सोमवार, 22 मार्च 2010

बोलना है तो सोचना है

सिपाही सोचता नहीं है. उसे बताया जाता है कि उसे सोचना नहीं है. उसे सिर्फ करना है. उसके हाथ में बन्दूक थमा दी गयी है. वह पूरी तरह लोडेड है. उसकी पेटी में और भी कारतूस  हैं. जरूरत पड़ने पर वह उनका इस्तेमाल कर सकता है. उसे ट्रेनिंग दी गयी है. पूरी तरह फिट रहना सिखाया गया है. उसे निशाने पर सही वार करना भी बताया गया है. उसे लड़ने की सारी कला सिखाई गयी है. बचना भी बता दिया गया है. अब वह रणभूमि में है. असली जगह, असली प्रयोगशाला में. उसे केवल अपना काम करना है, लड़ना है. दुश्मन की पहचान भी उसे बता दी गयी है. हुक्म  दे दिया गया है. अब उसे सोचना नहीं  है. अपना सारा समय दुश्मन को पराजित करने या उसे मार देने में लगाना है. अगर वह सोचने लगा तो हो सकता है, शत्रु के हाथों मारा जाये, गंभीर रूप से घायल  हो जाये. सोचने से उसे नुकसान हो सकता है. सोचने का काम दूसरे लोग कर रहे हैं इसलिए इस पचड़े में उसे नहीं पड़ना है. अगर उसने ऐसा किया तो उसकी जान जा सकती है, वह मेडल से वंचित हो सकता है, वह देश के लिए कलंक साबित हो सकता है.
हर सिपाही को ऐसा बता दिया जाता है. असल में सेना या पुलिस में हर मातहत अपने अधिकारी के सामने सिपाही की ही तरह व्यवहार करता है. चाहे वह कितना ही बड़ा अधिकारी क्यों न हो, वह अपने बॉस के आगे अदने सिपाही की ही तरह होता है. उसे सिर्फ सुनना होता है, सवाल की अनुमति नहीं होती. जो सुनता है, उसे मानने के अलावा कोई और चारा नहीं होता. यही अनुशासन है. सवाल करना अनुशासनहीनता है और ऐसा करने से वर्दी जा सकती है. सेना और पुलिस का यह अनुशासन धीरे-धीरे पत्रकारिता में भी प्रवेश  कर रहा है. इसलिए कि यहाँ  भी सभी रणभूमि में हैं. संकट यह है कि सभी बिना हथियार के हैं. अपने लिए हथियार भी तलाशना है, लड़ाई भी करनी है और जीतनी भी है. हारे तो बाहर होंगे, बचेगा केवल हरिनाम. लड़ाई भी अपनी-अपनी. मदारी की तरह भीड़ जुटानी है, कैसे, यह आपको तय करना है. मदारी चौराहे से थोडा हटकर बैठ जाता है, डमरू बजाता है, जोर की आवाज लगाता है. जब कुछ लोग उसे घेरकर खड़े हो जाते हैं तो सांप की खाल हाथ में लहराता हुआ ऐलान करता है कि सभी साँस रोके  खड़े रहें, अभी थोड़ी देर में यह मरा हुआ सांप फुँकार कर उठ खड़ा होगा. बस थोड़ी ही देर में, हाँ थोड़ी ही देर में. फिर जोर का डमरू बजाता है. भीड़ बढ़ती जाती है, वह बीच-बीच में अपने सधे हुए बन्दर को कटोरे के साथ लोगों के पास दौड़ाता है और बार-बार ज्यादा से ज्यादा ऊँची आवाज में सांप के उठ खड़े होने की याद दिलाता है. लोग आते रहते हैं, जाते रहते हैं. भीड़ बनी रहती है. बंदर पैसा इकठ्ठा करता रहता है. खेल-तमाशे के आखिर तक सांप की खाल फन फैलाकर खड़ी नहीं होती. खेल ख़त्म हो जाता है, मदारी अपना झोला उठाता है और दूसरे ठिकाने की ओर चल पड़ता है.
