सोमवार, 16 मई 2011

भविष्य की भाषा

  हिंदी का भाषा के रूप में भविष्य क्या है? कहीं कुछ दशकों में यह केवल कुलीन लेखकों और साहित्यकारों की भाषा भर तो नहीं रह जायेगी? यह सवाल इसलिए भी प्रासंगिक हो गया है कि इंटरनेट के तीव्र प्रसार और अंग्रेजी के बिना रोजगार न मिलने की लाचारी के चलते धीरे-धीरे हमारे बीच एक ऐसे समुदाय का जन्म हो रहा है, जो न ठीक से हिंदी बोल पाता है, न ही अंग्रेजी। वह अंग्रेजियत का दीवाना तो है पर उसे अंग्रेजी आती नहीं। पिछले कुछ दशकों से बच्चों में अंग्रेजी स्कूलों का आकर्षण तेजी से बढ़ा है। उन लोगों की संख्या भी तेजी से बढ़ी है, जो अपने बच्चों के सुखद भविष्य के लिए उन्हें अंग्रेजी की कैद में डाल कर घर के भीतर और कई बार घर के बाहर भी हाऊ आर यू, वेल डन, बाय-बाय, गुडनाइट और गुड मार्निंग बोलने में अपना मस्तक ऊंचा हुआ सा देख रहे हैं।

दरअसल हम एक ऐसे अहमन्य और दिखावापरस्त समाज में रह रहे हैं, जहां अपनी भाषा, अपनी संस्कृति पर गर्व करना बेवकूफी समझा जाने लगा है। अंग्रेजी नहीं आती लेकिन ड्राइंग रूम में एक अंग्रेजी अखबार या पत्रिका पड़ी रहनी चाहिए। घर में दोनों वक्त भर पेट खाने का इंतजाम भले न हो, बच्चों की फीस भरने के लिए पैसा भले न हो, रोज पेट्रोल खरीदने की औकात भले न हो, लेकिन लोग बैंक से कर्ज लेकर एक चौपहिया खड़ी करने में पीछे नहीं रहते। वह रोज घर से बाहर निकालकर पानी में नहलायी जायेगी और फिर भीतर खड़ी कर दी जायेगी। बर्थडे, पार्टी में शान दिखाना और नामचीन लोगों के साथ बैठकर दारू उड़ाना भी इसी दिखावे के हिस्से हैं।

मध्यवर्गीय  समाज को यह रोग घुन की तरह लग चुका है। यही लोग हैं जो लंगड़ी अंग्रेजी बोलकर अपना रुतबा जताने में भी पीछे नहीं रहते। एबीसीडी और कखगघ की मिक्स चटनी इनकी जुबान पर अकसर देखी जा सकती है। यह धीरे-धीरे फैशन और दिखावे के साथ ही एक मजबूरी भी बनती जा रही है। मजाक-मजाक में ही इन लोगों ने आपसी संवाद की एक नयी भाषा गढ़नी शुरू कर दी है। ऐसे लोगों को खुशी होगी कि तंज में ही सही उसे हिंगलिश कहा जाने लगा है। जल्दबाजी में हिंदी मीडिया का एक तबका, जो अपने को शायद भविष्यद्रष्टा मानता है, इस सुचिंतन के वशीभूत हो गया कि अगर वह हिंगलिश का प्रयोग करता है तो मिश्रित भाषा के प्रयोग की तरफ बढ़ रहे युवा और उनके अभिभावक उन्हें हाथों-हाथ लेंगे। इस तरह के हिंगलिशवादियों को यद्यपि कामयाबी नहीं मिली लेकिन इससे यह निष्कर्ष नहीं निकाला जाना चाहिए कि लोग  भाषा में मिलावट के खिलाफ खड़े हो सकते हैं।

