शनिवार, 27 मार्च 2010

संतन को सीकरी सूं ही काम

पहली नजर में उपर का  शीर्षक   ज़रूर पाठकों को अटपटा  लगेगा पर  सच्चाई से मुंह मोड़ना रचनाकार का काम नहीं हैरहे होंगे कभी संत कवि कुम्भन दास। जाने किस भावावेश   में कह  गए, संत को कहाँ सीकरी सूं कामजबकि इतिहास गवाह है कि हमने हमेशा सत्ता के गलियारों के आश्रय में जीवन बिताया है, सत्तानायकों का स्तुतिगान किया है, उनकी कथित वीरता का बखान किया है, उनकी मनोत्तेजना बढ़ाने के लिए नायिका के स्वरूप का नख-शिख  वर्णन किया है। वह भी बड़ी ही बेशर्मी से. रीतिकाल हमारी कविता और साहित्य में कलात्मक नजरिये से शायद इसी लिए स्वर्ण काल माना जाता है
कितने मजे थे कि हम राजा-महाराजाओं  की प्रशंसा में एक पद या दोहा लिखकर  गा दें तो भरपूर  इनाम-इकराम मिलता  था, अशर्फियाँ बरसतीं थीं। अगर   आका ज्यादा  मेहरबान हो गए तो रंक से उठकर जमींदार बन जाना बड़ी बात नहीं थीअब भी कमोबेश वही हालत है. युग तो बदला लेकिन प्रवृति नहीं बदली। राजा-महाराजाओं के स्थान पर हमारे कवियों के आराध्य प्रच्छन्न लोकतंत्र के तथाकथित राजा हो गए है। कोई कवि किसी का  चालीसा लिख रहा  है तो कोई किसी की रामायण। इसके पुरस्कार   के रूप में उन्हें सत्ता के गलियारे में जगह भी मिल जाती है
संत कबीर  ने किसी सत्तानायक या मठाधीशों की स्तुति नहीं कीअतः वे मात्र दलितों मार्क्सवादियों तक ही सीमित रह गए। तुलसीदास ने अपने आराध्य  के लिए दास्य भाव से ओतप्रोत ग्रन्थ लिखाइसका सुपरिणाम यह हुआ कि  आज भी रामचरितमानस का जन-जन में प्रसार-प्रचार है। वह मंदिरों मठों की शोभा  बनी हुई हैअब जिस कविता से तो समाज का सम्मान मिले और ही इनाम-इकराम मिले तो क्या फायदा ऐसी कविता से।
इस सच्चाई को कुछ कवियों ने पहचान लिया और वह जुट गए अपने आराध्यों की चरण वंदना करने में. जिन्होंने कबीर  को अपनाआदर्श माना, वे आज भी सत्ता के गलियारों से काफी दूर है तो उन्हें किसी अकादमी का अध्यक्ष  बनाया   गया और ही किसी संस्थान का उपाध्यक्ष. तो ऐसे लोगों को यश भारती मिला और ही कोई अन्य राजकीय सम्मानअब आप ही बताइए कि  साहित्य अब जनता के लिए कहाँ लिखा जा रहा है। अगर  लिख भी लें तो जनता क्या देगी। हमें  भी विलासिता के सभी साधन भोगने का अधिकार है या नहीं, अपने लिए जमीं -जायदाद बंबानी है या नहीं, बच्चों के लिए अच्छा ख़ासा बैंक बैलेंस छोड़ना है या नहीं
बेशर्मी के इस गुर में  हम राजनीतिकों से भी आगे है। राजनेताओं  में थोड़ी सी शर्म  और हया बाकी हैयही कारन है कि  सत्ता परिवर्तन के बाद वह अपने आका द्वारा दिए गए पदों को तत्काल ही छोड़ देते हैं, लेकिन  हमारे संत कवियों को जनता से कोई मतालब ही नहीं हैयहाँ हम नेताओं को भी  पीछे छोड़ देते हैंइन्हें जनता की किसी प्रतिक्रिया से कोई अंतर नहीं पड़तावैसे अधिकांश  कवियों के असली पारखी  कवि सम्मेलनों के गैर साहित्यिक आयोजक-संयोजक, राजनेता और शिक्षा  तथा अकादमिक संस्थानों के सर्वेसर्वा ही  हैं। 
यही कारन है कि  साहित्य संस्कृति के इन कथित पुरोधाओं  को उनके परिजन ही याद करते हैंआखिर वह क्यों करेंउन्होंने जिन्दगी भर जैसे-तैसे जो कुछ भी कमाया, वह केवल परिवार के लिए ही कमायाकभी किसी कवि या शिष्य की कोई मदद नहीं कीअतः ऐसे कथित कवियों को लोग क्यों याद करें
कुछ लोगों को मलाल है कि  युवा साहित्यकारों का सम्मान नहीं करतेसाहित्य की गरिमा और स्वाभिमान के लिए उनके दिल में कोई सम्मान नहीं हैवह दिशाभ्रमित हो गए हैं. सवाल है कि साहित्य की युवा पीढ़ी  इन मठाधीशों का सम्मान क्यों करेअगर यह महाविद्यालय अथवा विश्वविद्यालयों में हिंदी की बड़ी कुर्सी पर विराजमान होते हैं  तो इन्हें प्रवक्ता, रीडर, प्रोफ़ेसर पद के लिए केवल अपने लडके-लड़कियाँ ही नज़र आते हैंजो शिष्य उनके प्रति अगाध श्रद्धा  रखता है, उनके नित्य चरण स्पर्श  करता है, जब वह यह देखता है कि  महाविद्यालय अथवा विश्वविद्यालयों में जब नौकरी कासमय  आता है तो गुरुवर को    केवल अपनी पत्नी, पुत्र, पुत्री अथवा परिवार के सदस्य ही नज़र आते हैं. इसका प्रमाण  देश के उच्च शिक्षा  संस्थानों के हिंदी विभागों में साफ़ देखा  जा सकता हैआज भी शिष्य एकलव्य कि तरह  अपना कटा अंगूठा लेकर   नौकरी के लिए दौड़  रहा है
अब निराला का दौर समाप्त हो गया हैदिनकर की हुंकार भी स्वार्थ के शोर में दब गयी हैबाबा नागार्जुन का साहित्य हाशिये पर हैअब जमाना केवल उन लोगों का है जो बदलती सत्ता के साथ अपनी निष्ठा और आस्थाएं बादल लेंनैतिक मूल्यों को तिलांजलि दे दें और स्वाभिमान को कमीज़ की तरह उतार  कर खूँटी पर टांग दें
यही कारन है ki साहित्य के ये मठाधीश  आम जनता की निगाहों में बेगाने से रहते हैं । जिन गरीब मज़दूरों पर यह कविता लिखते हैं, उन्हें अपने पास बैठाना या उनके घर जाना अपना अपमान समझते  हैं। ऐसे में  जनता  भी un बेकार लाशों को कब तक और क्यों ढोए   जो उनके लिए अपनी कविता में तो घडियाली ऑंसू तो बहते हैं लेकिन उनके ऑंसू पोंछने  की जगह अपना बड़ा पेट भरने में ही लगे रहते हैंआखिर कितना बड़ा है इनका पेट?
संतन को सीकरी सूं ही काम

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