्हीं के हथियारों का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। इस देश में सांप्रदायिक दंगे, जातीय फसाद और आनर किलिंग्स उसी का नतीजा है। एक बार फिर इन षडयंत्रकारियों की चूलें हिलाने के लिए बड़े आंदोलन की जरूरत है।

मंगलवार, 22 जून 2010

गहरी नींद में सरकार

सरकारें अक्सर नींद में रहती हैं। जब तक कोई उन्हें ठोंक-पीटकर जगाये नहीं, वे जागती नहीं। इस तरह समस्याएं पैदा होती हैं, बढ़ती जाती हैं। जब तक उनकी सड़ांध या उनसे उपजा भय सरकार तक नहीं पहुंचता, जब तक सरकार को नहीं लगता कि उसकी चूलें हिल सकती हैं, उसे परेशानी हो सकती है, उसे चुनाव में खतरा पैदा हो सकता है, वह सोती रहती है। महंगाई के मामले में आप सबने देखा है। हल्ला हुआ, कुछ मंत्री अपने-अपने अंदाज में बड़बड़ाये और फिर सब सो गये। बीच-बीच में किसी-किसी को महंगाई की याद आती है और वह बड़बोलेपन के साथ कोई आश्वासन देकर चुप हो जाता है। नक्सली समस्या पर क्या कुछ हो रहा है, आप देख रहे हैं। जब कोई घटना हो जाती है, कोई बड़ा नरसंहार हो जाता है, मंत्री या प्रधानमंत्री इतना बोलकर चुप हो जाते हैं कि उनको परास्त कर दिया जायेगा।

अगर कोई याद न दिलाये तो जनता की किसी भी कठिनाई की, पीड़ा की, कष्ट की सरकार को याद नहीं रहती है। इसी तरह हाल में कुछ भूतपूर्व अफसरों ने याद दिला दी भोपाल गैस कांड की। हजारों लाशों को देखने के बाद भी उस समय की सरकारों ने पीड़ितों के प्रति जो उपेक्षापूर्ण रवैया अपनाया और अपराधियों के साथ जैसा भाई-चारा निभाया, उसकी अंतर्कथाएं अब 26 साल बाद खुली हैं तो लोग दांतों तले ऊंगली दबाने को मजबूर हैं। सभी जानना चाहते हैं कि यह गैर-जिम्मेदाराना करतब किसने अंजाम दिया, किसने गलती की। पर परस्परविरोधी बयानों के बोझ तले असली सवाल गुम हो गया, उसका कोई उत्तर नहीं मिला। जल्दी-जल्दी में इस जघन्य कांड पर पर्दा डालने की तरकीबें खोजी जाने लगी, जनता का ध्यान बंटाने के रास्ते ढूंढे जाने लगे। मंत्रियों का समूह बना दिया गया, सोच-विचार शुरू हुआ और अब उसने गैस-पीड़ितों के कल्याण के लिए कई सिफारिशें की हैं। उन्हें दुगना मुआवजा दिया जायेगा, एंडरसन को वापस मंगाकर उस पर मुकदमा चलाया जायेगा, कार्बाइड का कचरा हटाया जायेगा। और भी बहुत कुछ।

पर किसी को क्या इस बात की फि कर है कि इन 26 सालों में जहरीली गैस ने कितने लोगों पर कितना कहर ढाया। कितने लोग मदद और राहत के अभाव में चल बसे, कितने बच्चों की जिंदगियां तबाह हो गयीं, कितने घर उजड़ गये। समय से कार्रवाई न करने का खामियाजा जिन लाखों लोगों को उठाना पड़ा, उनकी जिंदगी का कीमती समय कौन लौटा पायेगा। अपराध केवल एंडरसन को मुक्त कर देना भर ही नहीं था, बल्कि पीड़ितों को उनके भाग्य पर छोड़ देना उससे भी बड़ा अपराध साबित हुआ। और अगर गड़े मुर्दे अचानक यूं न उखड़ते, तब तो यह सब करने की कोई जरूरत ही नहीं होती। ऐसी गहरी नींद में सोयी सरकारों से किसी जिम्मेदारी की उम्मीद आखिर कैसे की जा सकती है?

सोमवार, 21 जून 2010

धड़कनों पर संकट

दिल की बड़ी खासियत बतायी जाती है। इसे लेकर तमाम भाषाओं में अनेक मुहावरों का इस्तेमाल होता है। दिल शब्द का अक्सर कवि या शायर इस्तेमाल करते हैं। यही विज्ञान के लिए हृदय है, जो समूचे शरीर को चलाता है। साइंस का कहना है कि हृदय पूरे शरीर को खून की सप्लाई करता है। वह धड़कता है और हर धड़कन के साथ खून नसों के जरिये पूरे शरीर में फेंकता है। शरीर के तमाम हिस्सों से खून फेफड़ों में जाता है, वहां उसकी जहरीली गैस यानि कार्बन डाई आक्साइड बाहर निकाल दी जाती है, उसकी जगह आक्सीजन खून में मिलकर हृदय के जरिये पूरे शरीर में पहुंच जाती है।

आम तौर पर हिंदुस्तानियों का हृदय मजबूत होता है, ऐसा माना जाता रहा है लेकिन हाल के वर्षों में हृदय की बीमारियां हमारे देश में तेजी से बढीं हैं। जिंदगी जटिल हो गयी है, तनाव बढ़ा है, जिससे रक्तचाप, मधुमेह, धमनियों में अवरोध की बीमारियां भी बढ़ीं हैं। लोग स्वास्थ्य के प्रति जागरूक तो हुए हैं फिर भी इन बीमारियों पर ज्यादा अंकुश नहीं लग सका है। एक नया सर्वे बहुत चौंकाने वाला है। अपोलो समूह द्वारा किये गये इस सर्वेक्षण से पता चला है कि देश के 35 साल से कम उम्र के लोग बड़ी तादात में हृदय की बीमारियों के शिकार हो रहे हैं। जितनी परेशानी पश्चिमी देशों में 60 साल की उम्र में दिखायी पड़ती है, उतनी हमारे देश में 35 साल पूरा करते-करते दिखायी पड़ने लगी है। और जो लोग अपनी जीवन शैली सुधारने के मौके गंवा देते हैं, जो अपने मोटापे, अपने खान-पान पर नियंत्रण करने की कोशिश नहीं करते, जो तनिक भी व्यायाम नहीं करते, उनके लिए तो संकट और भी ज्यादा है।

यह बहुत ही खतरनाक संकेत है। इसके पीछे मूल रूप से भारतीयों का अपनी पारंपरिक जीवन-शैली से छूट जाना है। आर्थिक और मानसिक दबाव तेजी से आदमी को बीमारियों की ओर ले जा रहा है। यह दबाव जो वंचित हैं, उन पर तो है ही, जो संपन्न हैं, उन पर भी है। जिसे जीवन की मौलिक सुविधाएं नहीं मिल पा रही हैं, वह परिवार को ठीक से न रख पाने के कारण दबाव में है और जो जरूरत से ज्यादा वैभव हासिल कर चुके हैं, वे उसे सुरक्षित रखने और अपना संग्रह बढ़ाने की चिंता के दबाव में हैं। बच्चे अपने मां-बाप की अति महत्वाकांक्षा के कारण सफलता का मानक स्थापित करने की चुनौती को लेकर दबाव में हैं। यही बीमारियों का मूल कारण है। पर इनसे बचा कैसे जाय, एक गंभीर प्रश्न है। हमारी भारतीय जीवन-शैली में संतुष्ट रहने, जरूरत से ज्यादा संग्रह न करने और मिल-बांटकर जीने का जो दर्शन पहले काम करता था, वह गायब हो गया है। इसमें आगे बढ़ने और प्रगति करने की मनाही नहीं हैं, पर सामाजिक उत्तरदायित्व का पालन करते हुए। सभी क्यों न साथ-साथ आगे बढ़े, एक दूसरे का सहयोग करते हुए।

पर अब जीवन नितांत वैयक्तिक हो गया है, घर में भी दीवारें हैं। सब एक-दूसरे को पछाड़कर आगे बढ़ना चाहते हैं, किसी से तनिक भी डर है तो उसे निपटा देने की चालें भी चलते हैं, कोई किसी की मदद नहीं करता, इसीलिए सब के सब असंतुष्ट हैं, सब बीमार हैं। यही हाल रहा तो बीमारियां और बढ़ेंगी। हृदय प्रेम की जगह है, करुणा का स्थल है, परंतु वह आजकल इन दोनों से खाली है। इस खाली जगह को ईर्ष्या, द्वेष भर रहा है, यही बीमारियों की जड़ है। इसलिए जरूरी है कि चिकित्सक की बात तो मानें ही, व्यायाम करें, संतुलित भोजन करें परंतु मन को नकारात्मक भावनाओं से मुक्त रखें। तभी दिल मजबूत होगा। किसी शायर ने कहा है--

दिलों की सम्त ये पत्थर से लफ्ज मत फेंको
जरा सी देर में आईने टूट जाते हैं

रविवार, 20 जून 2010

हे, पिता! मनुष्य को बचा लो

हे पिता, तुम्हें शत-शत प्रणाम. तुमने मुझे इस दुनिया में मनुष्य के रूप में आने का अवसर दिया, अपने रक्त से मेरे मष्तिष्क को, ह्रदय को सींचा, इसके लिए मैं तुम्हारा जन्म-जन्मान्तर ऋणी रहूँगा. यह जीवन एक ऐसा सुअवसर है, जो मुझे एक नया शिखर दे सकता है, जो मुझे मनुष्यता के उत्थान के लिए कुछ करने का पथ दे सकता है, जो मुझे जीते-जी मुक्ति का मन्त्र सौंप सकता है. यह तुम्हारी कृपा का परिणाम है. इस कृपा का विस्मरण कैसे हो सकता है. मैं इतना  कृतघ्न भी नहीं कि पश्चिम की तरह तुम्हारे लिए एक पिता-दिवस निश्चित कर दूं  और एक दिन तुम्हारे नाम फूल चढ़ाकर अपना कर्तव्य पूरा कर लूं. हमारी संस्कृति  में पिता कभी मरता नहीं. वह रक्त के साथ देहान्तरित हो जाता है. इस तरह मेरे रक्त में केवल तुम ही नहीं बल्कि मेरे पूर्वजों की अंतिम कड़ी भी बह रही है. वह अंतिम कड़ी मुझे  निश्चित ही सृष्टि के प्रथम पुरुष के रूप में दिखाई पड़ती है. वह कड़ी सबके रक्त में बह रही है. कितनी उद्दात्त भावना है, कितना व्यापक चिंतन है हमारा. उसी प्रथम पुरुष का रक्त सभी पुत्रों में है, चाहे उनके पिता अलग-अलग क्यों न हों. वह प्रथम पुरुष ही आदि पुरुष भी है. हम सब उसी की संतानें हैं. हम सभी मनुष्य हैं, इसलिए हम सभी भाई हैं, बन्धु हैं, एक ही स्रोत से फूटी महाधार के अलग-अलग प्रवाह हैं.

