शनिवार, 28 अगस्त 2010

उत्तमा की कामायनी

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 कामायनी: रचनाकार-उत्तमा दीक्षित (असिस्टेंट प्रोफेसर,  बी एच यू)
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परम्परा के घेरे में कोई रचना जन्म  नहीं लेती। जब पुराना टूटता है, तो कुछ नया बनता है। ध्वंस के ऊपर ही निर्माण खड़ा होता है। कलाकार या रचनाकार यथास्थिति को स्वीकार नहीं करता है, वह परम्पराजीवी नहीं होता है। वह पूरी ताकत से सड़ा-गला ध्वस्त करना चाहता है क्योंकि यही बदलाव की जमीन तैयार करने का एकमात्र रास्ता है। जो बदलाव का आकांक्षी  नहीं है, वह रचनाकार नहीं हो सकता। देश में या समूची दुनिया में परम्परा के मोह से ग्रस्त अतीतजीवियों की जमातें हैं। जब भी उनकी दुनिया को  कोई झटका लगता है, वे पूरी ताकत से प्रतिरोध के लिये उठ खड़े होते हैं। ये रचना और परिवर्तन विरोधी लोग हैं।  एम एफ़ हुसैन को इनका कितना विरोध झेलना पड़ा, यह किसी से छिपा नहीं है।

मैंने  यह बात एक खास कारण से छेड़ी है। दर असल साखी पर गिरीश पंकज की गज़लों के साथ मैंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के ललित कला विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर उत्तमा दीक्षित की एक पेंटिंग लगायी थी। वह एक कलाकार के नाते मुझे बहुत प्रिय है। उसने महाकवि जय शंकर प्रसाद की कामायनी पर आधारित पेंटिंग्स की श्रृंखला बनायी है, उसी में से एक मैंने चुनी थी। मुझे पहले से यह डर था कि इस पर लोग एतराज कर सकते हैं, इसमें लोगों को अश्लीलता नजर आ  सकती है। यह डर सहज था क्योंकि अपनी तमाम प्रगतिशील सोच के बावजूद मन के किसी बहुत गहरे  कोने में एक परम्परावादी व्यक्ति सिकुड़कर बैठा हुआ है, यह स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं होता।

मेरे प्रिय मित्र राजेश उत्साही ने सुबह-सुबह ही सचेत किया, इन रचनाऑं के साथ यह पेंटिंग लोग पसन्द नहीं करेंगे, कोई दूसरी लगा दो। मैंने  उनकी बात मान तो ली पर मन में एक सवाल बार-बार उठता रहा, एक लड़की अगर ऐसी पेंटिंग बना सकती है तो  हम उसे स्वीकार करने में इतने संकोच का परिचय क्यों देते हैं।  हम उसकी कलात्मक गहराई तक जाने की जगह, उसके बाहरी देह में क्यों  अपना रास्ता भूल जाते हैं। मैने राजेश से फिर पूछा,  मैंने तस्वीर तो बदल दी लेकिन ऐसा तुम्हें क्यों लगा कि यह तस्वीर ठीक नहीं है। राजेश ने कहा, पे‍टिंग सुंदर है, हम उसे कला के नजरिए से अगर देखेंगे तो। लेकिन यहां बात साहित्‍य की हो रही है। ब्‍लाग पर तो सब तरह के लोग आ रहे हैं। जरूरी नहीं है कि उनकी समझ भी इतनी ही साफ हो, जितनी हमारी है। बेवजह एक विवाद होगा। मैंने  गिरीश पंकज से भी उनका नजरिया जानना चाहा। उनका कहना था कि  वो पेंटिंग मुझे पसंद आई थी,  रहने देना था,  रस-परिवर्तन भी ज़रूरी है। पाखंड-पर्व के चलते कई बार हमें मज़बूर होना पड़ता है.. पेंटिंग बुरी नहीं थी, उसे कलाके नज़रिए से ही देखना चाहिए। मैंने उत्तमा से भी यह जानने की कोशिश की है कि उसने किस मनस्थिति में, किस नजरिये से इन पेंटिंग्स की रचना की। उसके विचार मिलते ही मैं आप सबके सामने रखूंगा। अभी मैं इस पेंटिंग को आप सबके विचारार्थ यहां रख रहा हूं।

