गुरुवार, 3 जून 2010

व्यंग्य पर व्यंग्य

लिखना ही है तो टिप्पड़ियां लिखिए 
बड़ी दर्दनाक बात है. मन दहल जाता  है सुनकर. मुल्क में तमाम समस्याएं है. गरीबी की समस्या, महंगाई  की समस्या, सरकार बनाने की समस्या और सरकार बन गयी तो उसे चलाने की समस्या. समस्याओं का अम्बार है. लगता है जैसे हम सब किसी समस्या महल में बैठे हैं या फिर हमारा मुल्क ही  एक बड़ी समस्या है. सदियों से चली आ रही इन पारंपरिक समस्याओं के अलावा आजकल कुछ  नूतन किस्म की समस्याएं भी सामने आ रहीं हैं.     

लोग धडाधड ब्लॉग बना रहे हैं. अब ब्लॉग तो बन गया, लिखें क्या. लिखने की ज्वलंत समस्या है. इस समस्या पर कुछ मित्र विचार करने में जुटे हैं. वे क्या लिखें पर ही इतना लिख डालते हैं कि पढने की समस्या पैदा हो जाती है. पढने की आदत तो वैसे ही हमने बिगाड़  ली है. सोचते हैं कि बिना पढ़े काम चल जाय तो पढने की जहमत कौन मोल ले. नहीं पढने से भी कई बार समस्या पैदा हो जाती है. हमारे रूप  चन्द्र शास्त्री जी ने अविनाशजी के नुक्कड़  पर नजर साहब के निधन की खबर पढ़ी और इतने दुखी हुए कि आनन्-फानन में खबर लिखने वाले को ही श्रद्धांजलि  दे डाली. राजेश उत्साही मौके पर नहीं पहुचते तो शाहिद नदीम साहब को फिर से होश में लाना मुश्किल हो जाता.हाँ तो मैं लिखने की समस्या पर बात कर रहा था. अभी जनाब शाहनवाज  सिद्दीकी  ने इस पर गंभीर मंथन किया. उनके मंथन को हरिभूमि ने छापा. छापने के पहले किसी संपादक ने जरूर पढ़ा होगा. पता नहीं उन्होंने उसे नींद में पढ़ा या बिजली चली जाने के बाद जल्दी-जल्दी निपटा दिया. जो भी हो लेकिन जैसे छापा  उससे लगता है कि वे भी न पढने की समस्या से पीड़ित होंगे. अगर पढ़ते तो शाहनवाज  को इतना तो कहते कि भाई इसे मैंने रख लिया है, जो लिखा वो तो ले आओ?

असल में संपादक लोग भी आजकल केवल लिखते हैं, पढ़ते नहीं. लिखने से फुरसत   मिले तब तो पढ़ें. उनका काम तो लिखना है, पढने में व्यर्थ समय क्यों गंवाएं. अगर वे पढ़ते होते तो अख़बारों में अंट-शंट कैसे छपता और अंट-शंट न छपता तो वे पिटते  नहीं और पिटते नहीं तो उन्हें नेतागीरी का मौका कैसे  मिलता . आखिर पत्रकारों को भी तो कुछ नेता चाहिए. देश कि अमूल्य निधि तो नेता ही हैं जो बिना पटरी और डिब्बे के अपनी रेल चला रहे हैं.
मैं बहक रहा हूँ. क्या करूँ, जबसे पलक  जी  के पुलकित हूँ मैं पर पहुंचा हूँ, तब से ऐसे-वैसे बहक रहा हूँ. पुल्लिंग और  स्त्रीलिंग का भेद नहीं कर पा रहा हूँ. वैसे वे जो भी हों उनका लिखना बड़ा मरदाना है. बड़े-बड़े वहां घुटने टेक रहे हैं. फिजूल की घनचक्कर रस से ओत-प्रोत  रचनाओ पर भी टिप्पड़ियों की बौछार  लगी  हुई है. उनकी रचनाएँ पढ़कर मैं पगला गया हूँ. कल दफ्तर  की छुट्टी थी फिर भी मैं वहां  पहुँच गया. घंटी बजाता रहा. किसी चपरासी के न आने पर नाराज हो गया. बाहर निकलने के लिए लिफ्ट  में बैठा और उपरी तले  पर जा पहुंचा. घर आया तो बहुत प्यास लगी थी, मैडम ने पानी के जग में कड़वा तेल रखा था, गटागट  पी गया. फिर क्या हुआ, न पूछिए पर बड़ी हिम्मत करके लिखने बैठा हूँ. मेरी भी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या लिखूं मगर शाहनवाज  की तरह आखिर तक चकमा नहीं दूंगा.