हे पिता, आज मनुष्य यह भूल क्यों गया है? क्यों उसने अपने बीच दीवारें खड़ी कर ली हैं? क्यों वह अपने धर्म के नाम पर, अपने स्वार्थ के लिए एक-दूसरे का गला कटाने को भी तैयार है? क्यों वह भूगोल में, इतिहास में बंट गया है? क्यों वह हिन्दू, मुसलमान, इसाई और न जाने क्या-क्या हो गया है? क्यों वह  सब कुछ बन जाता है बस आदमी नहीं बन पाता है? तुम्हारे पुरखों को याद था, उन्होंने बार-बार कहा भी, याद भी दिलाया. उन्होंने  पूरी धरती को, पूरे विश्व को एक घर की तरह देखा, सबको भाई कहा. वसुधैव ही कुटुम्बकम. पर कहाँ हो पाई पूरी  वसुधा एक कुटुंब? एक देश भी, एक समाज भी, एक घर भी तो नहीं बन पाया एक कुटुंब. आज सगा भाई भी अपने स्वार्थ के लिए अपने भाई का गला काटने में तनिक संकोच नहीं करता. न बंधुत्व रहा न मनुष्यता. हे पिता! कुछ करो. तुम्हें माँ की उर्जा चाहिए  तो उसे पुकारो. इस अनंत आकाश में वह भी है. वही तुम्हारे पुत्रों  की जीवन भूमि रही है, वही महागर्भ है हम सब पुत्रों की जननी है . वह जोड़ सकती है सबको, पहचान करा सकती है, अपने पुत्रों की, उनकी स्मृति जगा सकती है. पुकारो माँ  को,  रोना आये तो रो पड़ो फूट-फूट कर. वह बड़ी करुणावती है, बड़ी दयालु है, वह दौड़ी हुई आ जाएगी.

हे पिता! मनुष्य की पहचान खो रही है. वह जहाँ भी है, संकट में है, खतरे में है, लहूलुहान है, घायल है, उसकी आँखों में आंसुओं का सागर उमड़ रहा है. क्या अपने पुत्रों को तुमने आदमी बने रहने का सबक इसीलिए दिया था कि वे जिंदगी भर रोते रहें, अलग-थलग पड़े रहें, पीड़ा और यातना सहते रहें, मार खाते रहें. और अगर ऐसा बनाया तो उनमें मनुष्य होने का स्वाभिमान क्यों भर दिया, उनकी आत्मा को जागते रहने का वरदान क्यों दे दिया? यह मनुष्य की पीड़ा को और बढ़ाता है. पर तुम मुझसे ज्यादा बुद्धिमान हो, ज्यादा सचेष्ट हो, ज्यादा जाग्रत हो, तुमने जैसा भी किया है, जरूर उसका तर्क होगा तुम्हारे पास, कारण होगा तुम्हारे पास. मेरे इस विश्वास को जमीन चाहिए. बिना उसके शायद लम्बे समय तक मैं भी आदमी न बना रह सकूँ. इसलिए  हे पिता! मुझे शक्ति दो, समझ दो, साहस दो और मनुष्य होने और बने रहने का अर्थ मेरे भीतर प्रकट करो. प्रणाम.

शुक्रवार, 18 जून 2010

रचना भी एक साधना

रचना चाहे कोई भी हो, आसान नहीं होती। किसी नयी रचना के लिए कुछ पुराना तोड़ना पड़ता है। जब कुछ ध्वस्त होता है तो रचना की जमीन बनती है। इसे दूसरी तरह से भी कह सकते हैं कि जब रचना होती है तो कुछ ध्वस्त होता है। अंकुर बाहर निकले, इसके लिए बीज को नष्ट होना होता है, उसी की ऊर्जा से अंकुर आसमान की ओर उठता है। कई बार नये पौधे को उगने का पथ प्रशस्त करने के लिए पूरा वृक्ष ही नष्ट हो जाता है। प्रकृति ने ऐसी व्यवस्था कर रखी है।

प्रकृति सबसे बड़ी रचनाकार है। उसकी प्रयोगशाला में निरंतर विध्वंस और रचना की प्रक्रिया चलती रहती है। टूटना, बिखरना, गलना अपने चारो ओर आप निरंतर घटित होते देख सकते हैं। परंतु प्रकृति का चरम सौंदर्य इसी में है कि वह हर विनाश पर रचना का नया महल खड़ा करती है। जंगल जब दावानल में भस्म हो जाता है तो पानी पड़ते ही उन्हीं पुरानी जड़ों से नयी कोंपलें फूट पड़ती हैं। चारों ओर हरियाली छा जाती है। नदी जब कभी अपने तटों से बाहर आ जाती है तो तबाही तो मचाती है लेकिन जैसे ही उसका पानी उतरता है, वहां बहकर आयी उपजाऊ मिट्टी में से जीवन फूट निकलता है। यही प्रकृति का नियम है।

शब्द आकाश का गुण है। हमें प्रकृति ने शब्द दिया है, व्यवहार में एक दूसरे से अपनी भावनाएं प्रकट करने के लिए लेकिन शब्द की शक्ति अपरिमित है। शब्दों का शिल्पी उस शक्ति को, उस ऊर्जा को पहचानता है और उसका सही उपयोग करता है। वह शब्दों से एक नयी दुनिया रचता है। जिसको रचना की यह कला मिली होती है, वही उसका प्रयोग कर सकता है। अभ्यास से उसे और प्रखर कर सकता है, मारक और तेजस्वी बना सकता है। रचनाकार इन्हीं अर्थों में जन्म लेता है। अगर जन्म से प्रतिभा नहीं मिली है तो कोशिश करके रचना करना संभव नहीं है।

कोशिश एक साहित्यकार को निखार तो सकती है, मगर केवल कोशिश किसी को साहित्यकार नहीं बना सकती। यह मां के गर्भ में मिला दैवीय वरदान होता है। किसी किसी को यह ताकत मिलती है। इसीलिए तो समाज साहित्यकारों का सम्मान करता है। पर यह सम्मान भी उसे तभी तक मिलता है, जब तक वह अपनी प्रतिभा का जीवन और समाज के परिष्करण में इस्तेमाल करता है। शक्ति अक्सर भटकाव की ओर ले जाती है। यश, धन और सौंदर्य के तमाम आकर्षण रास्ते में खड़े मिलते हैं पर रचनाकार को एक योगी की तरह आगे बढ़ना होता है, एक साधक की तरह मोहावेश से बचकर निकलना होता है। जो ऐसा कर पाते हैं, वे बड़े हो जाते हैं, जो भटक जाते हैं, व्यक्तिगत सुख को समाज के सुख से ऊपर रखकर देखने लगते हैं, वे इस वरदान से वंचित हो जाते हैं, उनकी रचना की शक्ति धीरे-धीरे क्षीण होकर नष्ट हो जाती है।

गुरुवार, 17 जून 2010

हमसे क्यों रूठा करते हो

भाई ध्रुव गुप्त गोपालगंज, बिहार के रहने वाले हैं. सरकारी सेवा में हैं लेकिन अपने भीतर की आग बचाकर रखी है. गज़लें कहने की आदत है. अच्छी कह लेते हैं. आइये एक सुनते हैं. उनके संकलन मौसम के बहाने से  से उठाकर रख रहा हूँ.

सब उल्टा सीधा करते हो
मेरी कहाँ सुना करते हो

आग लगाते हो रातों में
सुबह-सुबह साया करते हो

प्यार करो तकरार करोगे
सब आधा-आधा करते हो

घर में ज्यादा भीड़ नहीं है
छत पे क्यों सोया करते हो

मेरी-तेरी कहा-सुनी थी
चाँद से क्यों चर्चा करते हो

चिंगारी सी क्या अन्दर है
सारी रात हवा करते हो

जीना वैसा  मरना वैसा
जैसा आप हुआ करते हो

थोड़ी फ़िक्र सही लोगों की
तुम थोड़ी ज्यादा करते हो

तेरा गुस्सा दुनिया पर है
हमसे क्यों रूठा करते हो

चाँद मांगते हो अक्सरहा
बच्चों सी जिद क्या करते हो

जिस्मों की हद तय करते हैं
मन को क्यों साधा करते हो

जाने कब रब तक पहुंचेगी
तुम जो रोज दुआ करते हो

ख्वाहिश ढेरों उम्र जरा है
वक्त बहुत जाया करते हो

मंगलवार, 15 जून 2010

पाखंड का भंडाफोड़

भोपाल गैस कांड को लेकर कांग्रेस, उसकी सरकार और उसके मंत्रियों के पाखंड प्रलाप का भंडाफोड़ हो गया है। अमेरिका की एमोरी यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर गार्डन स्ट्रीब के एक बयान से कैबिनेट के वरिष्ठ सदस्य प्रणव मुखर्जी के उस तर्क की धज्जियां उड़ गयीं हैं, जो हाल में उन्होंने दिया था। प्रणव ने बड़ी मेहनत करके 26 साल पुराने समाचारपत्रों की कतरनें जुटायीं और बताया कि यूनियन कार्बाइड के मुखिया वारेन एंडरसन को मुक्त करने का फैसला मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने किया था और इसमें केंद्र सरकार और राजीव गांधी का कोई भी हाथ नहीं था। परंतु जो बात स्ट्रीब ने कही है, उससे प्रणव के तर्क झूठे और गढ़े हुए लगते हैं।

 स्ट्रीब उन दिनों भारत में अमेरिकी राजदूत के सहायक थे और राजदूत के बाहर होने के कारण दूतावास का कार्यभार उन्हीं के पास था। उन्होंने बगैर किसी लाग-लपेट के कहा है कि एंडरसन को केंद्र सरकार के साथ हुई सहमति के नाते छोड़ा गया। दरअसल दुर्घटना के समय एंडरसन अमेरिका में थे। जब उन्होंने सुना कि फैक्ट्री में गैस रिसने के कारण हजारों लोगों की मौत हो गयी है तो वे कंपनी के मुखिया होने के नाते भोपाल आकर जानना चाहते थे कि आखिर हुआ क्या, गलती कहां हुई। अमेरिकी प्रशासन उनकी सुरक्षा को लेकर चिंतित था, इसलिए इस बारे में भारत सरकार के विदेश मंत्रालय से संपर्क साधा गया। विदेश मंत्रालय की ओर से अमेरिका को आश्वस्त किया गया कि, एंडरसन की सुरक्षित वापसी का इंतजाम कर दिया जायेगा।

