बुधवार, 28 अप्रैल 2010

शाहिद नदीम की शायरी का लुत्फ़

आगरा की जमीन पे जन्मे जनाब शाहिद नदीम एक ऐसे शायर हैं, जिन्हें उर्दू और हिंदी की अदबी दुनिया अच्छी तरह जानती है. उनकी कलम में ऐसा कमाल है कि मामूली से मामूली शब्द भी उसकी नोंक पर आकर जगमगा उठता है. देश के भीतर और बाहर जो भी उर्दू के बेहतरीन रिसाले साया होते हैं, कोई भी ऐसा नहीं होगा, जिसने उनका कलाम न प्रकाशित किया हो. जितना बेहतरीन अंदाज उनके कहने में है, उतना ही बेहतरीन अंदाज उनके पढ़ने में भी है. वे जब  मंच पर होते हैं तो सामने बैठे लोग उनकी आवाज सुनकर इस तरह खामोश हो जाते हैं जैसे वे कानों से नहीं दिल से शायरी का लुत्फ़ उठा रहें हों.

१.
शब का सुकुत ही तो है अब दरम्यान में
कब तक दिए जलाओगे खाली मकान में।

कोई इसे खरीद सकेगा जहान में
इक सिलसिला है कर्ब का ग़म की दुकान में।

यह खौफ़ था परिन्दे को ऊंची उड़ान में
कुछ पर बिखर न जाएं कहीं आसमान में।

खुशियों की आरजू है तो फिर यह भी सोच ले
कुछ ज़लजले तो आएंगे ग़म के मकान में।

सब तल्खियां मिज़ाजÞ की पल भर में दूर हो
वो खूबियां हैं दोस्तों उर्दू जुबान में।

वो ज़ख्म दे दिया है तेरी क़ुरबतों नें आज
रोशन सदा रहेगा जो दिल के मकान में।

अब कुछ भी मेरे पास नहीं है मेरे नदीम
जो कुछ बचा था दे दिया उसकी अमान में।

(2)

हर नफस को खिताब करता है
वक्त जब भी हिसाब करता है।

बर्फ को आब-आब करता है
काम यह आफताब करता है।

ज़हन में इन्तकाम का ज़ज्बा
ज़िन्दगी को अज़ाब करता है।

जिससे कायम है आबरू तेरी
क्यूं उसे बेनकाब करता है।

यह अलग बात वो नहीं शायर
गुफ्तगू लाज़वाब करता है।

जिकरे माज़ी नदीम अब पैदा
रूह में इज़तराब करता है।

(3)

तसव्वुर में तेरा चेहरा बहुत है
तसल्ली के लिए ऐसा बहुत है।

मैं सच हूं तो मेरी सच्चाइयों को
समन्दर क्या है इक कतरा बहुत है।

लकीरें हाथ की बतला रही है
मुकद्दर में मेरे लिखा बहुत है।

किसी का साथ तूने कब दिया है
तुझे ऐ ज़िन्दगी परखा बहुत है।

सफर में क़ाफिले के साथ चलना
घना जंगल है और ख़तरा बहुत है।

मुझे तो गांव में एक शख्स अब भी
फरिश्तों की तरह लगता बहुत है।

मुहब्बत की तिज़ारत में नदीम अब
मुनाफा कम है और घाटा बहुत है।

(4)

किसी फ़रेब से अपने न खुशबयानी से
उगा के देखा है फ़सलों को दिल के पानी से।

मेरे खुलूस की खुशबू का पूछती है पता
हवाएं आज भी घर-घर में इत्रदानी से।

न जाने कितने ही जुगनू सजे हैं पलकों पर
गमे हयात में बस एक शादमानी से।

कोई खुलूस का रिश्ता कोई वफा का दिया
मुझे यकीं है मिलेगा न बदगुमानी से।

अभी तो और भी गुल होंगे रोशनी के चराग
हवा-ए-वक्त की कुछ खास मेहरबानी से।

जवाब दे चुके आसाब मेरी फिक्रों के
किताबें जर की चमकती हुई कहानी से।

न कोई तरजे वफा और न कोई फिकरो अमल
अजीब लोग हैं बनते हैं खानदानी से।

नदीम हलक-ए-अहबाब भी ख़फा सा है
तुम्हारे लहजे की शायद यह हक बयानी से।

(5)

यूं ही अपना नसफ बताता है
जब भी मिलता है दिल दुखाता है।

जख्म को लोग फूल कहते हैं
फूल पैरों में रोज आता है।

कितने चेहरे दिखायी देते हैं
जब कोई आईना दिखाता है।

इसको जुगनू कहूं सितारा कहूं
कुछ तो पलकों पे जगमगाता है।

लफ्ज उजले से हो गये हैं नदीम
फिर कोई शेर गुनगुनाता है।

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