शनिवार, 14 अगस्त 2010

होठों में आ रही है जुबां और भी खराब


 हिंदुस्तान आजाद हुआ था तो एक बंटवारा झेलना पड़ा था पर आजादी के बार बचा हुआ देश कई टुकड़ों में बंट गया है। देश के दो चेहरे साफ-साफ दिखायी पड़ते हैं। एक अमीर भारत, दूसरा गरीब भारत। कुछ लोगों के पास बेइंतहा धन आ रहा है। वे वैभव और ऐश्वर्य की चमक में जी रहे हैं। उनके पास बड़े उद्योग हैं, कंपनियां हैं, उनकी पीठ पर सरकार का वरद हाथ है। वे धन के बल पर मेधावी दिमाग खरीदते हैं और उनका इस्तेमाल अपना वैभव बढ़ाने में करते हैं। यह चमकता भारत है। दूसरी ओर वे लोग हैं, जो दो वक्त की रोटी के लिए दिन-रात संघर्ष कर रहे हैं। हाड़तोड़ मेहनत के बाद भी कोई गारंटी नहीं कि उनके परिवार को रोटी मिल ही जाये। उनके बच्चे धूल-मिट्टी में पैदा होते हैं और अपने पांवों पर खड़े होते ही पेट की आग बुझाने के दुष्कर उद्यम में झोंक दिये जाते हैं। पढ़ाई-लिखाई तो उनके लिए सपना है, वे या तो बड़े बाबुओं के घर में, सेठजी की फैक्ट्री में मजूरी करने लगते हैं या भीख मांगते हैं। यह गरीब भारत है और यही असली भारत है।

  बेशक अच्छे इरादों के साथ आजाद भारत अपने कदमों पर आगे बढ़ चला लेकिन आज हम कहां आ गये हैं, थोड़ा रुक कर देखें तो लगता है कि हम कहीं भटक गये, रास्ता भूल गये, क्रांतिकारियों के सपने भुला बैठे। आजाद भारत में अपनी भाषा को सम्मान नहीं दिया गया, सांप्रदायिक सद्भाव की बलि चढ़ा दी गयी, जाति-पांति के विभाजन को और गहरा किया गया, भ्रष्टाचार को शिष्टाचार की तरह मान्यता दे दी गयी, देश के ऊपर स्वार्थचिंतन को वरीयता दी गयी, गरीबों की प्रवंचना का मजाक उड़ाने में गर्व का अनुभव किया जाने लगा। हमने राष्ट्रीय जीवन के लिए जरूरी मर्यादाओं, नैतिकताओं को ताक पर रख दिया। सत्तानायकों और उनके सहयोगी नौकरशाहों ने धीरे-धीरे अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए वही तौर-तरीके अपनाने शुरू कर दिये, जो कभी गोरे अपनाते थे।

इसका भयानक परिणाम आज हमारे सामने है। एक विशाल समाजवादी लोकतंत्र भाषा, क्षेत्र, संप्रदाय, जाति और स्वार्थ की अनेक दीवारों में बंटा हुआ है। देश एक संकल्पहीन, शक्तिहीन और स्खलित सत्ता के हाथ में दिशाहीनता की राह पर बढ़ रहा है। जो अमीर हैं, उन पर लक्ष्मी बरस रही है, जो गरीब हैं, वे शासकों के छल-प्रपंच और पाखंड की चक्की में निरंतर पिसने को अभिशप्त हैं। आम आदमी के लिए सरकारें अपनी सारी योजनाएँ बनाने के दावे करती हैं, पर आम आदमी अपनी नियति  के कठिन चक्र में और उलझता चला जा रहा है। महंगाई आसमान पर है। भोजन, कपड़ा और छत की न्यूनतम जरूरतें पूरी कर पाना टेढ़ी खीर हो गया है। जनता की मदद करने, जीवन को आसान बनाने और संरचनागत विस्तार को अंजाम देने की जिम्मेदारियां जिन सरकारी अफसरों पर हैं, वे अपराधियों और ठेकेदारों के गुलामों की तरह काम कर रहे हैं। रिश्वत उनका जन्म सिद्ध अधिकार बन गया है। उनकी सांठ-गांठ चूंकि राजनेताओं से भी है, इसलिए वे निर्भय और उन्मुक्त वनराज की तरह लूट के उत्सव का आनंद उठा रहे हैं। बेरोक-टोक जनता के धन का अपव्यय ही नहीं हो रहा है बल्कि न्यायसंगत और नियमानुकूल काम के लिए भी घूस उगाहने की असीम   उत्कंठा ने सारे तंत्र को धन लोलुप पगलाये अराजक तंत्र में तबदील कर दिया है।