इस आश्वासन के बाद ही एंडरसन भोपाल आये पर उनके हवाई अड्डे पर उतरते ही उन्हें धर लिया गया। उस समय उन्हें छुड़ाने और वापस पहुंचाने की पूरी प्रक्रिया में स्ट्रीब ने बड़ी भूमिका निभाई थी। उन्हीं के प्रयासों से विदेश मंत्रालय सक्रिय हुआ और एंडरसन साहब वापस अपने देश पहुंच सके। ऐसा लगता है कि जीवन भर बड़ी जिम्मेदारियों पर बनाये रखने के एहसान की कीमत कांग्रेस अर्जुन सिंह से वसूलना चाहती है। शायद उन्हें कह दिया गया है कि वे मुंह न खोलें, चुप रहें। पार्टी के भविष्य के लिए यह एक तोहमत अपने सिर पर लेने के लिए अर्जुन सिंह भी, लगता है राजी हो गये हैं। पर इससे सच जानने का जनता का अधिकार खत्म नहीं हो जाता। लोगों को पता चलना चाहिए कि कौन झूठ बोल रहा है, कौन बेवकूफ बना रहा है। पाखंडी चेहरे बेनकाब होने ही चाहिए।

सोमवार, 14 जून 2010

ब्लागलेखन की संभावनाएं और खतरे

ब्लॉगों की दुनिया धीरे-धीरे बड़ी हो रही है. अभिव्यक्ति के अन्य माध्यमों के प्रति जन्मते अविश्वास के बीच यह बहुत ही महत्वपूर्ण घटना है. कोई भी आदमी अपनी बात बिना रोक-टोक के कह पाए, तो यह परम स्वतंत्रता की स्थिति है. परम स्वतंत्र न सिर पर कोऊ. यह स्वाधीनता बहुत रचनात्मक भी हो सकती है और बहुत विध्वंसक  भी. रोज ही कुछ नए ब्लॉग संयोगकों  से जुड़ रहे हैं. मतलब साफ है कि ज्यादा से ज्यादा लोग न केवल अपनी बात कहना चाह रहे हैं बल्कि वे यह भी चाहते हैं कि लोग उनकी बात सुने और उस पर प्रतिक्रिया व्यक्त करें. यह प्रतिक्रिया ही आवाज को गूंज प्रदान करती है, उसे दूर तक ले जाती है. जब आवाज दूर तक जाएगी तो असर भी करेगी. पर क्या हम जो चाहते हैं वह सचमुच कर पा रहे हैं? क्या हम ऐसी आवाज उठा रहे हैं जो असर करे? और सबसे महत्वपूर्ण बात ये कि हमें कैसे पता चले कि हमारी बात का असर हो रहा है या नहीं ?

यहाँ एक बात समझने की है कि लोग एक पागल के पीछे भी भीड़ की शक्ल में चल पड़ते हैं, एक नंगे आदमी का भी पीछा करते  हैं  और उसका भी जो सचमुच जागरूक है, जो बुद्ध है, जो जानता  है कि लोगों कि कठिनाइयाँ क्या हैं, उनका दर्द क्या है, उनकी यातना और पीड़ा  क्या है. जो यह भी जानता है कि इस यातना, पीड़ा या दुःख  से लोगों को मुक्ति कैसे मिलेगी. अगर हम लोगों से कुछ कहना चाहते हैं तो यह देखना पड़ेगा कि हम इन तीनों में से किस श्रेणी में हैं. कहीं हम कुछ ऐसा तो नहीं कहना चाहते जो लोग सुनना ही नहीं चाहते और अगर सुनते भी हैं तो सिर्फ मजाक उड़ाने के लिए. यह निरा पागलपन के अलावा  कुछ और नहीं है. एक ब्लॉग पर मुझे एक तथाकथित क्रांतिकारी की  गृहमंत्री को चुनौती दिखाई पड़ी. उस वक्त जब नक्सलवादियों ने दर्जनों  जवानों की हत्या कर दी थी, वे महामानव यह एलान  करते हुए दिखे कि वे खुलकर नक्सलियों के साथ हैं, गृह मंत्री जो चाहे कर लें. उनकी पोस्ट  के नीचे कई टिप्पड़ियाँ थीं, जिनमें कहा गया था , पागल हो गया है. जो सचमुच पागल हो गया हो, वह व्यवहार में इतना नियोजित नहीं हो सकता, इसीलिए उस पर अधिक  ध्यान नहीं जाता पर जो पागलपन का अभिनय कर रहा हो, जो इस तरह लोगों का ध्यान खींचना चाह रहा हो, वह भीड़ तो जुटा लेगा, पर वही भीड़ उस पर पत्थर भी फेंकेगी, उसका मजाक भी उड़ाएगी.

कुछ लोग खुलेपन के नाम पर नंगे हो जाते हैं. नग्नता सहज हो तो कोई ध्यान नहीं देता. जानवर कपडे तो नहीं पहनते, पर कौन रूचि लेता है उनकी नग्नता में? छोटे बच्चे अक्सर नंगे रहते हैं, पर कहाँ बुरे लगते हैं? यह सहज होता है. बच्चे को नहीं मालूम कि नंगा रहना बुरी बात है, पशुओं को इतना ज्ञान नहीं कि नंगापन होता क्या है, यह बुरा है या अच्छा. पर जो जानबूझकर नंगे हो जाते हैं ताकि लोग उनकी ओर देखें, उन्हें घूरे या उनकी बात सुनें, वे असहज मन के साथ प्रस्तुत  होते हैं. यह नग्नता खुलेपन के तर्क से ढंकी नहीं जा सकती. ऐसे लोग भी मजाक के पात्र बन जाते हैं. असहज प्रदर्शन  होगा तो असहज प्रतिक्रिया भी होगी. लोग फब्तियां कसेंगे, हँसेंगे और हो सकता है, कंकड़, पत्थर भी उछालें.

कुछ ऐसे लोग भी होते हैं, जो किसी की प्रतिक्रिया की परवाह नहीं करते, भीड़ भी जमा करना नहीं चाहते, लोगों का ध्यान भी नहीं खींचना चाहते पर अनायास उनकी बात सुनी जाती है, उनके साथ कारवां जुटने लगता है, उनकी आवाज में और आवाजें शामिल होने लगाती हैं. सही मायने में वे जानते हैं कि क्या कहना है, क्यों कहना है, किससे कहना है. वे यह भी जानते हैं कि उनके कहने का, बोलने का असर जरूर होगा क्योंकि वे लोगों के दर्द को आवाज दे रहे हैं, समाज की पीड़ा को स्वर दे रहे हैं, सोये हुए लोगों को लुटेरों का हुलिया बता रहे हैं. केवल ऐसे लोग ही समय की गति में दखल दे पाते हैं. असल में ऐसे ही लोगों को मैं स्वाधीन  कह सकता हूँ. स्व और कुछ नहीं अपने विवेक और तर्क की बुद्धि है. अगर व्यक्ति विवेक-बुद्धि के अधीन होकर चिंतन करता है, तो वह समस्या की जड़ तक पहुँच सकता है. फिर यह समझना कठिन नहीं रह जाता कि समाधान  के लिए करना क्या  है.

आजकल ब्लॉगों पर लिख रहे हजारों लोग इन्हीं तीन श्रेणियों में से किसी न  किसी में मिलेंगें. अगर आप किसी लेखन की गंभीरता और शक्ति का मूल्यांकन टिप्पड़ियों की संख्या से करेंगे तो गलती करेंगे. बहुत भद्दी और गन्दी चीज ज्यादा प्रतिक्रिया पैदा कर सकती है. कई बार ज्यादा प्रतिक्रिया आकर्षित करने के लिए लोग ब्लॉगों पर इस तरह की सामग्री परोसने से बाज नहीं आते. अभी हाल में एक ब्लाग अपने अश्लील आमंत्रण के लिए बहुत चर्चित हुआ था. वहां टिप्पड़ियों  की बरसात हो रही थी. पर इस नाते उस गलीच लेखन को श्रेष्ठ नहीं ठहराया  जा सकता. चर्चा में आने की व्याकुलता कोई रचनात्मक काम नहीं करने देगी. ऐसे ब्लॉगों के होने का कोई मतलब नहीं है, क्योंकि वे उन लोगों को भी विचलित  करते हैं जो किसी गंभीर दिशा में काम करते रहते हैं. मेरी  इस बात का अर्थ यह भी नहीं लगाया  जाना चाहिए कि जहाँ ज्यादा टिप्पड़ियाँ आतीं हैं, वह सब इसी तरह का कूड़ा लेखन है. ब्लॉगों की इस भीड़ में भी वे देर-सबेर पहचान ही लिए जाते हैं, जो सकारात्मक और प्रतिबद्ध लेखन में जुटे हैं. चाहे वे सामाजिक-राजनीतिक विषयों पर विचारोत्तेजक  टिप्पड़ियाँ हों, चाहे  ह्रदय और मस्तिष्क को मंथने वाली कविताएं हों, चाहे देखन में छोटे लगे पर घाव करे गंभीर वाली शैली में लिखे जा रहे व्यंग्य हों.  सैकड़ों की सख्या में ऐसे ब्लाग दिखाई पड़ते हैं, जो अपनी यह जिम्मेदारी बखूबी निभा रहे हैं. उनसे हमें उम्मीद रखनी होगी.

दरअसल निजी और सतही स्तर पर गुदगुदाने वाले प्रसंगों से हटकर हम ब्लागरों को अपने समय की समस्याओं पर केन्द्रित होने की जरूरत है. भ्रष्टाचार, गरीबी, जातिवाद, साम्प्रदायिकता, सामाजिक रुढियों से उपजी दर्दनाक विसंगतियां और मनुष्यता का अवमूल्यन आज हमारे  देश की ज्वलंत समस्याएं  हैं. आदमी चर्चा से बाहर हो गया है, उसे  केंद्र में प्रतिष्ठित करना है. सत्ता के घोड़ों की नकेल कसकर रखनी है, ताकि  वे बेलगाम मनमानी दिशा में न भाग सकें. इन विषयों पर समाचार माध्यमों में भी अब कम बातें होती हैं. वे विज्ञापनों के लिए, निजी स्वार्थों के लिए बिके हुए जैसे लगने लगे हैं. पूंजी का नियंत्रण पत्रकारों को जरूरत से ज्यादा हवा फेफड़ों में खींचने नहीं देता. वे गुलाम बुद्धिवादियों की तरह पाखंड चाहे जितना कर लें पर असल में वे वेतन देने वालों की  वंदना करने, उनके हित साधने और कभी-कभार उनके  हिस्से में से अपनी जेब में भी कुछ डाल कर खुश हो लेने के अलावा ज्यादा कुछ नहीं कर पाते. ऐसी विकट स्थिति में अगर ब्लागलेखन की  अर्थपूर्ण स्वाधीनता  अपनी पूरी ताकत के साथ सामने  आती है तो वह लोकतंत्र के पांचवें स्तम्भ की तरह खड़ी  हो सकती है. जिम्मेदारियां  बड़ी हैं, इसलिए हम सबको मनोरंजन , सतही लेखन और शाब्दिक नंगपन  से मुक्त होकर वक्त के सरोकार और मनुष्यता के प्रति प्रतिबद्धता के साथ आगे आकर अग्रिम मोर्चे  की खाली जगह ले लेनी है. मैं मानता हूँ कि अनेक लोग सजग और सचेष्ट हैं, अपनी लड़ाई लड़ रहे हैं पर आशा है सभी ब्लागर  बंधु अपना कर्तव्य और करणीय समझ सही पथ का संधान करेंगे. 



