रविवार, 5 सितंबर 2010

‘ग्रीन हंट’ के बजाए डेवलपमेंट की तोप

वीरेन्द्र सेंगर की कलम से नक्सली हिंसा केंद्र सरकार के लिए बड़ी चुनौती बन गई है। इस चुनौती से मुकाबले के लिए ‘ग्रीन हंट’ जैसे आपरेशन जरूरी हैं या पिछड़े और आदिवासी बाहुल्य इलाकों में डेवलमेंट की ‘डोज’? इस मुद्दे पर उच्चस्तर पर सरकार में मंथन तेज हो गया है। इसी राजनीतिक ऊहापोह में पांच राज्यों में चल रहा नक्सल विरोधी आपरेशन ‘ग्रीन हंट’ भी आधे अधूरे मन से चलाया जा रहा है। ऐसे में जाहिर है इसके परिणाम बहुत कारगर नहीं हुए। सरकार ने भी मान लिया है कि गोली का जवाब, गोली से देने के बजाए नक्सलियों की मजबूत जड़ें कमजोर करना ज्यादा जरूरी है। इसीलिए सरकार 35 जिलों के लिए 13,742 करोड़ रुपये का विशेष आर्थिक विकास पैकेज लाने जा रही है।
केंद्रीय योजना आयोग ने नक्सल प्रभावित राज्यों के चुनिंदा 35 जिलों में खास विकास की योजना तैयार कर ली है। आयोग ने अपनी रिपोर्ट सरकार को दे दी है। उम्मीद की जा रही है कि 15 सितंबर के आसपास इस पर कैबिनेट की मुहर लग जाएगी। अभी यह तय नहीं हो पाया कि इस योजना के लिए 35 जिलों का चुनाव किस आधार पर हो? आयोग ने इसके लिए एक गाइडलाइन बनाकर दी है। लेकिन, मुश्किल यह है कि छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री दबाव बढ़ाए हुए हैं कि उनके राज्यों के ज्यादा से ज्यादा अदिवासी बाहुल्य जिले आईएपी (एकीकृत कार्ययोजना) के तहत ले लिए जाएं।

केंद्रीय योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया इस योजना के लिए खास दिलचस्पी ले रहे हैं। उन्हीं की पहल के चलते योजना आयोग की एक विशेष समिति ने आईएपी की पूरी रूपरेखा तैयार की है। इसके तहत योजना में शामिल किए गए जिलों में सड़क, बिजली, स्कूल व अस्पतालों जैसी योजनाओं में विशेष ध्यान दिया जाएगा। मोंटेक सिंह ने यह सिफारिश की है कि इस कार्ययोजना की निगरानी दो स्तरों पर हो। राज्य भी निगरानी करें और केंद्र की एक अधिकार प्राप्त संस्था भी, इस पर खास नजर रखे। इसी के साथ व्यवस्था बनाई जाए कि ब्लाक और ग्राम स्तर पर चुने हुए प्रतिनिधि भी इसमें हिस्सेदारी करें।

योजना आयोग के सूत्रों के अनुसार, यह योजना चार सालों के लिए होगी। पहले दो सालों में जोर इस बात पर रहेगा कि कई स्तरों पर जन जागरूकता और विश्वास बहाली का अभियान चले। आदिवासी इलाकों में स्कूल और अस्पताल खोले जाएं। यह भी ध्यान रहे कि अस्पतालों में दवाएं भी पहुंचे और कर्मचारी भी तैनात रहें। रणनीति यह रहे कि हर स्तर पर स्थानीय लोगों की भागीदारी सुनिश्चित की जाए। केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री, कपिल सिब्बल ने यहां शनिवार को कहा है कि उनका मंत्रालय सुदूर पिछड़े इलाकों में 100 केंद्रीय विद्यालय खोलने की योजना बना रहा है। उन्होंने अनौपचारिक बातचीत में कहा है कि इस बारे में वे प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह से विस्तृत चर्चा करने वाले हैं।