14 टिप्‍पणियां:

  1. 'परम्परा के घेरे में कोई रचना जन्म नहीं लेती। जब पुराना टूटता है, तो कुछ नया बनता है। ध्वंस के ऊपर ही निर्माण खड़ा होता है।'
    यह एक ध्रुव सत्य है. परिवर्तन प्रकृति का नियम है, और संभवतः किसी का भी अस्तित्व बनाये रखने के लिए आवश्यक भी. अगर समय के साथ चलना है तो आपने पूर्वाग्रहों पर खुले मन से विचार करना होगा, वर्षों पुराने कायदे-कानून आज के परिवेश में लागू करना या उन पर अड़े रहना आपने आप में कोई बुद्धिमत्ता की निशानी नहीं. आज से सौ-पचास साल पहले सोने-चाँदी के भारी-भरकम गहनों का रिवाज़ था, अब नहीं है, लोग बदले, क्षमताएं बदलीं, रिवाजों को भी बदलना पड़ा. रचना के क्षेत्र में भी यह समय की आवश्यकता है, फिर रचना गीत की हो, ग़ज़ल की या चित्रकला की. थोडा खुल कर सोचने की आदत तो डालनी ही होगी, हाँ, बदलाव का लोजिक जरुर सही हो.

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  2. सुभाष भाई आखिर लत्‍ती लगाने का काम आपने मुझे ही सौंप दिया । कोई बात नहीं। पहली बात तो यह कि जैसा आपने कहा- तमाम प्रगतिशील सोच के बावजूद मन के किसी बहुत गहरे कोने में एक परम्परावादी व्यक्ति सिकुड़कर बैठा हुआ है। सही बात है मैं भी उस व्‍यक्ति की पहुंच से बाहर नहीं हूं। लेकिन मेरा कहना अब भी केवल इतना है कि साखी चूंकि शब्‍दों की कला के विमर्श का मंच है और अभी अभी ही शुरू हुआ है। और अभी अभी ही हमें ऐसा मंच मिला भी है। हम उस पर होने वाले विमर्श को किसी और दिशा में न ले जाएं।
    इसीलिए मैंने कहा कि इस पेटिंग पर हमें कला के नजरिए से बात करनी होगी तो उसके लिए एक मंच होना चाहिए। अन्‍यथा आप उसे साखी में केवल एक सजावटी तस्‍वीर की तरह रख रहे हैं।
    मैं गिरीश जी से आदर के साथ कहना चाहता हूं कि रस परिवर्तन कहकर मेरे हिसाब से वे कलाकार का अनादर कर रहे हैं।
    आदर के साथ आपसे भी एक बात कि कलाकार आखिर कलाकार होता है उसमें स्‍त्री या पुरुष का विभाजन आप क्‍यों कर रहे हैं। मेरे विचार में उत्‍तमा ने यह पेटिंग एक कलाकार के तौर पर बनाई है न कि स्‍त्री के तौर पर। निसंदेह वे स्‍त्री हैं तो स्‍त्री विषयक भावनाएं उसमें अधिक उभरेंगी।
    अंत में सुभाष भाई आप अब तक यह अच्‍छी तरह जान गए हैं कि कम से कम मैं सड़े-गले को ढोते रहने वाला रचनाकार(अगर रचनाकार हूं तो) नहीं हूं। इस बात की गवाह ब्‍लागों पर दर्ज मेरी टिप्‍पणियां हैं।

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  3. ...किसी भी चित्रकार के लिए, यूं नग्न चित्र बना देना कोई बड़ी बात नहीं, कोई भी चित्रकार ऐसे चित्र बना सकता है. पर मै आजतक उस मानसिकता का सही से आकलन नहीं कर पाता हूं कि आख़िर ये ऐसा क्यों करते हैं सिवाय इसके कि क्या ये सी-ग्रेड फ़िल्में बनाने की सी बात नहीं है !

