गुरुवार, 8 अप्रैल 2010

भूत, जो है ही नहीं-२

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धीरे-धीरे गुल्लू को समझ में आने लगा था कि भूत-प्रेत की ज्यादातर कहानियां गढ़ी गयी हैं फिर भी उसके मन में कहीं बहुत गहरे एक डर समाया हुआ था। वह इन रहस्यों को समझना चाहता था लेकिन कैसे, उसकी समझ में नहीं आता। गुल्लू के घर के सभी सदस्य बड़े पारंपरिक सोच के थे। वे पूरे आस्तिक भी थे। घर में देवी-देवताओं की पूजा होती थी। एक बीमार बहन थी, उसके इलाज के लिए डाक्टर की जगह अक्सर खदेरन घर बुलाये जाते, उनका पचरा होता। कई बार गुल्लू की मां अपने बच्चों के योग-क्षेम के लिए भी ओझैती कराती। दवा पर दाम लुटाने से तो अच्छा था। ज्यादा से ज्यादा ओझा बाबा को भरपेट खिला दिया और दो-चार आने दक्षिणा दे दी। वह साल में एक बार देई माई के थान पर भी बच्चों को ले जाती। गुल्लू की दिलचस्पी वहां देसी घी में बनने वाली पूड़ी और मीठी बखीर में ज्यादा रहती। गुल्लू चुपचाप भूत-प्रेतों की खोज में लग गया। उसे लगता, शायद साधु-संत इन रहस्यों के बारे में ज्यादा जानते होंगे। इसी तलाश में वह तपसी बाबा के यहां भी रोज एक चक्कर लगाता। तपसी बाबा गृहस्थ साधु थे पर घर-बार की जिम्मेदारी छोड़कर वे बस्ती से दूर एक कुटी बनाकर रहने लगे थे। सुबह की पूजा के बाद वे घंटा बजाते तो उसकी आवाज दूर तक जाती। गुल्लू को उसका इंतजार रहता। घंटा-ध्वनि कान से टकराते ही वह कुटी की ओर दौड़ पड़ता। बाबा भुना हुआ चना, हलवा और बताशे का प्रसाद देते। कुछ दिनों बाद गुल्लू की यह खोज बस प्रसाद तक सीमित रह गयी। तपसी बाबा को हरे राम, हरे कृष्ण से ज्यादा कुछ मालूम नहीं था। गांव में यदा-कदा आने वाले जोगियों, नागाओं और साधुओं का भी वह पीछा करता। सारंगी पर गोरखनाथ और भरथरी के गीत गाते जोगी तब गांव में अक्सर आते रहते। पर इनमें से ज्यादातर मंगन निकलते, जो दिन भर मांगकर अपना जीवन चलाने से ज्यादा कुछ नहीं करते।


