देश की राजनीति में साधु सन्यासी कोई नई बात नहीं है। प्राचीन काल से ही ऋषियों का राजनीति में पूरा प्रभाव रहा है। सतयुग से लेकर त्रेता और द्वापर में कई उदाहरन देखे जा सकते हैं। लेकिन साधुओं पर हमेशा से ही प्रश्न-चिह्न लगता आ रहा है। द्रोणाचार्य के ऊपर यह आरोप था कि वे राजाओं के जरखरीद गुलाम थे। उन्होंने कभी अपने धर्म का पालन नहीं किया. वस्तुतः जब योगी राजदरबार में रम जाता है तो वह भोगी बन जाता है। योगी से भोगी बनाने वाला इन्सान अधिक नुकसानदेह होता है। वह समाज से कट जाता है। राजसी रोटी खाने के कारन उसकी तेजस्विता समाप्त हो जाती है। आज के कथित साधु भी राजनैतिक आश्रय तलाशते हैं. शायद ही कोई ऐसा संत, महंत होगा जिसके सम्बन्ध किसी नेता से न हों. वास्तव में देश में बड़ी संख्या में कुकुरमुत्तों की तरह उगे साधु विलासिता का जीवन व्यतीत कर रहें hain। उनके ठाट-बाट देखकर पूंजीपति भी शरमाते हैं. इश्वर के प्रति आस्था का ढोंग रखने वाले यह साधु अपनी सुरक्षा के लिए हथियारबंद लोगों को साथ रखते हैं.उन्हें अपनी जान की चिंता क्यों है, अगर वो बीतरागी हैं .
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