किसान अब समझने लगे हैं कि मीठी-चुपड़ी बातें करने वाली सरकारें बिना संघर्ष के उन्हें उनका हक देने वाली नहीं हैं। सभी भ्रष्टाचार और लूट की पतितसलिला में डुबकी लगाने में मस्त हैं। चाहे केंद्र हो या राज्य, सरकारों में शामिल नेता येन-केन-प्रकारेण धन बटोरने और अपनी थैली भरने में लगे हैं। सरेआम इस नंगनाच के खिलाफ भीतर उबलते गुस्से के बावजूद कोई नहीं बोलता। पर जब कभी कोई न्याय की, हक की मांग करता हुआ सड़क पर आ जाता है तो सहानुभूति जताने वालों का मजमा लग जाता है। इस राजनीति से अलग किसानों ने कई बार अपनी ताकत दिखायी है।
यह सही बात है कि सर्वाधिक अन्याय अगर किसी तबके के साथ हुआ है तो वह किसान ही है। चाहे उसकी फसलों की कीमतों की बात हो या उसकी जमीनों को हथियाने की, उसे ही सबसे कमजोर समझा जाता है। सत्ता के नशे में राजनेताओं को नंदीग्राम और सिंगुर का संग्राम भूल जाता है। गरीब किसानों ने वामपंथी सरकार के खिलाफ जो युद्ध छेड़ा, वह अब इस मुकाम पर आ पहुंचा है कि अपने गढ़ में भी वाम दलों के पांव डगमगाने लगे हैं। क्या वैसी ही सूरत पश्चिम उत्तर प्रदेश में बनाने की कोशिश नहीं की जा रही है? कितनी बड़ी विडम्बना है कि एक ओर तो किसान को अन्नदेवता कहकर उसकी भलाई के संकल्प दुहराये जाते हैं और दूसरी ओर उनके साथ धोखाधड़ी की जाती है। पूंजीपतियों को फायदा पहुंचाने के लिए उनके हक पर डाका डालने की कोशिश की जाती है।
शांतिपूर्ण तरीकों से जब वे अपना अधिकार मांगते हैं तो उन्हें दुत्कार खानी पड़ती है और धैर्य खोकर जब वे सड़कों पर आते हैं, अपनी आवाज बुलंद करते हैं तो उन पर गोलियां चलायी जाती हैं। ये गोलियां कब तक डरायेंगी? जिसकी जमीन चली गयी, जो लुट गया, उसकी जुबान भी बंद करने की साजिश रचने वालों को अब शायद यह यकीन हो गया होगा कि छल और बल से अगर किसान को मूड़ने और दबाने के प्रयास किये गये तो उसका खामियाजा भुगतने के लिए भी तैयार रहना पड़ेगा। विकास की योजनाओं से किसी को गिला नहीं है, सड़कों का जाल फैले, इससे किसी को शिकायत नहीं है पर इसके लिए जिनको अपनी जमीनें गंवानी पड़ रही हैं, उन्हें उसका वाजिब मुआवजा तो मिलना ही चाहिए। इसे संवेदनहीनता कहें या धूर्तता कि सरकार नोयडा, अलीगढ़ और आगरा में किसानों को अलग-अलग दर से मुआवजा दे रही है। नोयडा में भी किसानों को लड़ाई लड़नी पड़ी थी पर उसके बाद भी सरकार नहीं चेती। मजबूर होकर उसी रास्ते पर अलीगढ़ और आगरा के किसानों को भी जाना पड़ा।
ऐसा भद्दा सुलूक केवल किसानों के साथ ही क्यों होता रहा है? क्या सरकार इस संबंध में किसानों से बात करके उनकी सहमति से विकास योजनाओं के लिए खेती की जमीन के अधिग्रहण के बारे में एकसमान नीति नहीं बना सकती थी? हालात इतने भयानक होने के पहले सरकार के पास पूरा मौका था लेकिन जानबूझकर इस मसले पर न्यायपूर्ण निर्णय टालने की रणनीति अपनायी गयी। ऐसा केवल इसलिए कि किसानों को बहुधा सबसे कमजोर और बेचारा समझा जाता है। यह खेल बहुत लंबा नहीं चलने वाला है। किसानों ने अब जता दिया है कि वे इस बेचारगी की छवि से बाहर निकल आये हैं और अब वे अपने अधिकार के लिए बड़े से बड़ा बलिदान देने में कोई संकोच नहीं करेंगे। यद्यपि उनकी कुछ मांगें सरकार ने मान ली हैं लेकिन इस तदर्थवाद से काम नहीं चलेगा। सरकार को किसान और कृषि क्षेत्र के लिए स्पष्ट नीति बनानी होगी अन्यथा मुश्किलों का सामना करने के लिए तैयार रहना होगा। छल, कपट या दमन का कोई भी रास्ता अगर अख्तियार किया जाता है तो किसानों को भी उसके प्रतिकार का विकल्प चुनना पड़ेगा। बेहतर होगा कि सरकार मुआवजे के लिए छिड़े इस आंदोलन को नंदीग्राम या सिंगुर जैसी लड़ाई में बदलने की भूमिका न बनाये और किसानों के पक्ष में माकूल फैसला करे।
विचारोत्तेजक लेख के लिए बधाई. किसानों पर गोली बारी की ये घटनाएँ लोकतंत्र में राजतन्त्र की दस्तक की तरह देखी जानी चाहिए,
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