एक सवाल है आखिर आजादी के मायने क्या हैं? चूंकि हम एक आजाद मुल्क में रहते हैं, इसलिए आम तौर पर लोग समझते हैं कि उनकी आजादी असीमित है। वे कुछ भी बोल सकते हैं, कुछ भी लिख सकते हैं, कुछ भी कर सकते हैं। जो लोग कुछ भी कर सकने की आजादी को अपना अधिकार मानते हैं, वे अक्सर अपराधी हो जाते हैं। क्या कोई किसी को गाली देने के लिए आजाद है, किसी की पिटाई करने के लिए आजाद है? बलात्कार, हत्या करने के लिए आजाद है? नहीं, आजादी की सार्थकता उसकी सीमा से ही तय होती है। असीमित आजादी अत्याचार, दमन और जुल्म की जमीन तैयार करती है।
आप को एक कहानी सुनाऊं। एक हिंदुस्तानी अमेरिका गया। हवाई अड्डे से बाहर आते ही उसे एक बोर्ड दिखा, जिस पर लिखा था, द लैंड आफ फ्री पीपल, यानि आजाद लोगों की जमीन। वह मुसाफिर खुश हो गया। अकेला था, इसलिए पूरी आजादी के साथ कूदता-फांदता, नाचता-गाता सड़क पर निकल पड़ा। यातायात अवरुद्ध हो गया, अफरा-तफरी मच गयी। अचानक एक अमेरिकन की नाक से उसका हाथ टकराया। उसने हिंदुस्तानी मुसाफिर को रोका और पूछा, यह क्या कर रहे हो? उसने जवाब दिया, यह आजाद लोगों की भूमि है और मैं उसी आजादी का फायदा उठा रहा हूं। अमेरिकन बोला, मिस्टर, योर फ्रीडम इन्ड्स, ह्वेयर माई नोज बिगिन्स। मतलब जहां मेरी नाक शुरू होती है, वहां तुम्हारी आजादी खत्म हो जाती है।
कहने का आशय यह कि आजादी भी संजीदगी की मांग करती है। किसी दूसरे व्यक्ति के अधिकारों में दखलंदाजी का हक आजादी नहीं देती, कानून तोड़ने का अधिकार आजादी नहीं देती। आजादी अपने तटों के भीतर बहती नदी की तरह है, जिसमें गति है, प्रवाह है, माधुर्य और सौंदर्य है। तटों के बाहर बहती नदी किसे अच्छी लगती है। वह तो खेतों को डुबो देती है, फसलें तबाह कर देती है, लोगों को घर छोड़कर भागने को मजबूर कर देती है। इसी तरह आजादी का भी संजीदा इस्तेमाल व्यक्ति को, समाज को, देश को संस्कृत और सभ्य बनाये रखता है, सद्भाव से लबरेज स्वस्थ समाज का निर्माण करता है।
आजकल लेखक, पत्रकार आम तौर पर सामान्य लोगों से ज्यादा आजादी चाहते हैं। वैसे तो अघोषित और अलिखित तौर पर ऐसी आजादी उन्हें हासिल है लेकिन कई बार वे उस सीमा को भी लांघने की कोशिश करते हैं। जैसा कश्मीर के एक उर्दू अखबार ने किया। आजादी के मायने किसी को अपमानित करने की गारंटी मिल जाना नहीं है। उसने सोनिया गांधी की तस्वीर पर अनर्गल परिचय लगा दिया। यह अनुचित है। आप को विशेष अधिकार हैं लेकिन उसका इस्तेमाल व्यापक जनहित के लिए होना चाहिए, न कि किसी को बेइज्जत करने के लिए, किसी को धमकाने के लिए या जबरन फिरौती वसूलने के लिए। ऐसे पत्रकारों को कठघरे में खड़ा किया जाना चाहिए।
लेखन और अभिव्यक्ति का एक नया माध्यम ब्लाग आजकल बहुत लोकप्रिय हो गया है। इसके फायदे भी हैं। इस तरह हिंदी इंटरनेट पर अंग्रेजी के साम्राज्य में सेंध लगाने में कामयाब हो रही है, हमारी अपनी भाषा का व्यापक प्रचार-प्रसार हो रहा है परंतु ब्लागिंग के कई अंधेरे कोने भी उजागर हो रहे हैं। यह एक ऐसा माध्यम है, जिस पर आप के लिखे हुए को संपादित करने वाला कोई नहीं होता। आप जो चाहें, लिखें और प्रकाशित कर दें। इस असीमित आजादी का व्यापक जनजागरण में इस्तेमाल किया जा सकता