कभी-कभी मुझे डर लगता है, आप को भी लगता होगा, शायद सबको लगता होगा। कई बार मैं कई वजहों से डरता हूं, लेकिन इस पर सोचता नहीं, कई बार सोचता हूं मगर बहुत गहराई तक नहीं जा पाता लेकिनं जब डर बहुत गहरा होता है तो उस पर सोचे बगैर नहीं रह पाता। जब समुद्र के सामने विनयावनत भाव में खड़े-खड़े राम को कई दिन बीत गये और समुद्र ने उनकी याचना पर ध्यान नहीं दिया तो उन्हें उसकी अहमन्यता पर क्रोध आया। तुलसीदास ने लिखा कि राम ने छोटे भाई से कहा, अब वाण उठाओ और इसे सुखा दो, क्योंकि बिना भय के प्रीति नहीं होती है। बिनु भय होहि न प्रीति।
क्या सचमुच भय से प्रीति होती है? मुझे महाकवि की इस स्थापना पर थोड़ा शक है। भय हो सकता है तात्कालिक दृष्टि से उपयोगी साबित हो और कोई रुका हुआ काम बन जाय परंतु उसका समग्र परिणाम तो प्रतिक्रिया के रूप में ही सामने आयेगा। किसी को भयग्रस्त करके भय पैदा करने वाला सुरक्षित नहीं रह सकता। सहज ही हर प्राणी भय से मुक्त होना चाहता है। वह जानवर हो या आदमी अगर किसी कारण उसे भय है तो वह भय को खत्म करने के लिए उसके कारण को ही नष्ट करना चाहेगा। यह बिल्कुल सही नहीं है कि भयग्रस्तता व्यक्ति को भय के कारण के प्रति प्रीति या राग पैदा करेगी।
कई बार आदमी अपने डर का कारण स्वयं होता है। हालांकि उसे इसका पता नहीं होता। किसी ने बहुत ज्यादा धन-वैभव के साधन संचित कर लिये तो उसे चोरों से भय लगा रहता है, किसी ने अवैध ढंग से अपने अधिकार से परे जाकर अपने आस-पास ऐश्वर्य की चमक पैदा कर ली तो उसे कानून का डर लगा रहता है। जिसके पास भी खोने के लिए कुछ है, उसे कभी न कभी डर जरूर घेरता है। जो पाना चाहता है, वह भी भयग्रस्त रहता है। उसे डर रहता है कि कहीं वह उससे वंचित न कर दिया जाये, जो वह पाना चाहता है। सहजता निर्भय होने में है लेकिन निर्भय होने के लिए एक कठिन शर्त पूरी करनी पड़ती है।
आप में कुछ पाने की चाह न हो तो आप के पास कुछ खोने के लिए भी नहीं बचता है। किसी संत कवि ने कहा है कि चाह गयी, चिंता मिटी मनुआ बेपरवाह, जिनको कछू न चाहिए, वो साहन के साह। सारा संकट चाह का है, इच्छाओं का है। अपने लिए इच्छाएं हैं तो डर भी बना रहेगा। फिर रास्ता क्या है? या तो इच्छाओं से मुक्ति पा ली जाय या फिर स्वार्थ का सामाजिक विस्तार कर लिया जाय। अपने पास जो है, वह अपने ही लिए नहीं है। अपनी जरूरत के बाद जो बचा हुआ है, उस पर दूसरों का हक बनता है। अगर उससे दूसरे जरूरतमंदों की मदद हो सकती है, उनकी पीड़ा कम हो सकती है, उनकी भूख मिट सकती है तो इसमें क्या बुराई है, इसमें जाता क्या है। जो मिला था, वह समाज से ही मिला था, अगर वह समाज के लिए खर्च हो गया तो परेशानी क्या। पर ऐसा लोग सोचते कहां हैं?
