गुरुवार, 19 अगस्त 2010

अच्छा रचनाकार अच्छा आलोचक हो सकता है.: प्रेम जनमेजय

क्या आप अपनी रचनाओं के आलोचक हैं?


क्या एक रचनाकार खुद अपनी रचनाओं का आलोचक हो सकता है? स्वयं ही अपनी रचनाओं की पड़्ताल कर सकता है? अपनी रचना के साथ इतना निर्मम हो सकता है कि उससे बिल्कुल अलग खड़ा होकर उसे देख सके? शायद नहीं, शायद हां. यह बिलकुल वैसे ही है, जैसे कोई अपने व्यक्तित्व की बुराइयों को समूची तटस्थता से देख पाये. यह साहित्य में संत होने जैसा है. संत वही है जो खुद में स्थित होकर खुद को देख सकता है. एक अच्छे लेखक में यह तत्व होना ही चाहिये. पर आज के युग में जब तमाम बड़े लेखक आत्म श्लाघा और आत्मप्रचार में लगे हैं, यह बात क्या सहज हो सकती है? जो सहज ही सम्भव हो, वह न बड़ी बात होती है, न बड़ा काम. आत्मालोचन भी सहज सम्भाव्य नहीं है, पर बिना इसके सुधार और परिष्कार की कोई सम्भावना नहीं होती. मेरा मानना है कि एक व्यंग्यकार साहित्य का संत होता है, बिल्कुल कबीर की तरह. उसे यह दृष्टि अनायास ही मिली होती है. चूंकि व्यंग्य आत्मालोचन से ही शुरू होता है, इसलिये समर्थ व्यंग्यकार समर्थ आत्मालोचक होगा, इसमें किंचित संदेह नहीं होना चाहिये. जो खुद पर कटाक्ष कर सकता है, वही दूसरों पर, समाज औए व्यवस्था की विसंगतियों पर भी कटाक्ष करने की योग्यता हासिल कर सकता है. पर अन्य विधाओं के रचनाधर्मियों को भी अपनी रचनाओं को बारीकी से देखने की ताकत अपने भीतर पैदा करनी चाहिये ताकि वे आगे सुधार कर सकें और बेहतर रच सकें.

इस विषय पर चिंतन का यूं ही मौका मिल गया. गुरुवार की सुबह व्यंग्य यात्रा और गगनांचल के सम्पादक प्रेम जनमेजय से मेल चैट पर थोड़ी बात हुई. आम तौर पर हम लिखने-पढ़्ने वालों में एक स्वभावगत कमजोरी होती है कि एक बार जो बात कह दी, उस पर अंगद की तरह पांव टिका दिया. मैंने उन्हें प्रणाम किया. मुझे उम्मीद नहीं थी कि मेरा प्रणाम एक सुखद बातचीत में बदल जायेगा. पर ऐसा ही हुआ. मैने यूं ही कुछ ऐसा कहा, जो उस समय मुझे बिल्कुल साधारण सी बात लगी, पर मैं अपनी बात पर अड़ गया. और वह एक असाधारण परिणाम तक ले गयी. ऐसा परिणाम, जिससे हम सभी परिचित हैं पर अमूमन हम व्यवहार में उससे बचते ही रहते हैं. बाद में मैने चैट बाक्स खोलकर फिर पढा और लगा कि यह मह्त्वपूर्ण बात है, इसमें छिपाने लायक भी कुछ नहीं है. प्रेमजी से अपनी बातचीत को मै यथावत यहां रख रहा हूं. शायद यह और भी लिखने-पढने वाले मित्रों को कुछ सबक दे जाय.

मैं: भाई साहब को प्रणाम
प्रेम;नमस्कार
मैं: व्यंग्य यात्रा की सूचना मैने बज़ पर शेयर की है.
प्रेम; जी
मैं: मुझे शामिल करने का शुक्रिया.
प्रेम; मैने आप को नहीं, आप की रचना को शामिल किया है. अच्छी लगी सो कर लिया.
मैं: जी, जी, मैं अपनी रचना से भिन्न कैसे हो सकता हूं
प्रेम; हो सकते हैं, यदि रचनाकार रचना से भिन्न नहीं होगा तो वह अपना उचित मूल्यांकन नहीं कर पायेगा. वह अपने से सीख नहीं पायेगा. और यदि सम्पादक रचना को नहीं रचनाकार को पसंद करेगा तो वह सम्पादन दृष्टि से न्याय नहीं कर पायेगा.
मैं: रचनाकार अपना मूल्यांकन कहां कर पाता है, मूल्यांकन तो पढने वाले करते हैं. हां, सम्पादक के नाते आप की बात सही लगती है.
प्रेम; यदि रचनाकार में उसका आलोचक् नहीं बैठा है तो वह कभी आगे नहीं बढ पायेगा.
मैं: पर जिसकी रचनायें अच्छी लगती हैं, वह भी अच्छा लगने लगता है.
प्रेम; रचनाकार के अन्दर आलोचक या सम्पादक नहीं है तो..... पर रचनाकार की कोई रचना खराब लगने से लेखक खराब नहीं लगता है. प्रेमचन्द ने भी अच्छी और खराब रचनायें लिखी हैं, पर लेखक तो वो अच्छे ही हैं.
मैं: आप सही कह रहे हैं पर अपनी तो हर रचना अच्छी लगती है, मां को जैसे बेटा, चाहे कितना ही बुरा क्यों न हो.
प्रेम; पर मां के यदि चार बेटे हों तो चारों एक जैसे अच्छे नहीं लग सकते.
मैं: बिल्कुल ठीक पर यह मां नहीं और लोग तय करते हैं कि बेटों में कौन बुरा है, कौन अच्छा. रचनाकार अपनी रचनाओं का अच्छा आलोचक कभी नहीं हो सकता.
प्रेम; अच्छा रचनाकार हो सकता है.
मैं: चलिये सर, आप को ज्यादा डिस्टर्ब नहीं करूंगा. आप से बात करना अच्छा लगता है.

