शुक्रवार, 11 जून 2010

गाँव से आगे, गाँव के पीछे

गाँव खतरे में हैं. शहर धीरे-धीरे उन्हें निगल रहे  हैं. शहरों में अंग्रेजी है, बड़े बाज़ार हैं, खूब पैसा है. लोग वैभव भरी जिंदगी में मस्त हैं. कुछ भी खरीद सकते हैं. अच्छे से अच्छा फोन, बड़ी से बड़ी गाड़ी, खूबसूरत कपडे. मजदूर भी. शहर में केवल वैभव ही है, ऐसा नहीं. उसके भी दो चेहरे हैं. गरीब, मजदूर भी है और उसकी मेहनत को खरीदने वाला अमीर भी है. मजदूर की मजबूरी है, वह मामूली कीमत लेकर दिन-रात पसीना बहाता है और उसी का पसीना सम्पन्न लोगों की तिजोरी में सोना बनकर जमा होता है.

शहर बहुत ही कठोर है, निर्मम है, उद्धत है.वह पश्चिम के असर में है, वह अपने रंग में सबको रंगना चाहता है. जो राजी-ख़ुशी तैयार हों , उसके साथ नाचें , गाएं , सुख सुविधा पर पैसा लुटाएं  और यह न कर पायें  तो उसके उत्सव में दरी-गलीचा बिछाएं , झाड़ू लगायें , पसीना बहाकर उसका आनंद बढ़ाएं . जो शहर के इस नए संस्कार  का विरोध करता है, शहर या तो उसे  खरीदकर कचरे में डाल देता है या समूचा निगल जाता है. गाँव ललचाया हुआ भी है और संकोच में भी है. वह इस नए वैभव का मजा भी उठाना चाहता है और अपनी धोती भी नहीं उतारना चाहता. यह दुविधा बहुत प्रतिरोध करने की हालत में नहीं है, क्योंकि शहर में पढ़ रहे गाँव के बच्चों को धोती-कुरता बिल्कुल पसंद नहीं, वे रोटी-दाल  की जगह पिज्जा में ज्यादा दिलचस्पी लेने लगे हैं. इन्हीं की बांह पकड़कर शहर गाँव में घुस आया है. गाँव के समर्पण में अब ज्यादा देर नहीं दिखती.

मैं बहुत दिनों बाद गाँव गया. मैंने बस ड्राइवर  से कहा कि मुझे बड़ा गाँव उतार देना. उसने ऐसा ही किया, पर शायद उसे पता नहीं था कि वह जहाँ मुझे उतार रहा है, वह गाँव से एक किलोमीटर आगे कोई जगह है. मैं अपने गाँव को एक ऐसी जगह पर खड़ा होकर ढूंढ़ रहा था, जहाँ मेरी पहचान की कोई चीज नहीं थी. गलत फैसला किया और गाँव से दूर बढ़ गया. कुछ चलने के बाद भी गाँव नहीं आया तो मैंने चारों ओर आकाश के तट पर कोई पहचान तलाशनी शुरू की. थोड़ी देर बाद मेरे उजड़ गये बाग के कुछ पेड़ नजर आये,गाँव के बाहर जा  बसे यादव परिवार का घर दिखा.आश्चर्य मैं अपने गाँव  को ही नहीं पहचान पाया और दो किलोमीटर आगे चला गया. झिझकते-झिझकते वापस लौटा.

शहर से कम नहीं है मेरा गाँव. बड़ी-बड़ी कोठियां, कारें, टी वी, फ्रिज, बिजली  सब कुछ है. वहां भी लोग सुबह  मैदान नहीं जाते. हर घर में ताइलेट  है, बाथरूम है. कुछ बच्चे  पढने बाहर गये तो वे बाहरी ही हो गये. उनके घर वाले खुश हैं कि वे डालर कमाते हैं. कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे शौच के बाद अब पानी का नहीं कागज़  का इस्तेमाल करते हैं. गाँव बिकने को तैयार हैं , वह उनकी प्रतीक्षा में हैं , जो ज्यादा से ज्यादा बोली लगायें. वह  अपनी बोली, अपना संस्कार, अपनी  करुणा सब कुछ छोड़कर पैसा बटोरना चाहते हैं. असल में मैं अपने एक साहित्यकार मित्र के न्योते पर गया था. अभिनव कदम के संपादक जय प्रकाश धूमकेतु के बेटे ने शादी कर ली, इस ख़ुशी में उन्होंने रिसेप्सन दिया था. वे वामपंथी विचारों के हैं, फिर भी वहाँ काफी चमक-दमक थी. खाने -पीने का बेहतरीन  इंतजाम था.

