यह हमारे समाज का, हमारे देश का दुर्भाग्य है कि इतनी आधुनिकता, प्रगति और खुलेपन के दावे के बावजूद अब भी हमारे दिमाग की खिड़कियां बंद हैं। जिस देश ने सारी दुनिया को सभ्यता के मानक दिये, जिसने सबको समय-समय पर ज्ञान दिया, वह स्वयं इतने गहरे अंधेरे में नीमबेहोश पड़ा है, यह देखकर आश्चर्य होता है। पहले समझा जाता था कि बच्चे पढ़ेंगे-लिखेंगे तो बहुत सारी सामाजिक बुराइयां अपने-आप खत्म हो जायेंगी, लेकिन यह धारणा सही नहीं निकली। पढ़े-लिखों में स्वार्थ, संकीर्णता, अलगाव और अंधविश्वास और ज्यादा घर कर गया है। हम पढ़-लिख गये तो मां-बाप का निरादर बढ़ गया, भगवान और भाग्यवाद की जय-जयकार करने वाले तथाकथित संतों की सभाओं में भीड़ बढ़ गयी, जिम्मेदारी और कर्तव्य की भावना तिरोहित हो गयी, अपने समाज और देश से प्यार खत्म हो गया, दहेज की वेदी पर मरने वाली लड़कियों की संख्या में इजाफा हो गया, मिलावटखोरी, रिश्वत और बेईमानी का साम्राज्य और विस्तृत हो गया, अपनी जाति-संप्रदाय का दर्प इतना कठोर हो गया कि किसी दूसरी जाति और संप्रदाय के प्रति सहनशीलता खत्म हो गयी।
हरियाणा और पश्चिम उत्तर प्रदेश में पंचायतों के आतंक की जो दिल दहला देने वाली कथाएं अक्सर सुनने को मिलती रहती हैं, वैसी कहानी देश की राजधानी से सुनने को मिलेगी, कोई कल्पना भी नहीं कर सकता। लेकिन यह सच है। मोनिका और कुलदीप की हत्या इसलिए कर दी गयी कि उनके घर वालों को उनके द्वारा किया गया शादी का फैसला उनकी जातिगत पहचान को चुनौती की तरह लगा, उनके सम्मान के खिलाफ लगा। हमारी जाति हमें अपने बच्चों से भी प्यारी है, अपनी जाति के लोगों की नजरों में सम्माननीय बने रहने के लिए हम बच्चों की खुशियां छीन लेने में भी तनिक संकोच नहीं करते। इतना भयानक तो जंगल का कानून भी नहीं होता। हिंसक जानवर भी अपने बच्चों के प्रति इतने क्रूर नहीं होते। आखिर आदमी को क्या हो गया है। जातियों के नाम पर दंगे, मार-काट करना आम बात है पर अब तो हम अपने सपनों के गले घोटने में भी देर नहीं करते। यह जो कुछ हो रहा है, इसे बनाये रखने में हमारी व्यवस्था, सत्ता और सरकारों का फायदा है।
लोग जातियों में बंटे रहेंगे, तो उनको लड़ाने और वोट हासिल करने में सुविधा रहेगी, लोग संप्रदायों की दीवारों में कैद रहेंगे तो उन्हें बरगलाने में आसानी रहेगी। हिंदू-मुस्लिम, जाट-गुज्जर, ब्राह्मण-हरिजन का द्वंद्व बना रहेगा तो सियासी रोटियां सिंकती रहेंगी। इसीलिए सरकारें जाति के नाम पर आरक्षण, संप्रदाय के नाम पर पैकेज की घोषणा करती रहती हैं, राजनीतिक पार्टियां जातियों के आधार पर जनगणना की मांग करती हैं। ये सब जातियां बनाये रखने का गहरा षडयंत्र है, जिसे आम लोग नहीं समझ पाते। इस देश में जाति-पांति की बुराई को खत्म करने के लिए अनेक आंदोलन चले। नीची जातियों में पैदा हुए दर्जनों संतों ने उत्तर से दक्षिण तक घूम-घूम कर अलख जगाया। उन्होंने जाति व्यवस्था की पीड़ा झेली थी, उसकी यातना से गुजरे थे। उन्होंने इस भयानक बुराई के जिरह-बख्तर को अपने समय में छलनी कर दिया। लेकिन इस देश की इस कमजोरी को फिर अंग्रेजों ने पहचाना, उसे हवा दी और उसका लाभ उठाया। आजादी के लिए लड़ने वाले देशभक्तों को आक्रांताओं की इस साजिश का पता था, इसीलिए वे जाति-संप्रदाय से ऊपर उठकर अंग्रेजों को खदेड़ने में कामयाब रहे। पर आजादी के बाद उन्हीं गोरों की काली संतानों ने अपने स्वार्थ में उन्हीं के हथियारों का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। इस देश में सांप्रदायिक दंगे, जातीय फसाद और आनर किलिंग्स उसी का नतीजा है। एक बार फिर इन षडयंत्रकारियों की चूलें हिलाने के लिए बड़े आंदोलन की जरूरत है।
बढ़िया आलेख ..................जरूरत है इस सोच को सिरे से बदलने की! हम इंसान क्यों नहीं बन सकते ................हिन्दू या मुसलमान बनाना क्या इतना जरूरी है !?
