जल में कुंभ, कुंभ में जल है, बाहर भीतर पानी। फुटा कुंभ जल जलहिं समाना, यह तथ कहे गियानी। कबीर के अनेक रूप हैं। कभी बाहर, कभी भीतर, कभी बाहर-भीतर दोनों ही जगह। वे सबमें खुद को ढूढते हैं, सबको अपने जैसा बनाना चाहते हैं। कभी कूता राम का तो कभी जस की तस धर दीनी चदरिया वाले व्यक्तित्व में, कभी ढाई आखर की वकालत करते हुए तो कभी बांग देने वालों और पाहन पूजने वालों, गंगा नहाने वालों को एक साथ लताड़ते हुए। कभी ज्ञानी के रूप में तो कभी अदने बुनकर के रूप में। पर हर रूप में वे कबीर ही बने रहते हैं। कबीर यानी एक समूचा आदमी। आदमी होना बहुत ही कठिन है। कबीर के जमाने में भी कठिन था। उन्होंने पहले खुद को ठीक किया। बहुत पापड़ बेले। गुरु भी किया। नाम नहीं बताते हैं। शायद गुरु की तलाश में उनकी भेंट तमाम गुरु-घंटालों से हुई, इसलिए सजग भी किया। गुरु करना मगर ठोंक-बजाकर, कहीं अंधा मिल गया तो बड़ी दुर्गति होगी। अंधे अंधा ठेलिया दुन्यू कूप पड़ंत। तुम तो अंधे-अज्ञानी हो ही, तभी तो भीतर कोई दीप जलाने वाला ढूढ रहे हो। वह भी अंधा हुआ तो? बहुत सारे अंधे मिले होंगे कबीर को भी लेकिन वे सजग थे, उनकी आंखें खुली हुई थीं, वे अपनी प्रारंभिक यात्रा में ही इतना समझ गये थे कि उजाला बंद आंखों से नहीं मिलेगा, जागते रहना होगा। जो जागेगा सो पावेगा, जो सोवेगा, सो खोवेगा।
उनका यह जागना ही उन्हें रास्ता दिखाता गया। उन्होंने अपने भीतर खुद जागना सीख लिया था। यही समझ उनकी गुरु बनी। वे अपने गुरु,अपने दीप खुद ही बने। कबीर का जागना केवल आंखें खोले रहने भर तक नहीं था। बहुत से लोग खुली आंखों में सोये रहते हैं। कुछ अपने दिवास्वप्न में मग्न तो कुछ अपने स्वार्थस्वप्न को साकार करने में निमग्न। कुछ देख कर भी नहीं देखते तो कुछ उतना ही देखते हैं, जितना देखना चाहते हैं। कुछ प्रतिरोधहीनता से ग्रस्त, मरे हुए तो कुछ हर हाल में अनीतिकारी और पाखंडी ताकतों के आगे बिछ जाने को तत्पर। धूमिल ठीक ही कहते हैं, जिसकी पूंछ उठाकर देखो, मादा ही निकलता है। ऐसे लोगों का जागना क्या और सोना क्या। जो अपने से कमजोर पर हमेशा गुर्राता हो, उसकी हथेली में आते उसके हक को भी छीन लेना चाहता हो और अपने से ताकतवर को देखते ही पूंछ दबाकर निकल जाता हो, वह जगा हुआ कैसे हो सकता है। वह तो ऐसी गहरी नींद में है कि उसने मनुष्यता ही त्याग दी है। उसने अपना एक जंगल रच लिया है और उसी में खुश है। उसे जानवर या जंगली तो कह सकते हैं, पर आदमी नहीं।
