शुक्रवार, 26 मार्च 2010

ग़ज़ल पर दुष्यंत

साए में धूप संग्रह से ------
मैं स्वीकार  करता हूँ...
..कि ग़ज़लों को भूमिका की जरूरत नहीं होनी चाहिए, लेकिन एक कैफिअत  इनकी भाषा के बारे में जरूरी है. कुछ उर्दू-दां दोस्तों ने कुछ उर्दू शब्दों के प्रयोग पर ऐतराज किया है. उनका कहना है कि शब्द शहर नहीं शह्र होता है, वजन नहीं वज्न होता है.
..कि मैं उर्दू नहीं जानता , लेकिन इन शब्दों का प्रयोग यहाँ अज्ञानतावश नहीं, जानबूझकर किया गया है. यह कोई मुश्किल काम नहीं था कि शहर क़ी जगह नगर लिखकर इस दोष से मुक्ति पा लूँ, किन्तु मैंने उर्दू शब्दों को उस रूप में इस्तेमाल किया है, जिस रूप में वे हिंदी में घुल-मिल गए हैं. उर्दू का शह्र हिंदी में शहर लिखा और बोला जाता है; ठीक उसी तरह जैसे हिंदी का ब्राह्मण उर्दू में बिरहमन हो गया है और ऋतु रुत हो गयी है.
...कि उर्दू और हिंदी अपने-अपने सिंहासन से उतरकर जब आम आदमी के पास  आती हैं तो उनमें फर्क कर पाना  बड़ा मुश्किल होता है. मेरी नीयत और कोशिश यह रही है कि इन दोनों भाषाओँ को ज्यादा से ज्यादा करीब ला सकूँ. इसलिए ये गज़लें उस भाषा में कही गयी हैं, जिसे मैं बोलता हूँ.
..कि ग़ज़ल की विधा एक बहुत पुरानी किन्तु सशक्त विधा है, जिसमे बड़े-बड़े उर्दू महारथियों ने काव्य रचना की है. हिंदी में भी महाकवि निराला से लेकर आज के गीतकारों और नए कवियों तक अनेक कवियों ने इस विधा को आजमाया है. परन्तु अपनी सामर्थ्य और सीमाओं को जानने के बावजूद इस विधा में उतरते हुए मुझे आज भी संकोच तो है, पर उतना नहीं, जितना होना चाहिए था. शायद इसका कारन ये है की पत्र-पत्रिकाओं में इस संग्रह की कुछ गज़लें पढ़कर और सुनकर विभिन्न वादों, रुचियों और वर्गों की सृजनशील प्रतिभाओं ने अपने पत्रों, मंतव्यों एवं टिप्पणियों  से मुझे एक सुखद आत्मविश्वास दिया है. इस नाते मैं उन सबका अत्यंत आभारी हूँ.
..और कमलेश्वर! वह इस अफसाने में न होता तो ये सिलसिला शायद यहाँ तक न आ पाता. मैं तो....
हाथों में अंगारों को लिए सोच रहा था
कोई मुझे अंगारों की तासीर बताये.

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