सोमवार, 4 अक्तूबर 2010

खेल खतम , खेल शुरू

लम्बी धींगामुश्ती, आरोपों-प्रत्यारोपों, अव्यवस्थाओं और हेरा-फेरी एवं भ्रष्टाचार की खबरों के बाद आखिरकार राष्ट्रमंडल खेल शुरू हो गये। दुनिया भर में भारत के नेताओं और अफसरों ने खुलकर देश की किरकिरी कराई। कहने को तो हमारा देश विश्व की एक बड़ी ताकत के रूप में उभर रहा है, वैश्विक स्तर पर होने वाली बड़ी-बड़ी पंचायतों में हमारे प्रतिनिधि शामिल होते हैं, लेकिन अपने घर में हम सब कुछ ठीक-ठाक रखने में अक्सर नाकाम हो जाते हैं। हमारे पास मनमोहन सिंह के रूप में ऐसा प्रधानमंत्री है, जिसकी प्रशंसा बराक ओबामा सहित दुनिया के कई राष्ट्रनायक खुले मन से करते हैं लेकिन अपने देश में उनके ही मंत्री उनकी ऐसी तस्वीर बना देते हैं कि लोग उन्हें ठीक से पहचान ही नहीं पाते। अक्सर लोग यही समझते हैं कि मनमोहन सिंह तो एक चेहरा भर हैं, उनको काम करने की पूरी स्वतंत्रता नहीं है। इन खेलों की तैयारियों के दौरान भी देश को कुछ ऐसा ही अनुभव हुआ।

हम सभी जानते हैं कि भ्रष्टाचार इस देश की प्रमुख समस्या है। यह अफसरशाही से लेकर सरकारों तक में निचले पायदान से ऊपर की सीढ़ी तक एक महामारी की तरह फैला हुआ है। बिना रिश्वत के कोई काम नहीं होता। यह रोग इतना भयानक रूप ले चुका है कि अब सरकारी कर्मचारी, अफसर और नेता इसे अपना अधिकार मान चुके हैं। रिश्वत लेना जिम्मेदार पदों पर बैठे लोगों का अधिकार है, इसलिए जनता को समझ लेना चाहिए कि रिश्वत देना उसका कर्तव्य है। इस आम समझ के बावजूद लोग कम से कम यह नहीं समझते थे कि जिस मामले की निगरानी खुद प्रधानमंत्री कार्यालय कर रहा है और जो देश की प्रतिष्ठा से सीधा जुड़ा हुआ है, उसमें भी बेईमान और दलाल अपनी गोटियां फिट कर लेंगे। पर हुआ ऐसा ही। जो काम खेलों के आयोजन से एक साल पहले ही पूरा हो जाना चाहिए था, वह काम खेलों के शुभारंभ की पूर्वसंध्या तक पूरे नहीं हो पाये। दुनिया भर में देश की साख को बट्टा लगा, देश की बदनामी हुई। कितनी हास्यास्पद बात होती अगर यह आयोजन हमारे हाथ से छिन गया होता। एक बार तो हालात संकट के इस खतरनाक मुहाने तक पहुंच भी गये थे लेकिन जैसे इस देश का हर काम भगवान करता है, वैसे ही उसने पूरे देश को अपमानित होने से भी बचा लिया। अब जब खेल शुरू हो गये हैं तो अपने खिलाड़ियों की बारी है कुछ कर दिखाने की। हमारे देश की खेलनीति जिस तरह की है, उसमें बहुत उम्मीद करना निराश करने वाला साबित होगा।

कोशिश है कि पदकों की दृष्टि से इस बार कम से कम दूसरे स्थान पर रहने का सौभाग्य भारत को मिल जाय पर यह बहुत आसान नहीं होगा। खिलाड़ियों को सरकार के स्तर पर संस्थागत प्रोत्साहन की कोई व्यवस्था इस देश ने की ही नहीं है, खेलों में हमेशा फिसड्डी रहने के बावजूद हमारी सरकारों ने कभी यह नहीं सोचा कि देश के भीतर खिलाड़ियों के विकास के लिए आधुनिक साधन और सुविधाएं उपलब्ध कराने की दिशा में कुछ खास करने की जरूरत है। जो खिलाड़ी कभी पदक ले भी आते हैं, वे अपनी निजी मेहनत से और गैर-सरकारी मदद से  खुद को इस लायक बनाते हैं। हां, स्वागत, वंदन में हम पीछे नहीं रहते। कुछ दिन यह सब चलता है, फिर सबको भूल जाता है। सरकार एक पल के लिए जागती है, खुशियां मनाती है और फि र सो जाती है। अब स्टेडियम के बाहर के खिलाड़ियों के खेल खत्म हुए, असली खिलाड़ियों की बारी है, हमें उम्मीद तो करनी ही पड़ेगी।

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