कबीर को इसी जंगल में आदमी की तलाश थी, वे जंगलपन के खिलाफ लड़ रहे थे, आज भी लड़ रहे हैं। कबीर ने कहा, सारा ज्ञान ढाई आखर में है। यह किताबें पढ़कर नहीं समझ में आयेगा, योग करने से भी नहीं समझ में आयेगा, इसके लिए खुद को मिटाना पड़ेगा। प्रेम गली अति सांकरी जामें दो न समाहिं। प्रेम तभी कर सकोगे, जब हरि के लिए खुद को मिटा दो। तुम बने रहोगे तो हरि नहीं होगा और हरि होगा तो तुम्हारा बने रहना संभव नहीं है। यह हरि ही जल सरीखा है। भीतर भी, बाहर भी। प्रेम कर नहीं पाते हो क्योंकि तुम्हारी समझ में आता ही नहीं कि तुम्हारे भीतर, कुंभ में जो जल है, बाहर भी वही जल है। बस कुंभ को फोड़ देना है, आत्ममोह, आत्मरति और अपने लिए खुद के होने से मुक्त हो जाना है। तभी सच में दूसरों की पीड़ा समझने की सामर्थ्य जन्मेगी, तभी दूसरों का दुख समझ में आयेगा, तभी अन्याय, दमन, अत्याचार के अर्थ भी खुलेंगे और उनके प्रतिकार का भाव पैदा होगा। यही दूसरों के लिए जीना है, यही मनुष्य होना है। केवल अपने लिए तो कीड़े-मकोड़े भी जी लेते हैं, अगर कोई मनुज भी ऐसा ही करता है तो वह कीचड़ में बिलबिलाते कीड़ों से बेहतर जिंदगी कहां जी रहा है।
दूसरों के लिए जीना ही प्रेम है, दूसरों के लिए मिट जाना ही ढाई आखर की समझ है। पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ, पंड़ित भया न कोय, ढाई आखर प्रेम का पढ़ै सो पंडित होय। जिसने दुनिया भर का दर्शन पढ़ लिया, मोटे-मोटे ग्रंथ रट लिये, अच्छा प्रवचन करना सीख लिया, वही पंडित है, यह समझ थोथी है। जिसने प्रेम का अर्थ जान लिया, प्रेम करना सीख लिया, जिसे ढाई अक्षर की समझ आ गयी, वह पंडित है। कबीर को समझना इसी प्रेम को समझना है। प्रेम का उनसे बड़ा मर्मज्ञ कोई और नहीं दिखता। वे लोगों को ललकारते हैं, डांटते-डपटते हैं तो केवल इसीलिए कि वे शर्म से ही सही अपने भीतर झांके तो सही। शायद अपने ही अनेक चेहरे एक साथ देख सकें। कबीर को इसमें कितनी सफलता मिली, इसका मूल्यांकन होता रहा है, आगे भी होता रहेगा लेकिन इतना सच तो कोई भी अस्वीकार नहीं कर सकता कि वे जिंदा हैं, उनका प्रेम भी जिंदा है।
उनका यह जागना ही उन्हें रास्ता दिखाता गया। उन्होंने अपने भीतर खुद जागना सीख लिया था। यही समझ उनकी गुरु बनी। वे अपने गुरु,अपने दीप खुद ही बने। कबीर का जागना केवल आंखें खोले रहने भर तक नहीं था। बहुत से लोग खुली आंखों में सोये रहते हैं। कुछ अपने दिवास्वप्न में मग्न तो कुछ अपने स्वार्थस्वप्न को साकार करने में निमग्न। कुछ देख कर भी नहीं देखते तो कुछ उतना ही देखते हैं, जितना देखना चाहते हैं। कुछ प्रतिरोधहीनता से ग्रस्त, मरे हुए तो कुछ हर हाल में अनीतिकारी और पाखंडी ताकतों के आगे बिछ जाने को तत्पर। धूमिल ठीक ही कहते हैं, जिसकी पूंछ उठाकर देखो, मादा ही निकलता है। ऐसे लोगों का जागना क्या और सोना क्या। जो अपने से कमजोर पर हमेशा गुर्राता हो, उसकी हथेली में आते उसके हक को भी छीन लेना चाहता हो और अपने से ताकतवर को देखते ही पूंछ दबाकर निकल जाता हो, वह जगा हुआ कैसे हो सकता है। वह तो ऐसी गहरी नींद में है कि उसने मनुष्यता ही त्याग दी है। उसने अपना एक जंगल रच लिया है और उसी में खुश है। उसे जानवर या जंगली तो कह सकते हैं, पर आदमी नहीं।