वहां जाना अच्छा रहा. इसी एक शाम के लिए मैंने तीन दिन बर्बाद किया. वहां मेरे तमाम पुराने दोस्त मिले, प्रशंसक मिले. लेखकों, कवियों से मुलाकातें हुईं. कुछ ऐसे लोग भी मिले, जो जानते तो थे मगर पहचानते नहीं थे. खाना, गपियाना, मुस्कराना , इससे ज्यादा कुछ तो नहीं हुआ, पर इतना भी क्या कम था. आजकल जिस तरह आदमी की हंसी खोती जा रही है, उसमें बनावटी हंसी भी कम फायदेमंद नहीं है. राम निवास मेरा छात्र जीवन का दोस्त है. बहुत ही मजाहिया  लहजा है उसका. मेरी एक फोटो है उसके पास, कहता है बिल्कुल ड्रेकुला  जैसा दिखता हूँ . यह कहकर इतनी जोर का ठहाका लगाता है कि मुझे मेरे दांत सचमुच बाहर निकले महसूस होने लगते हैं. उसने डा अनिल कुमार राय से परिचित कराया, हालाँकि हम दोनों एक दूसरे को पहले से ही जानते थे, बस पहचानते नहीं थे. वे हिंदी के स्थापित लेखकों में शुमार किये जाते हैं. मेरे गुरुओं हिंदी के बड़े समीक्षक डा कन्हैया सिंह और संत साहित्य के विद्वान  डा चन्द्र देव राय का वहां  होना मेरे लिए एक अभूतपूर्व अवसर था.
मेरे बड़े भाई, साहित्यकार  और वर्धा हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति  डा वी एन राय , डा अनिल कुमार अंकित, सुपरिचित गीतकार डा कमलेश राय, समीक्षक राम निवास कुशवाहा और अन्य अनेक रचनाधर्मियों का मिलना बहुत आनंदवर्धक रहा.

मैं भी वहां जाकर गाँव को भूल गया, गाँव के संकट को भूल गया. यह एक शाम मेरे भीतर इतनी उर्जा भर गयी कि मैं अब कई महीने अपनी गाड़ी बिना ठेले ही दौडाता रहूँगा.इसका श्रेय धूमकेतु जी को दूं या उन बच्चों को जिन्होंने हमें शादी के धूम-धड़ाके में शामिल होने से वंचित कर दिया और इस तरह चुनौती खड़ी कर दी कि रिसेप्सन शादी से  भी बढ़िया होना चाहिए. और वह हुआ भी. दर असल धूमकेतुजी  के बेटे ने प्रेम विवाह  कर लिया था. हम सब खुश थे और यह बताने में सफल रहे कि हम उसकी पीढ़ी से पीछे नहीं हैं, हमें उनका प्रेम स्वीकार है.   

5 टिप्‍पणियां:

  1. सुभाष भाई ऐसा लगा जैसे आपने कविता सचमुच गांव से लौटकर लिखी थी। और यह विवरण आप शहर से गांव लौटकर लिख रहे हैं। देखिए न अब तो हम ग्‍लोबल गांव की बात करते हैं। बेचारे बस ड्रायवर को क्‍या हमें ही नहीं पता कि हम हैं किस ग्‍लोबल गांव में। आपने बात छेड़ी है तो मेरा भी छ़ेड़ने का मन कर रहा है। हालांकि आपने हजारी प्रसाद द्विवेदी की मार्फत कहलवाया है कि मियां लगे रहो बस। इस ब्‍लाग के ब्‍लोबल गांव में हम किस कोने पर बैठे हैं हमें समझ नहीं आता। जो भी ओझा जो टोटका बताता है वह कर रहे हैं। पर कृपा नाम की जो चीज है वह अपने पल्‍ले आ ही नहीं रही।
    बहरहाल आपने विभूति जी का जिक्र किया। अन्‍यथा न लें,बताएं कि वे बड़े भाई जैसे हैं या बड़े भाई हैं। असल में चकमक के दिनों में उनसे कई बार पत्र व्‍यवहार हुआ है। वे चकमक के बहुत प्रशंसक रहे हैं। आजमगढ़ और रोहतक के पुस्‍तकालयों के माध्‍यम से उन्‍होंने बहुत से बच्‍चों को चकमक से जोड़ा था।

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  2. आपने अपने आपको बचा रखा है यह देखकर और पढ़कर बहुत आह्लादित हॅूं।

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  3. पसीना बनता है सोना
    सोना जो सोना है पर
    नींद नहीं है
    नींद उड़ाता है सोना
    पसीना सुलाता है
    और सोने भी नहीं देता है
    जो पसीना बहा रहे हैं

    वे आकाश में ही चीन्‍ह रहे हैं
    रोज दर रोज
    होश रहते हुए भी
    और खोकर होश होते बेहोश
    जो होश में आना चाहते हैं
    वे आपकी पोस्‍ट पढ़कर आ सकते हैं
    पर आयेंगे नहीं
    क्‍यों उन्‍हें ये रस्‍ते भाएंगे नहीं

    पर हमें तो आना है
    बहुत कुछ लाना है
    जो छोड़ आए हैं
    जो भूल आए हैं
    फिर भी सबसे मिलकर
    सबको हमसे मिलाने
    प्रेम रस भरकर लाए हैं।


    बहुत सुंदर और मन को आह्लादित करता जीवंत प्रसंग।

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