रचना चाहे कोई भी हो, आसान नहीं होती। किसी नयी रचना के लिए कुछ पुराना तोड़ना पड़ता है। जब कुछ ध्वस्त होता है तो रचना की जमीन बनती है। इसे दूसरी तरह से भी कह सकते हैं कि जब रचना होती है तो कुछ ध्वस्त होता है। अंकुर बाहर निकले, इसके लिए बीज को नष्ट होना होता है, उसी की ऊर्जा से अंकुर आसमान की ओर उठता है। कई बार नये पौधे को उगने का पथ प्रशस्त करने के लिए पूरा वृक्ष ही नष्ट हो जाता है। प्रकृति ने ऐसी व्यवस्था कर रखी है।
प्रकृति सबसे बड़ी रचनाकार है। उसकी प्रयोगशाला में निरंतर विध्वंस और रचना की प्रक्रिया चलती रहती है। टूटना, बिखरना, गलना अपने चारो ओर आप निरंतर घटित होते देख सकते हैं। परंतु प्रकृति का चरम सौंदर्य इसी में है कि वह हर विनाश पर रचना का नया महल खड़ा करती है। जंगल जब दावानल में भस्म हो जाता है तो पानी पड़ते ही उन्हीं पुरानी जड़ों से नयी कोंपलें फूट पड़ती हैं। चारों ओर हरियाली छा जाती है। नदी जब कभी अपने तटों से बाहर आ जाती है तो तबाही तो मचाती है लेकिन जैसे ही उसका पानी उतरता है, वहां बहकर आयी उपजाऊ मिट्टी में से जीवन फूट निकलता है। यही प्रकृति का नियम है।
शब्द आकाश का गुण है। हमें प्रकृति ने शब्द दिया है, व्यवहार में एक दूसरे से अपनी भावनाएं प्रकट करने के लिए लेकिन शब्द की शक्ति अपरिमित है। शब्दों का शिल्पी उस शक्ति को, उस ऊर्जा को पहचानता है और उसका सही उपयोग करता है। वह शब्दों से एक नयी दुनिया रचता है। जिसको रचना की यह कला मिली होती है, वही उसका प्रयोग कर सकता है। अभ्यास से उसे और प्रखर कर सकता है, मारक और तेजस्वी बना सकता है। रचनाकार इन्हीं अर्थों में जन्म लेता है। अगर जन्म से प्रतिभा नहीं मिली है तो कोशिश करके रचना करना संभव नहीं है।
कोशिश एक साहित्यकार को निखार तो सकती है, मगर केवल कोशिश किसी को साहित्यकार नहीं बना सकती। यह मां के गर्भ में मिला दैवीय वरदान होता है। किसी किसी को यह ताकत मिलती है। इसीलिए तो समाज साहित्यकारों का सम्मान करता है। पर यह सम्मान भी उसे तभी तक मिलता है, जब तक वह अपनी प्रतिभा का जीवन और समाज के परिष्करण में इस्तेमाल करता है। शक्ति अक्सर भटकाव की ओर ले जाती है। यश, धन और सौंदर्य के तमाम आकर्षण रास्ते में खड़े मिलते हैं पर रचनाकार को एक योगी की तरह आगे बढ़ना होता है, एक साधक की तरह मोहावेश से बचकर निकलना होता है। जो ऐसा कर पाते हैं, वे बड़े हो जाते हैं, जो भटक जाते हैं, व्यक्तिगत सुख को समाज के सुख से ऊपर रखकर देखने लगते हैं, वे इस वरदान से वंचित हो जाते हैं, उनकी रचना की शक्ति धीरे-धीरे क्षीण होकर नष्ट हो जाती है।
शक्ति अक्सर भटकाव की ओर ले जाती है। यश, धन और सौंदर्य के तमाम आकर्षण रास्ते में खड़े मिलते हैं पर रचनाकार को एक योगी की तरह आगे बढ़ना होता है, एक साधक की तरह मोहावेश से बचकर निकलना होता है। जो ऐसा कर पाते हैं, वे बड़े हो जाते हैं, जो भटक जाते हैं, व्यक्तिगत सुख को समाज के सुख से ऊपर रखकर देखने लगते हैं, वे इस वरदान से वंचित हो जाते हैं, उनकी रचना की शक्ति धीरे-धीरे क्षीण होकर नष्ट हो जाती है।
जवाब देंहटाएं...एक सार्थक पोस्ट !
