सोमवार, 30 अगस्त 2010

मैंने कैसे रची कामायनी-उत्तमा






उत्तमा की रचना श्रृंखला, कामायनी की एक पेंटिंग मैंने पिछली बार लगायी थी। बहुत से लोग जानना चाहते थे कि ऐसी नग्नता क्या कला में आवश्यक है? यह असहज नहीं लगता, जानबूझकर ज्यादा दर्शक जुटाने या विवाद बढ़ाकर चर्चा में आने के लिये तो कलाकार ऐसा नहीं करते। इन प्रश्नों पर मैंने कामायनी की रचनाकार से ही जानना चाहा कि वास्तव में सच क्या है? यहां कामायनी श्रृंखला की कुछ और रचनायें और उत्तमा के विचार भी दिये जा रहे हैं। आप इस बहस को आगे बढ़ाने के लिये आमंत्रित हैं।
कला में न्यूडिटी और हम: उत्तमा
कला में न्यूडिटी पर चर्चा जितनी दिलचस्प है, उतनी  ही गंभीर। सामाजिक सरोकारों की ही तरह  न्यूड रचना भी एक रोचक विषय है। कलाकार प्रकृति की हर रचना को अपनी नजर से देखता और उसका चित्रांकन करता है। मानव शरीर भी  प्रकृति की ही एक कृति है। यह कला का विषय क्यों नहीं हो सकता ? आब्जेक्ट न्यूड हो या कपड़ों में, आर्टिस्ट के लिए महज एक आब्जेक्ट है। प्रसव के समय छटपटाती स्त्री को कोई फर्क नहीं पड़ता कि उसका डॉक्टर पुरुष है या स्त्री। अर्द्धनग्न अवस्था में उसे तमाम लोग देखते हैं, यह नए सृजन के लिए होता है इसलिये उसमें कहीं अश्लीलता नहीं मानी जाती। लेकिन जब यही सृजन एक आर्टिस्ट करता है तो विवाद शुरू हो जाता है।  कोई समझना नहीं चाहता की कैनवस पर कब, क्या और कैसे पेंट करना है, यह आर्टिस्टिक मूड डिसाइड करता है। कैनवस सामने आने पर कलाकार सोच-समझकर काम नहीं करता, वो तो होने लगता है। कला दिल से निकलती है न कि दिमाग से।

स्टूडेंट लाइफ में जब मैं न्यूड फिगर बनाती थी, तब अपने ही घर में मुझे लगता था कि सभी अच्छा महसूस नहीं कर रहे। पढ़ाई के दौरान ही मैंने न्यूड पेंटिंग बनानी शुरू कर दी थीं। बीएफए द्वितीय वर्ष में मेरी ऐसी पहली पेंटिंग में युवती को एक अजगर ने जकड़ रखा था।  हर मामले में मेरा हौसला बढ़ाने वाली मम्मी ने ही पूछ लिया कि तुम्हारी ऐसी पेंटिंग्स का तुम्हारे छोटे भाइयों पर कैसा असर पड़ेगा।लोग तुम्हारे बारे में कैसा सोचेंगे। ग्वालियर में एक प्रदर्शनी के दौरान कुछ लोगों ने  मेरी पेंटिंग्स का जमकर विरोध किया। मैं बहुत डर गई थी। न्यूड पेंटिंग किए जाने की वजहें हैं। हर आर्टिस्ट के लिए यह जरूरी है कि वह शरीर के हर अंग की बनावट को जाने। फ्रंट, बैक, साइड पोश्चर, बैठे, खड़े और लेटे की पोजीशन की डीप स्टडी किए बिना फिगरेटिव पेंटिंग की
कल्पना मेरी समझ से परे है। एनाटॉमी स्टडी करने के लिए स्टूडेंट्स को किताबों का सहारा लेना पड़ता है क्योंकि न्यूड मॉडल उपलब्ध नहीं हो पाते। हर सीखने वाले के साथ ऐसा ही होता है। यह किताबें छिपाकर रखनी पड़ती हैं।