संचार के नये साधनों के प्रसार और समय के अभाव के चलते मोबाइल, मेल और इंटरनेट पर संवाद का एक नया माध्यम विकसित हो रहा है, जिसमें प्रयुक्त होने वाले शब्द या वर्ण उच्चारण में तो मूल शब्दों की ध्वनि देते हैं परंतु अपनी संक्षिप्ति के कारण भिन्न वर्तनी में प्रस्तुत होते हैं। यू के लिए वाई ओ यू की जगह सिर्फ यू या सी के लिए एस ई ई की जगह सिर्फ सी। इंटरनेट ने बेशक ज्ञान-विज्ञान के नये दरवाजे खोले हैं लेकिन वह दुनिया भर कें महान कचरा चिंतन का डंपिंग ग्राउंड भी बन गया है। ऐसे में जो लोग साहित्य, संस्कृति और रचनात्मक अनुशासनों से संबंधित सामग्री के लिए इंटरनेट से उम्मीद लगाये बैठे  हैं, वे निराश हो रहे होंगे।

आदमी की रफ्तार जैसै-जैसे तेज होगी, संवाद और संचार के और कारगर, तीव्र माध्यम ईजाद होंगे। जाहिर है इन माध्यमों की भाषा अंग्रेजी होगी और जिनमें इस होड़ में बने रहने की लालसा होगी, वे अंग्रेजी का सहारा लेने को विवश होंगे। ऐसे में 50 साल बाद जब लंदन, न्यूयार्क, मास्को, बीजिंग या टोकियो जाना हमारे लिए दिल्ली के एक छोर से दूसरे छोर तक जाने जैसा होगा, दुनिया बहुत छोटी हो जायेगी, अलग-अलग भाषाभाषियों के बीच बातचीत की जरूरत और बढ़ेगी, तब अंग्रेजी के साथ विभिन्न भाषाओं के शब्द मिश्रित होते जायेंगे और अंग्रेजी के शब्द अपनी मूल वर्तनी से कटकर अपने संक्षिप्त और इंटरनेटी रूप में प्रयोग होने लगेंगे। भविष्य में शायद ऐसी ही कोई एक भाषा दुनिया भर में व्यापक संवाद का माध्यम बने। यह तकनीकी ज्ञान-विज्ञान की भाषा होगी।

चूंकि धन, संपदा, ऐश्वर्य और बड़ी-बड़ी नौकरियों की संभावनाएं तकनीकी क्षेत्रों में ही दिख रही हैं और लंबे समय से अंग्रेजी भौतिक विज्ञानों की भाषा रही है, इसलिए यही नयी भाषा सारी दुनिया को जोड़ने में कारगर होगी। नहीं कहा जा सकता कि गैर-आंग्ल भाषाओं में तब साहित्य और चिंतन के लिए कितना अवकाश होगा और भविष्य के विश्व समाज के लिए इसकी कितनी जरूरत होगी लेकिन इतना तो साफ है कि कला, भाषा, संस्कृति और साहित्य पर संकट कुछ ज्यादा ही होगा।       

3 टिप्‍पणियां:

  1. यदि प्रचार की संस्कृति से लोग उपभाषायें प्रचारित कर रहे हैं तो हिन्दी क्यों नहीं प्रचारित हो सकती है।

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  2. सोचनीय स्थिति है हमें अपने पर शर्म आनी चाहिए। कहीं न कहीं इसके दोषी हम ही हैं। इससे मुंह नहीं मोड़ सकते हैं हम। मजबूर हैं। हैं भी और नहीं भी। आजकल का विकास इसे ही तो कहा जा रहा है।
    ऐसी और भी बहुत सारी समस्‍याएं हैं, सब पर ताजा परिप्रेक्ष्‍य में विचार होना चाहिए। आपने बिल्‍कुल सही लिखा है। पर इस पर अमल करने वाले कहां से लाएं ?

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  3. सहमत हूँ जी...
    अँग्रेज़ी की बकैती के सम्मुख कुछ स्वाभिमानी कौमों की भाषा ( चीनी, जापानी, जर्मन, फ़्रेन्च इत्यादि ) अभी भी सिर उठाये खड़ी है ।
    इस आलेख में द्वितीय पैराग्राफ़ अनावश्यक सा लगता है !

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