पिछले दिनों यहां राष्ट्रीय विकास परिषद की बैठक में नक्सल प्रभावित राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने आर्थिक पैकेज पर खास जोर दिया था। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह का कहना है कि एकीकृत कार्य योजना के तहत केंद्र की भी निगरानी रहे, इसमें कोई ऐतराज नहीं हो सकता है। लेकिन, इतना जरूर हो कि कहीं राजनीतिक श्रेय लेने की होड़ में राज्य सरकारों की भूमिका को नकार न दिया जाए। ऐसी कोशिश की गई, तो योजना की सफलता पर कई शंकाएं खड़ी जा जाएंगी।

आपरेशन ‘ग्रीन हंट’ में तमाम आधुनिक सशस्त्र संसाधन झोंक देने के बाद भी नक्सली गुट पस्त नहीं हुए हैं। ऐसे में यह बहस तेज हुई है कि नक्सली हिंसा से निपटने का तरीका क्या गोली-बारूद और फौज ही है? कांग्रेस नेतृत्व में भी शीर्ष स्तर पर इस मुद्दे पर मतभेद गहराए हैं। कई वरिष्ठ नेताओं ने चिदंबरम की रणनीति की खिलाफत शुरू कर दी है। ऐसे नेताओं में सबसे अग्रणी पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव, दिग्विजय सिंह हैं। उन्होंने तो मीडिया में एक लेख लिखकर चिदंबरम के आपरेशन ‘ग्रीन हंट’ की तीखी आलोचना कर डाली थी। इसके बाद मणिशंकर अय्यर से लेकर जयराम रमेश जैसे कई चर्चित नेताओं ने गृहमंत्री की रणनीति पर शंकाएं जाहिर कीं। यहां तक कि प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने हाल में कहा है कि नक्सली भी हमारे भाई-बहन हैं। सरकार उनसे हर तरह का संवाद करने के लिए तैयार है। प्रधानमंत्री की इस ताजा टिप्पणी के बाद चिदंबरम ने भी अपने रुख में नरमी के संकेत दिए हैं। यहां राजनीतिक हल्कों में जाना जा रहा है कि आदिवासियों को विश्वास में लेने के लिए केंद्र ने अब वाकई में रणनीति बदल दी है।

4 टिप्‍पणियां:

  1. यह कोई रातोरात जन्मी समस्या नहीं है. नासूर है जो कई दशकों से होता हुआ आज इस हालत में पहुंच गया है तो अचानक इसका इलाज़ नहीं मिलेगा. two pronged रणनीति ही अपनानी होगी जिसमें विकास तो ज़रूरी है ही लेकिन यह उन ताक़तों को पसंद नहीं आएगा जो इसी के अभाव में यहां सत्ताकेन्द्र बन चुके हैं..

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  2. सरकार को अब अगर समस्या के हल की याद आ गयी है तो इसे शुभ संकेत मान लिया जाए. प्रश्न यह है कि आदिवासियों की जो पीड़ा है, उसकी ओर भी ध्यान देने के लिए सम्बन्धित राज्य सरकारें भी गम्भीरता से इस हल में रूचि लेंगी, इस पर संदेह बना हुआ है. यदि आदिवासियों की समस्याओं पर आरम्भ से सरकारें संजीदा होतीं तो शायद हिंसा का महाकुम्भ आयोजित न होता.
    रपट पढ़ने में तो अच्छी लगती है लेकिन योजना आयोग द्वारा दी गयी राशि का पूरा पूरा इस्तेमाल, ईमानदारी से इसी कार्य में होगा, इस पर शक तो है. लूट-खसोट और बन्दरबांट नहीं होगी, इस की गारंटी लेने वाला भी तो कोई हो.

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  3. बेहतरीन पोस्ट लेखन के बधाइयाँ और शुभकामनाएं | आशा है कि अपने सार्थक लेखन से आप ऐसे ही ब्लाग जगत को समृद्ध करेंगे।

    आपकी पोस्ट की चर्चा ब्लाग4वार्ता पर है-पधारें

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  4. अगर सचमुच ऐसी पहल हो रही है तो यह स्‍वागत योग्‍य है। बस इसे अमली जामा पहनाने में ईमानदारी बरती जाए,हम यही कामना करें।

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