 जयशंकर प्रसाद की कामायनी पर पेंटिंग करने का फैसला मैंने जितनी आसानी से ले लिया, पुस्तक पढ़ने के बाद उतनी ही देरी हुई। मुझे लगा, जैसे मेरे भीतर का कलाकार कुछ करना चाहता है। प्रलय के दौरान मनु और श्रद्धा का प्रेम प्रेरक लगा। कामायनी पढ़ी, लगा प्रसाद ने विवादों से बचने का कहीं रास्ता तो नहीं तलाशा है। मनु और श्रद्धा को न्यूड बता पाने से हिचके क्यों वो? बताइये प्रलय के पश्चात कहां से आ गए वस्त्र? श्रद्धा और मनु को कैनवस पर उतारा तो मुझे लगा कि कपड़ों के बिना दोनों पात्रों को ज्यादा बेहतर अभिव्यक्त किया जा सकता है। पेपर पर स्केच बनाना शुरू किया। एक साथ छह कैनवस पर काम करना शुरू किया। विषय की संवेदना और भाव-भंगिमा को चित्र में उतारने में मुझे खूब मेहनत करनी पड़ी। 
प्रसाद कहते हैं, मनु विचारों में लीन थे कि तभी किसी ने आकर पूछा कि इस जनहीन प्रदेश को अपनी रूप-छटा से आलोकित करने वाले तुम कौन हो? मनु ने दृष्टि उठाई तो देखा कि दीर्घ आकार की एक विलक्षण सौंदर्य संपन्न बालिका उनके सामने खड़ी है। नीले रोओं वाली भेड़ों के चिकने चर्म खंडों से ढंका उसका अर्द्धनग्न शरीर ऐसा लगता था कि जैसे काले बादलों के वन में बिजली के फूल खिल उठे हों और उसकी मुस्कान तो इतनी मधुर थी कि मनु देखते ही रह गए। चुनौती सामने थी, प्रलय के कारण भावशून्य हुए मनु के रूप में मुझे मन दिखाना था और श्रद्धा के रूप में दिल। रहस्य, स्वप्न, आशाएं, कर्म, काम, वासना, आनंद, लज्जा, ईर्ष्या और चिंता के भावों का चित्रण करना सचमुच चुनौतीपूर्ण था। समस्याएं भी कम नहीं। हमारे यहां न्यूड पेंटिंग्स जितनी भी बन जाएं लेकिन बिकती नहीं।
कामायनी बनाते समय मैंने तो सोचा ही नहीं था कि यह बेचने के लिए बना रही हूं, कुछ बिक गईं तो बात अलग है। भारतीय बाजार में न्यूडिटी नहीं बिकती।  चुनौतियां हैं और परेशानियां भी, माहौल भी बिल्कुल अनुकूल नहीं, फिर भी हमारे कलाकार इस तरह का काम कर रहे हैं। शायद उन्हें कला पर पहरे के यह दिन और बेवजह
आलोचनाएं करने वाले लोगों के दिल बदलने की उम्मीद है। मैं तो अपनी रिसर्च स्कालर्स और अन्य छात्राओं को सीख देने से नहीं हिचकती कि जो मन आए वो बनाओ। किसी से डरने की जरूरत नहीं। हम कलाकार हैं, दिल की बात ही तो सुनेंगे।
 असिस्टेंट प्रोफेसर, चित्रकला विभाग, दृश्य कला संकाय, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय वाराणसी

शनिवार, 28 अगस्त 2010

उत्तमा की कामायनी

 ------------------
 कामायनी: रचनाकार-उत्तमा दीक्षित (असिस्टेंट प्रोफेसर,  बी एच यू)
---------------

परम्परा के घेरे में कोई रचना जन्म  नहीं लेती। जब पुराना टूटता है, तो कुछ नया बनता है। ध्वंस के ऊपर ही निर्माण खड़ा होता है। कलाकार या रचनाकार यथास्थिति को स्वीकार नहीं करता है, वह परम्पराजीवी नहीं होता है। वह पूरी ताकत से सड़ा-गला ध्वस्त करना चाहता है क्योंकि यही बदलाव की जमीन तैयार करने का एकमात्र रास्ता है। जो बदलाव का आकांक्षी  नहीं है, वह रचनाकार नहीं हो सकता। देश में या समूची दुनिया में परम्परा के मोह से ग्रस्त अतीतजीवियों की जमातें हैं। जब भी उनकी दुनिया को  कोई झटका लगता है, वे पूरी ताकत से प्रतिरोध के लिये उठ खड़े होते हैं। ये रचना और परिवर्तन विरोधी लोग हैं।  एम एफ़ हुसैन को इनका कितना विरोध झेलना पड़ा, यह किसी से छिपा नहीं है।

मैंने  यह बात एक खास कारण से छेड़ी है। दर असल साखी पर गिरीश पंकज की गज़लों के साथ मैंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के ललित कला विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर उत्तमा दीक्षित की एक पेंटिंग लगायी थी। वह एक कलाकार के नाते मुझे बहुत प्रिय है। उसने महाकवि जय शंकर प्रसाद की कामायनी पर आधारित पेंटिंग्स की श्रृंखला बनायी है, उसी में से एक मैंने चुनी थी। मुझे पहले से यह डर था कि इस पर लोग एतराज कर सकते हैं, इसमें लोगों को अश्लीलता नजर आ  सकती है। यह डर सहज था क्योंकि अपनी तमाम प्रगतिशील सोच के बावजूद मन के किसी बहुत गहरे  कोने में एक परम्परावादी व्यक्ति सिकुड़कर बैठा हुआ है, यह स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं होता।

मेरे प्रिय मित्र राजेश उत्साही ने सुबह-सुबह ही सचेत किया, इन रचनाऑं के साथ यह पेंटिंग लोग पसन्द नहीं करेंगे, कोई दूसरी लगा दो। मैंने  उनकी बात मान तो ली पर मन में एक सवाल बार-बार उठता रहा, एक लड़की अगर ऐसी पेंटिंग बना सकती है तो  हम उसे स्वीकार करने में इतने संकोच का परिचय क्यों देते हैं।  हम उसकी कलात्मक गहराई तक जाने की जगह, उसके बाहरी देह में क्यों  अपना रास्ता भूल जाते हैं। मैने राजेश से फिर पूछा,  मैंने तस्वीर तो बदल दी लेकिन ऐसा तुम्हें क्यों लगा कि यह तस्वीर ठीक नहीं है। राजेश ने कहा, पे‍टिंग सुंदर है, हम उसे कला के नजरिए से अगर देखेंगे तो। लेकिन यहां बात साहित्‍य की हो रही है। ब्‍लाग पर तो सब तरह के लोग आ रहे हैं। जरूरी नहीं है कि उनकी समझ भी इतनी ही साफ हो, जितनी हमारी है। बेवजह एक विवाद होगा। मैंने  गिरीश पंकज से भी उनका नजरिया जानना चाहा। उनका कहना था कि  वो पेंटिंग मुझे पसंद आई थी,  रहने देना था,  रस-परिवर्तन भी ज़रूरी है। पाखंड-पर्व के चलते कई बार हमें मज़बूर होना पड़ता है.. पेंटिंग बुरी नहीं थी, उसे कलाके नज़रिए से ही देखना चाहिए। मैंने उत्तमा से भी यह जानने की कोशिश की है कि उसने किस मनस्थिति में, किस नजरिये से इन पेंटिंग्स की रचना की। उसके विचार मिलते ही मैं आप सबके सामने रखूंगा। अभी मैं इस पेंटिंग को आप सबके विचारार्थ यहां रख रहा हूं।