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  4. प्रिय भाई राजेश, तुम्हारी कलात्मक निष्ठा पर मुझे किंचित संदेह नहीं है पर मैं सोचता हूं कि हम जिसे ठीक मानते हैं, उसे हिम्मत के साथ ठीक कहने या सार्वजनिक रूप से अपने विचार रखने से डरते क्यों हैं। यह क्यों सोचने लगते हैं कि लोग क्या कहेंगे, क्या सोचेंगे. इस तरह तो हम भी उन्हीं लोगों की जमात में शामिल हो जाते हैं, जो कला को लेकर दकियानूस हैं. उत्तमा बेशक युवा रचनाकार है पर कलाकार के साथ वह स्त्री भी है, इसका फर्क पड़्ता है. जिन परिस्थितियों में पुरुष विकसित होता है, स्त्रियों को वही स्वतंत्रता हमारा समाज नहीं देता है. इसका दबाव अवचेतन में रहता ही है और उसका अभिव्यक्ति में संश्लिष्ट होकर आना अवश्यम्भावी है, इसलिये यह कहना कि कोई कलाकार होते ही अपने वातावरण और मानसिक बुनावट सॆ मुक्त हो जायेगा, सही नहीं है. मै ये तस्वीरें सजावटी तौर पर नहीं एक कैनवस की तरह रखता हूं, ताकि पढ़ने वाले को थोड़ा ठहरने का मौका मिल सके. जहां तक मैं भाई गिरीश के रस-परिवर्तन की बात को समझ पा रहा हूं, वे भी वही बात कह रहे हैं, जो मैं कह रहा हूं. थोड़ी दूर जाने के बाद एक ऐसा आकाश हमारे सामने आता है, जहां ठहर कर हम आगे बढ़ सकते हैं. वे इसी कैनवस की बात कर रहे हैं. उनका रस परिवर्तन मन परिवर्तन जैसा है, मन के पारम्परिक धरातल से हट्ने जैसा.
    काजल, मैंने इस बारे में उत्तमा की राय मांगी है, मिलते ही पोस्ट करूंगा.

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  5. सुभाष भाई, निश्चित ही आप सही कह रहे हैं। लेकिन आप मेरी प्रतिक्रिया को डर का नाम क्‍यों दे रहे हैं। यहां केवल एक ही फर्क है और वह है कि साखी को अनजाने ही मैं हम सबका ब्‍लाग मानने लगा हूं एक सार्वजनिक ब्‍लाग। भले ही उसकी चाबी आपके पास है। इसीलिए सुबह वाली प्रतिक्रिया मैंने आपको टिप्‍पणी बाक्‍स में नहीं चैट बाक्‍स में भेजी थी। अन्‍यथा मैं आपसे सीधे ही सवाल पूछता कि यह तस्‍वीर आपने क्‍यों लगाई। यह आप मुझ से बेहतर जानते हैं कि जब आप एक सार्वजनिक मंच पर होते हैं तो आपको सब बातों का ख्‍याल रखना पड़ता है।

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  6. जनाब, कला को कला की तरह से देखना सीखिये। क्या सोचते हैं कि पुरानी पोगापंथी स्टाइल में सोचते रहेंगे और नई पीढ़ी आपको पूछेगी. कलाकार को अधिकार है कला सृजन का। कामायनी में जिस प्रलय का जयशंकर प्रसाद ने वर्णन किया है, मुझे नहीं लगता कि सब कुछ खत्म हो तब वस्त्र होते होंगे। मुक्त कण्ठ से सराहना उत्तमा की इन कृतियों की।

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  7. मुझे लगता है कि यह कृतियां कला और पोगापंथ पर सार्थक बहस का माध्यम बन सकती हैं। हालांकि साहित्य से जुड़े लोगों को मैं नहीं मानती कि पुरानी विचारधाराओं को त्याग पाएंगे लेकिन नए जमाने के हिंदुस्तान में नए तरह के साहित्यकारों का ही स्वागत है। उत्तमा की एक प्रदर्शनी को मैंने देखा है, जहां करीब सौ कृतियां प्रदर्शित थीं। सब एक से बढ़कर एक। पूरी कामायनी सीरीज थी। दर्शकों में भारतीयों के साथ विदेशी भी थे। टिप्पणी के लिए रखी गई पुस्तिका में सिर्फ एक दर्शक ने इन कृतियों को अश्लील माना था, जबकि उस प्रदर्शनी का उदघाटन ही एक सीनियर आईपीएस अधिकारी ने किया था। सुभाष जी को बधाई कि साहित्य सृजकों के मंच पर कलाकृतियां लेकर आए जो खुद भी भारतीय संस्कृति का अंग हैं। कोई साहित्य कला के बिना मैं तो पूरा नहीं मानती।

