रविवार, 20 जून 2010

हे, पिता! मनुष्य को बचा लो

हे पिता, तुम्हें शत-शत प्रणाम. तुमने मुझे इस दुनिया में मनुष्य के रूप में आने का अवसर दिया, अपने रक्त से मेरे मष्तिष्क को, ह्रदय को सींचा, इसके लिए मैं तुम्हारा जन्म-जन्मान्तर ऋणी रहूँगा. यह जीवन एक ऐसा सुअवसर है, जो मुझे एक नया शिखर दे सकता है, जो मुझे मनुष्यता के उत्थान के लिए कुछ करने का पथ दे सकता है, जो मुझे जीते-जी मुक्ति का मन्त्र सौंप सकता है. यह तुम्हारी कृपा का परिणाम है. इस कृपा का विस्मरण कैसे हो सकता है. मैं इतना  कृतघ्न भी नहीं कि पश्चिम की तरह तुम्हारे लिए एक पिता-दिवस निश्चित कर दूं  और एक दिन तुम्हारे नाम फूल चढ़ाकर अपना कर्तव्य पूरा कर लूं. हमारी संस्कृति  में पिता कभी मरता नहीं. वह रक्त के साथ देहान्तरित हो जाता है. इस तरह मेरे रक्त में केवल तुम ही नहीं बल्कि मेरे पूर्वजों की अंतिम कड़ी भी बह रही है. वह अंतिम कड़ी मुझे  निश्चित ही सृष्टि के प्रथम पुरुष के रूप में दिखाई पड़ती है. वह कड़ी सबके रक्त में बह रही है. कितनी उद्दात्त भावना है, कितना व्यापक चिंतन है हमारा. उसी प्रथम पुरुष का रक्त सभी पुत्रों में है, चाहे उनके पिता अलग-अलग क्यों न हों. वह प्रथम पुरुष ही आदि पुरुष भी है. हम सब उसी की संतानें हैं. हम सभी मनुष्य हैं, इसलिए हम सभी भाई हैं, बन्धु हैं, एक ही स्रोत से फूटी महाधार के अलग-अलग प्रवाह हैं.

हे पिता, आज मनुष्य यह भूल क्यों गया है? क्यों उसने अपने बीच दीवारें खड़ी कर ली हैं? क्यों वह अपने धर्म के नाम पर, अपने स्वार्थ के लिए एक-दूसरे का गला कटाने को भी तैयार है? क्यों वह भूगोल में, इतिहास में बंट गया है? क्यों वह हिन्दू, मुसलमान, इसाई और न जाने क्या-क्या हो गया है? क्यों वह  सब कुछ बन जाता है बस आदमी नहीं बन पाता है? तुम्हारे पुरखों को याद था, उन्होंने बार-बार कहा भी, याद भी दिलाया. उन्होंने  पूरी धरती को, पूरे विश्व को एक घर की तरह देखा, सबको भाई कहा. वसुधैव ही कुटुम्बकम. पर कहाँ हो पाई पूरी  वसुधा एक कुटुंब? एक देश भी, एक समाज भी, एक घर भी तो नहीं बन पाया एक कुटुंब. आज सगा भाई भी अपने स्वार्थ के लिए अपने भाई का गला काटने में तनिक संकोच नहीं करता. न बंधुत्व रहा न मनुष्यता. हे पिता! कुछ करो. तुम्हें माँ की उर्जा चाहिए  तो उसे पुकारो. इस अनंत आकाश में वह भी है. वही तुम्हारे पुत्रों  की जीवन भूमि रही है, वही महागर्भ है हम सब पुत्रों की जननी है . वह जोड़ सकती है सबको, पहचान करा सकती है, अपने पुत्रों की, उनकी स्मृति जगा सकती है. पुकारो माँ  को,  रोना आये तो रो पड़ो फूट-फूट कर. वह बड़ी करुणावती है, बड़ी दयालु है, वह दौड़ी हुई आ जाएगी.

हे पिता! मनुष्य की पहचान खो रही है. वह जहाँ भी है, संकट में है, खतरे में है, लहूलुहान है, घायल है, उसकी आँखों में आंसुओं का सागर उमड़ रहा है. क्या अपने पुत्रों को तुमने आदमी बने रहने का सबक इसीलिए दिया था कि वे जिंदगी भर रोते रहें, अलग-थलग पड़े रहें, पीड़ा और यातना सहते रहें, मार खाते रहें. और अगर ऐसा बनाया तो उनमें मनुष्य होने का स्वाभिमान क्यों भर दिया, उनकी आत्मा को जागते रहने का वरदान क्यों दे दिया? यह मनुष्य की पीड़ा को और बढ़ाता है. पर तुम मुझसे ज्यादा बुद्धिमान हो, ज्यादा सचेष्ट हो, ज्यादा जाग्रत हो, तुमने जैसा भी किया है, जरूर उसका तर्क होगा तुम्हारे पास, कारण होगा तुम्हारे पास. मेरे इस विश्वास को जमीन चाहिए. बिना उसके शायद लम्बे समय तक मैं भी आदमी न बना रह सकूँ. इसलिए  हे पिता! मुझे शक्ति दो, समझ दो, साहस दो और मनुष्य होने और बने रहने का अर्थ मेरे भीतर प्रकट करो. प्रणाम.

4 टिप्‍पणियां:

  1. आप को पितृ दिवस की हार्दिक शुभकामनाऎँ !!

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  2. "इसकिये हे पिता! मुझे शक्ति दो, समझ दो, साहस दो और मनुष्य होने और बने रहने का अर्थ मेरे भीतर प्रकट करो. प्रणाम."

    यहाँ इसकिये = इसलिए कर लें !
    वैसे यही हमारी भी दुआ है |

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  3. आप को पितृ दिवस की हार्दिक शुभकामनाऎँ !!

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  4. बहुत बढ़िया आलेख. पितृ दिवस की हार्दिक शुभकामनाऎँ !

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