दांतेवाड़ा भय की गिरफ्त में है। दांतेवाड़ा ही नहीं पूरा देश हतप्रभ है, चिंतित है, दहशत में है। भारत जैसे इतने विशाल देश की इतनी ताकतवर सत्ता शक्ति से लोगों का भरोसा उठने लगा है। सभी असुरक्षित महसूस कर रहे हैं, सबका विश्वास डगमगाने लगा है। हाल के दिनों में दूसरी बार छत्तीसगढ़ के जंगलों में निरपराध, निर्दोष लोगों के खून बहाये गये हैं, जनता को सुरक्षा का भरोसा दिलाने निकले विशेष दर्जनों पुलिस अधिकारी बारूदी धमाके की भेंट चढ़ गये हैं। नक्सलियों ने एक बस उड़ा दी, जिसमें 40 लोग मारे गये। ज्यादातर स्थानीय आम नागरिक थे, जिन्हें नक्सलियों के खिलाफ अभियान में मदद के लिए विशेष अधिकारी के रूप में काम पर लगाया गया था। एक बार फिर कई मांओं को अपने बेटे खोने पड़े हैं, कई पिताओं को अपने आँख के तारे गंवाने पड़े हैं, कई बच्चे अनाथ हो गये हैं और कई सुहागिनें अचानक एक दुखद पल में विधवा हो गयी हैं।
अब सरकार इसकी जांच करायेगी, फिर से उन भूलों और गलतियों की पहचान की जायेगी, जो इस दर्दनाक वाकये का कारण बनीं, फिर कुछ परिवारों की करुण और मर्मांतक व्यथा को कुछ नोटों से तोलने का उफक्रम किया जायेगा। सत्ता, सरकार और उसके सारे पुर्जे कुछ दिन जागते रहेंगे, शोकाकुल विलाप की मुद्रा का प्रदर्शन करते रहेंगे, नये-नये संकल्प लिये जायेंगे और जैसे ही देश इस घटना को भूलने लगेगा, सारा तंत्र फिर अगले हमले तक के लिए सो जायेगा। यह नाटक शुरू हो गया है। पूरा देश देख रहा है लेकिन एक अत्यंत दुखद सत्य है कि देश और जनता की अपनी सत्ता लोकतांत्रिक व्यवस्था में अमूर्त होती है। वह एक बार अपनी पूरी ताकत कुछ सियासी लोगों के हाथों में सौंपकर स्वयं असहाय, अशक्त, दीन-हीन और दरिद्र हो जाती है। वह केवल बातें करने वाले मंत्रियों को उनकी कुर्सी से नीचे नहीं उतार सकती, वह कायर हत्यारों के गिरोह के सामने लाचार हुकूमत को चेतावनी तक नहीं दे सकती। हिंदुस्तान मे जनता केवल चुनाव के दौरान दिखती है। उसकी ताकत के सामने सभी झुकते हैं, सभी उसके हाथ-पांव जोड़ते हैं लेकिन चुनाव के नतीजे सामने आते ही जनता की ताकत कुछ खास हाथों में गिरवी हो जाती है।
नक्सलियों के खिलाफ हमारी सरकार जब-जब लड़ाई का अपना इरादा जाहिर करती है, अपराधियों के ये गिरोह अपनी ताकत के प्रदर्शन में तनिक देर नहीं लगाते। उन्हें सरकारी गतिविधियों की पूरी जानकारी रहती है। कब कितने जवान कहां से कहां के लिए रवाना हो रहे हैं, किस रास्ते से होकर निकलेंगे, उन्हें सब पता रहता है, लेकिन सरकारों को, उनके खुफिया तंत्र को कुछ भी पता नहीं रहता। आश्चर्य का विषय है कि जिस इलाके में कुछ ही दिन पहले अर्धसैन्य बल के 75 जवानों को भून दिया गया था, वहां भी हमारा सूचना तंत्र पूरी तरह सोया पड़ा है। अगर वे जागते होते तो शायद नरसंहार दुहराया नहीं जा सकता था।
सुरक्षा बलों की उच्चस्तरीय बैठकों में कई बार उन्हें हाईटेक करने, अत्याधुनिक हथियारों से लैस करने और खुफिया तंत्र को ताकतवर बनाने की योजनाओं पर विचार-विमर्श होता रहा है परंतु जब भी अग्निपरीक्षा की घड़ी आयी है, तब सारे इरादों, संकल्पों और योजनाओं की धज्जियां उड़ती नजर आयी हैं। आखिर क्यों? क्यों नहीं हम इन पागल हत्यारों के खिलाफ ताकत का इस्तेमाल करना चाहते हैं? अगर वे अंधी हत्याओं के जरिये देश को डराये रखने की कोशिश कर रहे हैं तो उन्हें आखिर कब यह बताया जायेगा कि सत्ता की ताकत उन पर बहुत भारी पड़ सकती है, क्यों नहीं सरकार को अब ऐसे संकल्प को जमीन पर उतारना चाहिए कि उन्हें भागकर छिपने की भी जगह न मिले। जनता को इस पर कोई एतराज नहीं होगा। राजनीतिक दलों को भी इस पर कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। और अगर कोई तीसरा एतराज करता भी है तो उसके क्या मायने।
"सरकार अभी व्यस्त है अपना वोट बैंक सँभालने में ...............बाद में देखते है अगर कुछ करना है तो वैसे सेना या पुलिस के जवान होते ही है शहीद होने के लिए है ! एसा नहीं है कि हमें उन पर नाज़ नहीं है | हम अश्वासन देते है कि बहुत जल्द इस का कोई ना कोई हल हम निकाल ही लेगे !! "
जवाब देंहटाएंइस से ज्यादा आप क्या उम्मीद करते है हमारे राजनेताओ से ??