16 टिप्‍पणियां:

  1. बडी अच्छी जानकारी मिली आज तो………………इस निगाह से भी सोचना जरूरी है।

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  2. यदि रचनाकार रचना से भिन्न नहीं होगा तो वह अपना उचित मूल्यांकन नहीं कर पायेगा. वह अपने से सीख नहीं पायेगा. और यदि सम्पादक रचना को नहीं रचनाकार को पसंद करेगा तो वह सम्पादन दृष्टि से न्याय नहीं कर पायेगा.

    -मनन करने एवं सीखने योग्य बात.

    आभार इस बातचीत को यहाँ रखने का.

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  3. सुभाष भाई, इतने प्रेम माहौल में, प्रेम भाई से चल रही बातचीत को आपने डिस्‍टर्ब न करने के नाम पर डिस्‍टर्ब ही तो कर दिया। खैर ... ऐसे व्‍यवधान तो जिंदगी और साहित्‍य दोनों का हिस्‍सा हैं, इन्‍हें कॉमनवेल्‍थ गेम्‍स में घोटालों की तरह का हिस्‍सा नहीं समझा जाना चाहिए। इनका जिक्र इसलिए प्रासंगिक है कि आजकल यही सुर्खियों में है, इसी पर देश की साख है, जिसे राख होने से रोकने के लिए, काले मन वाले नेता सक्रिय हैं। निष्क्रिय तो सिर्फ कॉमनमैन है, वही आम आदमी जिसे आजकल खास बना दिया गया है। सुभाष जी, रोजाना के जीवन अनुभव में मां भी अपने बेटों के बारे में सही बतला सकती है। वो बात दीगर है कि किसी एक बेटे से अधिक मोह उनके मूल्‍यांकन को प्रभावित करता है और करना भी चाहिए। यही तो मां की ममता है। इसी प्रकार रचना के प्रति जिस रचनाकार में असीम ममता होगी, वो यही चाहेगा और कोशिश करता रहता है कि इसे अंतिम दम तक, बल्कि कई अवसरों पर तो प्रकाशित होने के बाद भी परिष्‍कृत करता रहे। इस परिष्‍करण को संपादन भी कह सकते हैं और आलोचना भी। जो मन कहे, पर इससे अच्‍छाई तो सुगंधित होती ही है।
    सुभाष जी ने इस प्रकार से लिखचीत (चैट) को सार्वजनिक करके हिन्‍दीब्‍लॉग जगत में एक नई विधा को अनायास ही जन्‍म दे दिया है, जिससे न तो सुभाष जी और न प्रेम जी ही इस बातचीत के होने के बाद से पोस्‍ट प्रकाशित होने तक परिचित रहे होंगे। जबकि इससे पूर्व भी लिखचीत सार्वजनिक करने के प्रमाण मौजूद हैं, पर उनमें से अधिकांश सिर्फ सुर्खियों में रहने और विवादों को जन्‍म देने के लिए ही प्रायोजित किए गए हैं। जबकि यहां पर हिन्‍दी ब्‍लॉगर विधा को विकसित करने, उसे शिखर पर पहुंचाने का, अद्भुत जज्‍बा साहित्‍यकारों/ब्‍लॉगरों में सहज ही दिखाई पड़ता है।

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  4. प्रेम जनमेजय जी ने ठीक कहा है अविनाश जी.रचनाकार अपना आलोचक हो सकता है./.जिस प्रकार आदमी अपने आप को सबसे अधिक जानता है ,अपनी कमजोरिओं और शक्तिओं के साथ,ठीक उसी प्रकार वह अपनी कला और अपने साहित्य को बहुत अच्छी तरह जानता है/.बहुत कम साहित्यकार होते हैं जो जानने के साथ मानते भी हैं.और वेही अपने प्रखर आलोचक भी होते हैं / इसी लिए वे वडे रचनाकार होते हैं /अच्छा हो कि हम उन छोटे यानी कि तुच्छ रचनाकारों की बात ही न करें जो अपनी सारी कमजोरिओं को बखूवी जानते हुए भी इस आशा में जीते हैं कि उन जैसे उनको अवश्य ही साहित्य के इतिहास में स्थान देते रहेंगे /ऐसी बातें करते रहिये अच्छा लगेगा/

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  5. पर बड़ा मुश्किल है रचना से स्वयं को अलग कर पाना.