शुक्रवार, 27 अगस्त 2010

दिल्ली का यह ‘सुपर सिपाही'

वीरेन्द्र सेंगर की कलम से कांग्रेस का बहुरूपियापन गजब का है। इसके रणनीतिकारों ने भले बाकायदा ‘पटकथा’ न लिखी हो लेकिन शीर्ष नेतृत्व ने लोक लुभावन राजनीतिक ‘सोप-आपरा’ दिखाने में महारत हासिल कर ली है। जिसमें भरपूर रोमांच है। भावुकता है। गरीबों और आदिवासियों के लिए ममता भरी झप्पी भी है। एक तरफ प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह देश में कारपोरेट कल्चर बढ़ाने में लगे हैं, वहीं दूसरी तरफ ‘युवराज’ राहुल गांधी का दिल दलितों और आदिवासियों के लिए जब-तब जोर-जोर से धड़कने लगता है। अपनी बात कहने का उनका अंदाज भी इतना सूफियाना होता है कि ‘जादू’ कईगुना हो जाता है। ऐसा ही करिश्मा दिखा, उनके उड़ीसा दौरे में। वे गुरुवार को कालाहांडी इलाके के नियमागिरी हिल्स में पहुंचे थे। यहां लांजीगढ़ में उनकी एक बड़ी रैली हुई। महज नौ मिनट के भाषण में उन्होंने आदिवासियों का दिल जीतने की पूरी कोशिश कर डाली। एकदम, आदिवासी मसीहा वाला निरपेक्ष अंदाज। बोले, आपने अपनी धरती बचा ली। आपने, संघर्ष करके अपने भगवान को बचा लिया। इसी की बधाई देने दिल्ली से आया हूं।

हल्की-हल्की दाढ़ी। कुछ-कुछ तुड़ा-मुड़ा झकाझक सफेद कुर्ता-पायजामा। छोटे-छोटे वाक्यों में बात कहने का सहज अंदाज। टीवी न्यूज चैनलों ने देश-दुनिया को उनके इस अंदाज-ए बयां की पूरी लाइव कवरेज दिखाई। यह भी देखने को मिला कि कैसे हजारों-हजार आदिवासी ‘युवराज’ को देखकर ही मदमस्त होते रहे। राहुल ने कहा भी,‘ मैं दिल्ली में आपका सिपाही हूं... आपकी एक आवाज पर कहीं से आपके पास हाजिर हो जाऊंगा|’ वे बताते गए कि कैसे अपने वायदे के पक्के हैं। कह दिया 2004 में यह वायदा करके गया था कि इस बार दिल्ली में गरीबों और आदिवासियों की सुध लेने वाली सरकार आएगी। आ भी गई। उन्हें बताया गया था कि नियमागिरी पहाड़ को वे लोग अपना भगवान मानते हैं। जबकि, राज्य सरकार इसमें खनन के लिए आमादा है। आपकी आवाज दिल्ली ने सुनी। आपकी धरती और भगवान दोनों सुरक्षित हो गए।

मंगलवार को ही केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने फरमान सुनाया था कि ब्रिटेन की कंपनी वेदांत को नियमागिरी हिल्स में खनन नहीं करने दिया जाएगा। दरअसल, हाल में पर्यावरण मंत्रालय की एक चार सदस्यीय विशेषज्ञ समिति ने वेदांत के बाक्साइट खनन को खतरनाक करार किया था। इस प्रोजेक्ट को बंद कराने की सिफारिश की थी। जबकि, वेदांत औद्योगिक घराना उड़ीसा में रिफाइनरी और पावर सेक्टर में ही करीब एक लाख करोड़ रुपये निवेश करने का एलान कर चुका है। राहुल गांधी की रैली जिस स्थान पर हुई थी, वहां से महज दो किलोमीटर दूर ही वेदांत अल्युमीनियम लिमिटेड अपनी एक रिफाइनरी तैयार कर रहा है। वेदांत की ही  तरह इस्पात निर्माण की एक बहुराष्ट्रीय कंपनी ‘पास्को’ के भविष्य पर आशंका के बादल गहरा गए हैं। दक्षिण कोरिया की यह कंपनी कालाहांडी क्षेत्र में एक इस्पात की बड़ी परियोजना लगा रही है। केंद्रीय वन और आदिवासी मामलों के मंत्रालयों ने इस पर आपत्ति की है। मुख्यमंत्री नवीन  पटनायक का कहना है कि राजनीतिक कारणों से केंद्र सरकार राज्य की बड़ी निवेश परियोजनाओं में बाधा डाल रही है। जबकि, सालों की मेहनत के बाद उन्होंने इन घरानों को इस पिछड़े राज्य में निवेश करने के लिए तैयार किया था|