     

रविवार, 13 जून 2010

अर्जुन चुप क्यों हैं

आखिर अर्जुन सिंह ने अपने होठ क्यों सिल रखे हैं? वे बोलते क्यों नहीं, बताते क्यों नहीं कि सच क्या है? भोपाल गैस त्रासदी के अपराधी वारेन एंडरसन को सुरक्षित बाहर निकालने में उनकी भूमिका क्या थी? ऐसा उन्होंने किसी के निर्देश पर किया या अपने बुद्धिकौशल के उपयोग से? केवल भोपाल या मध्य प्रदेश ही नहीं, सारा देश जानना चाहता है इतनी बड़ी गलती किसने की, क्यों की। कांग्रेस के शीर्ष नेता परस्पर विरोधी बयानों से लोगों का संदेह बढ़ाने में जुटे हैं पर वे इस तरह अपनी जवाबदेही से बचकर नहीं निकल सकते।
प्रणव मुखर्जी ने साफ-साफ कहा है कि एंडरसन को मुक्त करने का फैसला अर्जुन सिंह ने किया था। मुखर्जी उस समय अखबारों में छपे अर्जुन सिंह के बयानों का हवाला देकर कहते हैं कि भोपाल में गुस्सा बढ़ रहा था, कानून-व्यवस्था के लिए कठिन स्थिति पैदा होती जा रही थी। ऐसे में एंडरसन को बाहर निकालना जरूरी हो गया था। उन्होंने इस बारे में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी से भी बात की थी, उन्हें समूचे घटनाक्रम की जानकारी भी दी थी। अगर प्रणव सही कह रहे हैं तो क्या राजीव गांधी को इस पर गौर नहीं करना चाहिए था कि देश के हजारों निर्दोष और मासूम लोगों की मौत के लिए जिम्मेदार व्यक्ति को इस तरह छोड़ना कितना मुनासिब होगा?

अगर अर्जुन ने फैसला किया भी हो तो वे इतना ही तो कर सकते थे कि एंडरसन को दिल्ली तक पहुंचवा दें। वह दिल्ली से कैसे उड़ गया, वह भी जब प्रधानमंत्री को सारे वाकये की जानकारी थी। क्या तत्कालीन केंद्र सरकार की यह जिम्मेदारी नहीं बनती थी कि वह हिंदुस्तानी जनता के गुनहगार को देश से बाहर भाग निकलने से रोके? सीबीआई के एक पूर्व अधिकारी के इस बयान का जवाब क्यों नहीं दिया जा रहा कि विदेश मंत्रालय का भी दबाव था कि एंडरसन को जलील न किया जाय?

पर क्या इन अधिकारियों से भी नहीं पूछा जाना चाहिए कि अब वे जिस तरह सरकारों की फजीहत करके अपनी शहादत जताने में जुटे हैं, उनकी आत्मा तब क्यों गुलामी बजा रही थी? क्या उनके लिए सरकार और नौकरी से बड़ा देश नहीं था? क्या उनको उन परिवारों की तकलीफ से कोई मतलब नहीं था, जो जहरीली गैस के रिसाव में अपना सब कुछ गंवा चुके थे? उन अफसरों ने तब अपनी आत्मा कहां गिरवी रख दी थी, वे किस नीमबेहोशी में जी रहे थे?

बहरहाल कांग्रेस को इन सारे सवालों का जवाब देना पड़ेगा। पार्टी के नेता जिस तरह राजनीतिक अभिशाप झेल रहे और अकेले पड़ गये बूढ़े एवं निहत्थे अर्जुन को जिम्मेदारी के चक्रव्यूह में घेरकर निष्प्राण करने की कोशिश कर रहे हैं, वह आखिर कब तक उन्हें खामोश रहने देगी। लाखों गैसपीड़ितों के साथ समूचा देश चाहता है कि अर्जुन बोलें और बतायें, सच है तो है क्या?

शनिवार, 12 जून 2010

मेरे भीतर तुम उपस्थित रहोगे

ओ मेरे पिता! तुम्हारा
अंश हूँ मैं सम्पूर्ण
मां के गर्भ में रचा
तुमने मुझे अपने लहू से 

तुमसे मुक्त कैसे
हो पाऊंगा कभी
कैसे वापस लौटा सकूँगा तुझे
उसका अंश भी जो
तुमने दिया है मुझे 
सब कुछ निछावर करके भी

अपने आंसुओं के साथ
रखा तुमने मुझे
जो करुणा  और प्रेम
पाता हूँ अपने भीतर
तुम्हारी संवेदना से सिंचित है वह
कैसे विछड़ सकता हूँ मैं
तुमसे, तुम्हारे आंसुओं से

मैं जानता हूँ तुम रहोगे
सदा, सर्वदा मेरी आत्मा  में
ज्योति की तरह दीप्त
मेरी नसों में बहते हुए
शताब्दियों के इतिहास की तरह
समय में ओझल  वर्तमान की तरह
युग-युगों में फैले
भविष्य की तरह

भले ही तुम्हारा शरीर थम जाये
तुम्हारी हड्डियाँ  तुम्हारा बोझ
उठाने से मना कर दें
तुम्हारा ह्रदय धड़कने से
इनकार कर दे
भले ही तुम संसार को
उसके  पार्थिवत्व  को
किसी भी पल अस्वीकार कर दो
पर मैं तुम्हारा मूर्त स्वीकार हूँ
तुम्हारा पूर्ण प्राकट्य  हूँ 
मेरे भीतर तुम उपस्थित रहोगे
तब भी, जब नहीं होगे
किसी जागतिक दृश्य में

मां ने तुम्हारी प्रतिकृति में
जो नवचैतन्य  सौंपा था तुझे
उसकी प्रथम श्वांस के साक्षी हो तुम 
तुम्हारी बाँहों में अनंत
अंधकार से मुक्ति पाई मैंने
अपनी अजस्र निश्छलता से
सींचकर तुमने मनुष्यत्व  दिया मुझे
जब तक आसमान के नीचे
मनुष्य होगा, मैं हूँगा, तुम होगे

मैं जब कभी हताश होता हूँ
थक जाता हूँ, असहज हो जाता हूँ
अपने कंधे पर महसूस करता हूँ
तुम्हारे खुरदरे हाथ
और निकल आता हूँ
नैराश्य  के विकट व्यूह से
जीवन का पहिया हाथों में
सम्हाले युद्ध को तत्पर
अभिमन्यु की तरह

जब कभी आत्मीय प्रवंचनाएं
क्रोधाविष्ट हो घेरतीं हैं मुझे
छल-छद्म के साथ
उपस्थित होतीं हैं
तुम्ही मुझे मृत्यु  से संवाद
की शक्ति सौंपते हो
और मैं यमराज से भी नहीं डरता
नचिकेता हो जाता हूँ

जब कभी संशय में होता हूँ
समरभूमि के बीच में
लडूं या मुक्ति पा लूं रण से
संघर्ष  और कर्तव्य के संबंधों
को समझने में असमर्थ
हो जाता हूँ पूरी तरह
मेरे भीतर से निकलकर
सामने आ जाते हो
पटु महानायक कृष्ण की तरह  
पलायन की ओर
रथ हांकने से रोक लेते हो
मेरा अर्जुन उठ खड़ा होता है
अपने गांडीव  के साथ
याद आ जाता है जीवन
का आप्त वाक्य-
मामनुस्मर युद्ध च

मैं जानता हूँ तुम कुछ नहीं
कुछ भी नहीं चाहते मुझसे
पर मैं कुछ देना चाहता हूँ
सिर्फ यही है मेरे पास
लो, मैं देता हूँ वचन
तम्हे कभी आहत नहीं करूँगा
दुःख नहीं दूंगा
बना रहूँगा
तुम्हारा अभिमन्यु
तुम्हारा नचिकेता
तुम्हारा अर्जुन




 
 

शुक्रवार, 11 जून 2010

गाँव से आगे, गाँव के पीछे

गाँव खतरे में हैं. शहर धीरे-धीरे उन्हें निगल रहे  हैं. शहरों में अंग्रेजी है, बड़े बाज़ार हैं, खूब पैसा है. लोग वैभव भरी जिंदगी में मस्त हैं. कुछ भी खरीद सकते हैं. अच्छे से अच्छा फोन, बड़ी से बड़ी गाड़ी, खूबसूरत कपडे. मजदूर भी. शहर में केवल वैभव ही है, ऐसा नहीं. उसके भी दो चेहरे हैं. गरीब, मजदूर भी है और उसकी मेहनत को खरीदने वाला अमीर भी है. मजदूर की मजबूरी है, वह मामूली कीमत लेकर दिन-रात पसीना बहाता है और उसी का पसीना सम्पन्न लोगों की तिजोरी में सोना बनकर जमा होता है.

शहर बहुत ही कठोर है, निर्मम है, उद्धत है.वह पश्चिम के असर में है, वह अपने रंग में सबको रंगना चाहता है. जो राजी-ख़ुशी तैयार हों , उसके साथ नाचें , गाएं , सुख सुविधा पर पैसा लुटाएं  और यह न कर पायें  तो उसके उत्सव में दरी-गलीचा बिछाएं , झाड़ू लगायें , पसीना बहाकर उसका आनंद बढ़ाएं . जो शहर के इस नए संस्कार  का विरोध करता है, शहर या तो उसे  खरीदकर कचरे में डाल देता है या समूचा निगल जाता है. गाँव ललचाया हुआ भी है और संकोच में भी है. वह इस नए वैभव का मजा भी उठाना चाहता है और अपनी धोती भी नहीं उतारना चाहता. यह दुविधा बहुत प्रतिरोध करने की हालत में नहीं है, क्योंकि शहर में पढ़ रहे गाँव के बच्चों को धोती-कुरता बिल्कुल पसंद नहीं, वे रोटी-दाल  की जगह पिज्जा में ज्यादा दिलचस्पी लेने लगे हैं. इन्हीं की बांह पकड़कर शहर गाँव में घुस आया है. गाँव के समर्पण में अब ज्यादा देर नहीं दिखती.