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  6. प्रेम जी ने जो कहा वह बिलकुल उचित है। हम तो बचपन से यही सुनते आए हैं कि अच्‍छा लिखने का एक मंत्र यही है कि जो लिखो उसे कुछ नहीं तो महीने भर के लिए भूल जाओ। महीने भर बाद निकालकर उसे पढ़ो। लेकिन इस तरह जैसे वह तुमने नहीं किसी और ने लिखा है। यानी कि एक आलोचक की तरह। निर्मम आलोचक की तरह।
    हां अब यह बात अलग है कि अब समय बदल गया है। इतना इंतजार कौन करे। फिर भी यह तो किया ही जा सकता है कि कम से कम अपने लिखे को घंटे दो घंटे बाद ही पढ़ लें। उतने में भी बहुत सी बातें समझ आ जाती हैं। लेकिन तैयारी होनी चाहिए समझने के लिए।
    मुझे तो ब्‍लाग में अपनी किसी रचना को प्रकाशित करने के बाद अगर कोई बात सूझती है तो मुझे उसमें परिवर्तन करने से कोई संकोच नहीं होता।

    अविनाश जी ने सही कहा। असल में कई साथियों से उनकी रचनाओं पर चैट बाक्‍स में ही इतनी महत्‍वपूर्ण बात हो जाती है कि लगता है कि उसे एक लेख के रूप में देना चाहिए।

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  7. बहुत अच्छा सर, करीब चार साल पहले जब देहरादून में था तब व्यंग यात्रा की एक प्रति मिल गई थी। तभी पढ़ी थी। प्रेम जी का नाम तभी से याद सा हो गया।
    उनके बारे में ज्यादा कुछ तो नहीं जानता था, आज आपके ब्लॉग के माध्यम से बहुत कम शब्दों में बहुत महत्वपूर्ण सूत्र मिल गया। एक रचनाकार के लिए यह बहुत जरूरी गुण है। शुक्रिया आपका।

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  8. इस दृष्टिकोण से भी सोचना
    ज़रूरी है........ प्रभावी आलेख

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  9. भाई सुभाष राय जी ,आप को बधाई देने के लिए फिर सेआया हूँ /सहज रूप में ही सही बातें सामने आती हैं./आप जैसे गंभीर रचनाकार गंभीर प्रश्नों को सामने ला सकते हैं /सहज प्रयास को साधुवाद.

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  10. बिलकुल ठीक कहा प्रेम भाई ने। मै उनकी बात से सहमत हूँ। अपनी रचनाओं की आलोचना खुद करना बहुत मुश्किल काम है, मगर जो यह काम कर पाता है, वही सही मायने में सफ़ल रचनाकार है, और इसके लिये उसका अपनी रचना से अलग होना लाज़मी है। एक ज्ञानवर्धक पोस्ट के लिये धन्यवाद।

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  11. सच ही है रचनाकार को आलोचक अवश्य होना चाहिये ।ऐसी बाते सार्वजनिक की जानी चाहिये।

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  12. संत वही है जो खुद में स्थित होकर खुद को देख सकता है. एक अच्छे लेखक में यह तत्व होना ही चाहिये !
    सार्थक चिंतन ....बहुत ही भड़िया और सत्य बात कही आपने !
    आभार आपका
    सादर
    http://kavyamanjusha.blogspot.com/

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  13. sukhad sanyog hai. jab aapse baat hui to aalochanaapar bhi kuchh baaten hui. aur ab premji ke vichaar dekha to khshi hui.. aakhir main premji ka anuj hoo. unse hi seekha hai bahut kuchh

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  14. प्रेम जी की, डॉ. सुभाष राय से चैट के दौरान जो सार्थक बिंदु उभर कर आए, हर रचनाकार को उन्हें आत्मसात करना चाहिए. लेकिन जैसा प्रेम जी ने खुद कहा कि यही काम नहीं हो रहा है (मैं प्रेम जी के शब्द नहीं उठा रहा हूँ). रचनाकारों का एक बड़ा टोला आत्म प्रशंसा में ही लीन है और उसे किसी भी आलोचक/समीक्षक की आवश्यकता ही नहीं है.
    यही कारण है लेखन में निरंतर गिरावट आ रही है.

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  15. संत होकर देखने की बात हो जाये तो बहुत बड़ी बात है, पर जैसे हम नित-निरंतर स्वयं को साफ सुथरा और सुन्दर बनाये रखने का प्रयत्न करते रहते हैं, रोजाना बार-बार आईने के सामने खड़े होकर हर दाग-धब्बे को सफाई से हटाते-मिटाते जाते हैं, वही नजरिया अपनी कृतियों के साथ भी रखें तब भी सुधार की काफी सम्भावना बढ़ जाती है. ऐसे सुधार को संभवतः आलोचना से कुछ अलग करके भी समझा जा सकता है.

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