उडीसा में  दशकों से कांग्रेस सत्ता से वंचित है। जमीनी राजनीति में पटनायक का सिक्का चलता है। पहले बीजेडी एवं भाजपा के गठबंधन के चलते कांग्रेस यहां मुंह की खाती रही। लेकिन, पिछले लोकसभा के चुनाव में पटनायक ने भाजपा से गठबंधन तोड़ दिया था। उसने अकेले ही कांग्रेस का मुकाबला कर डाला। इसके बाद भी जीत हासिल कर ली। कांग्रेस को यही कसक है। वह किसी तरह इस अति पिछडे राज्य को अपनी राजनीतिक झोली में डालने को बेचैन है। राहुल गांधी नियमागिरी हिल्स इलाके में दो साल पहले भी आए थे। उस समय भी उन्होंने वेदांत की खनन परियोजना के विरोध में अपना झंडा फहराया था। इस बार तो वे इसका ‘श्रेय’ लूटने आए थे। सो, जमकर इसे लूटा भी। कांग्रेस के रणनीतिकार जानते हैं कि देश की जतना बहुत भावुक मिजाज है। वह इस बात से ही गदगद हो सकती है कि नेहरू-गांधी परिवार का वारिस गरीबों की आवाज को अपना ‘धर्म’ करार करता है।

गुरुवार, 26 अगस्त 2010

आल इज नाट वेल

वीरेन्द्र सेंगर की कलम से प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह राष्ट्रीय मीडिया से रूबरू हुए। जमकर सवालों की बौछार हुई। पीएम ने हर सवाल का जवाब तो दिया, लेकिन बचते-बचाते। उन्होंने पूरी सावधानी रखी कि  कहीं बात का बतंगड़ न बने। अपनी इस कोशिश में वे पूरी तौर पर सफल कहे जा सकते हैं लेकिन, पीएम अपनी ही छवि के अनुरूप कई सवालों पर सहज नहीं देखे गए। कुछ सवालों के उत्तरों में तो साफ-साफ गठबंधन सरकार की मजबूरी झलकी। यूपीए-टू सरकार का एक वर्ष का कार्यकाल पूरा हुआ है। हर सवाल के जवाब में पीएम ने ‘आल इज वेल’ के अंदाज में टिप्पणियां जरूर कीं लेकिन उनके कई बयान बहुत भरोसे लायक नहीं लगे।

डाक्टर मनमोहन सिंह की छवि एक खांटी साफ-सुथरे नेता की है। शायद इसीलिए प्रधानमंत्री से देश कुछ ज्यादा उम्मीद बांधकर चलता है। उनसे अपेक्षा की जाती है कि वे दूसरे नेताओ की तरह सरासर झूठ की बैसाखियों पर अपनी सरकार न चलाएं। कम से कम अपनी सरकार के कुछ चर्चित दागदार चेहरों के कवच तो न बन जाएं। चार सालों में पहली बार मीडिया के सामने वे सवा घंटे तक तमाम सवालों का जवाब देते रहे। कुछ अहम सवालों पर उन्होंने साफगोई का परिचय नहीं दिखाया।  महंगाई के मुद्दे पर मनमोहन सिंह ने घुमा फिराकर अंतरराष्ट्रीय आर्थिक स्थितियों को जिम्मेदार ठहराया। कहा कि पिछले वर्ष कहीं सूखा तो कहीं बाढ़ की वजह से खाद्य उत्पादन कम हुआ। उन्होंने देश को यह भरोसा जरूर दिलाया है कि आगामी दिसंबर तक बढ़ती महंगाई काबू में आ जाएगी। वे उम्मीद कर रहे हैं कि इस अवधि तक महंगाई की दर 5-6 प्रतिशत के बीच आ जाएगी। हालांकि, डाक्टर मनमोहन सिंह ने यह नहीं बताया कि आखिर किस ‘जादू’ से वे महंगाई पर 6 महीने के अंदर काबू पाने की उम्मीद कर रहे हैं। जबकि, उनके कृषि मंत्री शरद पवार लगातार अगाह करते आ रहे हैं कि लोग सस्ती चीनी और सस्ते अनाज की ज्यादा उम्मीद न करें।

 एक सवाल था कि सरकार अपने राजनीतिक फायदे के लिए बार-बार सीबीआई को हथियार क्यों बनाती है? पीएम ने यही कहा कि सरकार सीबीआई के मामले में कोई हस्तक्षेप नहीं करती। संसद में ‘कट मोशन’ के दौरान मायावती व मुलायम से कोई ‘डील’ नहीं हुई। प्रधानमंत्री जब यह सफाई दे रहे थे, तो उनके चेहरे पर सच बोलने का दर्प नहीं दिखाई पड़ रहा था। यहां राजनीतिक समीक्षकों का मानना है कि ‘कट मोशन’ के दौरान की स्थितियां बहुत पुरानी नहीं हैं। लोगों की याददाश्त कमजोर होती है, लेकिन इतनी भी नहीं। ऐसे में ऐसी टिप्पणियों ने विश्वसनीयता का संकट काफी गहरा दिया। तेलंगाना पर पीएम ने यही कहना पर्याप्त समझा कि इस मामले में जांच समिति की रिपोर्ट का इंतजार है। यहां राजनीतिक समीक्षक यह मान रहे हैं कि राहुल गांधी से जुडे  सवाल पर पीएम ने जरूर काफी साफगोई से टिप्पणी की। उन्होंने कहा था कि पार्टी का नेतृत्व जब भी राहुल गांधी को पीएम बनाने का फैसला करेगा, तो वे कुर्सी छोड़ देंगे। ‘युवराज’ राहुल की सराहना भी पीएम ने लगे हाथ जमकर कर डाली।