सोचता हूँ आप की इस समस्या का हल कर ही डालूं कि  क्या लिखें. मेरी बात मानिये तो अगर कुछ नहीं लिखने को हो तो टिप्पड़ियां लिखिए. उसके फायदे हैं. आप जिसके ब्लाग पर टिप्पडी करेंगे, वह शरमाते-शरमाते आप की गली  में भी आएगा ही. और आएगा तो कुछ  न कुछ तो दे ही जायेगा. मुझसे भी समझदार लोग हैं. वे पहले से ही यह काम कर रहे हैं. आप चाहें तो  एक सुंदर टिप्पडी किसी बड़े टिप्पडीखोर  लिक्खाड़ से बनवा लें और उसे ही सब जगह पेस्ट करते चलें. आचार्यजी, ऐसा कर रहे हैं. चाहे आप ने कोई कविता लिखी हो, या राजनीति पर कोई लेख या  फिर आतंकवाद पर कोई विचारोत्तेजक बात, वे आयेंगे और लिख जायेंगे--क्रोध पर विजय स्वाभाविक व्यवहार  से ही संभव है, जो साधना से कम नहीं है. आप प्रेम की बात भी लिखिए और अपना अटल इरादा जताइए कि आप प्रेम के रास्ते से डिगने वाले नहीं हैं तो भी वे आप को क्रोध न करने की सलाह दे जायेंगे. है न ये असली  बात-बेबात.
ऐसी ही एक टिप्पडी के लोमहर्षक लोभ में मैं एक दिन फँस गया. पलक जी लिख गयीं/ गए थे कि आज रात पढ़िए पता नहीं क्या याद नहीं. रात की बात थी सो मैं सकुचाते- सहमते चोरी-चुपके पहुँच ही गया. पर भाई साहब क्या बताऊँ, रात तो ख़राब हुई ही, एक टिप्पडी भी गंवानी पड़ी. गंवानी इसलिए पड़ी कि मैंने लिखी तो पर उन्हें क़ुबूल नहीं हुई. खैर बहुत रात हो गयी है, बिजली आ-जा रही है, मैं कोई  चांस नहीं लेना  चाहता. कहीं मेरी इस रचना  का कबाड़ा न हो जाय, इससे  पहले इसे सहेजता हूँ और चलता हूँ. ब्लागबाजी जिंदाबाद.    

13 टिप्‍पणियां:

  1. अच्छी विचारणीय प्रस्तुती ,सुभाष जी आप अच्छा सोच रहें है ब्लॉग और ब्लोगिंग के बारे में इस पोस्ट से यह भी आभास होता है |

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  2. अच्छा लगा आपको पढ़कर। कुछ दिन पहले ये कुछ दोहे मैंने पोस्ट किया था -

    टिप्पणी पाने के लिए टिप्पणी करना सीख।
    बिन माँगे कुछ न मिले मिले माँगकर भीख।।

    पोस्ट जहाँ रचना हुई किया शुरू यह खेल।
    जहाँ तहाँ हर पोस्ट पर कुछ तो टिप्पणी ठेल।।

    कहता रचनाकार क्या, क्या इसके आयाम।
    "नाईस", "उम्दा" कुछ लिखें चल जाता है काम।।

    आरकुट और मेल से माँगें सबकी राय।
    कुछ टिप्पणी मिल जायेंगे करते रहें उपाय।।

    टिप्पणी ऐसी कुछ मिले मन का टूटे धीर।
    रोते रचनाकार वो होते जो गम्भीर।।

    संख्या टिप्पणी की बढ़े, बढ़ जायेगा मान।
    भले कथ्य विपरीत हों इस पर किसका ध्यान।।

    गलती भी दिख जाय तो देना नहीं सलाह।
    उलझेंगे कुछ इस तरह रोके सृजन प्रवाह।।

    सृजन-कर्म है साधना भाव हृदय के खास।
    व्यथित सुमन यह देखकर जब होता उपहास।।

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    www.manoramsuman.blogspot.com

