समय की शिला पर मधुर चित्र कितने, किसी ने बनाये, किसी ने बिगाड़े। कवि और चिंतक कई तरह से समय की सत्ता को समझते रहे हैं, उसे व्याख्यायित करते रहे हैं। समय एक अखंड और अनंत सत्ता है। इसका आरंभ कल्पनातीत है। पृथ्वी के भीतर खोजा-अनखोजा जितना इतिहास दबा हुआ है, उसका बहुत कम हिस्सा हम जान सके हैं। पृथ्वी पर जीवन के प्रादुर्भाव की कहानी करोड़ों वर्ष पुरानी है। जीवन उगने से पहले भी पृथ्वी रही होगी। एक ग्रह के रूप में पृथ्वी के उत्पन्न होने से पहले भी अनेक ग्रह, तारे रहे होंगे। इनमें से सबसे प्राचीन भी अगर खोज लिया जाय तो भी यह नहीं कहा जा सकता कि सुदूर अतीत में वह समय का प्रस्थान बिंदु है। ब्रह्मांड के भीतर पहली घटना अगर स्वयं ब्रह्मांड के उत्पन्न होने को ही मान लिया जाय तो भी अतीत में समय का कोई छोर पक़ ड़ पाना संभव नहीं होगा क्योंकि हमारे ब्रह्मांड से बाहर इससे भी पुराने अनेक ब्रह्मांडों का पता लगाया जा चुका है। इनमें से कोई सबसे पुराना है, यह घोषणा कर पाना विज्ञान के वश में नहीं है क्योंकि किसी भी क्षण विशाल अंतरिक्ष में और गहराई तक देखने की कियी नयी तकनीक के आविष्कार की संभावना बनी हुई है, इसलिए इस बात की संभावना कभी खत्म नहीं होगी कि कल कोई और नया तारामंडल या ब्रह्मांड खोज लिया जाय। ऐसी हर खोज के बाद समय में और भी पीछे जाने की संभावना बनी रहेगी।
अगर कल्पना से समय के आरंभ के छोर को पकड़ने की कोशिश करें तो वह पकड़ में आकर भी शायद पकड़ में नहीं होगा। स्मृति भी इतिहास, पुरातत्व से होकर मिथकीय कल्पनाओं में खो जाती है। उससे आगे कोई रास्ता नहीं मिलता, कोई ऐसी मजबूत डोर नहीं होती, जिसे थामकर अतीत के गहन गह्वर में उतरा जाय। इसी तरह भविष्य के बारे में भी कहा जा सकता है। समूची भौतिक-अभौतिक सत्ता विनष्ट हो जाने पर भी भविष्य अशेंष नहीं होगा। जब कुछ नहीं होगा, तब भी उस कुछ नहीं से कुछ या बहुत कुछ के प्रकट होने की संभावना बची रहेगी। आधुनिक विज्ञान जो तर्क ब्रह्मांड के पैदा होने के बारे में देता है, अगर वह सही है तो नथिंगनेस पूरी तरह निष्क्रिय शून्य नहीं है, वहां भी गुरुत्व है। जैसे असित छिद्र, ब्लैकहोल के प्रबल आकर्षण से खिंचकर उसमें असंख्य तारे समाते रहते हैं, उसी तरह नथिंगनेस से भी असंख्य तारों, ब्रह्मांडों के पैदा होने की संभावना बनी रहती है। हर संभावना भविष्य की रचना करती है, समय में आगे कभी, कुछ भी घटित होने का अवकाश रचती है। इस तरह भविष्य में भी समय का कोई तट देख पाना नामुमकिन है।
अगर कहें कि समय ब्रह्मांड की ही तरह प्रकाश की गति से लगातार फैल रहा है तो भी समय के ओर-छोर को छू पाना तभी संभव हो सकेगा, जब हम प्रकाश की गति से यानि तीन लाख किलोमीटर प्रति सेकेंड की गति से उड़ने की सामर्थ्य हासिल कर लें। अगर आदमी ऐसा कर पाया तो वह समय से तेज भी उड़ने की सोच सकता है। तो शायद वह समय के बाहर घटित होती कुछ अकल्पनीय घटनाओं से रू-ब-रू हो सके या फिर समय के आरंभ पर जाकर खड़ा हो सके। अभी यह बातें कल्पनातिरेक के अलावा कुछ और नहीं लगतीं पर विज्ञान इस दिशा में काम कर रहा है। एक रचनाकार समय को स्मृति के गत्यात्मक विकास के रूप में देखता है। वह विज्ञान की तरह किसी नयी भौतिक प्रमेय को हल करने में यकीन नहीं करता बल्कि अतीत से संश्लिष्ट वर्तमान को अपनी कल्पना से सजाने-संवारने का प्रयास करता है। वह अतीत की समीक्षा करता है, वर्तमान में पड़े उसके अपशिष्ट को हटाकर एक ऐसे नूतन भविष्य की ओर देखता है, जिसमें अतीत और वर्तमान के सकारात्मक संस्कारों के साथ उसके आदर्श भी झिलमिला रहे हों।
इस प्रक्रिया में वह वर्तमान के अस्वीकार्य हिस्सों को दर्ज करता है और अपनी स्वीकृतियों से उन्हें विस्थापित करने की कोशिश करता है। वह न अतीतजीवी होकर रहना चाहता है, न स्वप्नजीवी। वह ऐसे सपने रचना चाहता है, जो सच हो सकें। कई बार इस तरह वह अनायास भविष्य में झांकने की कोशिश भी करता है और कई बार वह भविष्य को शब्दों और रेखाओं में हू-ब-हू दर्ज करने में भी कामयाब हो जाता है। इन्हीं अर्थों में साहित्य कई बार अनायास विज्ञान का मार्गदर्शक बन कर खड़ा हो जाता है। सबने देखा है, कल की फंतासियों को सच होते हुए। आज की फंतासियां भी कल सच हो सकती हैं। यह अनायास नहीं है कि विज्ञान भी कल्पना के पंखों पर उड़कर ही अपने असल पंख विकसित करता रहा है। वह पहले एक परिकल्पना रचता है और फिर उसे सच करने में जुट जाता है। कई बार प्रकृति के स्फुलिंग उसे रास्ता देते हैं तो कई बार मिथ और साहित्य। इस मायने में साहित्य और विज्ञान दोनों ही जीवन को बेहतर बनाने की प्रक्रिया में एक दूसरे के पूरक हैं, विरोधी नहीं।