मैं बहुत दिनों बाद गाँव गया. मैंने बस ड्राइवर  से कहा कि मुझे बड़ा गाँव उतार देना. उसने ऐसा ही किया, पर शायद उसे पता नहीं था कि वह जहाँ मुझे उतार रहा है, वह गाँव से एक किलोमीटर आगे कोई जगह है. मैं अपने गाँव को एक ऐसी जगह पर खड़ा होकर ढूंढ़ रहा था, जहाँ मेरी पहचान की कोई चीज नहीं थी. गलत फैसला किया और गाँव से दूर बढ़ गया. कुछ चलने के बाद भी गाँव नहीं आया तो मैंने चारों ओर आकाश के तट पर कोई पहचान तलाशनी शुरू की. थोड़ी देर बाद मेरे उजड़ गये बाग के कुछ पेड़ नजर आये,गाँव के बाहर जा  बसे यादव परिवार का घर दिखा.आश्चर्य मैं अपने गाँव  को ही नहीं पहचान पाया और दो किलोमीटर आगे चला गया. झिझकते-झिझकते वापस लौटा.

शहर से कम नहीं है मेरा गाँव. बड़ी-बड़ी कोठियां, कारें, टी वी, फ्रिज, बिजली  सब कुछ है. वहां भी लोग सुबह  मैदान नहीं जाते. हर घर में ताइलेट  है, बाथरूम है. कुछ बच्चे  पढने बाहर गये तो वे बाहरी ही हो गये. उनके घर वाले खुश हैं कि वे डालर कमाते हैं. कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे शौच के बाद अब पानी का नहीं कागज़  का इस्तेमाल करते हैं. गाँव बिकने को तैयार हैं , वह उनकी प्रतीक्षा में हैं , जो ज्यादा से ज्यादा बोली लगायें. वह  अपनी बोली, अपना संस्कार, अपनी  करुणा सब कुछ छोड़कर पैसा बटोरना चाहते हैं. असल में मैं अपने एक साहित्यकार मित्र के न्योते पर गया था. अभिनव कदम के संपादक जय प्रकाश धूमकेतु के बेटे ने शादी कर ली, इस ख़ुशी में उन्होंने रिसेप्सन दिया था. वे वामपंथी विचारों के हैं, फिर भी वहाँ काफी चमक-दमक थी. खाने -पीने का बेहतरीन  इंतजाम था.

वहां जाना अच्छा रहा. इसी एक शाम के लिए मैंने तीन दिन बर्बाद किया. वहां मेरे तमाम पुराने दोस्त मिले, प्रशंसक मिले. लेखकों, कवियों से मुलाकातें हुईं. कुछ ऐसे लोग भी मिले, जो जानते तो थे मगर पहचानते नहीं थे. खाना, गपियाना, मुस्कराना , इससे ज्यादा कुछ तो नहीं हुआ, पर इतना भी क्या कम था. आजकल जिस तरह आदमी की हंसी खोती जा रही है, उसमें बनावटी हंसी भी कम फायदेमंद नहीं है. राम निवास मेरा छात्र जीवन का दोस्त है. बहुत ही मजाहिया  लहजा है उसका. मेरी एक फोटो है उसके पास, कहता है बिल्कुल ड्रेकुला  जैसा दिखता हूँ . यह कहकर इतनी जोर का ठहाका लगाता है कि मुझे मेरे दांत सचमुच बाहर निकले महसूस होने लगते हैं. उसने डा अनिल कुमार राय से परिचित कराया, हालाँकि हम दोनों एक दूसरे को पहले से ही जानते थे, बस पहचानते नहीं थे. वे हिंदी के स्थापित लेखकों में शुमार किये जाते हैं. मेरे गुरुओं हिंदी के बड़े समीक्षक डा कन्हैया सिंह और संत साहित्य के विद्वान  डा चन्द्र देव राय का वहां  होना मेरे लिए एक अभूतपूर्व अवसर था.
मेरे बड़े भाई, साहित्यकार  और वर्धा हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति  डा वी एन राय , डा अनिल कुमार अंकित, सुपरिचित गीतकार डा कमलेश राय, समीक्षक राम निवास कुशवाहा और अन्य अनेक रचनाधर्मियों का मिलना बहुत आनंदवर्धक रहा.

मैं भी वहां जाकर गाँव को भूल गया, गाँव के संकट को भूल गया. यह एक शाम मेरे भीतर इतनी उर्जा भर गयी कि मैं अब कई महीने अपनी गाड़ी बिना ठेले ही दौडाता रहूँगा.इसका श्रेय धूमकेतु जी को दूं या उन बच्चों को जिन्होंने हमें शादी के धूम-धड़ाके में शामिल होने से वंचित कर दिया और इस तरह चुनौती खड़ी कर दी कि रिसेप्सन शादी से  भी बढ़िया होना चाहिए. और वह हुआ भी. दर असल धूमकेतुजी  के बेटे ने प्रेम विवाह  कर लिया था. हम सब खुश थे और यह बताने में सफल रहे कि हम उसकी पीढ़ी से पीछे नहीं हैं, हमें उनका प्रेम स्वीकार है.   

सोमवार, 7 जून 2010

जा रहा हूँ गाँव

मित्रों  मैं गाँव जा रहा हूँ  . ११ जून तक लौटूंगा. जाने से पहले गाँव की याद आ रही थी. लीजिये अब कुछ दिन इसे बार-बार पढ़िए.

जा रहा हूँ गाँव
कुछ नयी कहानियों
की तलाश में 
कुछ पुरानी फिर से
जगाने यादों  के तहखाने से

शहर में आकर भी
छूटा नहीं है गाँव
पर जो गाँव लेकर
निकला था मेरा किशोर मन
वह खो गया है कहीं
समय के कुहासे में

गाँव के पोखरे ग़ुम
हो गए हैं शहर होते
संस्कारों के जंगल में
ताल की सतह पर
उग आये  हैं फॉर्म
बरसात का पानी  अब
ठहरता नहीं कहीं
बहते-बहते उड़ जाता  है
वाष्प बनकर

गाँव में अब बुवाई,
निराई और कटाई के गीत
नहीं सुनायी पड़ते
ट्रैक्टर  गड़गडाते  हैं
बच्चों के पैदा होने पर
सोहर नहीं गातीं महिलाएं
शादी के गीत याद नहीं
शहर में पढने जाती
किशोरियों  को

गाँव में  अब नौटंकी
नहीं होती, नहीं होता
रहीम चाचा का आल्हा
काका बूढ़े हो गए हैं
बैल बिक गए हैं
गाएं इतनी नहीं रहीं
कि चुन्नू उन्हें चराने निकले
वही उसका रोजगार था
वह सबकी गाएं सुबह-सुबह
खूंटे से खोल लेता था
दिन भर उनके साथ घूमता था  
और शाम को छोड़ जाता था
सबके दरवाजे, सबकी गाएं
वह दारु पीता रहता है
सुबह से शाम तक, रात तक

बच्चे खेलने नहीं निकलते
दो साल बाद ही पढने लगते हैं
इंजीनियरी, डाक्टरी
जो पढ़ते नहीं वे
रोब गांठना सीखते हैं
उन्हें ठेकेदार या नेता
बनना होता है
देश का भविष्य
संवारना होता है

जानता हूँ कि मेरा गाँव
मेरा गाँव नहीं रहा
पर मेरी यादें दफन हैं
वहां कण-कण में
जा रहा हूँ तो थोड़ी  सी
लेकर आऊंगा वो मिटटी
जिससे मैं बना हूँ
जिससे मैं जिन्दा हूँ

 

द रेड साड़ी पर भारी बवाल

स्पेनिश लेखक जेवियर मोरो की पुस्तक द रेड साड़ी  ने दिल्ली के राजनीतिक क्षेत्र में हलचल मचा रखी है। यह पुस्तक सोनिया गांधी की जीवनी पर आधारित है और स्पेन तथा इटली में पहले ही प्रकाशित हो चुकी है। देश के कई हिस्सों में किताब में लिखे गये अंशों की होली चलायी जा रही है। पार्टी के वकील अभिषेक मनु सिंघवी ने मोरो को कानूनी नोटिस भेजा है। उनका कहना है कि कोई किसी के निजी मामलों को बिना उसकी अनुमति के कैसे प्रस्तुत कर सकता है, वह भी काल्पनिक और अर्धसत्य के रूप में। मोरो कभी सोनिया गांधी से मिले ही नहीं,उनसे बातचीत नहीं की, उन्हें जानने का प्रयास नहीं किया तो वे उनके बारे में अधिकृत तौर पर कुछ भी कैसे लिख सकते हैं।

दरअसल मोरो ने अपनी पुस्तक में 1977 में कांग्रेस की भारी पराजय के बाद सोनिया गांधी और उनके परिजनों में हुई बातचीत को सीधे कोट किया है, जिसमें सोनिया पर उनके परिवार द्वारा इटली चले आने का दबाव डालते दिखाया गया है। इस अंश पर कांग्रेस को इसलिए आपत्ति है क्योंकि इसके सच होने का कोई प्रमाण मोरो के पास नहीं है। मोरो स्वयं यह बात स्वीकार करते हैं कि उनकी सोनिया गांधी से बात नहीं हुई लेकिन कई ऐसे लोगों से बात हुई, जो इंदिरा गांधी के करीब रहे और ऐसे भी कई लोगों से जो सोनिया के परिवार से नजदीक रहे। उन्हीं जानकारियों के आधार पर उन्होंने अपनी साहित्यिक कल्पना के सहारे पूरी बातचीत गढ़ने की कोशिश की है। वे खुद भी आश्वस्त नहीं हैं कि उनकी रचना कितनी सच है इसीलिए वे इसे एक औपन्यासिक जीवनी बताते हैं।

उनका यह भी कहना है कि उनकी कोशिश निरंतर यह रही है कि सोनिया गांधी और उनके परिवार के चरम बलिदान को, उनके आदर्शों को सही संदर्भ में रखा जाय। सिंंघवी के नोटिस के बाद मोरो ने भी उन पर मुकदमा करने की चेतावनी दी है। उन्होंने पूछा है कि जब पुस्तक अभी प्रकाशित ही नहीं हुई है तो उसकी सामग्री तक सिंघवी पहुंचे कैसे? यह गैरकानूनी है और इसके लिए उन पर मुकदमा चलना चाहिए। कांग्रेस के एतराज की पा्रमाणिकता से इनकार नहीं किया जा सकता। किसी भी लेखक को यह अधिकार लिखने की स्वतंत्रता के नाम पर नहीं मिल सकता कि वह किसी व्यक्ति के निजी जीवन के बारे में अपुष्ट, अप्रामाणिक, अविश्वसनीय जानकारी लोगों को दे। मोरो की स्वीकारोक्ति से लगता है कि इस मामले में उन्होंने अभिव्यक्ति की आजादी का अतिक्रमण किया है। अगर उनकी पुस्तक के विवरण ऐसी कल्पना पर आधारित हैं, जिसके सच होने की वे संभावना भर जता सकते हैं तो उन्हें सोनिया गांधी का नाम लेने से बचना चाहिए था।