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  8. अरे वाह उत्तमा तुमने तो कमाल ही कर दिया। कामायनी पर पूरी सीरीज तुम्हारे ब्लॉग पर लगे लिंक से देखी तो बहुत ही अच्छी लगी। कलाकार को देश में आजादी है जिसका तुम बेहतर उपयोग कर रही हो। काजल जी मुझे कन्फ्यूज लगते हैं जो यहां मानसिकता तलाश रहे हैं। शायद उन्हें महिला के कला सृजन पर आपत्ति है। काजल जी जैसे लोग वो हैं जो खुद जो कहें-सोचें वह ठीक, दूसरा अलग बोला तो खफा। उनके ब्लॉग पर मैंने कार्टून देखे तो लगा कि वह भी कलाकार हैं पर..... क्या कहूं। अच्छा लगी इस ब्लॉग की पहल। डॉ. राय और उत्तमा दोनों को बधाई।
    डॉ. सुप्रिया शाह, अपोलो हास्पिटल, नई दिल्ली
    sdivyabhu@gmail.com

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  9. इस वक़्त मैं यह प्रवृत्ति देख रहा हूँ,कि बस, हमें तो बाल की खाल निकालनी है. इस कार्य में बहुत से लोग लगे हुए. मैंने कहा ''रस परिवर्तन भी ज़रूरी है'' तो हमारे एक साथी को लगा कि यह कलाकार का अपमान है. क्या हमारा जीवन रस परिवर्तन की गतिमान यात्रा नहीं है? अभी कविता पढ़ी, फिर कहानी पढ़ाने लगे. फिर कोई पेंटिंग देखी, फिर संगीत सुनने लगे. यह विधाएं बदलना रस-परिवर्तन है क्योंकि हम जड़ नहीं है. चेतन है. एक कविता के बीच कोई चित्र रस-परिवर्तन ही तो करता है. अभी हम शब्द-एवं भाव-रस ले रहे थे, अब रंग-रस ले रहे है. चित्र का आस्वादन कर रहे है. हर कला हमें नयाआलोक, नया संस्पर्श देती है उत्तमा की पेंटिंग अगर कविताओं के बीच लगी है तो वह सुधी पाठको के रस का परिवर्तन भी करेगी. कविता के बीच चित्र केवल शोभा के लिये नहीं लगाये जाते. और सुभाष राय जैसे संपादक लगाते है, तो उसकी प्रासंगिकता होती है. रस परिवर्तन को हलके से न ले. अगर रस परिवर्तन न हो तो हम जिंदा नहीं रह सकते. नीरस हो जायेंगे. और एक कलात्मक चित्र रस सर्जन करता ही करता है.

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  10. गिरीश जी क्षमा करें,बाल की खाल तो आप भी निकाल रहे हैं। दूसरी बात सुभाष जी जैसे संपादक ने वह चित्र लगाया था तो निकाला भी उन्‍होंने ही। जो मैंने कहा कहीं न कहीं उनका संपादक उससे सहमत था। अन्‍यथा वे उसे लगा ही रहने देते। और अगर आप मुझे साथी कह रहे हैं तो कम से कम साथी की बात को समझने का प्रयत्‍न तो करें। मैंने अपनी दो टिप्‍पणियों में यह बात कही है कि मेरी समझ से साखी कला की समीक्षा का मंच नहीं है। ऐसे मैं आप अगर इतनी महत्‍वपूर्ण कलाकृति वहां लगा रहे हैं तो वह केवल फिलर की तरह ही आएगी।
    और जो कलाप्रेमी उस पर ध्‍यान देंगे तो वे फिर आपकी ग़ज़लों या कविताओं के सा‍थ न्‍याय नहीं करेंगे। यानी रस परिवर्तन ही नहीं विषय परिवर्तन भी होगा। अगर आप उसे कला की समीक्षा का मंच भी बनाना चाहते हैं तो फिर बाकायदा यह कहकर ही वहां आना पड़ेगा।

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  11. एक बेहद उम्दा पोस्ट के लिए आपको बहुत बहुत बधाइयाँ और शुभकामनाएं !
    आपकी पोस्ट की चर्चा ब्लाग4वार्ता पर है यहां भी आएं !

