शनिवार, 12 जून 2010

मेरे भीतर तुम उपस्थित रहोगे

ओ मेरे पिता! तुम्हारा
अंश हूँ मैं सम्पूर्ण
मां के गर्भ में रचा
तुमने मुझे अपने लहू से 

तुमसे मुक्त कैसे
हो पाऊंगा कभी
कैसे वापस लौटा सकूँगा तुझे
उसका अंश भी जो
तुमने दिया है मुझे 
सब कुछ निछावर करके भी

अपने आंसुओं के साथ
रखा तुमने मुझे
जो करुणा  और प्रेम
पाता हूँ अपने भीतर
तुम्हारी संवेदना से सिंचित है वह
कैसे विछड़ सकता हूँ मैं
तुमसे, तुम्हारे आंसुओं से

मैं जानता हूँ तुम रहोगे
सदा, सर्वदा मेरी आत्मा  में
ज्योति की तरह दीप्त
मेरी नसों में बहते हुए
शताब्दियों के इतिहास की तरह
समय में ओझल  वर्तमान की तरह
युग-युगों में फैले
भविष्य की तरह

भले ही तुम्हारा शरीर थम जाये
तुम्हारी हड्डियाँ  तुम्हारा बोझ
उठाने से मना कर दें
तुम्हारा ह्रदय धड़कने से
इनकार कर दे
भले ही तुम संसार को
उसके  पार्थिवत्व  को
किसी भी पल अस्वीकार कर दो
पर मैं तुम्हारा मूर्त स्वीकार हूँ
तुम्हारा पूर्ण प्राकट्य  हूँ 
मेरे भीतर तुम उपस्थित रहोगे
तब भी, जब नहीं होगे
किसी जागतिक दृश्य में

मां ने तुम्हारी प्रतिकृति में
जो नवचैतन्य  सौंपा था तुझे
उसकी प्रथम श्वांस के साक्षी हो तुम 
तुम्हारी बाँहों में अनंत
अंधकार से मुक्ति पाई मैंने
अपनी अजस्र निश्छलता से
सींचकर तुमने मनुष्यत्व  दिया मुझे
जब तक आसमान के नीचे
मनुष्य होगा, मैं हूँगा, तुम होगे

मैं जब कभी हताश होता हूँ
थक जाता हूँ, असहज हो जाता हूँ
अपने कंधे पर महसूस करता हूँ
तुम्हारे खुरदरे हाथ
और निकल आता हूँ
नैराश्य  के विकट व्यूह से
जीवन का पहिया हाथों में
सम्हाले युद्ध को तत्पर
अभिमन्यु की तरह

जब कभी आत्मीय प्रवंचनाएं
क्रोधाविष्ट हो घेरतीं हैं मुझे
छल-छद्म के साथ
उपस्थित होतीं हैं
तुम्ही मुझे मृत्यु  से संवाद
की शक्ति सौंपते हो
और मैं यमराज से भी नहीं डरता
नचिकेता हो जाता हूँ

जब कभी संशय में होता हूँ
समरभूमि के बीच में
लडूं या मुक्ति पा लूं रण से
संघर्ष  और कर्तव्य के संबंधों
को समझने में असमर्थ
हो जाता हूँ पूरी तरह
मेरे भीतर से निकलकर
सामने आ जाते हो
पटु महानायक कृष्ण की तरह  
पलायन की ओर
रथ हांकने से रोक लेते हो
मेरा अर्जुन उठ खड़ा होता है
अपने गांडीव  के साथ
याद आ जाता है जीवन
का आप्त वाक्य-
मामनुस्मर युद्ध च

मैं जानता हूँ तुम कुछ नहीं
कुछ भी नहीं चाहते मुझसे
पर मैं कुछ देना चाहता हूँ
सिर्फ यही है मेरे पास
लो, मैं देता हूँ वचन
तम्हे कभी आहत नहीं करूँगा
दुःख नहीं दूंगा
बना रहूँगा
तुम्हारा अभिमन्यु
तुम्हारा नचिकेता
तुम्हारा अर्जुन




 
 

7 टिप्‍पणियां:

  1. is rachna ko padhane aur apne sudradh, sunder aur sahityik shabd kosh se parichay karane ke liye kotish naman aur abhaar.

    bahut samvedansheel rachna ke sath sath Nachiketa,Abhimanyu, Krish aur Arzun ka acchha vyakhyan kiya hai.