यहां तक कि देश की प्रतिष्ठा को बेचकर भी पैसा बना लेने की आसुरी मनोवृत्ति ने समूचे परिदृश्य को घेर रखा है। कामनवेल्थ खेलों की आड़ में अभी जो अंधेरगर्दी और लूटपाट मची हुई है, उससे कोई भी अंदाजा लगा सकता है कि राजनेता और नौकरशाह कितने लालची, धूर्त, थेंथर और ढीठ हो गये हैं। छद्म धर्मनिरपेक्षता के नाम पर सांप्रदायिक और तुष्टीकरण की राजनीति ने मुसलमानों, सिखों, ईसाइयों और हिंदुओं को एक दूसरे का दुश्मन बना दिया है। जातियों के नाम पर आरक्षण ने जाति भेद को खतरनाक स्थिति तक पहुंचा दिया है। हर जाति आरक्षण के नाम पर तलवारें खींचे हुए है। सत्ता की संकल्पहीनता के कारण कई राज्यों में भाषायी उन्माद इतना बढ़ गया है कि नागरिकों को अपने देश में ही भाषा और बोली के नाम पर भेदभाव, अभद्रता और हिंसा का शिकार होना पड़ रहा है। सत्ता और राजनीति का दोगला चरित्र खुलकर सबके सामने आ चुका है, पर विकल्पहीनता के कारण जनता कोई बदलाव नहीं कर पाती है। इस निरुपायता से कई विकराल समस्याओं ने जन्म लिया है।

सत्ता के निर्मम स्वार्थ, गरीबों की निरंतर उपेक्षा और राष्ट्रीय संकल्प के अभाव में जहां भ्रष्टाचार एक विकट महामारी की तरह देश के स्वास्थ्य को चबा रहा है, वहीं लचर शासन और अतिशय लोकतांत्रिक उदारता ने आतंकवाद को इतना विकराल रूप धारण करने का अवसर दिया है कि अब हमारी समझ में नहीं आ रहा कि उससे निपटें तो कैसे।  जो लोग हमारी सीमाओं में रहकर पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगाते हैं और पाकिस्तानी झंडा फहराते हैं, हमारे  जननायक उनके मानवाधिकार की चिंता में डरे-सहमे खामोश असहाय कुछ न कर पाने की कापुरुषता का निरीह प्रदर्शन करते दिखते हैं।

इस देश की जनता ने कातर होकर देखा है आतंकवादियों के सामने नेताओं को गिड़गिड़ाते हुए और उनकी मांग पर देशद्रोहियों को जेल से निकालकर उनके हवाले करते हुए। जनता ने आतंकवादियों से लड़ते हुए प्राण निछावर कर देने वाले बहादुर पुलिस अधिकारियों की मंशा पर नेताओं को शक करते हुए भी देखा है। बटला कांड कैसे भूल जायेगा। आतंकवाद से लड़ने के प्रश्न पर भी राजनीतिज्ञों में राष्ट्रीय मतैक्य नहीं दिखता। इसका भी दलहित में फायदा उठाने की कोशिशें की जाती हैं। इसी तरह का रवैया नक्सलवाद को लेकर भी है। अभी तक सरकारें तय नहीं कर पायीं कि आखिर नक्सलवाद से कैसे निपटा जाय। आदिवासियों की गरीबी, उनके जीवन की यंत्रणा सत्ता के प्रमाद में हमने कभी देखी ही नहीं, उन्हें जंगलों से विस्थापित कर उनका जीवन ही छीन लिया गया। जब नक्सलियों ने उनकी मदद शुरू की तब भी हमारी नींद नहीं टूटी। अब जब इन उपेक्षित आदिवासी गढ़ों पर उनकी पकड़ मजबूत हो गयी और वे सत्ता को चुनौती देने लगे तो बारूद की गंध सत्ता के गलियारों तक पहुंची। परंतु अब भी सरकार को समझ में नहीं आ रहा कि क्या किया जाये।