 एटमी जवाबदेही विधेयक के मामले में भी संसद में काफी विवाद रहा है। पिछले सत्र में सरकार ने आखिरी दिन तमाम हंगामे के बीच लोकसभा में इसे पेश जरूर कर दिया था, लेकिन इसे पास कराने की चुनौती बनी हुई है। इस संदर्भ में प्रधानमंत्री ने भरोसा जताया कि अगले सत्र में इस जरूरी विधेयक को सभी की सहमति से पास करा लिया जाएगा। ए राजा के मामले में एक सीधा सवाल था। हैरान करने की बात यह रही कि डाक्टर मनमोहन सिंह ने जो उत्तर दिया उससे यही संदेश गया कि राजा को सरकार में बचाया जाएगा। पीएम ने यही कहा था कि स्पेक्ट्रम के मामले में उनकी ए राजा से बात हुई है। उन्होंने बताया है कि इस मामले में सब कुछ नियमों के मुताबिक हुआ था। इस जवाब से पीएम ने भले ए राजा को ‘क्लीन चिट’ न दी हो, लेकिन इससे इस मंशा के संकेत तो मिल ही गए कि राजनीतिक कारणों से ए राजा को बचाना जरूरी हो गया है। कई अहम सवालों के जवाब में विश्वसनीयता का बिंदु सवालों के घेरे में ही बना रहा!

गुरुवार, 19 अगस्त 2010

अच्छा रचनाकार अच्छा आलोचक हो सकता है.: प्रेम जनमेजय

क्या आप अपनी रचनाओं के आलोचक हैं?


क्या एक रचनाकार खुद अपनी रचनाओं का आलोचक हो सकता है? स्वयं ही अपनी रचनाओं की पड़्ताल कर सकता है? अपनी रचना के साथ इतना निर्मम हो सकता है कि उससे बिल्कुल अलग खड़ा होकर उसे देख सके? शायद नहीं, शायद हां. यह बिलकुल वैसे ही है, जैसे कोई अपने व्यक्तित्व की बुराइयों को समूची तटस्थता से देख पाये. यह साहित्य में संत होने जैसा है. संत वही है जो खुद में स्थित होकर खुद को देख सकता है. एक अच्छे लेखक में यह तत्व होना ही चाहिये. पर आज के युग में जब तमाम बड़े लेखक आत्म श्लाघा और आत्मप्रचार में लगे हैं, यह बात क्या सहज हो सकती है? जो सहज ही सम्भव हो, वह न बड़ी बात होती है, न बड़ा काम. आत्मालोचन भी सहज सम्भाव्य नहीं है, पर बिना इसके सुधार और परिष्कार की कोई सम्भावना नहीं होती. मेरा मानना है कि एक व्यंग्यकार साहित्य का संत होता है, बिल्कुल कबीर की तरह. उसे यह दृष्टि अनायास ही मिली होती है. चूंकि व्यंग्य आत्मालोचन से ही शुरू होता है, इसलिये समर्थ व्यंग्यकार समर्थ आत्मालोचक होगा, इसमें किंचित संदेह नहीं होना चाहिये. जो खुद पर कटाक्ष कर सकता है, वही दूसरों पर, समाज औए व्यवस्था की विसंगतियों पर भी कटाक्ष करने की योग्यता हासिल कर सकता है. पर अन्य विधाओं के रचनाधर्मियों को भी अपनी रचनाओं को बारीकी से देखने की ताकत अपने भीतर पैदा करनी चाहिये ताकि वे आगे सुधार कर सकें और बेहतर रच सकें.

इस विषय पर चिंतन का यूं ही मौका मिल गया. गुरुवार की सुबह व्यंग्य यात्रा और गगनांचल के सम्पादक प्रेम जनमेजय से मेल चैट पर थोड़ी बात हुई. आम तौर पर हम लिखने-पढ़्ने वालों में एक स्वभावगत कमजोरी होती है कि एक बार जो बात कह दी, उस पर अंगद की तरह पांव टिका दिया. मैंने उन्हें प्रणाम किया. मुझे उम्मीद नहीं थी कि मेरा प्रणाम एक सुखद बातचीत में बदल जायेगा. पर ऐसा ही हुआ. मैने यूं ही कुछ ऐसा कहा, जो उस समय मुझे बिल्कुल साधारण सी बात लगी, पर मैं अपनी बात पर अड़ गया. और वह एक असाधारण परिणाम तक ले गयी. ऐसा परिणाम, जिससे हम सभी परिचित हैं पर अमूमन हम व्यवहार में उससे बचते ही रहते हैं. बाद में मैने चैट बाक्स खोलकर फिर पढा और लगा कि यह मह्त्वपूर्ण बात है, इसमें छिपाने लायक भी कुछ नहीं है. प्रेमजी से अपनी बातचीत को मै यथावत यहां रख रहा हूं. शायद यह और भी लिखने-पढने वाले मित्रों को कुछ सबक दे जाय.