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  2. .. यह कविता दिल को छू गई.....अद्भुत

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  3. प्रिय सुभाष भाई निसंदेह एक मर्मस्‍पर्शी कविता की रचना की है आपने। पर मैं समझता हूं कि रचना करने से पहले उसे आपने जिया भी है। जितने वादे आपने पिता से किए हैं उन्‍हें निभाना सचमुच बहुत कठिन काम है। पूज्‍य पिताजी का आर्शीवाद आपके साथ है तो आप इन सबको निभा ले जाएंगे। सच कहूं तो यह हि
    म्‍मत मुझमें नहीं है।
    बहुत आदर और क्षमा याचना के साथ आपका ध्‍यान कविता की पहली चार पंक्तियों की तरफ आकर्षित करना चाहता हूं। भावनात्‍मक रूप से भी और विज्ञान की दृष्टि से भी यह सच नहीं है कि हम केवल पिता के सम्‍पूर्ण अंश हैं। हम सब में जितना अंश पिता का है उतना ही मां का भी है। सुभाष भाई आप अनजाने में ही लिंगभेद की अवधारणा को पुख्‍ता कर रहे हैं, ऐसा मुझे लगा।

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  4. Priy Bhai Rajesh, tumhare jaisa sarthak aur sajag mitr mere liye bahut upyogi hai. Tum kahan-kahan jhankate rahte ho, main khud nahin samajh pata hun. Jahan bhi main hota hun, vahan tum pahunch hi jate ho. Mitr main nahin janta ki main jab yah rachna likh raha tha, tab mere man men kya tha, main yah bhi nahin janta ki tumhare sanshay men kitana sach hai kyonki ab jab main is rachna ko dekhunga to ek aalochak ki haishiat se. Rachna ki mansthiti men laut pana mushkil kam hai, balki asambhav. Maine phir se apni panktiyan padhin. ve hein----main tumhara ansh hun sampurn. Yani---main sumpurn tumhara ansh hun. yahan kavita parthiv pita ki satta ka atikraman kar jati hai. aparthiv ka ling nahin hota. vah n purush satta hai, n stri satta. vah sirf hai. pita men bhi aur putr men bhi. us pita men man svyamsiddha ki tarh sthit hai. anant uska garbh hai. is tarah pita ke bhitar hi man bhi hai, garbh bhi hai. vah ansh hokar bhi purn hai. yah kavi ka bhautik se abhautik ki or prasthan hai. main pita ka ansh hun par pita ka ansh garbh ke bina nishkriy hota hai. isiliye abhautik pita svyam hi garbh ban kar prakat hota hai. main apne pita ki mrityu ki kalpana nahin kar sakta, isliye unhe us anant, abhautik astitv ki tarh dekhne lagata hun. is arth men uska ansh ansh nahin ho sakta, vah purn hi hoga. vah ek aisa purn hai, jismen se purn nikalne par bhi purn hi bachta hai. vastav men vah ansh hota hi nahin par samjhne ke liye vidwan kaviyon ne uske ansh ki kalpana ki hai. Tulsi ne kaha--ishwar ansh jeev avinashi. par ishwar ka ansh kaise ho sakta hai. doosri jaghon par kaha hai ki ishwar ek akhand satta hai. phir akhand ka khand kaise? yah keval tarkik sahjata ke liye kah diya gaya. main bhi usi darshan ke beech se gujarata hun aur apne pita ko usi akhand satta ke roop men hamesha chirantan dekhne ki koshish karta hun. main nahin janta tum meri is vyakhya se kitne santusht ho paaoge, par apni hi rachna ko samajhna bahut kathin ho jaata hai kabhi-kabhi. tumhari prashnakulta ka abhari hun anyatha main itna soch nahin pata. dhanyvad.

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  5. सुभाष भाई आपकी इस व्‍याख्‍या के बाद मैंने कविता को दुबारा पढ़ा।
    बात लगभग स्‍पष्‍ट हो जाती है। मैं समझ पाया हूं कि आप संसार के रचियता की बात कर रहे हैं। लेकिन मेरा मानना है जब हम प्रचलित बिम्‍बों को लेते हैं तो ऐसे खतरे हमेशा ही बने रहते हैं। मैंने आपको इस व्‍याख्‍या के‍ लिए मजबूर किया,इसे उपलब्धि मानूं या खता। तय नहीं कर पा रहा हूं।
    बहरहाल यह सकारात्‍मक संवाद की शुरूआत तो है ही। चलते चलते एक और बात। दुबारा कविता पढ़ने पर उसमें एक दो जगह प्रूफ की अशुद्धियां नजर आईं। कभी उन्‍हें दुरुस्‍त कर लीजिए। क्‍योंकि आपकी यह महत्‍वपूर्ण कविता तो यहां रहेगी ही। शुभकामनाएं।

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  6. आप की इस रचना को शुक्रवार, 18/6/2010 के चर्चा मंच पर सजाया गया है.

    http://charchamanch.blogspot.com

    आभार

    अनामिका

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