पुस्तक में कई जगह सोनिया गांधी का नाम इस तरह लिया गया है, जैसे उनके बारे में प्रामाणिक सामग्री दी जा रही हो, पर ऐसा है नहीं। इस नाते लेखक पर व्यावसायिक लाभ के आशय से संचालित होकर पुस्तक लिखने का आरोप लगाना गलत नहीं लगता। हो सकता है पश्चिमी देशों के नेता इस मामले में उदार हों, हो सकता है भारत में भी कई लोग इसे बुरा न मानें, एतराज न करें पर केवल इस कारण मोरो अधिकारपूर्वक यह नहीं कह सकते कि सोनिया गांधी को भी इस पर आपत्ति नहीं होनी चाहिए। बेहतर होता कि वे इसे केवल उपन्यास कहते, जीवनी नहीं क्योंकि जीवनी में कल्पना या गल्प की गुंजाइश नहीं होती। वह भी ऐसी कल्पना जो संबंधित व्यक्ति के हृदय को ठेस पहुंचाने वाली हो।

इस शब्द-युद्ध में लोगों की अलग-अलग प्रतिक्रियाएं भी आ रही हैं। भाजपा का कहना है कि कांग्रेस को अभिव्यक्ति की आजादी का सम्मान करना चाहिए। बहुत अच्छी बात है पर यह विचार पार्टी ने तब क्यों नहीं किया, जब जसवंत सिंह की जिन्ना पर पुस्तक आयी थी। अब अगर जेवियर मोरो चाहते हैं कि उनकी पुस्तक भारत में भी प्रकाशित हो तो उन्हें उसे औपन्यासिक रूप में ही प्रस्तुत करने में क्या परेशानी है। फिर उन्हें सोनिया गांधी का जिक्र पुस्तक से हटाना पड़ेगा। एक और रास्ता है कि सोनिया इसके लिए अनुमति दे दें, जो शायद मुश्किल लगता है।

रविवार, 6 जून 2010

मुझे आगे भी जाना है.

सुबह का सूरज
तुम्हारे भाल पर
उगा रहता है अक्सर
मेरे ह्रदय तक 
उजास किये हुए

मेरी सबसे सुन्दर
रचना भी कमजोर
लगने लगती  है
जब देखता हूँ
तुम्हें सम्पूर्णता में

दिए की तरह जलते
तुम्हारे रक्ताभ नाख़ून
दो पंखडियों जैसे अधर
काले आसमान पर लाल
नदी बहती देखता हूँ मैं

सचमुच  एक पूरा
आकाश है तुम्हारे होने में
जिसमें बिना पंख के
भी उड़ना  संभव है
जिसमें उड़कर भी
उड़ान होती ही नहीं
 चाहे जितनी दूर
चला जाऊं किसी भी ओर
पर होता वहीँ हूँ
जहाँ से भरी थी उड़ान

तुम नहीं होती तो
अपने भीतर की चिंगारी से
जलकर नष्ट हो गया होता
बह गया होता दहक कर
तुम चट्टान के बंद
कटोरे में संभाल कर
रखती हो मुझे
खुद सहती हुई
मेरा अनहद उत्ताप
जलकर भी शांत
रहती हो निरंतर

जो बंधता नहीं
कभी भी, कहीं भी
वह जाने कैसे बंध गया
कोमल कमल-नाल से
जो अनंत बाधाओं के आगे भी
रुकता नहीं, झुकता नहीं
कहीं भी ठहरता नहीं
वह फूलों की घाटी में
आकर भूल गया चलना
भूल गया कि कोई  और भी
मंजिल है मधु के अलावा

सुन रही हो तुम
या सो गयी सुनते-सुनते
पहले तुम कहती थी
मैं सो जाता था
अब मैं कह रहा हूँ
पर तुम सो चुकी हो

उठो, जागो और सुनो
मुझे आगे भी जाना  है.  

शुक्रवार, 4 जून 2010

योर फ्रीडम इन्ड्स, ह्वेयर माई नोज बिगिन्स

एक सवाल है आखिर आजादी के मायने क्या हैं? चूंकि हम एक आजाद मुल्क में रहते हैं, इसलिए आम तौर पर लोग समझते हैं कि उनकी आजादी असीमित है। वे कुछ भी बोल सकते हैं, कुछ भी लिख सकते हैं, कुछ भी कर सकते हैं। जो लोग कुछ भी कर सकने की आजादी को अपना अधिकार मानते हैं, वे अक्सर अपराधी हो जाते हैं। क्या कोई किसी को गाली देने के लिए आजाद है, किसी की पिटाई करने के लिए आजाद है? बलात्कार, हत्या करने के लिए आजाद है? नहीं, आजादी की सार्थकता उसकी सीमा से ही तय होती है। असीमित आजादी अत्याचार, दमन और जुल्म की जमीन तैयार करती है।

आप को एक कहानी सुनाऊं। एक हिंदुस्तानी अमेरिका गया। हवाई अड्डे से बाहर आते ही उसे एक बोर्ड दिखा, जिस पर लिखा था, द लैंड आफ फ्री पीपल, यानि आजाद लोगों की जमीन। वह मुसाफिर खुश हो गया। अकेला था, इसलिए पूरी आजादी के साथ कूदता-फांदता, नाचता-गाता सड़क पर निकल पड़ा। यातायात अवरुद्ध हो गया, अफरा-तफरी मच गयी। अचानक एक अमेरिकन की नाक से उसका हाथ टकराया। उसने हिंदुस्तानी मुसाफिर को रोका और पूछा, यह क्या कर रहे हो? उसने जवाब दिया, यह आजाद लोगों की भूमि है और मैं उसी आजादी का फायदा उठा रहा हूं। अमेरिकन बोला, मिस्टर, योर फ्रीडम इन्ड्स, ह्वेयर माई नोज बिगिन्स। मतलब जहां मेरी नाक शुरू होती है, वहां तुम्हारी आजादी खत्म हो जाती है।

कहने का आशय यह कि आजादी भी संजीदगी की मांग करती है। किसी दूसरे व्यक्ति के अधिकारों में दखलंदाजी का हक आजादी नहीं देती, कानून तोड़ने का अधिकार आजादी नहीं देती। आजादी अपने तटों के भीतर बहती नदी की तरह है, जिसमें गति है, प्रवाह है, माधुर्य और सौंदर्य है। तटों के बाहर बहती नदी किसे अच्छी लगती है। वह तो खेतों को डुबो देती है, फसलें तबाह कर देती है, लोगों को घर छोड़कर भागने को मजबूर कर देती है। इसी तरह आजादी का भी संजीदा इस्तेमाल व्यक्ति को, समाज को, देश को संस्कृत और सभ्य बनाये रखता है, सद्भाव से लबरेज स्वस्थ समाज का निर्माण करता है।

आजकल लेखक, पत्रकार आम तौर पर सामान्य लोगों से ज्यादा आजादी चाहते हैं। वैसे तो अघोषित और अलिखित तौर पर ऐसी आजादी उन्हें हासिल है लेकिन कई बार वे उस सीमा को भी लांघने की कोशिश करते हैं। जैसा कश्मीर के एक उर्दू अखबार ने किया। आजादी के मायने किसी को अपमानित करने की गारंटी मिल जाना नहीं है। उसने सोनिया गांधी की तस्वीर पर अनर्गल परिचय लगा दिया। यह अनुचित है। आप को विशेष अधिकार हैं लेकिन उसका इस्तेमाल व्यापक जनहित के लिए होना चाहिए, न कि किसी को बेइज्जत करने के लिए, किसी को धमकाने के लिए या जबरन फिरौती वसूलने के लिए। ऐसे पत्रकारों को कठघरे में खड़ा किया जाना चाहिए।

लेखन और अभिव्यक्ति का एक नया माध्यम ब्लाग आजकल बहुत लोकप्रिय हो गया है। इसके फायदे भी हैं। इस तरह हिंदी इंटरनेट पर अंग्रेजी के साम्राज्य में सेंध लगाने में कामयाब हो रही है, हमारी अपनी भाषा का व्यापक प्रचार-प्रसार हो रहा है परंतु ब्लागिंग के कई अंधेरे कोने भी उजागर हो रहे हैं। यह एक ऐसा माध्यम है, जिस पर आप के लिखे हुए को संपादित करने वाला कोई नहीं होता। आप जो चाहें, लिखें और प्रकाशित कर दें। इस असीमित आजादी का व्यापक जनजागरण में इस्तेमाल किया जा सकता है, अन्याय, दमन और अत्याचार के संगठित विरोध के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है, सामाजिक बुराइयों के मूलोच्छेद के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है, अगली पीढ़ी के चारित्रिक सौष्ठव को निखारने में और उनमें संकल्प,दृढ़ता और नैतिक ताकत भरने में इस्तेमाल किया जा सकता है। सुंदर और सुष्ठु भाषा के प्रयोग से अपनी भाषा और साहित्य को न केवल समृद्ध किया जा सकता है, बल्कि उसके सौंदर्य की सुगंध दूर-दूर तक पहुंचायी जा सकती है।

पर हिंदी ब्लागर्स का ध्यान इस तरफ नहीं है। बेशक कुछ लोग बहुत गंभीरता से सही दिशा में सक्रिय हैं, अच्छे साहित्य का संग्रह कर रहे हैं, बेहतर विचारों का प्रसार कर रहे हैं, बदलाव की दिशा में ब्लाग का रचनात्मक इस्तेमाल कर रहे हैं पर अधिकांश ब्लागबाज हंसी-मजाक, चुटकुलेबाजी में मस्त हैं। बेहद कमजोर और अनर्गल सामग्री भी पेश की जा रही है। भाषा के भदेस होते जाने का खतरा पैदा हो गया है। गाली-गलौज भी हो रही है। हाल में ब्लाग जगत को रचनात्मक बनाने के लिए निरंतर जुटे रहने वाले मेरे प्रिय दोस्त और मशहूर ब्लागर अविनाश वाचस्पति ने सबका ध्यान कथाक्रम के संपादकीय की ओर दिलाया था। मैं नहीं मानता कि कथाक्रम की चिंता बिल्कुल खारिज करने लायक थी। ब्लाग जगत के घुम्मकड़ों को यह सच अच्छी तरह मालूम होगा कि दस में से एक सार्थक ब्लाग मिल जाये तो अपना सौभाग्य मानिये। इसीलिए कभी मृणाल पांडेय इसे नियतिहीन कोना कहकर निकल जाती हैं तो कभी शैलेंद्र सागर कतिपय ब्लागों की भाषा और कथ्य की सड़ांध से विचलित हो जाते हैं।

इतने बड़े और सशक्त माध्यम को नष्ट होने से बचाना उन सबका कर्तव्य है, जो ब्लाग के रचनात्मक और सकारात्मक उपयोग में विश्वास करते हैं और यह समझते हैं कि यह केवल फुरसत में मनोरंजन का साधन भर नहीं है बल्कि यह भविष्य के महासमर में एक तीक्ष्ण हथियार की तरह काम आने वाला है।

गुरुवार, 3 जून 2010

व्यंग्य पर व्यंग्य

लिखना ही है तो टिप्पड़ियां लिखिए 
बड़ी दर्दनाक बात है. मन दहल जाता  है सुनकर. मुल्क में तमाम समस्याएं है. गरीबी की समस्या, महंगाई  की समस्या, सरकार बनाने की समस्या और सरकार बन गयी तो उसे चलाने की समस्या. समस्याओं का अम्बार है. लगता है जैसे हम सब किसी समस्या महल में बैठे हैं या फिर हमारा मुल्क ही  एक बड़ी समस्या है. सदियों से चली आ रही इन पारंपरिक समस्याओं के अलावा आजकल कुछ  नूतन किस्म की समस्याएं भी सामने आ रहीं हैं.     