सर, प्रणाम। कविता लिखना ओर पतंग उड़ाना एक जैसा ही होता है। जिसको आता है उसको आता है जिसको नहीं आता उसको नहीं आता। यह पैदाइशी लक्षण होता है। बाद में नहीं सीखा जा सकता। बहुत अच्छी और सार्थक पोस्ट है। बहुत सी जानकारी प्राप्त होती है।
जवाब देंहटाएंबढ़िया है... मैं तो 'रचना' नाम सुनते ही चौंक गया था!
जवाब देंहटाएंThanks Maria, I am not only happy but surprised to see your comment on this post written in Hindi. Do u know Hindi or get it translated for your consumption. Thanks to net which has made a new world beyond language and boundries' bar.
जवाब देंहटाएंसही है रचना की प्रतिभा जन्मजात नहीं होती इसके लिये साधना तो करनी ही होती है । सही रचनाकार भी वही होता है जो सार्थक परिश्रम करता है ।
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया आलेख ! आपने बेहद सुन्दर तरीके से हम सब का मार्गदर्शन किया है ..........यही सच है कि आज कल हम सब अपनी अपनी उर्जा रचना में नहीं बल्कि विध्वंस की और ज्यादा लगा रहे है ! इस आदत को बदलना होगा !
जवाब देंहटाएंबढिया लिखा है। बधाई।
जवाब देंहटाएंरचना की प्रतिभा जन्मजात ही होती है ...हाँ , अभ्यास और प्रयास से इसे निखारा जा सकता है ...!!
जवाब देंहटाएंबढ़िया आलेख, बेहद सुन्दर बधाई।
जवाब देंहटाएंbahut hi sunder aalekh.sargarbhit va anukaraniya.
जवाब देंहटाएंविचारणीय पोस्ट !!!
जवाब देंहटाएं@pankaj mishra-
जवाब देंहटाएं"कविता लिखना ओर पतंग उड़ाना एक जैसा ही होता है। जिसको आता है उसको आता है जिसको नहीं आता उसको नहीं आता। यह पैदाइशी लक्षण होता है। बाद में नहीं सीखा जा सकता। "
Mai aapki baato se bilkul shahamat hu.
साधना के बिना भी कभी कुछ हासिल हुआ है क्या...जय हो
जवाब देंहटाएंबिना साधना के कुछ हासिल नहीं होता |बहुत सही लिखा है |अच्छी रचना के लिए बधाई |
जवाब देंहटाएंआशा
Sadhana safalta ke liye jaroori hai parantu ek baat hame to samajh nahi padti hai ji, hamne to suna hai :
जवाब देंहटाएंAjgar kare na chakari, panchi kare na kaam |
Sant maluka kah gaye, sab ke data raam ||
प्रकृति सबसे बड़ी रचनाकार है। उसकी प्रयोगशाला में निरंतर विध्वंस और रचना की प्रक्रिया चलती रहती है। टूटना, बिखरना, गलना अपने चारो ओर आप निरंतर घटित होते देख सकते हैं।
जवाब देंहटाएंयही कुछ तो हमारे मन में भी चलता रहता है , एक रचनाकार हर टूटन से कुछ नया गढ़ लेता है ...बहुत अच्छा सटीक लिखा है ...
प्रकृति सबसे बड़ी रचनाकार है। उसकी प्रयोगशाला में निरंतर विध्वंस और रचना की प्रक्रिया चलती रहती है। टूटना, बिखरना, गलना अपने चारो ओर आप निरंतर घटित होते देख सकते हैं। परंतु प्रकृति का चरम सौंदर्य इसी में है कि वह हर विनाश पर रचना का नया महल खड़ा करती है।
जवाब देंहटाएं..सच प्रकृति से बड़ा रचनाकार कोई नहीं.. रचनाकार भी निरंतर साधना के बल पर ही सार्थक रचना करने में सक्षम होता है...
बहुत बढ़िया आलेख....आभार
बहुत ही अच्छा और सुन्दर लेख लिखा आप ने, बधाई........
जवाब देंहटाएंVery Very Nice Blog Thanks for sharing with us
जवाब देंहटाएंVery nice thought
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