आवश्यकता का तर्क बड़ा अजीब है। आज की, कल की, परसों की, बरसों की या जीवन भर की, कई पीढ़ियों की आवश्यकता का तर्क आदमी को संग्रह की दुर्दम्य लालसा तक ले जाता है। और यही संग्रह उसके भीतर भय के बीज रोपता है। एक साधु अपने शिष्य के साथ रात में जगल पार कर रहा था। कुछ भीतर जाने के बाद उसने अपने चेले से कहा, रात बहुत गहरी है, डर लग रहा है। चेले ने कहा, गुरुवर चलें डरने की जरूरत नहीं है। गुरुवर का झोला चेले के कं धे पर टंगा था। कुछ और दूरी तय करने के बाद गुरु ने फिर अपना डर जाहिर किया। चेले को शक हुआ। उसने झोला देखा तो उसमें अशर्फियां पड़ी हुई थीं। उसने झोला जंगल के एक घने कोने में फेंक दिया। कुछ और आगे बढ़ने पर जब गुरुवर ने फिर अपना भय जाहिर किया तो चेले ने कहा, गुरुदेव अब निर्भय होकर आगे बढ़ें, डर को मैंने पीछे फेंक दिया है। गुरु ने देखा चेले के कंधे पर झोला नहीं था. वे एक मिनट के लिए ठिठके लेकिन भीतर झांककर देखा तो वहां डर नहीं था।
जो अपने लिए नहीं जीता है, जिसके संकल्प समाज की बेहतरी के लिए होते हैं, जिसकी समूची सक्रियता समाज के लिए होती है, जो अपने खोने-पाने का मूल्यांकन समाज के लाभ-हानि के नजरिये से करता है, उसे कभी डर नहीं लगता, वह कभी मोहग्रस्त नहीं होता, वह कभी संशय में नहीं रहता। निर्भय होने का एकमात्र रास्ता है, अपना समूची शक्ति, सम्पूर्ण ऊर्जा, सारा वैभव, रचनात्मकता समाज के लिए होम कर दें, उसकी बेहतरी के लिए लगा दें। यह कठिन है, पर जो सर्जक हैं, जो रचनाशील हैं, उनकी ताकत इसी आचरण में छिपी है। करके तो देखें।
क्या सचमुच भय से प्रीति होती है? मुझे महाकवि की इस स्थापना पर थोड़ा शक है। भय हो सकता है तात्कालिक दृष्टि से उपयोगी साबित हो और कोई रुका हुआ काम बन जाय परंतु उसका समग्र परिणाम तो प्रतिक्रिया के रूप में ही सामने आयेगा। किसी को भयग्रस्त करके भय पैदा करने वाला सुरक्षित नहीं रह सकता। सहज ही हर प्राणी भय से मुक्त होना चाहता है। वह जानवर हो या आदमी अगर किसी कारण उसे भय है तो वह भय को खत्म करने के लिए उसके कारण को ही नष्ट करना चाहेगा। यह बिल्कुल सही नहीं है कि भयग्रस्तता व्यक्ति को भय के कारण के प्रति प्रीति या राग पैदा करेगी।
कई बार आदमी अपने डर का कारण स्वयं होता है। हालांकि उसे इसका पता नहीं होता। किसी ने बहुत ज्यादा धन-वैभव के साधन संचित कर लिये तो उसे चोरों से भय लगा रहता है, किसी ने अवैध ढंग से अपने अधिकार से परे जाकर अपने आस-पास ऐश्वर्य की चमक पैदा कर ली तो उसे कानून का डर लगा रहता है। जिसके पास भी खोने के लिए कुछ है, उसे कभी न कभी डर जरूर घेरता है। जो पाना चाहता है, वह भी भयग्रस्त रहता है। उसे डर रहता है कि कहीं वह उससे वंचित न कर दिया जाये, जो वह पाना चाहता है। सहजता निर्भय होने में है लेकिन निर्भय होने के लिए एक कठिन शर्त पूरी करनी पड़ती है।
आप में कुछ पाने की चाह न हो तो आप के पास कुछ खोने के लिए भी नहीं बचता है। किसी संत कवि ने कहा है कि चाह गयी, चिंता मिटी मनुआ बेपरवाह, जिनको कछू न चाहिए, वो साहन के साह। सारा संकट चाह का है, इच्छाओं का है। अपने लिए इच्छाएं हैं तो डर भी बना रहेगा। फिर रास्ता क्या है? या तो इच्छाओं से मुक्ति पा ली जाय या फिर स्वार्थ का सामाजिक विस्तार कर लिया जाय। अपने पास जो है, वह अपने ही लिए नहीं है। अपनी जरूरत के बाद जो बचा हुआ है, उस पर दूसरों का हक बनता है। अगर उससे दूसरे जरूरतमंदों की मदद हो सकती है, उनकी पीड़ा कम हो सकती है, उनकी भूख मिट सकती है तो इसमें क्या बुराई है, इसमें जाता क्या है। जो मिला था, वह समाज से ही मिला था, अगर वह समाज के लिए खर्च हो गया तो परेशानी क्या। पर ऐसा लोग सोचते कहां हैं?
