मंगलवार, 22 जून 2010

गहरी नींद में सरकार

सरकारें अक्सर नींद में रहती हैं। जब तक कोई उन्हें ठोंक-पीटकर जगाये नहीं, वे जागती नहीं। इस तरह समस्याएं पैदा होती हैं, बढ़ती जाती हैं। जब तक उनकी सड़ांध या उनसे उपजा भय सरकार तक नहीं पहुंचता, जब तक सरकार को नहीं लगता कि उसकी चूलें हिल सकती हैं, उसे परेशानी हो सकती है, उसे चुनाव में खतरा पैदा हो सकता है, वह सोती रहती है। महंगाई के मामले में आप सबने देखा है। हल्ला हुआ, कुछ मंत्री अपने-अपने अंदाज में बड़बड़ाये और फिर सब सो गये। बीच-बीच में किसी-किसी को महंगाई की याद आती है और वह बड़बोलेपन के साथ कोई आश्वासन देकर चुप हो जाता है। नक्सली समस्या पर क्या कुछ हो रहा है, आप देख रहे हैं। जब कोई घटना हो जाती है, कोई बड़ा नरसंहार हो जाता है, मंत्री या प्रधानमंत्री इतना बोलकर चुप हो जाते हैं कि उनको परास्त कर दिया जायेगा।

अगर कोई याद न दिलाये तो जनता की किसी भी कठिनाई की, पीड़ा की, कष्ट की सरकार को याद नहीं रहती है। इसी तरह हाल में कुछ भूतपूर्व अफसरों ने याद दिला दी भोपाल गैस कांड की। हजारों लाशों को देखने के बाद भी उस समय की सरकारों ने पीड़ितों के प्रति जो उपेक्षापूर्ण रवैया अपनाया और अपराधियों के साथ जैसा भाई-चारा निभाया, उसकी अंतर्कथाएं अब 26 साल बाद खुली हैं तो लोग दांतों तले ऊंगली दबाने को मजबूर हैं। सभी जानना चाहते हैं कि यह गैर-जिम्मेदाराना करतब किसने अंजाम दिया, किसने गलती की। पर परस्परविरोधी बयानों के बोझ तले असली सवाल गुम हो गया, उसका कोई उत्तर नहीं मिला। जल्दी-जल्दी में इस जघन्य कांड पर पर्दा डालने की तरकीबें खोजी जाने लगी, जनता का ध्यान बंटाने के रास्ते ढूंढे जाने लगे। मंत्रियों का समूह बना दिया गया, सोच-विचार शुरू हुआ और अब उसने गैस-पीड़ितों के कल्याण के लिए कई सिफारिशें की हैं। उन्हें दुगना मुआवजा दिया जायेगा, एंडरसन को वापस मंगाकर उस पर मुकदमा चलाया जायेगा, कार्बाइड का कचरा हटाया जायेगा। और भी बहुत कुछ।

पर किसी को क्या इस बात की फि कर है कि इन 26 सालों में जहरीली गैस ने कितने लोगों पर कितना कहर ढाया। कितने लोग मदद और राहत के अभाव में चल बसे, कितने बच्चों की जिंदगियां तबाह हो गयीं, कितने घर उजड़ गये। समय से कार्रवाई न करने का खामियाजा जिन लाखों लोगों को उठाना पड़ा, उनकी जिंदगी का कीमती समय कौन लौटा पायेगा। अपराध केवल एंडरसन को मुक्त कर देना भर ही नहीं था, बल्कि पीड़ितों को उनके भाग्य पर छोड़ देना उससे भी बड़ा अपराध साबित हुआ। और अगर गड़े मुर्दे अचानक यूं न उखड़ते, तब तो यह सब करने की कोई जरूरत ही नहीं होती। ऐसी गहरी नींद में सोयी सरकारों से किसी जिम्मेदारी की उम्मीद आखिर कैसे की जा सकती है?

2 टिप्‍पणियां:

  1. एकदम सच कहा आपने .........इन की नींद तो कुम्भकरण से भी गहरी है ! कौन जाने कब जागेगे यह लोग?

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  2. सर, एक बात मैं कहना चाहता हूं कि गलती कहीं न कहीं हमारी भी है। हम किसी भी बात को इतनी जल्दी भूल जाते हैं। इसी का फायदा सरकारें उठाती हैं। हम सब भूल जाते हैं। हम भूल जाते हैं बाबरी ध्वंस, हम भूल जाते हैं गोधरा, हम भूल जाते हैं सांसद पर हमला, हम भूल जाते हैं 92 के विस्फोट, हम भूल जाते हैं मुंबई हमला, हम सब भूल जाते हैं। इसका एक कारण शायद हमारी व्यस्तता भी है। हम अपने ही झंझाबातों में इतने उलझे रहते हैं कि सोचते हैं कि हमें क्या भोपाल से, मेरे अकेले के आंदोलन करने से क्या महंगाई कम हो जाएगी, एंडरसन से मुझे क्या लेना देना, मुआवजा कितना भी मिले मेरी सेहत पर क्या फर्क प ड़ता है। और जब खुद पर बन आती है तब चाहते हैं कि सब हमारे साथ खड़े रहे। ऐसा कैसे हो सकता है। दिक्कत कहीं न कहीं मानसिकता की भी है। इसे बदलना होगा। अब सवाल यह कि इसे कैसे बदला जाए। तो फिर वही बात आती है कि हम खुद बदलें दुनिया खुद बदल जाएगी। यह सोचेंगे कि सब बदलें तब हम बदलेंगे तो शायद कभी ऐसा नहीं हो पाएगा।
    आप देखिएगा न तो एंडनसन भारत आने वाला और न ही कुछ और ही होने वाले कुछ दिन और ये सब समाचार चैनलों पर चलेगा, अखबार में खबरें छपेंगी। संपादकीय लिखे जाएंगे, कुछ लेख प्रकाशित हो जाएंगे। बस सब खत्म। अखबार वालों की जिम्मेदारी खत्म और चैनल वालों की भी। दुनिया राम भरोसे। ये सब चलता रहेगा।

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