कुछ ऐसा ही खेल आजकल पत्रकार भी खेल रहे हैं. भीड़ जुटानी है. ज्यादा से ज्यादा दर्शक जुटाने हैं, अधिक से अधिक पाठक जुटाने हैं. कलम की  इस दुनियां में बने रहने की यह एक अनिवार्य शर्त है. दिन भर दिमाग में यही चल रहा है कि भीड़जुटाऊ खबर क्या हो सकती है, कहाँ मिल सकती है. कोई श्मशान की ओर भागा  जा रहा है. पता चला है कि वहां एक तांत्रिक आया है, वह मुर्दे खाता है, पंचाग्नि के बीच बैठा रहता है. किसी ने बताया कि वह जिसे अपने हाथ  से भस्म दे दे, उसका कल्याण हो जाता है, बड़ा से बड़ा काम हो जाता है. कोई राजधानी से सौ किलोमीटर दूर एक गाँव की ओर निकल पड़ा है. किसी ने फोन पर बताया कि वहां एक दिव्य बालक का जन्म हुआ है. उसका मुंह घोड़े जैसा है, उसका दिल पसली के बाहर एक पतली झिल्ली में लटका हुआ है और वह धड़कता हुआ साफ दिख रहा है, उसके सर पर एक भी बाल नहीं है पर वहां लाल त्रिशूल बना हुआ है. वह साक्षात् अवतार लगता है, ऐसा अवतार, जिसमें नर और पशु दोनों एक साथ परिलक्षित हो रहे हैं. कोई शहर के बड़े होटल की ओर सबसे पहले पहुँचने की कोशिश में है. खबर है कि वहां एक बाबा छिपा हुआ है, जो भगवा की आड़ में सेक्स रैकेट  चलाने  का आरोपी है. सुना जा रहा है कि उसके कुछ बड़े नेताओं से भी रिश्ते हैं. सभी कुछ ऐसा ढूंढ़ रहे हैं, जो ब्रेकिंग न्यूज बन सके और जिसके चलते सारी जनता उसके चैनल की दीवानी हो जाये. वाह क्या जलजला  लेकर आया, मजा आ गया, शाबाश. प्रिंट का भी यही हाल है. फैशन शो में किसी की चड्ढी सरक गयी, इससे बड़ी खबर क्या हो सकती है. किसी बदमाश, डकैत ने मंदिर में मां को सोने का मुकुट चढ़ाया है, शहर के उम्रदराज मशहूर नेता की कमसिन बीवी पहली बार माँ बनी है. उसके घर हिजड़े जमा हो गए हैं और वे बच्चे की माँ के कान में पड़े सोने के कुंडल से कम कुछ लेने को तैयार नहीं हैं.
सिपाही पत्रकार  बेचारे क्या करें, संपादक ने कहा है, कुछ ऐसा ले आओ, जो धूम मचा दे, बिजली गिरा दे, धुआं कर दे. कुछ ऐसा ले आओ, जो लोगों को बेचैन कर दे, उनकी नींद हराम  कर दे. कोई धोबियापाट आजमा रहा है, कोई चकरी  तो कोई जांघघसीटा. सबके अपने-अपने दांव, दांव पर दांव. होड़ है कि कुछ इंनोवातिव करो, कुछ ऐसा करो, जो अभी तक नहीं हुआ. याद करो लक्ष्मण जब परशुराम से नाराज हुए थे तो अपनी ताकत का बयान करते हुए कहा था-कंदुक इव ब्रह्माण्ड उठाऊँ, कांचे घट जिमी दारिउ   फोरी. है न कमाल की बात. अरे भाई जब ब्रह्माण्ड को ही उठा लेंगे तो खड़े कहाँ होंगे? वाजिब सवाल है पर किसे नहीं पता कि  वे  शेषनाग के अवतार हैं. उन्हीं के फन पर धरती टिकी हुई है, उन्हें तो बस फन हिलाना भर है, प्रलय मच जाएगी. फिर कोई पूछेगा कि धरती उनके     फन  पर है तो वे शेषनाग कहाँ टिके होंगे. फिर क्या जवाब दिया जायेगा? अरे एक बार भीड़ जुटा लो यार, कोई ठेका थोड़े ही ले लिया है हर सवाल का