कबीर को इसी जंगल में आदमी की तलाश थी, वे जंगलपन के खिलाफ लड़ रहे थे, आज भी लड़ रहे हैं। कबीर ने कहा, सारा ज्ञान ढाई आखर में है। यह किताबें पढ़कर नहीं समझ में आयेगा, योग करने से भी नहीं समझ में आयेगा, इसके लिए खुद को मिटाना पड़ेगा। प्रेम गली अति सांकरी जामें दो न समाहिं। प्रेम तभी कर सकोगे, जब हरि के लिए खुद को मिटा दो। तुम बने रहोगे तो हरि नहीं होगा और हरि होगा तो तुम्हारा बने रहना संभव नहीं है। यह हरि ही जल सरीखा है। भीतर भी, बाहर भी। प्रेम कर नहीं पाते हो क्योंकि तुम्हारी समझ में आता ही नहीं कि तुम्हारे भीतर, कुंभ में जो जल है, बाहर भी वही जल है। बस कुंभ को फोड़ देना है, आत्ममोह, आत्मरति और अपने लिए खुद के होने से मुक्त हो जाना है। तभी सच में दूसरों की पीड़ा समझने की सामर्थ्य जन्मेगी, तभी दूसरों का दुख समझ में आयेगा, तभी अन्याय, दमन, अत्याचार के अर्थ भी खुलेंगे और उनके प्रतिकार का भाव पैदा होगा। यही दूसरों के लिए जीना है, यही मनुष्य होना है। केवल अपने लिए तो कीड़े-मकोड़े भी जी लेते हैं, अगर कोई मनुज भी ऐसा ही करता है तो वह कीचड़ में बिलबिलाते कीड़ों से बेहतर जिंदगी कहां जी रहा है।
दूसरों के लिए जीना ही प्रेम है, दूसरों के लिए मिट जाना ही ढाई आखर की समझ है। पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ, पंड़ित भया न कोय, ढाई आखर प्रेम का पढ़ै सो पंडित होय। जिसने दुनिया भर का दर्शन पढ़ लिया, मोटे-मोटे ग्रंथ रट लिये, अच्छा प्रवचन करना सीख लिया, वही पंडित है, यह समझ थोथी है। जिसने प्रेम का अर्थ जान लिया, प्रेम करना सीख लिया, जिसे ढाई अक्षर की समझ आ गयी, वह पंडित है। कबीर को समझना इसी प्रेम को समझना है। प्रेम का उनसे बड़ा मर्मज्ञ कोई और नहीं दिखता। वे लोगों को ललकारते हैं, डांटते-डपटते हैं तो केवल इसीलिए कि वे शर्म से ही सही अपने भीतर झांके तो सही। शायद अपने ही अनेक चेहरे एक साथ देख सकें। कबीर को इसमें कितनी सफलता मिली, इसका मूल्यांकन होता रहा है, आगे भी होता रहेगा लेकिन इतना सच तो कोई भी अस्वीकार नहीं कर सकता कि वे जिंदा हैं, उनका प्रेम भी जिंदा है।
प्रेम का घर विशाल है और सबके लिये स्थान है उसमें।
जवाब देंहटाएंप्रेम अनबूझ हैं
जवाब देंहटाएंकबीर जिंदा हैं
जवाब देंहटाएंसबकी कलम में
हमारे मन में
प्रेम में सबके
वे जिंदा रहेंगे
।