रविवार, 30 मई 2010

नजर एटवी के जाने का मतलब



(शाहिद नदीम द्वारा प्रस्तुत)

शऊर फिक्रो-अमल दूर-दूर छोड़ गया, वो जिंदगी के अंधेरों में नूर छोड़ गया.
नजर एटवी साहब बिना किसी को खबर किये चुपचाप रुखसत हो गए. हम सबको आंसू बहाने का भी मौका नहीं दिया. पता नहीं कितने लोग होंगे जिनको कई सप्ताह  तक खबर नहीं हुई. मीडिया भी अब साफ-सुथरे, इमानदार और नेक इंसानों की मौत की परवाह नहीं करता, इसीलिए  उनके जाने की खबर एटा के अख़बारों में भले ही छप कर रह गयी हो, पर बड़ी खबर नहीं बन सकी. यह  उलाहना इसलिए  मुनासिब लग रहा है क्योंकि वे  केवल अच्छे इन्सान ही नहीं, उर्दू-हिंदी और हिन्दुस्तानी के एक बड़े अदीब थे, चमकते शायर थे. उनके जाने से हिन्दुस्तानी जुबान और अदब का जो नुकसान हुआ है, वह कभी पूरा नहीं हो सकता. उर्दू मुशायरों पर वे लगातार ३५ सालों से छाये हुए थे. विदेशों से भी उन्हें मुशायरों में बुलाया जाता था. वे खुद भी अदबी गोष्ठियां और मुशायरे करते रहते थे और हमेशा इस बात का ख्याल रखते थे कि  उसका मयार और संजीदगी कायम रहे. उनकी अपनी शायरी के क्या कहने. उसमें समाज और मुल्क के मुस्तकबिल के चिराग रोशन थे. उन्होंने कुछ समय तक लकीर नाम से एक अख़बार भी निकाला. उर्दू जुबान की जो खिदमत उन्होंने की, उसकी कितनी भी तारीफ की जाय काम होगी.
नजर एटवी का जन्म २८ फरवरी १९५३ को एटा के हाता प्यारेलाल में हुआ था. उनका बचपन का नाम शमसुल हसन था. उनके पिता अब्दुल लतीफ़ सिविल कोर्ट में काम करते थे. प्रारंभिक शिक्षा आर्य विद्यालय एटा में हुई. एटा से ही उन्होंने बी ए किया. पहले उनकी दिलचस्पी  फिल्मों में थी. १९७२ में वे उर्दू शायरी की ओर  मुड़े और बहुत जल्दी वहां अपना बेहतर मुकाम बना लिया.
अभी  उम्र भी क्या थी. यही कोई ५६  साल. यह भी कोई जाने की उम्र है. अभी तो उनसे समाज को, शायरी को बहुत कुछ हासिल होना था. वह एक मई २०१० का मनहूस दिन था, जो उन्हें हमसे छीन ले गया. बुखार आया और चढ़ता ही गया. रक्तचाप कम होता गया और वे बचाए नहीं जा सके.  इतने वक्त तक उनके जाने की खबर एटा से आगरा तक दो सौ किलोमीटर भी नहीं पहुंची. पहुंची भी तो कुछ ऐसे लोगों के पास रही, जिन्होंने दूसरों से शेयर नहीं किया. उनकी याद में लोग बैठे नहीं, एक गोष्ठी तक कायदे से नहीं हुई. समाज और अदब के लिए जीने-मरने वालों की क्या इतनी ही कद्र यह समाज करता है? बड़े अफसोस की बात है. इतने कम समय में भी उन्होंने बहुत लिखा, बहुत काम किया, पर वह सब भी पता नहीं अब शायरी के प्रेमियों तक पहुँच पायेगा  या नहीं. एक संग्रह जरूर उनके नाम साया हुआ है. उसका उन्वान है, सीप. उनके लिए यही सबसे बड़ी श्रद्धांजलि होगी कि उनके कलाम लोगों तक पहुंचें. सीपी से नजर साहब की तीन गजलें यहाँ पेश हैं-

१.
तूने चाहा नहीं हालात बदल सकते थे
मेरे आंसू तेरी आँखों से निकल सकते थे.

तुमने अल्फाज की तासीर को परखा ही नहीं
नर्म लहजे से तो पत्थर भी पिघल सकते थे

तुम तो ठहरे ही रहे झील के पानी की तरह
दरिया बनते तो बहुत दूर निकल सकते थे

क्यूँ बताते उन्हें सच्चाई हमारे रहबर
झूठे वादों से भी जो लोग पिघल सकते थे

होठ सी लेना ही बेहतर था किसी का
लबकुशाई से कई नाम उछल सकते थे

क़त्ल इन्साफ का होता है जहाँ शामो-सहर
ऐसे माहौल में हम किस तरह ढल सकते थे

डर गए हैं जो हवाओं के कसीदे सुनकर
वो दिए तुमने जलाये नहीं, जल सकते थे

हादसे इतने जियादा थे वतन में अपने
खून से छप के भी अख़बार निकल सकते थे

२.
तेरे लिए जहमत है मेरे लिए नजराना
जुगनू की तरह आना, खुशबू की तरह जाना

मौसम ने परिंदों को यह बात बता दी है
उस झील पे  खतरा है, उस झील पे मत जाना

मैंने तो किताबों में कुछ फूल ही रखे थे
दुनिया ने बना डाला कुछ और ही अफसाना

जब मैंने फसादों की तारीख को दुहराया
रोती मिली आबादी हँसता मिला वीराना

खाई है कसम तुमने वापिस नहीं लौटोगे
कश्ती को जला देना जब पार उतर जाना

चेहरे के नुकूश इतने सदमों ने बदल डाले
लोगों ने मुझे मेरी आवाज से पहचाना

३.
उनकी यादों का जश्न जारी है
आज की रात हम पे भारी है

फासले कुर्बतों में बदलेंगे
होंठ उनके दुआ हमारी है

अब बहुत हंस चुके मेरे आंसू
कहकहों  अब तुम्हारी बारी है

मुझसे ये कह के सो गया सूरज
अब चरागों की जिम्मेदारी  है

सिर्फ मीजाने-वक्त है वाकिफ
आसमाँ से जमीन  भारी है

जिक्र जिसका नजर नजर है नजर
उस नजर पर नजर हमारी है.

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