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  12. इस प्रकार की चर्चाएं सबके मन को अभिव्‍यक्‍त करती हैं। सबकी बात को बिना किसी पूर्वग्रह के सामने लाती हैं। मन को टटोलना सबसे कठिन है परंतु किसी कलाकार अथवा रचनाकार के लिए यह एक सहज प्रक्रिया है, उसी प्रक्रिया का विस्‍तार जीवन में रस भरता है। अब वो चाहे नीरस वाला रस ही क्‍यों न हो, बिना नी+रस के अन्‍य रसों का आस्‍वादन कैसे किया जा सकता है, रस तो सभी आवश्‍यक हैं। बालपन में जब हमें इन स्थितियों का बोध नहीं होता है, तब हमें कुछ भी अनुचित नहीं लगता और जब बोध जगने लगता है, तब हम मन को जबरदस्‍ती क्‍यों सुला देना चाहते हैं ? मन की गति के प्रवाह को आपस में रचनाकारों को तो अवरुद्ध नहीं करना चाहिए, मेरे मन का तो ऐसा मानना है, आप सब मनन कर रहे हैं, इससे जाहिर है कि मन की सत्‍ता व्‍यापक है और उपयोगी भी। मन को बांधें मत और इसे दिग्‍भ्रमित भी मत होने दें, मेरा अबोध यही जान पाया है, इसी जानने में जान यानी प्राणों का निवास होता है।

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  13. विडंबना ही है कि खुद को आधुनिक कहने वाले साहित्यकार पुरातन और ढकोसलानुमा विचारों में बंधें हैं। उत्तमा की रचनाएं उम्दा हैं और मुझे उनके समर्थन में विनी जी का कथन सही लगता है कि प्रलयकाल में वस्त्र कहां से आते। यह लोग विरोध करते हैं लेकिन जब एमएफ हुसैन जैसे लोग भावनाओं को गलत ढंग से ठेस पहुंचाते हैं तो यह लोग प्रगतिशील हो जाते हैं। यह प्रक्रिया रुकनी चाहिये। उत्तमा की कला की जितनी प्रशंसा की जाए उतनी कम है।
    डॉ. मयंक श्रीवास्तव (प्रिय)

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  14. उत्तमा जी अपनी नग्न चित्रकारी को हकीकत की बयानी कहती हैं.
    "जल-प्रलय के समय वस्त्र कहाँ से आये." ..... इस कारण उन्होंने नग्नता उकेरी.
    ... लेकिन अब तो सभी संसाधन मौजूद हैं फिर क्यों कूँची और रंगों का आश्रय लिया?
    यदि उत्तमा जी चाहती तो न्यूड उदाहरणों को पाने के लिये पोर्न प्रभावित मोडल्स की फोटोग्राफी कर सकती थीं. क्यों कूँची को चुना?
    एक तरफ सत्य जानते हुए भी प्रसाद ............. सामाजिक बाह्य धर्म को निभा रहे हैं.
    दूसरी तरफ उत्तमा जी ................. समझ नहीं आता कि कौन से कला-धर्म को निभा रही हैं?
    क्या वे समझती हैं कि नग्नता की दर्शाने की प्रतियोगिता होनी चाहिए.........
    यदि कला की उत्कृष्टता का यही एक पैमाना है तो उनसे बढ़कर कलाकार पैदा हो जायेंगे.........
    मैं चाहता हूँ कि ....... उत्तमा जी एक बार फिर से विचार करें वे किस दिशा में जा रही हैं?
    उन्हें उकसाने वाले हुसैनी मानसिकता के विद्वान् तो काफी मिल जायेंगे किन्तु सही सुझाव देने वाले तो उन्हें शत्रु ही लगेंगे.
    उनकी खुद की समझ ही जब जागृत होगी ....... उस समय की प्रतीक्षा रहेगी.

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