सोमवार, 7 जून 2010

जा रहा हूँ गाँव

मित्रों  मैं गाँव जा रहा हूँ  . ११ जून तक लौटूंगा. जाने से पहले गाँव की याद आ रही थी. लीजिये अब कुछ दिन इसे बार-बार पढ़िए.

जा रहा हूँ गाँव
कुछ नयी कहानियों
की तलाश में 
कुछ पुरानी फिर से
जगाने यादों  के तहखाने से

शहर में आकर भी
छूटा नहीं है गाँव
पर जो गाँव लेकर
निकला था मेरा किशोर मन
वह खो गया है कहीं
समय के कुहासे में

गाँव के पोखरे ग़ुम
हो गए हैं शहर होते
संस्कारों के जंगल में
ताल की सतह पर
उग आये  हैं फॉर्म
बरसात का पानी  अब
ठहरता नहीं कहीं
बहते-बहते उड़ जाता  है
वाष्प बनकर

गाँव में अब बुवाई,
निराई और कटाई के गीत
नहीं सुनायी पड़ते
ट्रैक्टर  गड़गडाते  हैं
बच्चों के पैदा होने पर
सोहर नहीं गातीं महिलाएं
शादी के गीत याद नहीं
शहर में पढने जाती
किशोरियों  को

गाँव में  अब नौटंकी
नहीं होती, नहीं होता
रहीम चाचा का आल्हा
काका बूढ़े हो गए हैं
बैल बिक गए हैं
गाएं इतनी नहीं रहीं
कि चुन्नू उन्हें चराने निकले
वही उसका रोजगार था
वह सबकी गाएं सुबह-सुबह
खूंटे से खोल लेता था
दिन भर उनके साथ घूमता था  
और शाम को छोड़ जाता था
सबके दरवाजे, सबकी गाएं
वह दारु पीता रहता है
सुबह से शाम तक, रात तक

बच्चे खेलने नहीं निकलते
दो साल बाद ही पढने लगते हैं
इंजीनियरी, डाक्टरी
जो पढ़ते नहीं वे
रोब गांठना सीखते हैं
उन्हें ठेकेदार या नेता
बनना होता है
देश का भविष्य
संवारना होता है

जानता हूँ कि मेरा गाँव
मेरा गाँव नहीं रहा
पर मेरी यादें दफन हैं
वहां कण-कण में
जा रहा हूँ तो थोड़ी  सी
लेकर आऊंगा वो मिटटी
जिससे मैं बना हूँ
जिससे मैं जिन्दा हूँ

 

2 टिप्‍पणियां:

  1. सुभाष भाई आपकी कविता पढ़कर ऐसा लग रहा है कि आप गांव जा नहीं रहे,बल्कि गांव से अभी अभी लौटे हैं। चलिए हमारी शुभकामनाएं हैं।

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  2. जो पहले पढ़नी थी वो अब पढ़ रहा हूं। जो पढ़ चुका हूं वो मन पर गढ़ रहा हूं।

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