मैं: भाई साहब को प्रणाम
प्रेम;नमस्कार
मैं: व्यंग्य यात्रा की सूचना मैने बज़ पर शेयर की है.
प्रेम; जी
मैं: मुझे शामिल करने का शुक्रिया.
प्रेम; मैने आप को नहीं, आप की रचना को शामिल किया है. अच्छी लगी सो कर लिया.
मैं: जी, जी, मैं अपनी रचना से भिन्न कैसे हो सकता हूं
प्रेम; हो सकते हैं, यदि रचनाकार रचना से भिन्न नहीं होगा तो वह अपना उचित मूल्यांकन नहीं कर पायेगा. वह अपने से सीख नहीं पायेगा. और यदि सम्पादक रचना को नहीं रचनाकार को पसंद करेगा तो वह सम्पादन दृष्टि से न्याय नहीं कर पायेगा.
मैं: रचनाकार अपना मूल्यांकन कहां कर पाता है, मूल्यांकन तो पढने वाले करते हैं. हां, सम्पादक के नाते आप की बात सही लगती है.
प्रेम; यदि रचनाकार में उसका आलोचक् नहीं बैठा है तो वह कभी आगे नहीं बढ पायेगा.
मैं: पर जिसकी रचनायें अच्छी लगती हैं, वह भी अच्छा लगने लगता है.
प्रेम; रचनाकार के अन्दर आलोचक या सम्पादक नहीं है तो..... पर रचनाकार की कोई रचना खराब लगने से लेखक खराब नहीं लगता है. प्रेमचन्द ने भी अच्छी और खराब रचनायें लिखी हैं, पर लेखक तो वो अच्छे ही हैं.
मैं: आप सही कह रहे हैं पर अपनी तो हर रचना अच्छी लगती है, मां को जैसे बेटा, चाहे कितना ही बुरा क्यों न हो.
प्रेम; पर मां के यदि चार बेटे हों तो चारों एक जैसे अच्छे नहीं लग सकते.
मैं: बिल्कुल ठीक पर यह मां नहीं और लोग तय करते हैं कि बेटों में कौन बुरा है, कौन अच्छा. रचनाकार अपनी रचनाओं का अच्छा आलोचक कभी नहीं हो सकता.
प्रेम; अच्छा रचनाकार हो सकता है.
मैं: चलिये सर, आप को ज्यादा डिस्टर्ब नहीं करूंगा. आप से बात करना अच्छा लगता है.

बुधवार, 18 अगस्त 2010

गोली से न डराएं किसानों को

किसान अब समझने लगे हैं कि मीठी-चुपड़ी बातें करने वाली सरकारें बिना संघर्ष के उन्हें उनका हक देने वाली नहीं हैं। सभी भ्रष्टाचार और लूट की पतितसलिला में डुबकी लगाने में मस्त हैं। चाहे केंद्र हो या राज्य, सरकारों में शामिल नेता येन-केन-प्रकारेण धन बटोरने और अपनी थैली भरने में लगे हैं। सरेआम इस नंगनाच के खिलाफ भीतर उबलते गुस्से के बावजूद कोई नहीं बोलता। पर जब कभी कोई न्याय की, हक की मांग करता हुआ सड़क पर आ जाता है तो सहानुभूति जताने वालों का मजमा लग जाता है। इस राजनीति से अलग किसानों ने कई बार अपनी ताकत दिखायी है।

यह सही बात है कि सर्वाधिक अन्याय अगर किसी तबके के साथ हुआ है तो वह किसान ही है। चाहे उसकी फसलों की कीमतों की बात हो या उसकी जमीनों को हथियाने की, उसे ही सबसे कमजोर समझा जाता है। सत्ता के नशे में राजनेताओं को नंदीग्राम और सिंगुर का संग्राम भूल जाता है। गरीब किसानों ने वामपंथी सरकार के खिलाफ जो युद्ध छेड़ा, वह अब इस मुकाम पर आ पहुंचा है कि अपने गढ़ में भी वाम दलों के पांव डगमगाने लगे हैं। क्या वैसी ही सूरत पश्चिम उत्तर प्रदेश में बनाने की कोशिश नहीं की जा रही है? कितनी बड़ी विडम्बना है कि एक ओर तो किसान को अन्नदेवता कहकर उसकी भलाई के संकल्प दुहराये जाते हैं और दूसरी ओर उनके साथ धोखाधड़ी की जाती है। पूंजीपतियों को फायदा पहुंचाने के लिए उनके हक पर डाका डालने की कोशिश की जाती है।

शांतिपूर्ण तरीकों  से जब वे अपना अधिकार मांगते हैं तो उन्हें दुत्कार खानी पड़ती है और धैर्य खोकर जब वे सड़कों पर आते हैं, अपनी आवाज बुलंद करते हैं तो उन पर गोलियां चलायी जाती हैं। ये गोलियां कब तक डरायेंगी? जिसकी जमीन चली गयी, जो लुट गया, उसकी जुबान भी बंद करने की साजिश रचने वालों को अब शायद यह यकीन हो गया होगा कि छल और बल से अगर किसान को मूड़ने और दबाने के प्रयास किये गये तो उसका खामियाजा भुगतने के लिए भी तैयार रहना पड़ेगा। विकास की योजनाओं से किसी को गिला नहीं है, सड़कों का जाल फैले, इससे किसी को शिकायत नहीं है पर इसके लिए जिनको अपनी जमीनें गंवानी पड़ रही हैं, उन्हें उसका वाजिब मुआवजा तो मिलना ही चाहिए। इसे संवेदनहीनता कहें या धूर्तता कि सरकार  नोयडा, अलीगढ़ और आगरा में किसानों को अलग-अलग दर से मुआवजा दे रही है। नोयडा में भी किसानों को लड़ाई लड़नी पड़ी थी पर उसके बाद भी सरकार नहीं चेती। मजबूर होकर उसी रास्ते पर अलीगढ़ और आगरा के किसानों को भी जाना पड़ा।