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  3. ब्लागिंग में होने वाले खेल की पोल देने का बीड़ा उठा लिया आपने. जाने भी दीजिए, ८०% काम यूंही चल रहा है. दरअसल हम ने, कुछ लोगों को, जो पहले से ब्लोगिंग में जमे हुए थे, उन्हें सीनियर मान लिया. यह भी मान लिया कि अगर फलां साहब की टिप्पणी आ गई तो पोस्ट और पोस्टमैन (ब्लॉग स्वामी) दोनों कामयाब.
    शाहिद नदीम के साथ शास्त्री जी का व्यवहार एक बार फिर यह बता गया कि पोस्ट अध्ययन के प्रति हम कितने सजग हैं. यहाँ किसी को पढने की बजाए खुद को पढ़वाने और मनवाने की होड़ मची है, यह कारोबार यूंही जारी रहेगा.

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  4. सही लिख रहे हैं कि पढ़ने की आदत खत्म हो गयी है... वैसे बिना पढ़े लिखने वाले का स्तर उतना अच्छा नहीं हो सकता.. शास्त्री जी से ऐसी गलती कैसे हो गयी, मुझे आश्चर्य है... आचार्य जी तो सबको शांत कर रहे हैं... और पलक जी वाह वाह..

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  5. टिप्पणी के मारों को, जो मिल जाये उसी में खुश हैं
    इतना चिंतन की फुरसत किसे है ?

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  6. बड़ी दर्दनाक बात है. मन दहल जाता है.'
    वाकई कुछ ब्लाग पर दिल दहल जाता है. खासतौर से पुलकित के ब्लाग पर पुलक तो है ही नहीं.

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  7. सुभाष भाई आपकी यह बड़ी सी टिप्‍पणी पढ़कर सचमुच टिपयाने का मन करने लगा। आपने सही सही कह दिया सब कुछ । शु‍क्रिया। पर ब्‍लागर भी आखिर क्‍या करें। टिप्‍पणियां कहीं तो जो है कि हर पोस्‍ट शतक बनाती हैं। और कहीं जो है दहाई का अंक तो क्‍या पांच के पहले ही आउट हो जाती है। अगर टिप्‍पणियों के लिए उपाय नहीं करेंगे तो जीएंगे कैसे।
    माफ करें कल शाम को मैंने भी गुल्‍लक पर ऐसी एक पोस्‍ट लगाई है जिसका अर्थ निकलता है कि हम टिप्‍पणियों के लिए कटोरा लेकर घूम रहे हैं। आप भी एक टिप्‍पणी करेंगे तो आभार मानूंगा। पर जैसा कि मैंने कहा हम क्‍या करें। हां मेरी पोस्‍ट प्रायोजित नहीं है।
    आप अन्‍यथा न लें। अगर हम टिप्‍पणियों की ही बात करें तो नज़र साहब पर चार ब्‍लाग बात-बेबात,नुक्‍कड़,गुल्‍लक और मीडिया मंच पर पोस्‍ट शाया हुई। उनके लिए कुल मिलाकर दस लोगों के आंसू भी नहीं गिरे। आखिरकार हम कहां जा रहे हैं।
    सुभाष भाई माफ करें, आप यूं रातों को गलियों में भटकना बंद करिए। वरना भाभी जी को खबर तो हम कर ही देंगे।

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  8. सुभाष भाई देखिए मैंने तो भाभी जी को खबर नहीं की। पर लगता है उन्‍हें पता चल ही गया। इसीलिए वो गली ही गायब हो गई जहां आप भटक गए थे।

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  9. पानी की जगह कोई कडवा तैल कैसे पी सकता है? ऐसे दार्शनिक ब्‍लागर तो कुछ भी करेंगे।

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  10. आज बड़े चिन्तित नजर आये जनाब..सब तरफ एक साथ लपेट गये.

    वैसे कड़वा तेल कैसा लगा पी कर. :)

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  11. आप सबको पता है न । जब पेट खराब होता है तो जुलाब के लिए तेल पिया जाता है। सुभाष भाई ने वही किया। नतीजा सामने है। उनकी ताजा पोस्‍ट इससे भी ज्‍यादा मारक है। शुभकामनाएं।

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