है, अन्याय, दमन और अत्याचार के संगठित विरोध के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है, सामाजिक बुराइयों के मूलोच्छेद के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है, अगली पीढ़ी के चारित्रिक सौष्ठव को निखारने में और उनमें संकल्प,दृढ़ता और नैतिक ताकत भरने में इस्तेमाल किया जा सकता है। सुंदर और सुष्ठु भाषा के प्रयोग से अपनी भाषा और साहित्य को न केवल समृद्ध किया जा सकता है, बल्कि उसके सौंदर्य की सुगंध दूर-दूर तक पहुंचायी जा सकती है।
पर हिंदी ब्लागर्स का ध्यान इस तरफ नहीं है। बेशक कुछ लोग बहुत गंभीरता से सही दिशा में सक्रिय हैं, अच्छे साहित्य का संग्रह कर रहे हैं, बेहतर विचारों का प्रसार कर रहे हैं, बदलाव की दिशा में ब्लाग का रचनात्मक इस्तेमाल कर रहे हैं पर अधिकांश ब्लागबाज हंसी-मजाक, चुटकुलेबाजी में मस्त हैं। बेहद कमजोर और अनर्गल सामग्री भी पेश की जा रही है। भाषा के भदेस होते जाने का खतरा पैदा हो गया है। गाली-गलौज भी हो रही है। हाल में ब्लाग जगत को रचनात्मक बनाने के लिए निरंतर जुटे रहने वाले मेरे प्रिय दोस्त और मशहूर ब्लागर अविनाश वाचस्पति ने सबका ध्यान कथाक्रम के संपादकीय की ओर दिलाया था। मैं नहीं मानता कि कथाक्रम की चिंता बिल्कुल खारिज करने लायक थी। ब्लाग जगत के घुम्मकड़ों को यह सच अच्छी तरह मालूम होगा कि दस में से एक सार्थक ब्लाग मिल जाये तो अपना सौभाग्य मानिये। इसीलिए कभी मृणाल पांडेय इसे नियतिहीन कोना कहकर निकल जाती हैं तो कभी शैलेंद्र सागर कतिपय ब्लागों की भाषा और कथ्य की सड़ांध से विचलित हो जाते हैं।
इतने बड़े और सशक्त माध्यम को नष्ट होने से बचाना उन सबका कर्तव्य है, जो ब्लाग के रचनात्मक और सकारात्मक उपयोग में विश्वास करते हैं और यह समझते हैं कि यह केवल फुरसत में मनोरंजन का साधन भर नहीं है बल्कि यह भविष्य के महासमर में एक तीक्ष्ण हथियार की तरह काम आने वाला है।
सुभाष भाई। आपकी यह पोस्ट पढ़कर बहुत अच्छा लगा। मैं आपकी बातों से सौ प्रतिशत सहमत हूं। शैलेन्द्र सागर जी का सम्पादकीय मैं पढ़ नहीं पाया हूं,पर जितना उसके बारे में सुना है उससे यही लगता है कि वे पूरी तरह सही नहीं हों तो पूरी तरह गलत भी नहीं हैं। असल में उन जैसे लोगों को हम ब्लागरों को डाक्टर की तरह देखना चाहिए। एक डाक्टर ही आपकी कमजोरियों और बीमारियों के बारे में बताता है। आपकी इस पोस्ट की आखिरी की तीन लाइनें मुझे लगता है कि एक ऐसे उवाच की तरह हैं जिन्हें हर ब्लागर को अपने ब्लाग पर लगाना चाहिए।
जवाब देंहटाएंआपने अमेरिका का जो उदाहरण लिया है। वह यहां भी लागू होता है। हर ब्लागर की आजादी वहीं तक है जहां दूसरे ब्लागर की नाक शुरू होती है। तो न केवल अपनी नाक का ख्याल रखना है वरन दूसरे की नाक की भी इज्जत करनी है।
सच ही कहा आपने कि आजादी का अर्थ स्व्च्छ्दंता नहीं हुआ करता |आलेख वास्तव में सार्थक है और आज के समय में ऐसे ही आलेखों की आवश्यकता है|बधाई
जवाब देंहटाएंबढ़िया आलेख |
जवाब देंहटाएंsamay sabko chhanfatak kar sahi kar dega. aap chintit n hon. ye jo ho rahaa hai ye bhee zaroori hai. khair aapne satik lokha badhiya laga.
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