ओम तद्भवाय नमः| अखिलेशाय नमः | शब्ददंडधारी स्वामी अखिलेश जी की कृपा से मेरी मुलाकात कासी गुरू की आत्मा से हुई। हालांकि वे स्वयं ई ससुरी आत्मा से बहुत परेशान दिखे। उनका अनुभव है कि यह सहृदय, दयावान, करुण, कातर सी चीज न होती तो वे अपनी मोटरबाइक से हाथ न धो बैठते। हुआ कुछ यूं कि बड़े जुगाड़ से उन्होंने बाइक खरीदी। बड़े जतन से उसे धो-पोंछ कर रखते, संभाल के चलाते। हरदम चमाचम रहती। पर एक दिन वे एक साइकिलवाले से टकरा गये। एक चला रहा था और दूसरा डंडे पर बैठा था। गुरू को पता ही नहीं चला क्या हुआ पर वे दोनों सड़क पर पसर कर खामोश हो गये। गुरू ने पहले तो भागने में ही भलाई समझी पर कुछ दूर जाकर उनकी आत्मा जग गयी। वे लौटे, सोचा बच्चों की मदद कर दें, बेचारे घायल हो गये हैं। वे बच्चों को नादान समझ रहे थे पर जैसे ही बाइक से उतरकर उनके पास आये, समूची करुणा के साथ एक को हिलाने-डुलाने की कोशिश की, दूसरा उनकी बाइक ले उड़ा। वे दौड़े मगर कुछ दूर जाकर मुंह बाकर खड़े हो गये। बाइक गयी सो गयी, यह गुरुआ की बड़ी चिंता नहीं थी, चिंता यह थी कि अगर आत्मा ऐसे ही जगी रही तो न जाने क्या-क्या अनर्थ होगा।
कासी गुरू कोई झूठ नहीं बोल रहे। एक बार मैं भी इसी आत्मा के चक्कर में जेल जाते-जाते बचा, पत्रकार न होता और पुलिस थोड़ा फेवर न करती तो या तो मेरी जमकर कुटाई हुई होती या फिर जेल की यात्रा करनी पड़ती। यह आत्मा सचमुच बहुत अनर्थकारी है। अगर आप को महान और निरापद आसन चाहिए, आप की समाज में अपना डंका पिटवाने की सदिच्छा है, सरस सुख-संपदा अर्जित करनी है, ऐश और परमभोग की आकांक्षा है तो अपनी आत्मा से तत्काल तौबा कर लीजिए, उसे दबाये रहिये या कोई खास तकलीफ न हो तो उसे मार ही दीजिए। थोड़ा कष्ट होगा क्योकि सहजावस्था में आत्मा जगी ही रहती है और किसी को जागते में मारना श्रमसाध्य ही नहीं बहुत दुखदायी भी है। परंतु शास्त्र कहते हैं कि बड़े पुण्य के लिए किंचित पाप भी करना पड़े तो बुरा नहीं है, साधारण दुख से असाधारण सुख की प्राप्ति हो सके, तो किसी भी तरह अस्वीकार्य नहीं है। सभी मानते हैं,इसलिए आप भी यह मान लें कि हर दुख अपने परिणाम में सुख ही होता है। आत्मा के चक्कर में हमारी कई पीढ़ियों ने बहुत समय नष्ट किया है, अपना तो कबाड़ा किया ही, पूरे समाज का, देश का भी कबाड़ा किया।
यह दिखती नहीं, यह अगम्य है। नयमात्मा प्रवचनेन लभ्य, नहिं बहुश्रुतेन। न प्रवचन से मिलती है, न बहुत सुन कर कंठस्थ कर लेने से, न हठ से मिलती है, न योग से, न बलहीन को मिलती है, न बलशाली को। इतना जानकर भी कुछ लोग आत्मा को पाने के व्यर्थ प्रयास में लगे रहते हैं और कुछ कासी गुरू जैसे कभी-कभी इस दयनीय भ्रम के शिकार हो जाते हैं कि भीतर से आत्मा बोल रही है, उसकी आवाज सुनो। उसकी आवाज सुन ली तो समझो ठगे गये। आजकल जो सबसे ज्यादा आत्मा-परमात्मा की बात करते हैं, वे भीतर से समझ चुके होते हैं कि आत्मा-वात्मा जैसी कोई चीज नहीं है, पर इसे स्वार्थपूर्ति के परमधर्म की प्राप्ति के लिए विकट विराट अस्त्र की तरह इस्तेमाल किया जा सकता है। वे आत्मसाक्षात्कारसंपन्न जीव इस जगत में सबसे सुखी प्राणी हैं। वे सम्मान से बाबा कहे जाते हैं, भले ही वे अवसरानुकूल वाम-दक्षिण हो सकते हों, कभी पुरुष, कभी नारी या किन्नर का वेश धरने में किंचित संकोच न करते हों।