लोग धडाधड ब्लॉग बना रहे हैं. अब ब्लॉग तो बन गया, लिखें क्या. लिखने की ज्वलंत समस्या है. इस समस्या पर कुछ मित्र विचार करने में जुटे हैं. वे क्या लिखें पर ही इतना लिख डालते हैं कि पढने की समस्या पैदा हो जाती है. पढने की आदत तो वैसे ही हमने बिगाड़  ली है. सोचते हैं कि बिना पढ़े काम चल जाय तो पढने की जहमत कौन मोल ले. नहीं पढने से भी कई बार समस्या पैदा हो जाती है. हमारे रूप  चन्द्र शास्त्री जी ने अविनाशजी के नुक्कड़  पर नजर साहब के निधन की खबर पढ़ी और इतने दुखी हुए कि आनन्-फानन में खबर लिखने वाले को ही श्रद्धांजलि  दे डाली. राजेश उत्साही मौके पर नहीं पहुचते तो शाहिद नदीम साहब को फिर से होश में लाना मुश्किल हो जाता.हाँ तो मैं लिखने की समस्या पर बात कर रहा था. अभी जनाब शाहनवाज  सिद्दीकी  ने इस पर गंभीर मंथन किया. उनके मंथन को हरिभूमि ने छापा. छापने के पहले किसी संपादक ने जरूर पढ़ा होगा. पता नहीं उन्होंने उसे नींद में पढ़ा या बिजली चली जाने के बाद जल्दी-जल्दी निपटा दिया. जो भी हो लेकिन जैसे छापा  उससे लगता है कि वे भी न पढने की समस्या से पीड़ित होंगे. अगर पढ़ते तो शाहनवाज  को इतना तो कहते कि भाई इसे मैंने रख लिया है, जो लिखा वो तो ले आओ?

असल में संपादक लोग भी आजकल केवल लिखते हैं, पढ़ते नहीं. लिखने से फुरसत   मिले तब तो पढ़ें. उनका काम तो लिखना है, पढने में व्यर्थ समय क्यों गंवाएं. अगर वे पढ़ते होते तो अख़बारों में अंट-शंट कैसे छपता और अंट-शंट न छपता तो वे पिटते  नहीं और पिटते नहीं तो उन्हें नेतागीरी का मौका कैसे  मिलता . आखिर पत्रकारों को भी तो कुछ नेता चाहिए. देश कि अमूल्य निधि तो नेता ही हैं जो बिना पटरी और डिब्बे के अपनी रेल चला रहे हैं.
मैं बहक रहा हूँ. क्या करूँ, जबसे पलक  जी  के पुलकित हूँ मैं पर पहुंचा हूँ, तब से ऐसे-वैसे बहक रहा हूँ. पुल्लिंग और  स्त्रीलिंग का भेद नहीं कर पा रहा हूँ. वैसे वे जो भी हों उनका लिखना बड़ा मरदाना है. बड़े-बड़े वहां घुटने टेक रहे हैं. फिजूल की घनचक्कर रस से ओत-प्रोत  रचनाओ पर भी टिप्पड़ियों की बौछार  लगी  हुई है. उनकी रचनाएँ पढ़कर मैं पगला गया हूँ. कल दफ्तर  की छुट्टी थी फिर भी मैं वहां  पहुँच गया. घंटी बजाता रहा. किसी चपरासी के न आने पर नाराज हो गया. बाहर निकलने के लिए लिफ्ट  में बैठा और उपरी तले  पर जा पहुंचा. घर आया तो बहुत प्यास लगी थी, मैडम ने पानी के जग में कड़वा तेल रखा था, गटागट  पी गया. फिर क्या हुआ, न पूछिए पर बड़ी हिम्मत करके लिखने बैठा हूँ. मेरी भी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या लिखूं मगर शाहनवाज  की तरह आखिर तक चकमा नहीं दूंगा.

सोचता हूँ आप की इस समस्या का हल कर ही डालूं कि  क्या लिखें. मेरी बात मानिये तो अगर कुछ नहीं लिखने को हो तो टिप्पड़ियां लिखिए. उसके फायदे हैं. आप जिसके ब्लाग पर टिप्पडी करेंगे, वह शरमाते-शरमाते आप की गली  में भी आएगा ही. और आएगा तो कुछ  न कुछ तो दे ही जायेगा. मुझसे भी समझदार लोग हैं. वे पहले से ही यह काम कर रहे हैं. आप चाहें तो  एक सुंदर टिप्पडी किसी बड़े टिप्पडीखोर  लिक्खाड़ से बनवा लें और उसे ही सब जगह पेस्ट करते चलें. आचार्यजी, ऐसा कर रहे हैं. चाहे आप ने कोई कविता लिखी हो, या राजनीति पर कोई लेख या  फिर आतंकवाद पर कोई विचारोत्तेजक बात, वे आयेंगे और लिख जायेंगे--क्रोध पर विजय स्वाभाविक व्यवहार  से ही संभव है, जो साधना से कम नहीं है. आप प्रेम की बात भी लिखिए और अपना अटल इरादा जताइए कि आप प्रेम के रास्ते से डिगने वाले नहीं हैं तो भी वे आप को क्रोध न करने की सलाह दे जायेंगे. है न ये असली  बात-बेबात.
ऐसी ही एक टिप्पडी के लोमहर्षक लोभ में मैं एक दिन फँस गया. पलक जी लिख गयीं/ गए थे कि आज रात पढ़िए पता नहीं क्या याद नहीं. रात की बात थी सो मैं सकुचाते- सहमते चोरी-चुपके पहुँच ही गया. पर भाई साहब क्या बताऊँ, रात तो ख़राब हुई ही, एक टिप्पडी भी गंवानी पड़ी. गंवानी इसलिए पड़ी कि मैंने लिखी तो पर उन्हें क़ुबूल नहीं हुई. खैर बहुत रात हो गयी है, बिजली आ-जा रही है, मैं कोई  चांस नहीं लेना  चाहता. कहीं मेरी इस रचना  का कबाड़ा न हो जाय, इससे  पहले इसे सहेजता हूँ और चलता हूँ. ब्लागबाजी जिंदाबाद.    

डा सुभाष राय की कवितायेँ पढ़ें

सृजनगाथा पर

अनुभूति  पर

 कृत्या पर

बुधवार, 2 जून 2010

लाल किले को ममता का धक्का

पश्चिम बंगाल के क्रांतिकारी वामपंथी ममता बनर्जी की रेल के नीचे आ गये हैं। उनका कचूमर निकल गया है लेकिन वे धूल झाड़कर फिर खड़े होने की कोशिश कर रहे हैं। बहाने बना रहे हैं। अब भी हकीकत से आमना-सामना करने की जगह एक नया झूठ गढ़ने में जुट गये हैं। कह रहे हैं कि नगरपालिका चुनाव को कोई पैमाना न समझो, विधानसभा में लाल सेना ही जीत कर आयेगी। जब नंदीग्राम और सिंगुर में किसानों का संग्राम चल रहा था और मार्क्स, लेनिन , स्टालिन और माओ की विरासत के दावेदार सत्ता के गुंडे बिना विचारे बेचारे गरीब किसानों पर लाठियां, गोलियां चला रहे थे, उसी दिन उनके भविष्य की पटकथा लिख दी गयी थी।

उन्हें हो सकता हो उसका अंदाज न हुआ हो। यह कोई हैरत की बात नहीं है। अक्सर क्रांतिकारी जब सत्ता में आ जाते हैं तो परम विस्मृति में चले जाते हैं। क्रांति के पहले भी सत्ता ही ध्येय होती है और क्रांति के बाद भी। पश्चिम बंगाल वामपंथियों की प्रयोग-भूमि रही है और यहां वे तोकतांत्रिक क्रांति के माध्यम से सत्ता में आये थे। भारत जैसे बहुसांस्कृतिक देश के किसी राज्य में वामपंथियों का सफल होना थोड़ा आश्चर्यजनक था, इसीलिए वाम नायकों ने राज्य की सत्ता पर अपनी पकड़ बनाये रखने के लिए विकास और जनहितकारी योजनाओं का सहारा नहीं लिया बल्कि समूचे सरकारी तंत्र का वामपंथीकरण करके निश्चिंत बैठ गये।

कुर्सी बड़ी प्यारी और लुभावनी चीज होती है। वह अक्सर लोगों को आरामतलब बना देती है, जनता से दूर कर देती है। यहां अपवादों की बात नहीं की जा रही है लेकिन अक्सर भारत की राजनीति में ऐसा होता दिखायी पड़ा है। जेपी के आंदोलन में तपकर निकली जनता पार्टी की सरकार का क्या हश्र हुआ, किसी से छिपा नहीं है। वाम नेताओं में तपस्वियों की कमी नहीं थी। अनेक ऐसे लोग थे, जिन्होंने उस आदर्श का निर्वाह किया, बड़े पदों पर पहुंचकर भी कठिन जीवन चुना पर सभी ऐसे नहीं थे। सत्ता आती है तो धन भी आता है, वैभव भी आता है और पद का प्रभामंडल भी बनता है। यह सारी चीजें जनता तक पहुंचने से रोकती हैं। कांग्रेस के कमजोर हो जाने के बाद उनके खिलाफ कोई तगड़ा विकल्प भी नहीं था, इसलिए सत्ता को उन्होंने अपनी बपौती मान ली। रही भी लंबे समय तक। लेकिन इस वाम शासन में पश्चिम बंगाल कितना आगे गया, सभी जानते हैं।

नक्सली समस्या भी वाम सरकार की उदासीनता का ही परिणाम है। नंदीग्राम और सिंगुर में उन्होंने जो कुछ किया, उससे अपने सफाये का रास्ता ही सुनिश्चित कर दिया। विख्यात साहित्यकार महाश्वेता देवी को कहना पड़ा, अब इस सरकार को जाना ही चाहिए। उनकी बात सच साबित होने जा रही है। ममता बनर्जी को नगरपालिका चुनावों में जैसा जनसमर्थन मिला है, वह संकेत है कि अगले विधानसभा चुनाव में यह लाल किला ढह जाने वाला है। कोलकाता महापालिका पर ममता का झंडा फहरा रहा है, अब राइटर्स बिल्डिंग की बारी है।

