मेरी छोटी लड़की ने उस दिन पूछ दिया कि आदमी के नाख़ून क्यों बढ़ते हैं तो मैं कुछ सोच ही नहीं सका. जब आदमी जंगली था, वनमानुष जैसा, उसे नाख़ून की जरूरत थी. जंगल में वही उसके अस्त्र थे. दांत भी थे पर नाख़ून के बाद ही उसका स्थान था. उन दिनों उसे जूझना पड़ता था, प्रतिद्वंद्वियों को पछाड़ना पड़ता था. नाख़ून उसके लिए आवश्यक अंग था. फिर धीरे-धीरे वह अपने अंग से बाहर की वस्तुओं का सहारा लेने लगा. पत्थर के ढेले और पेड़ की डालें काम में लाने लगा. राम की बानरी सेना के पास ऐसे ही अस्त्र थे. उसने हड्डियों के भी हथियार बनाये. मनुष्य और आगे बढ़ा. उसने धातु के हथियार बनाये. जिनके पास लोहे के अस्त्र और शस्त्र थे, वे विजयी हुए.
असुरों के पास अनेक विद्याएँ थी पर लोहे के अस्त्र नहीं थे. शायद घोड़े भी नहीं थे. आर्यों के पास ये दोनों चीजें थीं. आर्य विजयी हुए.फिर इतिहास अपनी गति से आगे बढ़ता गया. पलीते वाली बंदूकों ने, कारतूसों ने, तोपों ने, बमों ने, बमवर्षक वायुयानों ने इतिहास को किस कीचड भरे घाट तक घसीटा है, यह सबको मालूम है. नखधर मनुष्य अब एटम बम पर भरोसा कर आगे की ओर चल पड़ा है. पर उसके नाख़ून अब भी बढ़ रहे हैं. अब भी प्रकृति मनुष्य को उसके भीतर वाले अस्त्र से वंचित नहीं कर रही है. अब भी वह याद दिला देती है कि तुम्हारे नाख़ून को भुलाया नहीं जा सकता. तुम वही लाख वर्ष पहले के नखदंतावलम्बी जीव हो- पशु के साथ एक ही सतह पर विचरने वाले और चरने वाले.
वात्स्यायन के कामसूत्र से पता चलता है कि आज से दो हजार वर्ष पहले का भारतवासी नाखूनों को जमकर संवारता था. उनके काटने की कला काफी मनोरंजक बताई गयी है. त्रिकोण, वर्तुलाकार, चंद्राकार, दंतुल आदि विविध आकृतियों के नाख़ून उन दिनों विलासी नागरिकों के न जाने किस काम आया करते थे. गौड़ देश के लोग उन दिनों बड़े-बड़े नखों को पसंद करते थे और दक्षिणात्य लोग छोटे नखों को. समस्त अधोगामिनी वृत्तियों को और नीचे खींचने वाली वस्तुओं को भारतवर्ष ने मनुष्योचित बनाया है, यह बात चाहूँ भी तो नहीं भूल सकता.
(महान आलोचक नामवर सिंहजी द्वारा सम्पादित हजारी प्रसाद द्विवेदी संकलित निबंध से उद्धृत )
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