क्या मुसलमान लड़कियों को, युवतियों को, महिलाओं को आगे बढ़ने का हक नहीं है? समाज के अन्य तबकों के साथ अपने घर-परिवार के साथ देश के विकास में योगदान करने का अधिकार नहीं है? बिल्कुल है। इस समुदाय से निकली महिलाएं भी जीवन के हर क्षेत्र में आगे बढ़ी हैं, अपना मुकाम हासिल किया है। पर यह बात भी सही है कि सिर्फ उन्हीं परिवारों से लड़कियां आगे निकल पायीं या अब भी निकल पा रही हैं, जिनके सोच में आधुनिकता है, जिनके अंदर लड़कियों को लेकर कोई सामाजिक या धार्मिक ग्रंथि नहीं है। इसी समाज से तो फातिमा बीबी आयीं थीं, नजमा हेपतुल्ला, शबाना आजमी, शहनाज, सानिया मिर्जा इसी समाज से तो निकलीं।
लेकिन मानना पड़ेगा कि अभी भी मुसलमान समाज की महिलाओं का जिस अनुपात में समाज और देश के लिए योगदान होना चाहिए, वह नहीं हो पा रहा है। इसके लिए व्यवस्था को दोष देने का ज्यादा फायदा नहीं है। जो गरीब परिवार हैं, बच्चों को पढ़ा नहीं पाते, धार्मिक मान्यताओं में जरूरत से ज्यादा उलझे हुए हैं, उनकी बात छोड़ दें तो जो संपन्न मुस्लिम परिवार हैं, वहां भी इस तरह की समस्याएं दिखायी पड़ती हैं। कोई भी धर्म आदमी के चरित्र निर्माण, उसकी नैतिकता, ईश्वर में उसकी आस्था के बारे में नकारात्मक विचार नहीं रखता लेकिन कोई जरूरी नहीं कि जो लोग खुदा में, भगवान में या ईश्वर में विश्वास करते हुए दिखते हैं, वे जीवन में पूरी ईमानदारी बरतते ही हों। आजकल धार्मिक जगहों पर जितना आडंबर और पाखंड फैला हुआ है, उतना कहीं और नहीं है। फिर समाज के लिए यह आवश्यक नहीं कि वह पंडितों, बाबाओं और मुल्लाओं की हर बात माने ही।
किसी भी समाज की सबसे बड़ी जरूरत होती है, उसकी प्रगति और इसमें अगर धार्मिक दखलंदाजी बाधक है तो उसका विरोध होना चाहिए। अभी हाल में ही एक फतवा जारी करके कहा गया है कि मुसलमान महिलाओं को ऐसी सरकारी नौकरियां नहीं करनी चाहिए, जहां उन्हें पुरुषों के साथ काम करना पड़े, उनसे बार-बार बात करनी पड़े। कुछ मुस्लिम विद्वानों ने इस फतवे को सही नहीं माना है लेकिन यह सुझाव दिया है कि अगर मुसलमान महिलाओं को ऐसी जगह काम करना ही पड़े तो उन्हें ठीक से पूरा शरीर ढंक कर जाना चाहिए। बुर्का पहनकर जाना चाहिए। कपड़ा पारदर्शी नहीं होना चाहिए, शरीर पर कसा हुआ नहीं होना चाहिए, कोई भी अंग बाहर से दिखना नहीं चाहिए।
स्वयं मुस्लिम समाज के भीतर से इस पर कड़ा प्रतिवाद उभर कर सामने आया है। यह बहुत शुभ लक्षण है। एक महिला ने तो हदीस के हवाले से ही कहा है कि व्यक्ति की मंशा साफ होनी चाहिए, यह सबसे ज्यादा महत्व की बात है। कपड़े से क्या होता है। आप खूब अच्छी तरह से शरीर ढंककर रहिए लेकिन आप की मंशा ठीक नहीं है, आप के इरादे में खोट है तो उस कपड़े का क्या लाभ। यह प्रतिक्रिया, हो सकता है गुस्से में आयी हो लेकिन इस गुस्से को भी समझने की जरूरत है। यह गुस्सा वास्तव में इस बात पर है कि इस तरह की बेवजह रोक-टोक से आधी मुस्लिम आबादी की प्रगति में बाधाएं खड़ी होती हैं, उनकी पढ़ाई-लिखाई में अवरोध खड़ा होता है, उनकी सारी प्रतिभा धरी की धरी रह जाती है। इस बारे में सोचना होगा तो मुसलमानों को ही। वे ही निर्णय ले सकेंगे। वे ही उन्हें रोक सकेंगे, जो असली समस्याओं पर तो कभी सोचते ही नहीं, छोटी-छोटी और बेसिर-पैर की बातों में दिमाग लगाते हैं और पूरे समाज को कठिनाइयों में डालते हैं।
