शनिवार, 10 अप्रैल 2010

उन्होंने जो आग बोई थी, वह सुलगती रहे

दुष्यंत के लफ्जों में जो आग थी, उसकी हमेशा जरूरत बनी रहेगी. अब बहुत कुछ ऐसा है, जिसे जला देने की आवश्यकता है. कोई आगे आये, न आये पर उनकी गजलें निरंतर लोगों को ललकारती रहेंगीं. बेशक और भी अच्छी गजलें कही जा रहीं हैं पर पैमाना अभी भी दुष्यंत ही बने हुए हैं. उन्होंने जो आग बोई थी, वह सुलगती रहे, इस लिहाज से उन्हें बार-बार याद किये जाने की वक्त की मांग है. इसी ख्याल से मैं उनके संग्रह साए में धूप से अपनी पसंदीदा पांच गजलें यहाँ पेश कर रहा हूँ---
 १.
कैसे मंजर सामने आने लगे हैं
गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं

अब तो इस तालाब का पानी बदल दो
ये कँवल के फूल कुम्हलाने  लगे हैं

वो सलीबों के करीब आये तो मुझको
कायदे कानून समझाने लगे हैं

एक कब्रिस्तान में घर मिल रहा है
जिसमें तहखानों से तहखाने लगे हैं

मछलियों में खलबली है, अब सफ़ीने
उस तरफ जाने से कतराने लगे हैं

मौलवी से डांट खाकर अहले मकतब
फिर उसी आयत को दुहराने लगे हैं

अब नयी तहजीब के पेशे नजर हम
आदमी को भून कर खाने लगे हैं

२.
ये सारा जिस्म झुककर बोझ से दुहरा हुआ होगा
मैं सजदे में नहीं था आप को धोखा हुआ होगा

यहाँ तक आते-आते सूख जाती हैं कई नदियाँ
मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा

गजब ये है कि अपनी मौत की आहट नहीं सुनते
वो सब के सब परीशां हैं वहां पर क्या हुआ होगा

तुम्हारे शहर में ये शोर सुन-सुन के तो लगता है
कि इंसानों के जंगल में कोई हांका हुआ होगा

कई फाके बिता कर मर गया जो उसके बारे में
वो सब कहते हैं अब ऐसा नहीं ऐसा हुआ होगा

यहाँ तो सिर्फ गूंगे और बहरे लोग बसते हैं
खुदा जाने यहाँ पर किस तरह जलसा हुआ होगा

चलो अब यादगारों की अँधेरी कोठरी खोलें
कम-अज-कम एक वो चेहरा तो पहचाना हुआ होगा

३.
मत कहो आकाश में कुहरा घना है
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है

सूर्य हमने भी नहीं देखा सुबह से
क्या करोगे सूर्य का क्या देखना है

इस सड़क पर इस कदर कीचड़ बिची है
हर किसी का पांव घुटनों तक सना है

पक्ष औ प्रतिपक्ष संसद में मुखर है
बात इतनी है कि कोई पुल बना है

रक्त वर्षों से नसों में खौलता है
आप कहते हैं क्षणिक उत्तेजना है

हो गयी हर घाट पर पूरी व्यवस्था
शौक से डूबे जिसे भी डूबना है

दोस्तों अब मंच पर सुविधा नहीं है
आजकल नेपथ्य में सम्भावना है

४.
वो आदमी नहीं है मुकम्मल बयान है
माथे पे उसके चोट का गहरा निशान है

वे कर रहे हैं इश्क पे संजीदा गुफ्तगू
मैं क्या बताऊँ मेरा कहीं और ध्यान है

सामान कुछ नहीं है फटेहाल है मगर
झोले में उसके पास कोई संविधान है

उस सिरफिरे  को यूँ नहीं बहला सकेंगे आप
वो आदमी नया है मगर सावधान है

फिसले जो इस जगह तो लुढकते चले गए
हमको पता नहीं था कि इतना ढलान है

देखे हैं हमने दौर कई अब खबर नहीं
पांवों तले जमीन है या आसमान है

वो आदमी मिला था मुझे उसकी बात से
ऐसा लगा कि वो भी बहुत बेजुबान है

५.
कहीं पे धूप की  चादर बिछा के बैठ गए
कहीं पे शाम सिरहाने लगा के बैठ गए

जले जो रेत में तलुए तो हमने ये देखा
बहुत से लोग वहीँ छटपटा के बैठ गए

खड़े हुए थे अलावों की आंच लेने को
सब अपनी-अपनी हथेली जला के बैठ गए

दुकानदार तो मेले में लुट गए यारों
तमाशबीन दुकानें लगा के बैठ गए

लहूलुहान नज़रों का जिक्र आया तो
शरीफ लोग उठे दूर जाके बैठ गए

ये सोचकर कि दरख्तों में छाँव होती है
यहाँ बबूल के साये में आ के बैठ गए

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