तुलसीदास ने कहा है-भवानी शन्करौ बन्दे श्रद्धा विश्वास रुपिनौ। श्रद्धा और विश्वास कोई साधारण चीज नहीं है। भवानी और शंकर इसके पात्र हैं। वे साधारण नहीं हैं। शंकर मूर्त होकर भी अमूर्त हैं। वे कभी जन्म नहीं लेते, कभी मरते नहीं। उनमें करोड़ों सूर्यों का प्रकाश समाहित है। उन्हें जिस रूप में कल्पित किया गया है, वह अत्यंत विलक्षण है। भाल पर चन्द्रमा के कारन वे चन्द्रभाल हैं, कंठ में विष धारण करने के कारन वे नीलकंठ हैं, तीसरा नेत्र धारण करने के कारन वे प्रलयंकर हैं। वे निर्वाण रूप हैं। भवानी उनसे अलग नहीं हैं, उनकी शक्ति हैं। शंकर ही शक्ति से समन्वित होकर शिव हो जाता है। भव अर्थात होने का अर्थ भवानी के कारन ही शिव में निहित है। शिव सम्पूर्ण अस्तित्व का बोध कराता है। ब्रह्माण्ड में और उसके बाहर जो कुछ भी है, सब कुछ शिव रूप ही है। शिव ही जगत के रूप में व्यक्त हो रहा है। सभी जड़-चेतन महाशिव की अभिव्यक्ति हैं। शिव के अलावा कुछ भी नहीं है। मनुष्य भी शिव का ही व्यक्त रूप है। वह व्यक्त भी है और अव्यक्त भी। परन्तु जो व्यक्त हो रहा है वह अपने तमाम सौन्दर्य और उपयोगिता के बावजूद एक न एक दिन उसी अव्यक्त शिव में समां जाने वाला है। व्यक्त है तो नष्ट होगा ही। फिर भी शुरुआत के लिए व्यक्त का ही आश्रय लेना पड़ता है। यात्रा व्यक्त से अव्यक्त की ओर बढती है।
यहीं एक महत्वपूर्ण बात समझने की होती है। श्रद्धा के लिए व्यक्त आश्रय की जरूरत होती है। वह शिव का स्वरूप हो सकता है या अपने भीतर बैठा शिव स्वयं अपने ही रूप में। क्योंकि शास्त्रानुसार तत्वमसि अर्थात वह तुम ही हो। जब शिव इतने पास हो तो इधर-उधर भटकने की क्या आवश्यकता ? अगर यह बात ठीक से समझ में आ जाये तो बहुत भाग-दौड़ की कठिनाई से बचना संभव हो सकता है। यही नहीं इससे कृपालु महाराज के मनगढ आश्रम जैसी घटनाएँ भी होने से बचेंगी। अक्सर लोग गुरुओं की तलाश में भागते रहते हैं। यह कोई गलत बात नहीं है पर गुरु का काम सिर्फ इतना बताना ही है। सच्चा गुरु रास्ता बता कर हट जाता है। लेकिन आजकल लोग समूची श्रद्धा पहचाने बिना गुरु के चरणों में उड़ेल देते हैं। फिर तो लेने-देने का सिलसिला चल पड़ता है। इसका कोई अंत नहीं है। कबीर ने सचेत किया था की गुरु सोच-समझ कर करना, नहीं तो maare जाओगे...अंधे अँधा ठेलिया दोनों कूप padant।
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