जवाब देने का. हर बार नए तरीके अपनाओ और सवालों को नजरंदाज करो. यह आज के संपादकों का गुरु मन्त्र  है. वे भी क्या करें, बेचारे  फँस गए हैं. एक बार मीडिया में आ गए तो आ गए. एक बार संपादक हो गए तो हो गए. वे ही जानते हैं कितने पापड़ बेलने पड़े. अब किसी  भी तरह इस पद पर बने रहना है. और यहाँ बने रहने का एक ही उपाय है, धंधे को बढ़ाते रहना. उसके लिए जो कुछ करना पड़ेगा, करेंगे. जब बॉस  का ये चिंतन है तो बेचारा जर्नलिस्ट क्या करे. उसे तो  बॉस को खुश रखना है. जब तक बॉस खुश तब तक नौकरी पक्की, बॉस  ज्यादा खुश तो प्रमोशन  के भी मौके. ऐसे में सोचने की बेवकूफी कौन और क्यूँ करेगा? उसने जैसा कहा वैसा ही करो. सोचो मत.
आज की पत्रकारिता का यह सबसे बड़ा संकट है. जो सोचने वाले लोग हैं, उनकी जरूरत नहीं है. क्योंकि वे कई बार असहमत हो सकते हैं, नए सुझाव दे सकते हैं. ज्यादा चिंतनशील हैं तो जनहित की बात उठा सकते हैं, मीडिया की जिम्मेदारियों पर बहस छेड़ सकते हैं, उसकी जवाबदेही पर उंगली उठा सकते हैं. मैं नहीं कहता कि ऐसी आवाजें ख़त्म हो गयीं हैं, पर कमजोर  जरूर पड़ गयीं हैं. वे परदे पर मौजूद हैं. उन्हें भी खड़े रहने के लिए धन  की जरूरत होगी, उन्हें भी अपनी दूकान तो देखनी ही है. एक मसीहा को भी सच बोलने के लिए अपना पेट भरना ही पड़ता है. भूखा  रहेगा तो बोलने के पहले  ही मूर्छित हो सकता है, मर भी सकता है. जीना और चलने   की ताकत रखना सामाजिक जिम्मेदारियों को पूरा करने की दिशा में बढ़ने की पहली शर्त है. जिस तरह राजनेताओं के लिए समाज और देश  की  प्रगति, उन्नति को नजर में रखना जरूरी माना जाता है, उसी तरह पत्रकारों के लिए भी होना चाहिए. खबरों के चयन और प्रस्तुति का नजरिया किसी व्यक्ति  या किसी धंधे का मोहताज न होकर  व्यापक चिंतन और सुचिंतित दृष्टि  से संचालित होना चाहिए. तभी पत्रकार  सामाजिक, राजनीतिक बुराइयों से आक्रामक ढंग से जूझ सकेगा, तभी इस लड़ाई के दौरान   आने वाले लोभ  और आकर्षण से वह खुद को बचा पायेगा. ऐसे हालात  कैसे  बनें,  इस पर हम सब को खुलकर सोचना है, आत्मालोचन करना है और सच्ची पत्रकारिता की  क्षीण धारा को वेगवान बनाने के रास्ते ढूंढने हैं.

1 टिप्पणी:

  1. आपके ब्लॉग पर आकर कुछ तसल्ली हुई.ठीक लिखते हो. सफ़र जारी रखें.पूरी तबीयत के
    साथ लिखते रहें.टिप्पणियों का इन्तजार नहीं करें.वे आयेगी तो अच्छा है.नहीं भी
    आये तो क्या.हमारा लिखा कभी तो रंग लाएगा. वैसे भी साहित्य अपने मन की खुशी के
    लिए भी होता रहा है.
    चलता हु.फिर आउंगा.और ब्लोगों का भी सफ़र करके अपनी राय देते रहेंगे तो लोग
    आपको भी पढ़ते रहेंगे.
    सादर,

    माणिक
    आकाशवाणी ,स्पिक मैके और अध्यापन से सीधा जुड़ाव साथ ही कई गैर सरकारी मंचों से
    अनौपचारिक जुड़ाव
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