अगर कल्पना से समय के आरंभ के छोर को पकड़ने की कोशिश करें तो वह पकड़ में आकर भी शायद पकड़ में नहीं होगा। स्मृति भी इतिहास, पुरातत्व से होकर मिथकीय कल्पनाओं में खो जाती है। उससे आगे कोई रास्ता नहीं मिलता, कोई ऐसी मजबूत डोर नहीं होती, जिसे थामकर अतीत के गहन गह्वर में उतरा जाय। इसी तरह भविष्य के बारे में भी कहा जा सकता है। समूची भौतिक-अभौतिक सत्ता विनष्ट हो जाने पर भी भविष्य अशेंष नहीं होगा। जब कुछ नहीं होगा, तब भी उस कुछ नहीं से कुछ या बहुत कुछ के प्रकट होने की संभावना बची रहेगी। आधुनिक विज्ञान जो तर्क ब्रह्मांड के पैदा होने के बारे में देता है, अगर वह सही है तो नथिंगनेस पूरी तरह निष्क्रिय शून्य नहीं है, वहां भी गुरुत्व है। जैसे असित छिद्र, ब्लैकहोल के प्रबल आकर्षण से खिंचकर उसमें असंख्य तारे समाते रहते हैं, उसी तरह नथिंगनेस से भी असंख्य तारों, ब्रह्मांडों के पैदा होने की संभावना बनी रहती है। हर संभावना भविष्य की रचना करती है, समय में आगे कभी, कुछ भी घटित होने का अवकाश रचती है। इस तरह भविष्य में भी समय का कोई तट देख पाना नामुमकिन है।
अगर कहें कि समय ब्रह्मांड की ही तरह प्रकाश की गति से लगातार फैल रहा है तो भी समय के ओर-छोर को छू पाना तभी संभव हो सकेगा, जब हम प्रकाश की गति से यानि तीन लाख किलोमीटर प्रति सेकेंड की गति से उड़ने की सामर्थ्य हासिल कर लें। अगर आदमी ऐसा कर पाया तो वह समय से तेज भी उड़ने की सोच सकता है। तो शायद वह समय के बाहर घटित होती कुछ अकल्पनीय घटनाओं से रू-ब-रू हो सके या फिर समय के आरंभ पर जाकर खड़ा हो सके। अभी यह बातें कल्पनातिरेक के अलावा कुछ और नहीं लगतीं पर विज्ञान इस दिशा में काम कर रहा है। एक रचनाकार समय को स्मृति के गत्यात्मक विकास के रूप में देखता है। वह विज्ञान की तरह किसी नयी भौतिक प्रमेय को हल करने में यकीन नहीं करता बल्कि अतीत से संश्लिष्ट वर्तमान को अपनी कल्पना से सजाने-संवारने का प्रयास करता है। वह अतीत की समीक्षा करता है, वर्तमान में पड़े उसके अपशिष्ट को हटाकर एक ऐसे नूतन भविष्य की ओर देखता है, जिसमें अतीत और वर्तमान के सकारात्मक संस्कारों के साथ उसके आदर्श भी झिलमिला रहे हों।
इस प्रक्रिया में वह वर्तमान के अस्वीकार्य हिस्सों को दर्ज करता है और अपनी स्वीकृतियों से उन्हें विस्थापित करने की कोशिश करता है। वह न अतीतजीवी होकर रहना चाहता है, न स्वप्नजीवी। वह ऐसे सपने रचना चाहता है, जो सच हो सकें। कई बार इस तरह वह अनायास भविष्य में झांकने की कोशिश भी करता है और कई बार वह भविष्य को शब्दों और रेखाओं में हू-ब-हू दर्ज करने में भी कामयाब हो जाता है। इन्हीं अर्थों में साहित्य कई बार अनायास विज्ञान का मार्गदर्शक बन कर खड़ा हो जाता है। सबने देखा है, कल की फंतासियों को सच होते हुए। आज की फंतासियां भी कल सच हो सकती हैं। यह अनायास नहीं है कि विज्ञान भी कल्पना के पंखों पर उड़कर ही अपने असल पंख विकसित करता रहा है। वह पहले एक परिकल्पना रचता है और फिर उसे सच करने में जुट जाता है। कई बार प्रकृति के स्फुलिंग उसे रास्ता देते हैं तो कई बार मिथ और साहित्य। इस मायने में साहित्य और विज्ञान दोनों ही जीवन को बेहतर बनाने की प्रक्रिया में एक दूसरे के पूरक हैं, विरोधी नहीं।
अनसुलझी गुत्थी को कल्पना के तरीके से खोलने का प्रयास, किया तो बहुत से लोगों ने है, पर आपने एक नया तेवर विकसित किया है।
जवाब देंहटाएंकल्पना, विज्ञान व साहित्य बड़ा गड्डमगड्ड सा ये अंतर्मिलन.
जवाब देंहटाएंदोनों को ही साथ लेकर चलना है, सबको समाहित करने का गुण हो।
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