  जो समर्थ हैं, वे पूरी तरह आजाद हैं, भ्रष्टाचार के लिए, उत्पीड़न, जुल्म और अन्याय के लिए। जो कमजोर हैं, वे  सर उठाने के लिए, अन्याय का प्रतिकार करने के लिए भी आजाद नहीं है। यह कैसी आजादी है कि बहुसंख्य जनता अपने ही देश के मुट्ठी भर ताकतवर लोगों के हाथों की गुलाम है। ऐसी गुलामी लंबे समय तक नहीं चल सकती। इसी मानसिकता ने नक्सलवाद को ताकत दी और यह मानसिकता अगर जारी रही तो युद्ध के कई और मोर्चे खुल जायेंगे।  लगता है कि आजादी के असली मायने कहीं खो गये हैं। इसकी चमक वापस लाने के लिए शायद एक और लड़ाई लड़नी पड़े। दुष्यंत के शेर पर बात खत्म हो तो बेहतर..
नजरों में आ रहे हैं नजारे बहुत बुरे
होठों में आ रही है जुबां और भी खराब ।       

7 टिप्‍पणियां:

  1. सही बात सार्थक पोस्ट बहुत बहुत बधाई

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  2. बिल्कुल सही और बहुत शानदार लिखा है सर। विभाजन से पाकिस्तान बन गया, वह अभी भी डंडा किए रहता है। उसी प्रकार अमीर गरीब को डंडा किए रहता है।
    आजादी के पर्व पर अक्सर यह सवाल उठाया जाता है कि क्या हम वाकई आजाद हो गए? टूट गईं सब बेडिय़ां? हो गए स्वतंत्र? और हर बार अपने अपने हिसाब के इसका जवाब भी दिया जाता है। अंगे्रजों से आजाद हो गए लेकिन नहीं आजाद हो पाए अपने आप से। आपने गुस्से से, अपने आलस्य से, अपनी वासना से।
    बहुत दिन बाद आज आपके ब्लॉग पर आ सका। इसके लिए माफी चाहता हूं।

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  3. राष्ट्रीय संकल्प !
    मेरे ख़्याल से हम डंडे के पीर हैं.

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  4. तुष्टिकरण और जातिवाद की राजनीति ने सबसे ज्यादा नुकसान पहुँचाया है| सबसे पहले इसमे ही सुधार की आवश्यकता है| एक सार्थक लेख के लिए बधाई| स्वतंत्रता दिवस की भी हार्दिक शुभकामनाये|

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  5. नजरों में आ रहे हैं नजारे बहुत बुरे
    होठों में आ रही है जुबां और भी खराब ।

    इस बुरे और खराब से बरबाद होने के लिए गरीब अभिशप्‍त हैं और अमीरों के लिए यह सब वरदान है। आजादी पर्व तो सिर्फ एक दिन मनाते हैं जबकि गरीबी पर्व 365 दिन अनवरत् गतिमान रहता है। महंगाई, घूसखोरी, अराजकता, विध्‍वसंता सरीखे नानाविध रूपों में। सब चीन्‍हा हुआ है पर ... हालात और बिगड़ते जा रहे हैं। जब महंगाई को विकास माना जायेगा। गेम्‍स को जनता का बतलाया जायेगा। तो यही तो होना है, फिर काहे का रोना है, यही तो स्‍वप्‍न सलौना है। चलों, चलें फिर से 364 दिन फिर सोना है, एक दिन की नींद छोड़ने से कुछ नहीं होने वाला और जागते भी रहे तो क्‍या कर लेंगे हम ?

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  6. नजरों में आ रहे हैं नजारे बहुत बुरे
    होठों में आ रही है जुबां और भी खराब ।
    abhi to aur kharab ki taiyari hai.
    bahut sarthak likha hai.

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