जवाब देंहटाएंबहुत सही मुद्दा उठाया है आपने. मेरी उम्र तो बहुत कम है लेकिन मैंने भी अपने समय में सोच को बहुत छोटा होते हुए देखा है. हमने भौतिक रूप से बेशक कई मंजिलों को छुआ हो लेकिन इसकी कीमत के रूप में हमने अपने चरित्र, अपनी जमीन, अपना आसमान, अपनी नदियॉं सब कुछ दांव पर लगा दिया ये सब इसी का परिणाम है.
जवाब देंहटाएंब्लागिंग आरम्भ कर दी है
इस देश को एकता के सूत्र में बांधने के लिए एक बार चाणक्य आए फिर शंकराचार्य। तुलसी ने भी रामचरित मानस के माध्यम से एकता लाने का प्रयास किया और फिर गांधी ने भी। लेकिन आज की राजनीति में ऐसा कोई भी त्यागी व्यक्ति नहीं आ पा रहा। आपका विश्लेषण सटीक है, बधाई।
जवाब देंहटाएंकुछ न कुछ तो करना ही है अब इस समस्या से छुटकारे के लिए.
जवाब देंहटाएंbilkul sahi hai
जवाब देंहटाएंलेकिन यह समझ में नहीं आ रहा कि इस विकराल समस्या का हल क्या होगा ?
जवाब देंहटाएंवित्तीय स्वतंत्रता पाने के लिये ७ महत्वपूर्ण विशेष बातें [Important things to get financial freedom…]
विवेकजी, देश का कमजोर नेत्रित्व बहुत सारी समस्याओं के मूल में है. जीवन मूल्यों का जैसे पूरे देश में ह्रास हुआ है, उसका असर सत्ता के चरित्र पर भी पडा है. स्थितियां विकट हैं.
जवाब देंहटाएंभले ही हम चहुंमुखी विकास का नाम लेते हुए २१वीं सदी की ओर तेजी से अपने पग बढा रहे हैं । लेकिन आज के भारत पर नजर डालें तो यही लग रहा है कि हम आगे जाने की बजाय दो कदम पीछे जा रहे हैं । लोगों की सकुचित होती मानसिकता का ही परिणाम है कि लोग आज अपनी मूंछ की खातिर या कहें झूठी प्रतिष्ठा के लिए अपनी ही औलाद को मौत के घाट उतार रहे हैं । आज जबकि आजाद भारत में हर किसी को आजाद रहकर खुली हवा में सांस लेने व पंख फैलाने का पूरा हक है । किंतु यह सब किताबी बातें नजर आ रही हैं । आज हम अंग्रेजों की गुलामी से भले ही आजाद हैं मगर आज अपनों कि गुलामी में जकडते जा रहे हैं । इस विकराल होती समस्या पर अभी भी कोई अंकुश नही लग पाया तो इसके परिणाम भी भयंकर होंगे जिन्हें हमें ही भुगतना पडेगा । अत: इस विकट स्थिति का हल भी हमें ही शीघ्र खोजना पडेगा ।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा लेख लिखा है।
जवाब देंहटाएंहमें किसी न किसी का गुलाम रहना ही पसन्द है। यदि और किसी का नहीं तो जाति, खाप और राजनेताओं का। न हम स्वयं स्वतन्त्र जीना जानते हैं और न ही दूसरों को जीने देना चाहते हैं।
घुघूती बासूती