मंगलवार, 1 जून 2010

राजनीति के असली चेहरे

प्रकाश झा की नयी फिल्म राजनीति बनकर तैयार है। एक-दो दिन में रिलीज होने वाली है। इस पर तमाम तरह की बातें कही जा रही हैं। कुछ लोगों ने इसका प्रदर्शन रोकने के लिए हाई कोर्ट में याचिकाएं भी दायर की थीं मगर अदालत ने उनकी बात सुनी नहीं। छुटभैये कांग्रेसियों का कहना है कि इस फिल्म में सोनिया गांधी को घसीटने और उन्हें अपमानजनक तरीके से दिखाने की कोशिश की गयी है। एक पटकथालेखक अपनी अर्जी लेकर कोर्ट गये थे कि झा ने उनकी कहानी चुरा ली है लेकिन दोनों याचिकाएं कोर्ट ने ठुकरा दी।
अब न झा के सामने कोई अवरोध रह गया है, न ही उनकी फिल्म राजनीति के सामने। अक्सर प्रकाश झा की फिल्मों को लेकर विवाद खड़ा होता रहा है। जब कोई भी फिल्मकार साहस करके समकालीन जीवन की विसंगतियों, बुराइयों और पाखंड को फिल्म के जरिये दिखाना चाहता है तो यह संभावना बनी रहती है कि असल जीवन के कुछ चरित्र उसमें इस तरह आ जायें कि वे पहचाने जा सकें। तभी तो दर्शक फिल्म के संदेश को पकड़ पाता है। झा मुंबई आये थे, पेंटर बनने की ख्वाहिश लेकर लेकिन उनके भीतर बैठा कलाकार उन्हें अपने रास्ते पर खींच ले गया।

पहली बार वे तब जबर्दस्त चर्चा में आये, जब उन्होंने बिहारशरीफ के दंगों पर एक डाक्यूमेंट्री बनाई। उसका नाम था-द फेसेस आफ्टर स्टार्म। इस पर सरकार ने बैन लगा दिया लेकिन बाद में इसे राष्ट्रीय पुरस्कार मिला। उनकी एक फिल्म पर लालू यादव के एक रिश्तेदार और उनके समर्थकों ने भी बड़ा बावेला मचाया था। आरोप लगाया गया था कि फिल्म में उन्हें इस तरह पेश किया गया है, जो उनके राजनीतिक करियर के लिए घातक साबित हो सकता है।

अगर जीवन में विद्रूपता है, पाखंड है, आडंबर है तो असली चेहरे उघाड़ने वालों के लिए तो जोखिम बना ही रहेगा। प्रकाश झा ने यह जोखिम बार-बार उठाया और विरोध झेला। बाद में उन्हें कामयाबी भी मिली। चूंकि वे बिहार से आये थे इसलिए वहां के जीवन की विसंगतियों का उन्हें गहरा ज्ञान था। उन्होंने बिहार की सामाजिक, राजनीतिक परिस्थितियों पर कई फिल्में बनायी और वे खूब चर्चित रहीं। मृत्युदंड और गंगाजल ऐसी ही फिल्में थी। बंधुआ मजदूरों की जिंदगी पर उनकी फिल्म दामुल ने भी बहुत दर्शक बटोरे। अब राजनीति की बारी है। देखना है प्रकाश राजनीति के असली चेहरे को कितना नंगा कर पाते हैं।

नजर राजेश की नजर में

हाँ, मित्रवर राजेश उत्साही अपने बारे में कहते हैं--जीवन की सार्थकता की तलाश जारी है। 26 साल तक एकलव्‍य संस्‍था में होशंगाबाद, भोपाल में काम। बाल विज्ञान पत्रिका चकमक का सत्रह साल तक संपादन। स्रोत,संदर्भ,गुल्‍लक,पलाश,प्रारम्‍भ के संपादन से जुड़ा रहा। एकलव्‍य के प्रकाश्‍ान कार्यक्रम में योगदान। बच्‍चों के लिए साहित्‍य तैयार करने की कई कार्यशालाओं में स्रोतव्‍यक्ति की भूमिका। हाल-फिलहाल बंगलौर में हूं। तीन ब्‍लागों- गुल्‍लक, यायावरी और गुलमोहर- के माध्‍यम से दुनिया से मुखातिब हूं।
पर यहाँ मैंने उन्हें आप सबके सामने पेश किया है, इसलिए कि उन्होंने मशहूर शायर नजर एटवी को जिस बेपनाह मुहब्बत के साथ अपने ब्लॉग गुल्लक पर पेश किया है, उस पर आप सबकी नजर जा सके. आइये राजेश उत्साही से ही सुनते हैं----

तुम तो ठहरे ही रहे झील के पानी की तरह
दरिया बनते तो बहुत दूर निकल सकते थे

जी नहीं। यह कलाम मेरा नहीं है। पर फिर न जाने क्यों मुझे लगता है जैसे शायर ने मुझ पर लिखा है। मैं 27 साल तक बस एक ही जगह बैठा रहा, यानी काम यानी नौकरी करता रहा। आज जब वहां से विस्थापित हुआ तो कुछ ऐसा ही लगता है जैसा इस शेर में कहा गया है। जब से मैंने इसे पढ़ा है उठते-बैठते,सोते-जागते बस यही दिमाग में घूमता रहता है। जैसे किसी ने आइना दिखा दिया हो। असल में एक अच्‍छे शायर की शायद यही खूबी है कि वो जो लिखे वो पढ़ने वाले को अपना ही लगे।
यह कलाम है एटा,उप्र के मशहूर शायर नज़र एटवी साहब का। मेरे लिए यह अफसोस की बात है कि उनसे यानी उनकी शायरी से मुलाकात तब हुई जब वे इस दुनिया से रुखसत कर चुके हैं। उनकी शायरी पढ़कर मुझे दुष्यंत याद आ गए। मैं यहां तुलना नहीं कर रहा। पर जिस सादगी से दुष्यंत अपनी बात कह गए हैं वही नज़र साहब की गज़लों में नजर आती है। एक और शेर देखिए-

खाई है कसम तुमने वापिस नहीं लौटोगे
       कश्ती को जला देना जब पार उतर जाना

शायर कसम याद भी दिला रहा है और ताना भी दे रहा और चुनौती भी। उनकी शायरी में समकालीन समाज की हकीकत भी है-
हादसे इतने जियादा थे वतन में अपने
खून से छप के भी अख़बार निकल सकते थे

और अपने प्रिय के लिए उलाहना भी-

तेरे लिए जहमत है मेरे लिए नजराना
जुगनू की तरह आना, खुशबू की तरह जाना

उर्दू मुशायरों पर वे लगातार 35 साल से छाए हुए थे। विदेशों से भी उन्हें मुशायरों में बुलाया जाता था। वे खुद भी अदबी गोष्ठियां और मुशायरे करते रहते थे और हमेशा इस बात का ख्याल रखते थे कि उसका मयार और संजीदगी कायम रहे। उन्होंने कुछ समय तक लकीर नाम से एक अख़बार भी निकाला।

नजर एटवी का जन्म 28 फरवरी 1953 को एटा में हुआ था। एटा से ही उन्होंने बीए किया। पहले उनकी दिलचस्पी फिल्मों में थी। 1972 में वे उर्दू शायरी की ओर मुड़े और बहुत जल्दी वहां अपना बेहतर मुकाम बना लिया।

एक मई 2010 के दिन , उन्हें वक्त हमसे छीन ले गया। उनकी शायरी से लगता है वे मजदूर शायर थे। इसलिए शायद उन्होंने अपनी रुखसती के लिए यही मकबूल दिन चुना। उनका एक संग्रह साया हुआ है- उसका उन्वान है, सीपनज़र साहब जैसे हमसे कह गए हैं-

मुझसे ये कह के सो गया सूरज
अब चरागों की जिम्मेदारी है

नज़र साहब और उनकी शायरी को सलाम।
उनके संग्रह सीप से तीन गज़लें यहां पेश हैं। इन गज़लों को उपलब्धं कराने के लिए मैं डा.सुभाष राय का आभारी हूं। असल में यह सारी जानकारी भी सुभाष जी की एक पोस्टं से ही मिली है। जो नुक्कड़ और उनके अपने ब्लाग बात-बेबात पर है। यह जानकारी भी आगरा  के एक और मकबूल शायर शाहिद नदीम जी ने सुभाष जी तक पहुंचाई। नदीम जी,सुभाष जी और अविनाश भाई को धन्यवाद। नज़र साहब की तीन और गज़लें बात-बेबात या नुक्कड़ पर पढ़ सकते हैं।


1.
जाने किसने मुझे संभाला था
मैं बलंदी से गिरने वाला था

उसकी तनहाइयों के खेमों में
मैं नहीं था मेरा उजाला था

वो अमीरों पे ले गया सबकत
जिस भिखारी को तुमने पाला था

बाहर आता मैं उस खंडहर से क्या
हर तरफ मकड़ियों का जाला था

होट मेरे सिले हुए तो न थे
उसने मुझ पर दबाव डाला था

हाथ सूरज पे रख दिया मैंने
एक पत्थर पिघलने वाला था

मैंने ख्वाबों का एक गुलदस्ता
जिंदगी की तरफ उछाला था

2.
हकीकतों को फरामोश कर गये हालात
ये कैसी आग मेरे दिल में भर गये हालात

खामोशियों की सदाएं हैं और कुछ भी नहीं
ये किस मकाम पर आकर ठहर गये हालात

तुझे खबर ही नहीं मुझको भूलने वाले
तेरी जुदाई में क्या-क्या गुजर गये हालात

हमें बतायेंगे जीने का मुद्दआ क्या है
हमारे हक में कभी भी अगर गये हालात

हमारे हाल का और अपना जायजा लेकर
तुम्हीं बताओ के किसके संवर गये हालात

जमाने को तो हुआ इल्म इक जमाने में
मेरी निगाह से पहले गुजर गये हालात

ये इत्तेफाक तेरे शह्र में हुआ अक्सर
मैं जिस मकाम पे ठहरा, ठहर गये हालात

3.
कहकहे भी कमाल करते हैं
आंसुओं से सवाल करते हैं

ऐसे पत्थर भी हैं यहां जिनकी
आईने देखभाल करते हैं

कद्र लम्हों की जो नहीं करते
जिंदगी भर मलाल करते हैं

जिनकी तारीख पर निगाहें हैं
फैसले बेमिसाल करते हैं

सब्र करना जिन्हें नहीं आता
गम उन्हें ही निढाल करते हैं

प्यार है एक खूबसूरत शेर
शरहे हिज्रो विसाल करते हैं 

हम किसी भी खयाल में हों मगर
वो हमारा खयाल करते हैं