मुसलमानों की असली समस्या सामाजिक-आर्थिक विकास की है। इसका निदान बच्चों-बच्चियों की बेहतर शिक्षा में है, उनकी मेधा के समुचित इस्तेमाल में है। अगर देश के अन्य समाजों के साथ वे भी अपने को आगे ले जाना चाहते हैं तो आधुनिक प्रगतिशील समाज के चिंतन को, जीवन शैली को उन्हें भी स्वीकार करना पड़ेगा। जो भी लोग इस राह में बाधा खड़ी कर रहे हैं, उनको मिलकर रोकना होगा। जिन्हें धर्म और प्रवचन का काम सौंपा गया है, वे केवल अपना काम करें, अपना चिंतन सबके ऊपर थोपने की कोशिश न करें तो बेहतर। हिंदुस्तान को हिंदुस्तान ही रहने दें, लीबिया, बेरूत या सऊदी अरब में बदलने की कोशिश न करें तो अच्छा।
बस्तर के जंगलों में नक्सलियों द्वारा निर्दोष पुलिस के जवानों के नरसंहार पर कवि की संवेदना व पीड़ा उभरकर सामने आई है |
जवाब देंहटाएंबस्तर की कोयल रोई क्यों ?
अपने कोयल होने पर, अपनी कूह-कूह पर
बस्तर की कोयल होने पर
सनसनाते पेड़
झुरझुराती टहनियां
सरसराते पत्ते
घने, कुंआरे जंगल,
पेड़, वृक्ष, पत्तियां
टहनियां सब जड़ हैं,
सब शांत हैं, बेहद शर्मसार है |
बारूद की गंध से, नक्सली आतंक से
पेड़ों की आपस में बातचीत बंद है,
पत्तियां की फुस-फुसाहट भी शायद,
तड़तड़ाहट से बंदूकों की
चिड़ियों की चहचहाट
कौओं की कांव कांव,
मुर्गों की बांग,
शेर की पदचाप,
बंदरों की उछलकूद
हिरणों की कुलांचे,
कोयल की कूह-कूह
मौन-मौन और सब मौन है
निर्मम, अनजान, अजनबी आहट,
और अनचाहे सन्नाटे से !
आदि बालाओ का प्रेम नृत्य,
महुए से पकती, मस्त जिंदगी
लांदा पकाती, आदिवासी औरतें,
पवित्र मासूम प्रेम का घोटुल,
जंगल का भोलापन
मुस्कान, चेहरे की हरितिमा,
कहां है सब
केवल बारूद की गंध,
पेड़ पत्ती टहनियाँ
सब बारूद के,
बारूद से, बारूद के लिए
भारी मशीनों की घड़घड़ाहट,
भारी, वजनी कदमों की चरमराहट।
फिर बस्तर की कोयल रोई क्यों ?
बस एक बेहद खामोश धमाका,
पेड़ों पर फलो की तरह
लटके मानव मांस के लोथड़े
पत्तियों की जगह पुलिस की वर्दियाँ
टहनियों पर चमकते तमगे और मेडल
सस्ती जिंदगी, अनजानों पर न्यौछावर
मानवीय संवेदनाएं, बारूदी घुएं पर
वर्दी, टोपी, राईफल सब पेड़ों पर फंसी
ड्राईंग रूम में लगे शौर्य चिन्हों की तरह
निःसंग, निःशब्द बेहद संजीदा
दर्द से लिपटी मौत,
ना दोस्त ना दुश्मन
बस देश-सेवा की लगन।
विदा प्यारे बस्तर के खामोश जंगल, अलिवदा
आज फिर बस्तर की कोयल रोई,
अपने अजीज मासूमों की शहादत पर,
बस्तर के जंगल के शर्मसार होने पर
अपने कोयल होने पर,
अपनी कूह-कूह पर
बस्तर की कोयल होने पर
आज फिर बस्तर की कोयल रोई क्यों ?
अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त साहित्यकार, कवि संजीव ठाकुर की कलम से