ऐसा भद्दा सुलूक केवल किसानों के साथ ही क्यों होता रहा है? क्या सरकार इस संबंध में किसानों से बात करके उनकी सहमति से विकास योजनाओं के लिए खेती की जमीन के अधिग्रहण के बारे में एकसमान नीति नहीं बना सकती थी? हालात इतने भयानक होने के पहले सरकार के पास पूरा मौका था लेकिन जानबूझकर इस मसले पर न्यायपूर्ण निर्णय टालने की रणनीति अपनायी गयी। ऐसा केवल इसलिए कि किसानों को बहुधा सबसे कमजोर और बेचारा समझा जाता है। यह खेल बहुत लंबा नहीं चलने वाला है। किसानों ने अब जता दिया है कि वे इस बेचारगी की छवि से बाहर निकल आये हैं और अब वे अपने अधिकार के लिए बड़े से बड़ा बलिदान देने में कोई संकोच नहीं करेंगे। यद्यपि उनकी कुछ मांगें सरकार ने मान ली हैं लेकिन इस तदर्थवाद से काम नहीं चलेगा। सरकार को किसान और कृषि क्षेत्र के लिए स्पष्ट नीति बनानी होगी अन्यथा  मुश्किलों का सामना करने के लिए तैयार रहना होगा। छल, कपट या दमन  का कोई भी रास्ता अगर अख्तियार किया जाता है तो किसानों को भी उसके प्रतिकार का विकल्प चुनना पड़ेगा। बेहतर होगा कि सरकार मुआवजे के लिए छिड़े इस आंदोलन को नंदीग्राम या सिंगुर जैसी लड़ाई में बदलने की भूमिका न बनाये और किसानों के पक्ष में माकूल फैसला करे।      

शनिवार, 14 अगस्त 2010

होठों में आ रही है जुबां और भी खराब


 हिंदुस्तान आजाद हुआ था तो एक बंटवारा झेलना पड़ा था पर आजादी के बार बचा हुआ देश कई टुकड़ों में बंट गया है। देश के दो चेहरे साफ-साफ दिखायी पड़ते हैं। एक अमीर भारत, दूसरा गरीब भारत। कुछ लोगों के पास बेइंतहा धन आ रहा है। वे वैभव और ऐश्वर्य की चमक में जी रहे हैं। उनके पास बड़े उद्योग हैं, कंपनियां हैं, उनकी पीठ पर सरकार का वरद हाथ है। वे धन के बल पर मेधावी दिमाग खरीदते हैं और उनका इस्तेमाल अपना वैभव बढ़ाने में करते हैं। यह चमकता भारत है। दूसरी ओर वे लोग हैं, जो दो वक्त की रोटी के लिए दिन-रात संघर्ष कर रहे हैं। हाड़तोड़ मेहनत के बाद भी कोई गारंटी नहीं कि उनके परिवार को रोटी मिल ही जाये। उनके बच्चे धूल-मिट्टी में पैदा होते हैं और अपने पांवों पर खड़े होते ही पेट की आग बुझाने के दुष्कर उद्यम में झोंक दिये जाते हैं। पढ़ाई-लिखाई तो उनके लिए सपना है, वे या तो बड़े बाबुओं के घर में, सेठजी की फैक्ट्री में मजूरी करने लगते हैं या भीख मांगते हैं। यह गरीब भारत है और यही असली भारत है।

  बेशक अच्छे इरादों के साथ आजाद भारत अपने कदमों पर आगे बढ़ चला लेकिन आज हम कहां आ गये हैं, थोड़ा रुक कर देखें तो लगता है कि हम कहीं भटक गये, रास्ता भूल गये, क्रांतिकारियों के सपने भुला बैठे। आजाद भारत में अपनी भाषा को सम्मान नहीं दिया गया, सांप्रदायिक सद्भाव की बलि चढ़ा दी गयी, जाति-पांति के विभाजन को और गहरा किया गया, भ्रष्टाचार को शिष्टाचार की तरह मान्यता दे दी गयी, देश के ऊपर स्वार्थचिंतन को वरीयता दी गयी, गरीबों की प्रवंचना का मजाक उड़ाने में गर्व का अनुभव किया जाने लगा। हमने राष्ट्रीय जीवन के लिए जरूरी मर्यादाओं, नैतिकताओं को ताक पर रख दिया। सत्तानायकों और उनके सहयोगी नौकरशाहों ने धीरे-धीरे अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए वही तौर-तरीके अपनाने शुरू कर दिये, जो कभी गोरे अपनाते थे।

इसका भयानक परिणाम आज हमारे सामने है। एक विशाल समाजवादी लोकतंत्र भाषा, क्षेत्र, संप्रदाय, जाति और स्वार्थ की अनेक दीवारों में बंटा हुआ है। देश एक संकल्पहीन, शक्तिहीन और स्खलित सत्ता के हाथ में दिशाहीनता की राह पर बढ़ रहा है। जो अमीर हैं, उन पर लक्ष्मी बरस रही है, जो गरीब हैं, वे शासकों के छल-प्रपंच और पाखंड की चक्की में निरंतर पिसने को अभिशप्त हैं। आम आदमी के लिए सरकारें अपनी सारी योजनाएँ बनाने के दावे करती हैं, पर आम आदमी अपनी नियति  के कठिन चक्र में और उलझता चला जा रहा है। महंगाई आसमान पर है। भोजन, कपड़ा और छत की न्यूनतम जरूरतें पूरी कर पाना टेढ़ी खीर हो गया है। जनता की मदद करने, जीवन को आसान बनाने और संरचनागत विस्तार को अंजाम देने की जिम्मेदारियां जिन सरकारी अफसरों पर हैं, वे अपराधियों और ठेकेदारों के गुलामों की तरह काम कर रहे हैं। रिश्वत उनका जन्म सिद्ध अधिकार बन गया है। उनकी सांठ-गांठ चूंकि राजनेताओं से भी है, इसलिए वे निर्भय और उन्मुक्त वनराज की तरह लूट के उत्सव का आनंद उठा रहे हैं। बेरोक-टोक जनता के धन का अपव्यय ही नहीं हो रहा है बल्कि न्यायसंगत और नियमानुकूल काम के लिए भी घूस उगाहने की असीम   उत्कंठा ने सारे तंत्र को धन लोलुप पगलाये अराजक तंत्र में तबदील कर दिया है।

