सोमवार, 29 मार्च 2010

मैं राम की बहुरिया

कबिरा खड़ा बाजार में लिए लुकाठा हाथ,
जो घर फूंके आपना चले हमारे साथ.
कितने लोग हैं जो अपना घर  फूंकने के लिए तैयार हैं. कबीर उन्हें आवाज दे रहा है. जिसमें साहस हो, जिसमें कुछ कर गुजरने की  हिम्मत हो, जिसमें  खुद को मिटा देने का  जज्बा हो, सिर्फ वे ही कबीर के साथ चल सकते हैं.  जो कबीर होने का इरादा रखते हों, केवल वही कबीर की आवाज सुन सकते हैं. कबीर को दुहराना  बहुत आसान है पर कबीर होना बहुत ही मुश्किल. कबीर बहुत आकर्षित करते हैं क्योंकि वे कभी लकीर नहीं पीटते, वे  हमेशा लीक से हटकर चलते हैं. बने-बनाये रास्ते पर तो कोई भी चल सकता है. जिस रास्ते पर पत्थर लगे हों, जिस पर लोग आते-जाते दिख रहे हों, उस पर तो कोई भी चल सकता है. कबीर को ऐसे रास्ते पसंद नहीं क्योंकि उन पर जितने गाँव  पड़ते हैं, जितने कसबे पड़ते हैं, सब के सब पहचाने हुए हैं, उन पर कोई रोमांच नहीं है, कोई मुठभेड़ नहीं है. कबीर को तो मुठभेड़ें पसंद हैं, इसलिए वे अँधेरे से होकर निकलना चाहते हैं, इसलिए वे घने जंगलों से होकर रोशनी तक जाना चाहते हैं.
आप पूछेंगे कबीर को जाना कहाँ है? वे आखिर इतना खतरा क्यों उठाना चाहते हैं? वे मरने को क्यों आमादा हैं. अँधेरे में, जंगल में खतरे हैं, वहां घात लगाये हमलावर  बैठे हैं. कबीर की मंशा क्या है? हाँ, वे मरकर देखना चाहते हैं कि मरना कैसा होता है, मरने के बाद क्या होता है, मरने का मजा क्या है. उनका मानना है कि जो मर सकता है, वही जीने का सच्चा अधिकारी है, जो हर दम मरने को तैयार  है, वही हर क्षण जी सकता है. जो मरने से डरता है, वह जी ही नहीं सकता, वह डरता ही रहेगा. जो हमेशा भय में है, वह जीवन को कैसे प्राप्त कर सकता है. इसे ही कबीर प्रेम का नाम देते हैं. प्रेम करने वाला सर्वोच्च बलिदान के लिए निरंतर तैयार रहता है. प्रिय के लिए वह सबसे प्यारी चीज तोहफा के तौर  पर दे सकता है. किसी भी आदमी के लिए उसका प्राण सबसे प्यारा होता है. जो प्राण निछावर करने को तैयार हो वही प्रेम कर सकता है.
जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहि
प्रेम गली  अति सांकरी जा में दो न समाहि
प्रेम कि गली बहुत तंग होती है. उसमें दो आते ही नहीं. कबीर ने बहुत प्रयोग करके देख लिया. बड़ी कोशिश की कि प्रिय को साथ लेकर चलें. सुहाना सफ़र है. चारों ओर बाग-बगीचे हैं. तरह-तरह के फूल खिले हैं. कल-कल करती नदियाँ बह रहीं हैं. तरह-तरह के रंग-विरंगे पक्षी चहक रहे हैं. शीतल मंद समीर चल रही है. कौन नहीं चाहेगा कि ऐसे मादक मौसम में प्रिय भी साथ हो. पर बड़ी मुश्किल है. मोह, लोभ, एश्वर्य कि खड़ी चट्टानों  के बीच से जो रास्ता जाता है, उस पर दो के जाने की जगह ही नहीं है. गिरने का खतरा है. इसलिए या तो एक को मिटना पड़ेगा या उसे दूसरे में समाना पड़ेगा. कठिन विकल्प है पर कोई और रास्ता ही नहीं है. कौन मिटे? कबीर  प्रियतम को मिटाने की जगह खुद को मिटा देना पसंद करते हैं. और मिटते ही वे उस पार पहुँच जाते हैं, प्रेम की नगरी में दाखिल हो जाते हैं.
कबीर प्रेम रस चख कर प्रसन्न हैं. वे इस राह पर चलने वालों को हिदायत देते हैं. यह प्रेम का घर है, कोई खाला का घर  नहीं कि जब चाहो आओ और निकल जाओ. इस घर में दाखिला तभी मिलेगा जब शीश उतार कर जमीन पर रख दोगे. उन्होंने ऐसा करके देख लिया है. उनके प्रिय राम हैं. वे राम की बहुरिया हैं. राम उनके दिल में बस गया है, अब निकालें तो कैसे. वे खुद ही निकल जाते हैं,  राम को रहने देते  हैं, अपने को मिटा देते हैं. अब तो काम हो गया, राम ही रह गया. पिया है और पिया-पिया की आवाज. यह बात कहने में सीधी लगती है पर इतनी सीधी है नहीं. एक परमात्म से अलग होकर  आतम मैं-मैं चिल्लाने लगा है. उसे सुंदर शरीर  क्या मिल गया, भारी घमंड हो गया है. धन, यश ने इस अभिमान को और बढ़ा दिया है. वह वियुक्त होकर दर्द से छटपटाने की जगह ख़ुशी से सराबोर है, सोचता है, यह सब अनिश्चितकाल तक उसके पास रहेगा. यही मन का अंधकार उसे अपने परम पीव से अलग किये रहता है. कबीर ने इस नाटक को समझ लिया है. उन्होंने जान लिया है कि जो ख़त्म हो जाने वाला है, वह मेरा कैसे हो सकता है, जो नहीं रहने वाला है, वह मेरा कैसे हो सकता है. मेरा तो वही है जो कभी ख़त्म नहीं होता. वही है परम पिया. तभी तो वे गा उठते हैं--दुलहिन गावहु मंगलाचार, मोरे घर आये राजा राम भरतार. और जब घर में भरतार हो तो बहू कि अपनी चलती कहाँ है. उसे अपनी चलानी भी नहीं है, उसने तो अपने पति की बांहों में खुद को डालकर छोड़ दिया है, वह जैसा चाहे करे. यही प्रेम है, सर्वस्व समर्पण ही प्रेम है.
ऐसे प्रेम का ग्राहक है कोई? ऐसा मतवाला है कोई, ऐसा पागल है कोई. सब कुछ लुटाने की हिम्मत वाला है कोई? है तो आये न, कबीर को तलाश है उसकी. उनका अपना कमाल तो नाकारा निकल गया, राम नाम को छोड़कर घर ले आया मॉल. बूडा  वंश कबीर का, उपजा पूत कमाल.पर और जो भी  अपनी बुराइयाँ जला सकता हो, अपना अभिमान फूँक सकता हो, अपना सर कटा सकता हो, उसे कबीर अपने साथ ले जाने को तैयार हैं.

 

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