उनकी योगकाया का आसनाभ्यास और उनकी रोमांच भरी रुदनाल्हादमयी नाट्य प्रस्तुति से लाखों लोगों की जड़ आत्मा थोड़ी देर के लिए जग उठती है। ऐसे बाबाओं के लिए करोड़ क्या, अरब क्या, नौ-दो-ग्यारह अरब क्या। वे निरंतर ठगात्मवत ही रहते हैं इसलिए वे अगर महिलाओं के साथ कोई अभद्रता भी करें तो भी उसे कल्याणकारी मानकर स्वीकार कर लिया जाता है। आप ने अपनी आत्मा मार दी तो किसी को भी मार देना आप के लिए बहुत सहज होगा। फिर आप चोरी, ठगी, बलात्कार, हत्या से भी परे चले जायेंगे। किसी कर्म का परिणाम भुगतने की विवशता से मुक्त हो जायेंगे। हर आदमी की आत्मा अलग-अलग व्यवहार करती है, इसीलिए बड़े राजनीतिकार अक्सर अंतरात्मा की आवाज पर चुनाव की बात करते हैं। कोई जरूरी नहीं कि सबकी अंतरात्मा से एक ही आवाज उठे। अगर आत्मा एक होती तो ऐसा क्यों होता या फिर जिसने आत्मा मार डाली है या जो आत्मा के होने को स्वीकार नहीं करते, क्या वे ऐसे वक्त में निर्णय नहीं करते? इससे यह अनुमान सहज ही सही लगने लगता है कि आत्मा भी अपने अर्थ का, अपने लाभ का ध्यान रखती है। जो आत्मार्थ है, वही स्वार्थ है। अगर कासी गुरू यह अर्थ लगाते तो उनकी बाइक बच गयी होती। आप भी अगर निपट संन्यासी नहीं हैं तो जीवन में कुछ लाभ-लोभ रखना ठीक रहेगा। आत्मा के अर्थ को यानि उसकी व्यर्थता को जितना जल्दी समझ लेंगे, परमात्मा आप की उतनी ही मदद करेगा। शुभमस्तु।
कासी गुरू कोई झूठ नहीं बोल रहे। एक बार मैं भी इसी आत्मा के चक्कर में जेल जाते-जाते बचा, पत्रकार न होता और पुलिस थोड़ा फेवर न करती तो या तो मेरी जमकर कुटाई हुई होती या फिर जेल की यात्रा करनी पड़ती। यह आत्मा सचमुच बहुत अनर्थकारी है। अगर आप को महान और निरापद आसन चाहिए, आप की समाज में अपना डंका पिटवाने की सदिच्छा है, सरस सुख-संपदा अर्जित करनी है, ऐश और परमभोग की आकांक्षा है तो अपनी आत्मा से तत्काल तौबा कर लीजिए, उसे दबाये रहिये या कोई खास तकलीफ न हो तो उसे मार ही दीजिए। थोड़ा कष्ट होगा क्योकि सहजावस्था में आत्मा जगी ही रहती है और किसी को जागते में मारना श्रमसाध्य ही नहीं बहुत दुखदायी भी है। परंतु शास्त्र कहते हैं कि बड़े पुण्य के लिए किंचित पाप भी करना पड़े तो बुरा नहीं है, साधारण दुख से असाधारण सुख की प्राप्ति हो सके, तो किसी भी तरह अस्वीकार्य नहीं है। सभी मानते हैं,इसलिए आप भी यह मान लें कि हर दुख अपने परिणाम में सुख ही होता है। आत्मा के चक्कर में हमारी कई पीढ़ियों ने बहुत समय नष्ट किया है, अपना तो कबाड़ा किया ही, पूरे समाज का, देश का भी कबाड़ा किया।
