गुरुवार, 17 जून 2010

हमसे क्यों रूठा करते हो

भाई ध्रुव गुप्त गोपालगंज, बिहार के रहने वाले हैं. सरकारी सेवा में हैं लेकिन अपने भीतर की आग बचाकर रखी है. गज़लें कहने की आदत है. अच्छी कह लेते हैं. आइये एक सुनते हैं. उनके संकलन मौसम के बहाने से  से उठाकर रख रहा हूँ.

सब उल्टा सीधा करते हो
मेरी कहाँ सुना करते हो

आग लगाते हो रातों में
सुबह-सुबह साया करते हो

प्यार करो तकरार करोगे
सब आधा-आधा करते हो

घर में ज्यादा भीड़ नहीं है
छत पे क्यों सोया करते हो

मेरी-तेरी कहा-सुनी थी
चाँद से क्यों चर्चा करते हो

चिंगारी सी क्या अन्दर है
सारी रात हवा करते हो

जीना वैसा  मरना वैसा
जैसा आप हुआ करते हो

थोड़ी फ़िक्र सही लोगों की
तुम थोड़ी ज्यादा करते हो

तेरा गुस्सा दुनिया पर है
हमसे क्यों रूठा करते हो

चाँद मांगते हो अक्सरहा
बच्चों सी जिद क्या करते हो

जिस्मों की हद तय करते हैं
मन को क्यों साधा करते हो

जाने कब रब तक पहुंचेगी
तुम जो रोज दुआ करते हो

ख्वाहिश ढेरों उम्र जरा है
वक्त बहुत जाया करते हो

3 टिप्‍पणियां:

  1. मामला यह है कि ध्रुव जी को पढ़कर हमारा भी कुछ कहने का मन होने लगा है।
    लड़खड़ाते हैं हम जब

    तुम संभाला करते हो

    कितनी हो गलतियां

    सब सुधारा करते हो

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  2. डा.सुभाष जी,
    आपने ध्रुव गुप्त जी से परिचय कराया, धन्यवाद आपका. एक उम्दा ग़ज़ल से रु-ब-रु हुआ.
    और हाँ, आपने मेरी जो हौसला अफजाई की इसके लिए तहे दिल से शुक्रिया!

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