यहां तक कि देश की प्रतिष्ठा को बेचकर भी पैसा बना लेने की आसुरी मनोवृत्ति ने समूचे परिदृश्य को घेर रखा है। कामनवेल्थ खेलों की आड़ में अभी जो अंधेरगर्दी और लूटपाट मची हुई है, उससे कोई भी अंदाजा लगा सकता है कि राजनेता और नौकरशाह कितने लालची, धूर्त, थेंथर और ढीठ हो गये हैं। छद्म धर्मनिरपेक्षता के नाम पर सांप्रदायिक और तुष्टीकरण की राजनीति ने मुसलमानों, सिखों, ईसाइयों और हिंदुओं को एक दूसरे का दुश्मन बना दिया है। जातियों के नाम पर आरक्षण ने जाति भेद को खतरनाक स्थिति तक पहुंचा दिया है। हर जाति आरक्षण के नाम पर तलवारें खींचे हुए है। सत्ता की संकल्पहीनता के कारण कई राज्यों में भाषायी उन्माद इतना बढ़ गया है कि नागरिकों को अपने देश में ही भाषा और बोली के नाम पर भेदभाव, अभद्रता और हिंसा का शिकार होना पड़ रहा है। सत्ता और राजनीति का दोगला चरित्र खुलकर सबके सामने आ चुका है, पर विकल्पहीनता के कारण जनता कोई बदलाव नहीं कर पाती है। इस निरुपायता से कई विकराल समस्याओं ने जन्म लिया है।

सत्ता के निर्मम स्वार्थ, गरीबों की निरंतर उपेक्षा और राष्ट्रीय संकल्प के अभाव में जहां भ्रष्टाचार एक विकट महामारी की तरह देश के स्वास्थ्य को चबा रहा है, वहीं लचर शासन और अतिशय लोकतांत्रिक उदारता ने आतंकवाद को इतना विकराल रूप धारण करने का अवसर दिया है कि अब हमारी समझ में नहीं आ रहा कि उससे निपटें तो कैसे।  जो लोग हमारी सीमाओं में रहकर पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगाते हैं और पाकिस्तानी झंडा फहराते हैं, हमारे  जननायक उनके मानवाधिकार की चिंता में डरे-सहमे खामोश असहाय कुछ न कर पाने की कापुरुषता का निरीह प्रदर्शन करते दिखते हैं।

इस देश की जनता ने कातर होकर देखा है आतंकवादियों के सामने नेताओं को गिड़गिड़ाते हुए और उनकी मांग पर देशद्रोहियों को जेल से निकालकर उनके हवाले करते हुए। जनता ने आतंकवादियों से लड़ते हुए प्राण निछावर कर देने वाले बहादुर पुलिस अधिकारियों की मंशा पर नेताओं को शक करते हुए भी देखा है। बटला कांड कैसे भूल जायेगा। आतंकवाद से लड़ने के प्रश्न पर भी राजनीतिज्ञों में राष्ट्रीय मतैक्य नहीं दिखता। इसका भी दलहित में फायदा उठाने की कोशिशें की जाती हैं। इसी तरह का रवैया नक्सलवाद को लेकर भी है। अभी तक सरकारें तय नहीं कर पायीं कि आखिर नक्सलवाद से कैसे निपटा जाय। आदिवासियों की गरीबी, उनके जीवन की यंत्रणा सत्ता के प्रमाद में हमने कभी देखी ही नहीं, उन्हें जंगलों से विस्थापित कर उनका जीवन ही छीन लिया गया। जब नक्सलियों ने उनकी मदद शुरू की तब भी हमारी नींद नहीं टूटी। अब जब इन उपेक्षित आदिवासी गढ़ों पर उनकी पकड़ मजबूत हो गयी और वे सत्ता को चुनौती देने लगे तो बारूद की गंध सत्ता के गलियारों तक पहुंची। परंतु अब भी सरकार को समझ में नहीं आ रहा कि क्या किया जाये।

  जो समर्थ हैं, वे पूरी तरह आजाद हैं, भ्रष्टाचार के लिए, उत्पीड़न, जुल्म और अन्याय के लिए। जो कमजोर हैं, वे  सर उठाने के लिए, अन्याय का प्रतिकार करने के लिए भी आजाद नहीं है। यह कैसी आजादी है कि बहुसंख्य जनता अपने ही देश के मुट्ठी भर ताकतवर लोगों के हाथों की गुलाम है। ऐसी गुलामी लंबे समय तक नहीं चल सकती। इसी मानसिकता ने नक्सलवाद को ताकत दी और यह मानसिकता अगर जारी रही तो युद्ध के कई और मोर्चे खुल जायेंगे।  लगता है कि आजादी के असली मायने कहीं खो गये हैं। इसकी चमक वापस लाने के लिए शायद एक और लड़ाई लड़नी पड़े। दुष्यंत के शेर पर बात खत्म हो तो बेहतर..
नजरों में आ रहे हैं नजारे बहुत बुरे
होठों में आ रही है जुबां और भी खराब ।