आवश्यकता का तर्क बड़ा अजीब है। आज की, कल की, परसों की, बरसों की या जीवन भर की, कई पीढ़ियों की आवश्यकता का तर्क आदमी को संग्रह की दुर्दम्य लालसा तक ले जाता है। और यही संग्रह उसके भीतर भय के बीज रोपता है। एक साधु अपने शिष्य के साथ रात में जगल पार कर रहा था। कुछ भीतर जाने के बाद उसने अपने चेले से कहा, रात बहुत गहरी है, डर लग रहा है। चेले ने कहा, गुरुवर चलें डरने की जरूरत नहीं है। गुरुवर का झोला चेले के कं धे पर टंगा था। कुछ और दूरी तय करने के बाद गुरु ने फिर अपना डर जाहिर किया। चेले को शक हुआ। उसने झोला देखा तो उसमें अशर्फियां पड़ी हुई थीं। उसने झोला जंगल के एक घने कोने में फेंक दिया। कुछ और आगे बढ़ने पर जब गुरुवर ने फिर अपना भय जाहिर किया तो चेले ने कहा, गुरुदेव अब निर्भय होकर आगे बढ़ें, डर को मैंने पीछे फेंक दिया है। गुरु ने देखा चेले के कंधे पर झोला नहीं था. वे एक मिनट के लिए ठिठके लेकिन भीतर झांककर देखा तो वहां डर नहीं था।
जो अपने लिए नहीं जीता है, जिसके संकल्प समाज की बेहतरी के लिए होते हैं, जिसकी समूची सक्रियता समाज के लिए होती है, जो अपने खोने-पाने का मूल्यांकन समाज के लाभ-हानि के नजरिये से करता है, उसे कभी डर नहीं लगता, वह कभी मोहग्रस्त नहीं होता, वह कभी संशय में नहीं रहता। निर्भय होने का एकमात्र रास्ता है, अपना समूची शक्ति, सम्पूर्ण ऊर्जा, सारा वैभव, रचनात्मकता समाज के लिए होम कर दें, उसकी बेहतरी के लिए लगा दें। यह कठिन है, पर जो सर्जक हैं, जो रचनाशील हैं, उनकी ताकत इसी आचरण में छिपी है। करके तो देखें।
सच है, भय बिन होय न प्रीति।
जवाब देंहटाएंभय बिन होय न प्रीति....ऐसा आम जीवन में होते देखा है...
जवाब देंहटाएंएकदम सही कह रहे हैं सुभाष भाई
जवाब देंहटाएंअब तो डर को लगने लगा होगा डर
जब देखता होगा हम निडरों को बेडर
धड़कता होगा दिल धड़काने वाले का
सर, एक बार फिर आपका स्वागत है। यह पोस्ट पढ़कर अच्छा लगा। बात जहां तक डर की है तो वह सबको लगता है और लगना भी चाहिए। जब आपको डर नहीं होता तो आप कुछ भी करेंगे हो सकता है वह गलत भी हो। अगर आप सांप से नहीं डरेंगे तो वह काट सकता है और आप मृत्यु को प्राप्त हो सकते हैँ। जीवन जीने के लिए बहुत सी चीजों की तरह डर भी एक आवश्यक तत्व है। बहुत से लोग कहते हैं वे नहीं डरते, वे झूठ बोलते हैं। उन्होंने डर को नजदीक से देखा ही नहीं है। जिस दिन डर को अनुभव कर लेंगे समझ लेंगे डर क्या है। यह गलत है कि जो डर गया वह मर गया। अब तो डर के आगे जीत है। उम्मीद है कि आगे भी कुछ अच्छी और ज्ञानवद्र्धक पोस्टें पढऩे को मिलेंगीं।
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