वीरेन्द्र सेंगर की कलम से
जातीय जनगणना का दंश सरकार को सताने लगा है। कई कोशिशों के बावजूद सरकार को अभी कोई ऐसा विकल्प नहीं मिल रहा, जिससे वह पूरी तौर पर आश्वस्त हो सके। इसी वजह से इस मामले में फैसला होते-होते रुक जाता है। इस मुद्दे पर लालू यादव, मुलायम सिंह व शरद यादव काफी सक्रिय रहे हैं। इनका दबाव रहा है कि सरकार जल्दी से जल्दी जातीय जनगणना के बारे में फैसला ले ले। संकेत दे दिए गए थे कि संसद के चालू सत्र के दौरान ही इसका फैसला कर दिया जाएगा पर आसार यही हैं कि अब यह मामला संसद के शीतकालीन सत्र तक टाल दिया जाएगा क्योंकि जीओएम में शामिल कई मंत्रियों का मानना है कि यदि ओबीसी जातियों में उपजातियों की भी गणना की गई, तो कोटे के अंदर कोटे का नया संघर्ष शुरू हो जाएगा। अभी तक कांग्रेस और भाजपा जैसे बड़े दलों की स्पष्ट राय मंत्री समूह को नहीं मिली है। भाजपा का ज्यादा फोकस इस बात पर है कि पहले कांग्रेस अपना रवैया स्पष्ट करे जबकि कांग्रेस नेतृत्व इस मुद्दे पर खुलकर अपने पत्ते नहीं खोलना चाहता। इसकी सबसे बड़ी वजह यही मानी जा रही है कि इस दल में भी बड़ों के बीच तीव्र मतभेद हैं। गृह मंत्री, पी. चिदंबरम और मानव संसाधन मंत्री, कपिल सिब्बल जैसे कई मंत्री जातीय जनगणना के विरोध में हैं। चिदंबरम और सिब्बल की सक्रियता से पार्टी में एक मजबूत लॉबी जाति जनगणना के खिलाफ खड़ी हो गई।
यहां तक कि केंद्रीय गृह राज्य मंत्री अजय माकन ने तमाम युवा सांसदों को पत्र लिख दिया था। इसमें माकन ने अपील की थी कि सभी सांसदों को जातीय गणना की खिलाफत करनी चाहिए। स्वतंत्र भारत में हमारे बड़े नेताओं ने सपना देखा था कि धीरे-धीरे जातियों और धर्मों के बंधन ढीले होंगे। इससे सामाजिक समरसता का माहौल बनेगा जबकि वोट बैंक की राजनीति के लालच में कुछ ताकतें देश को उल्टी दिशा में ले जाने के लिए सक्रिय हैं। माकन के इस पत्र के बाद राजनीतिक हल्कों में काफी विवाद खड़ा हुआ था। लालू यादव जैसे नेताओं ने यह कहना शुरू किया था कि कांग्रेस जानबूझ कर सदन की भावनाओं को आदर नहीं करना चाहती है। इसके बाद पिछड़े वर्ग के नेताओं ने सरकार पर दोबारा दबाव बनाया था। विवाद बढ़ा तो सत्तारूढ़ यूपीए के घटकों में भी उबाल तेज हुआ था। विवाद बढ़ जाने के कारण वित्त मंत्री, प्रणव मुखर्जी के नेतृत्व में मंत्रियों का एक समूह गठित कर दिया गया था। उम्मीद जताई गई थी कि वर्षाकालीन सत्र शुरू होने से पहले ही यह जीओएम फैसला ले लेगा। इसकी तीन बैठकें हो चुकी हैं लेकिन बात ज्यादा आगे नहीं बढ़ी है।
इस मुद्दे को लेकर सभी दलों के पिछड़े वर्ग के नेता लामबंद हुए हैं। इससे सरकार पर दबाव बढ़ा है। पिछले दिनों संसद में इस मामले में जदयू के प्रमुख शरद यादव ने कई तीखे सवाल उठाए थे। उन्होंने आरोप लगाया था कि सरकार जानबूझ कर, इस मामले में बहानेबाजी कर रही है। उनका कहना है कि अगले वर्ष होने जा रही जनगणना में सभी जातियों का सही-सही आंकड़ा ले लिया जाए। वे कहते हैं कि सभी दल चुनाव में टिकटें जातीय आधार पर देते हैं पर जब जाति आधारित जनगणना की बात होती है, तो कई नेता पाखंडी तर्क रखते हैं। यह रवैया नहीं चलेगा। कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव, दिग्विजय सिंह ने पिछले दिनों जातीय जनगणना की खुली तरफदारी कर दी है। उनका कहना है कि जाति एक बड़ी सच्चाई है। इससे मुंह नहीं मोड़ा जा सकता है। दिग्विजय सिंह के मुखर होने से पार्टी के अंदर भ्रम की स्थिति और बढ़ गई है।
जाती इस देश की कड़वी सच्चाई है यह तो सही लेकिन इस जातिवाद ने क्या देश की तरक्की में कभी मदद पहुंचाई है? बल्कि इससे तो हमें हानि ही उठानी पड़ी है| इसलिए मेरा मानना साफ़ है कि देश में जाति आधारित जनगणना का कोई मतलब है और इसपर बहस कर हम समय बर्बाद कर रहे है| अगर कुछ संभव है तो इस जातिवाद के जंजीर से इस समाज को बाहर निकालने के प्रयास करना चाहिए|
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