यह दिखती नहीं, यह अगम्य है। नयमात्मा प्रवचनेन लभ्य, नहिं बहुश्रुतेन। न प्रवचन से मिलती है, न बहुत सुन कर कंठस्थ कर लेने से, न हठ से मिलती है, न योग से, न बलहीन को मिलती है, न बलशाली को। इतना जानकर भी कुछ लोग आत्मा को पाने के व्यर्थ प्रयास में लगे रहते हैं और कुछ कासी गुरू जैसे कभी-कभी इस दयनीय भ्रम के शिकार हो जाते हैं कि भीतर से आत्मा बोल रही है, उसकी आवाज सुनो। उसकी आवाज सुन ली तो समझो ठगे गये। आजकल जो सबसे ज्यादा आत्मा-परमात्मा की बात करते हैं, वे भीतर से समझ चुके होते हैं कि आत्मा-वात्मा जैसी कोई चीज नहीं है, पर इसे स्वार्थपूर्ति के परमधर्म की प्राप्ति के लिए विकट विराट अस्त्र की तरह इस्तेमाल किया जा सकता है। वे आत्मसाक्षात्कारसंपन्न जीव इस जगत में सबसे सुखी प्राणी हैं। वे सम्मान से बाबा कहे जाते हैं, भले ही वे अवसरानुकूल वाम-दक्षिण हो सकते हों, कभी पुरुष, कभी नारी या किन्नर का वेश धरने में किंचित संकोच न करते हों।
उनकी योगकाया का आसनाभ्यास और उनकी रोमांच भरी रुदनाल्हादमयी नाट्य प्रस्तुति से लाखों लोगों की जड़ आत्मा थोड़ी देर के लिए जग उठती है। ऐसे बाबाओं के लिए करोड़ क्या, अरब क्या, नौ-दो-ग्यारह अरब क्या। वे निरंतर ठगात्मवत ही रहते हैं इसलिए वे अगर महिलाओं के साथ कोई अभद्रता भी करें तो भी उसे कल्याणकारी मानकर स्वीकार कर लिया जाता है। आप ने अपनी आत्मा मार दी तो किसी को भी मार देना आप के लिए बहुत सहज होगा। फिर आप चोरी, ठगी, बलात्कार, हत्या से भी परे चले जायेंगे। किसी कर्म का परिणाम भुगतने की विवशता से मुक्त हो जायेंगे। हर आदमी की आत्मा अलग-अलग व्यवहार करती है, इसीलिए बड़े राजनीतिकार अक्सर अंतरात्मा की आवाज पर चुनाव की बात करते हैं। कोई जरूरी नहीं कि सबकी अंतरात्मा से एक ही आवाज उठे। अगर आत्मा एक होती तो ऐसा क्यों होता या फिर जिसने आत्मा मार डाली है या जो आत्मा के होने को स्वीकार नहीं करते, क्या वे ऐसे वक्त में निर्णय नहीं करते? इससे यह अनुमान सहज ही सही लगने लगता है कि आत्मा भी अपने अर्थ का, अपने लाभ का ध्यान रखती है। जो आत्मार्थ है, वही स्वार्थ है। अगर कासी गुरू यह अर्थ लगाते तो उनकी बाइक बच गयी होती। आप भी अगर निपट संन्यासी नहीं हैं तो जीवन में कुछ लाभ-लोभ रखना ठीक रहेगा। आत्मा के अर्थ को यानि उसकी व्यर्थता को जितना जल्दी समझ लेंगे, परमात्मा आप की उतनी ही मदद करेगा। शुभमस्तु।
एक उत्प्रेरक संस्मरण, जिसे मैंने जनसंदेश में पढ़ लिया सुबह सुबह।
जवाब देंहटाएंसुन्दर उत्प्रेरक संस्मरण|
जवाब देंहटाएंइस सुन्दर रचना के लिए आभार।
जवाब देंहटाएं---------
टेक्निकल एडवाइस चाहिए...
क्यों लग रही है यह रहस्यम आग...
आपकी कहानी पढकर बचपन में पढ़ी एक कहानी याद आ गयी " हार की जीत" जिसमे बाबा जी का घोडा चोरी होने के बाद भी उन्हें यह डर सता रहा था कि अगर इस घटना की खबर लोगों को लग गयी तो वे असहायों पर विश्वास करना छोड़ देंगे| चुराने वाले डाकू ने एक गरीब असहाय का वेश बनाकर उनसे घोडा छीना था| बिल्कुल ये स्थिति आज भी है| समय से रूबरू कराती व्यथा|
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