गुल्लू बड़ा होने लगा था। घर में जितनी किताबें उपलब्ध थी, पढ़ डालीं। शायद कहीं भूत-प्रेतों की सचाई मिल जाये। कई बार वह बाजार से तंत्र-मंत्र की पत्रिकाएँ और किताबें चोरी-चुपके खरीद लाता। जब घर में सब लोग सो जाते तो उन्हें छिप-छिपाकर पढ़ता। यह सोचकर कि शायद कहीं कोई सूत्र मिल जाये। रहस्य-रोमांच की कहानियों में वह डूब जाता। पर सब बेकार। कभी-कभी उन कहानियों के लेखकों से मिलकर सचाई जानने की उत्कंठा जगती, पर अभी वह गांव से अकेले किसी बड़े शहर में नहीं निकला था, इसलिए कोई निर्णय नहीं कर पाता। कोई रास्ता नहीं सूझने पर उसके अंदर प्रतिक्रिया होने लगी। कभी-कभी वह सोचता यह सब बकवास है, कल्पना है, झूठ है। तभी गांव में काली मां के चौरे पर एक मेला लगा। हर घर से मां के लिए धार चढ़ी। सभी घड़े चौरे के पास सजाकर रखे गये थे। भूत, प्रेत, देवी, देवता किसी पर भी विश्वास करना उसके लिए मुश्किल हो गया था। कोई बताने वाला नहीं था। कोई दिखाने वाला नहीं था। अक्सर वह बेचैन हो जाता। इसी तरह की मनोदशा में मेले की शाम वह चौरे के पास खड़े पेड़ पर चढ़ गया और चौरे पर कूद पड़ा। उसने यह कई बार किया। जब इतने लोग मानते हैं तो काली मां जरूर होंगी। अगर वे सचमुच हैं तो या तो उन्हें गुस्सा आयेगा या प्यार। गुस्सा आया तो भी काम बन जायेगा क्योंकि तब मां को कुछ करना पड़ेगा। बिना चौरे से बाहर आये वे क्या कर पायेंगी। मारना भी होगा तो भी उन्हें बाहर तो आना ही पड़ेगा। वह मां के हाथों पिटने को भी तैयार था, मगर वह चौरे से निकले तो। उसे लगता था कि मां अगर हुई तो वह प्यार ही देगी, गुस्सा नहीं होगी। प्यार इसलिए कि बच्चा है, नहीं जानता है मगर जानना चाहता है। कोई भी मां अपने बेटे से जल्दी गुस्सा नहीं होती। गुस्सा होती भी है तो प्यार वश ही। जब सिर पर पांव रखने से भी चौरे से मां बाहर नहीं निकली तो उसने उसे डंडे मारे और फिर वहां सजाकर रखे गये सारे घड़े फोड़ डाले।

अब उसका डर कम होने लगा था। वह कहीं भी देवी-देवताओं का अपमान करने को उद्यत रहता। गांव में डीह बाबा के थान से वह मिट्टी के हाथी उठा लाता। घर में रख देता। जब कई हो जाते तो तोड़ डालता। खेत पर सैयद बाबा की समाधि थी। मजार ढह गयी थी। सिर्फ एक दीवार खड़ी थी। जब भी वह खेत पर पिताजी के साथ जाता, उस दीवार से एक ईंट जरूर उखाड़ता। हालांकि उसकी खोज खत्म नहीं हुई थी लेकिन उसे भरोसा होने लगा था कि यह सब गढ़ी हुई बातें हैं। इसी उधेड़-बुन में गांव की पढ़ाई उसने पूरी कर ली। शहर में दाखिला हो गया। पढ़ाई का भार बढ़ गया। रहस्य-रोमांच की दुनिया में दिलचस्पी के बावजूद उसके पास इन खोजों के लिए वक्त कम पड़ने लगा। नये स्कूल में हिंदी के मास्टर बहुत अच्छा पढ़ाते थे। एक दिन उन्होंने बच्चों से पूछा, बेटे भूत का अर्थ बता सकते हो। सब नये बच्चे थे। किसी ने हाथ नहीं उठाया। फिर वे खुद ही बोले, भूत वह है जो न वर्तमान में है, न भविष्य में होगा। जो बीत गया है, जो है ही नहीं। गुल्लू ने मिडिल क्लास में काल पढ़ा था। मुंशीजी ने खूब समझाकर बताया था। तीन काल होते हैं. भूत, वर्तमान और भविष्य। तब उसे भूतकाल का पूरा बोध नहीं हुआ था। नये मास्टरजी की शख्सीयत से वह बेहद प्रभावित था। इस बार उनकी भूत की व्याख्या से गुल्लू के दिमाग में बिजली सी कौंध गयी। उसकी खोज झटके में पूरी हो गयी। उसके मन में सवाल उठा, मैं व्यर्थ ही इतने दिनों से भूत की तलाश कर रहा था।

1 टिप्पणी:

  1. "उसकी खोज झटके में पूरी हो गयी। उसके मन में सवाल उठा, मैं व्यर्थ ही इतने दिनों से भूत की तलाश कर रहा था। "

    YAHI SAAR HAI JI...

    kunwar ji,

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